किष्किन्धा काण्ड
श्रीगणेशाय नमः
श्रीरामचरितमानस चतुर्थ सोपान - किष्किन्धाकाण्ड
श्लोक
कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ
शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ,
मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौं हितौ
सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः || १ ||
ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा,
संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम ||२||
सोरठा
मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ||
जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय,
तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस ||
आगें चले बहुरि रघुराया, रिष्यमूक परवत निअराया ||
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा, आवत देखि अतुल बल सींवा ||
अति सभीत कह सुनु हनुमाना, पुरुष जुगल बल रूप निधाना ||
धरि बटु रूप देखु तैं जाई, कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई ||
पठए बालि होहिं मन मैला, भागौं तुरत तजौं यह सैला ||
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ, माथ नाइ पूछत अस भयऊ ||
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा, छत्री रूप फिरहु बन बीरा ||
कठिन भूमि कोमल पद गामी, कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी ||
मृदुल मनोहर सुंदर गाता, सहत दुसह बन आतप बाता ||
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ, नर नारायन की तुम्ह दोऊ ||
दोहा
जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार,
की तुम्ह अकिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ||१ ||
चौपाई
कोसलेस दसरथ के जाए, हम पितु बचन मानि बन आए ||
नाम राम लछिमन दौउ भाई, संग नारि सुकुमारि सुहाई ||१||
इहाँ हरि निसिचर बैदेही, बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही ||
आपन चरित कहा हम गाई, कहहु बिप्र निज कथा बुझाई ||२||
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना, सो सुख उमा नहिं बरना ||
पुलकित तन मुख आव न बचना, देखत रुचिर बेष कै रचना ||३||
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही, हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही ||
मोर न्याउ मैं पूछा साईं, तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं ||४||
तव माया बस फिरउँ भुलाना, ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ||५||
दोहा
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान,
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान ||२ ||
चौपाई
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें, सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ||
नाथ जीव तव मायाँ मोहा, सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ||१||
ता पर मैं रघुबीर दोहाई, जानउँ नहिं कछु भजन उपाई ||
सेवक सुत पति मातु भरोसें, रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ||२||
अस कहि परेउ चरन अकुलाई, निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ||
तब रघुपति उठाइ उर लावा, निज लोचन जल सींचि जुड़ावा ||३||
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना, तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ||
समदरसी मोहि कह सब कोऊ, सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ||४||
दोहा
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत,
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ||३||
चौपाई
देखि पवन सुत पति अनुकूला, हृदयँ हरष बीती सब सूला ||
नाथ सैल पर कपिपति रहई, सो सुग्रीव दास तव अहई ||१||
तेहि सन नाथ मयत्री कीजे, दीन जानि तेहि अभय करीजे ||
सो सीता कर खोज कराइहि, जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि ||२||
एहि बिधि सकल कथा समुझाई, लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई ||
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा, अतिसय जन्म धन्य करि लेखा ||३||
सादर मिलेउ नाइ पद माथा, भैंटेउ अनुज सहित रघुनाथा ||
कपि कर मन बिचार एहि रीती, करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती ||४||
दोहा
तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ ||
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीती दृढ़ाइ ||४||
चौपाई
कीन्ही प्रीति कछु बीच न राखा, लछमिन राम चरित सब भाषा ||
कह सुग्रीव नयन भरि बारी, मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी ||१||
मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा, बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा ||
गगन पंथ देखी मैं जाता, परबस परी बहुत बिलपाता ||२||
राम राम हा राम पुकारी, हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी ||
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा, पट उर लाइ सोच अति कीन्हा ||३||
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा, तजहु सोच मन आनहु धीरा ||
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई, जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ||४||
दोहा
सखा बचन सुनि हरषे कृपासिधु बलसींव,
कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव ||५||
चौपाई
नात बालि अरु मैं द्वौ भाई, प्रीति रही कछु बरनि न जाई ||
मय सुत मायावी तेहि नाऊँ, आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ ||१||
अर्ध राति पुर द्वार पुकारा, बाली रिपु बल सहै न पारा ||
धावा बालि देखि सो भागा, मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा ||२||
गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई, तब बालीं मोहि कहा बुझाई ||
परिखेसु मोहि एक पखवारा, नहिं आवौं तब जानेसु मारा ||३||
मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी, निसरी रुधिर धार तहँ भारी ||
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई, सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ||४||
मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं, दीन्हेउ मोहि राज बरिआई ||
बालि ताहि मारि गृह आवा, देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा ||५||
रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी, हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी ||
ताकें भय रघुबीर कृपाला, सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ||६||
इहाँ साप बस आवत नाहीं, तदपि सभीत रहउँ मन माहीँ ||
सुनि सेवक दुख दीनदयाला, फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ||७||
दोहा
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान,
ब्रम्ह रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान ||६||
चौपाई
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ||१||
निज दुख गिरि सम रज करि जाना, मित्रक दुख रज मेरु समाना ||
जिन्ह कें असि मति सहज न आई, ते सठ कत हठि करत मिताई ||२||
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा, गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा ||
देत लेत मन संक न धरई, बल अनुमान सदा हित करई ||३||
बिपति काल कर सतगुन नेहा, श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ||
आगें कह मृदु बचन बनाई, पाछें अनहित मन कुटिलाई ||४||
जा कर चित अहि गति सम भाई, अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ||
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी, कपटी मित्र सूल सम चारी ||५||
सखा सोच त्यागहु बल मोरें, सब बिधि घटब काज मैं तोरें ||
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा, बालि महाबल अति रनधीरा ||६||
दुंदुभी अस्थि ताल देखराए, बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए ||
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती, बालि बधब इन्ह भइ परतीती ||७||
बार बार नावइ पद सीसा, प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा ||
उपजा ग्यान बचन तब बोला, नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला ||८||
सुख संपति परिवार बड़ाई, सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ||
ए सब रामभगति के बाधक, कहहिं संत तब पद अवराधक ||९||
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं, माया कृत परमारथ नाहीं ||
बालि परम हित जासु प्रसादा, मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ||१०||
सपनें जेहि सन होइ लराई, जागें समुझत मन सकुचाई ||
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती, सब तजि भजनु करौं दिन राती ||११||
सुनि बिराग संजुत कपि बानी, बोले बिहँसि रामु धनुपानी ||
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई, सखा बचन मम मृषा न होई ||१२||
नट मरकट इव सबहि नचावत, रामु खगेस बेद अस गावत ||
लै सुग्रीव संग रघुनाथा, चले चाप सायक गहि हाथा ||१३||
तब रघुपति सुग्रीव पठावा, गर्जेसि जाइ निकट बल पावा ||
सुनत बालि क्रोधातुर धावा, गहि कर चरन नारि समुझावा ||१४||
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा, ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा ||
कोसलेस सुत लछिमन रामा, कालहु जीति सकहिं संग्रामा ||१५||
दोहा
कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ,
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ ||७||
चौपाई
अस कहि चला महा अभिमानी, तृन समान सुग्रीवहि जानी ||
भिरे उभौ बाली अति तर्जा, मुठिका मारि महाधुनि गर्जा ||१||
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा, मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा ||
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला, बंधु न होइ मोर यह काला ||२||
एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ, तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ ||
कर परसा सुग्रीव सरीरा, तनु भा कुलिस गई सब पीरा ||३||
मेली कंठ सुमन कै माला, पठवा पुनि बल देइ बिसाला ||
पुनि नाना बिधि भई लराई, बिटप ओट देखहिं रघुराई ||४||
दोहा
बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि,
मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि ||८||
चौपाई
परा बिकल महि सर के लागें, पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगें ||
स्याम गात सिर जटा बनाएँ, अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ ||१||
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा, सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा ||
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा, बोला चितइ राम की ओरा ||२||
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई, मारेहु मोहि ब्याध की नाई ||
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा, अवगुन कबन नाथ मोहि मारा ||३||
अनुज बधू भगिनी सुत नारी, सुनु सठ कन्या सम ए चारी ||
इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकइ जोई, ताहि बधें कछु पाप न होई ||४||
मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना, नारि सिखावन करसि न काना ||
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी, मारा चहसि अधम अभिमानी ||५||
दोहा
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि,
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि ||९ ||
चौपाई
सुनत राम अति कोमल बानी, बालि सीस परसेउ निज पानी ||
अचल करौं तनु राखहु प्राना, बालि कहा सुनु कृपानिधाना ||१||
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं, अंत राम कहि आवत नाहीं ||
जासु नाम बल संकर कासी, देत सबहि सम गति अविनासी ||२||
मम लोचन गोचर सोइ आवा, बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ||३||
छं -सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं,
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं ||
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही,
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही ||१ ||
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ,
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ ||
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ,
गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ ||२ ||
दोहा
राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग,
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग ||१० ||
चौपाई
राम बालि निज धाम पठावा, नगर लोग सब ब्याकुल धावा ||
नाना बिधि बिलाप कर तारा, छूटे केस न देह सँभारा ||१||
तारा बिकल देखि रघुराया, दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ||
छिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित अति अधम सरीरा ||२||
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा, जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ||
उपजा ग्यान चरन तब लागी, लीन्हेसि परम भगति बर मागी ||३||
उमा दारु जोषित की नाई, सबहि नचावत रामु गोसाई ||
तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा, मृतक कर्म बिधिबत सब कीन्हा ||४||
राम कहा अनुजहि समुझाई, राज देहु सुग्रीवहि जाई ||
रघुपति चरन नाइ करि माथा, चले सकल प्रेरित रघुनाथा ||५||
दोहा
लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज,
राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज ||११ ||
चौपाई
उमा राम सम हित जग माहीं, गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ||
सुर नर मुनि सब कै यह रीती, स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ||१||
बालि त्रास ब्याकुल दिन राती, तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती ||
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ, अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ ||२||
जानतहुँ अस प्रभु परिहरहीं, काहे न बिपति जाल नर परहीं ||
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई, बहु प्रकार नृपनीति सिखाई ||३||
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा, पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ||
गत ग्रीषम बरषा रितु आई, रहिहउँ निकट सैल पर छाई ||४||
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू, संतत हृदय धरेहु मम काजू ||
जब सुग्रीव भवन फिरि आए, रामु प्रबरषन गिरि पर छाए ||५||
दोहा
प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ,
राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ ||१२ ||
चौपाई
सुंदर बन कुसुमित अति सोभा, गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ||
कंद मूल फल पत्र सुहाए, भए बहुत जब ते प्रभु आए ||१||
देखि मनोहर सैल अनूपा, रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ||
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा, करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ||२||
मंगलरुप भयउ बन तब ते, कीन्ह निवास रमापति जब ते ||
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई, सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ||३||
कहत अनुज सन कथा अनेका, भगति बिरति नृपनीति बिबेका ||
बरषा काल मेघ नभ छाए, गरजत लागत परम सुहाए ||४||
दोहा
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पैखि,
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नु भगत कहुँ देखि ||१३ ||
चौपाई
घन घमंड नभ गरजत घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा ||
दामिनि दमक रह न घन माहीं, खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ||१||
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ, जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ||
बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें, खल के बचन संत सह जैसें ||२||
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई, जस थोरेहुँ धन खल इतराई ||
भूमि परत भा ढाबर पानी, जनु जीवहि माया लपटानी ||३||
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा, जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ||
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई, होई अचल जिमि जिव हरि पाई ||४||
दोहा
हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ,
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ||१४ ||
चौपाई
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई, बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ||
नव पल्लव भए बिटप अनेका, साधक मन जस मिलें बिबेका ||१||
अर्क जबास पात बिनु भयऊ, जस सुराज खल उद्यम गयऊ ||
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी, करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ||२||
ससि संपन्न सोह महि कैसी, उपकारी कै संपति जैसी ||
निसि तम घन खद्योत बिराजा, जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ||३||
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं, जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ||
कृषी निरावहिं चतुर किसाना, जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ||४||
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं, कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ||
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा, जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ||५||
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा, प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ||
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना, जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ||६||
दोहा
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं,
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ||१५(क) ||
कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग,
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ||१५(ख) ||
चौपाई
बरषा बिगत सरद रितु आई, लछिमन देखहु परम सुहाई ||
फूलें कास सकल महि छाई, जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई ||१||
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा, जिमि लोभहि सोषइ संतोषा ||
सरिता सर निर्मल जल सोहा, संत हृदय जस गत मद मोहा ||२||
रस रस सूख सरित सर पानी, ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ||
जानि सरद रितु खंजन आए, पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ||३||
पंक न रेनु सोह असि धरनी, नीति निपुन नृप कै जसि करनी ||
जल संकोच बिकल भइँ मीना, अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ||४||
बिनु धन निर्मल सोह अकासा, हरिजन इव परिहरि सब आसा ||
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी, कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ||५||