दोहा

रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर ।

करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर ॥ ३२१ ॥

 

चौपाई

समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए । सादर सतानंदु सुनि आए ॥

बेगि कुअँरि अब आनहु जाई । चले मुदित मुनि आयसु पाई ॥१॥

रानी सुनि उपरोहित बानी । प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी ॥

बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं । करि कुल रीति सुमंगल गाईं ॥ २॥

नारि बेष जे सुर बर बामा । सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा ॥

तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं । बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं ॥३॥

बार बार सनमानहिं रानी । उमा रमा सारद सम जानी ॥

सीय सँवारि समाजु बनाई । मुदित मंडपहिं चलीं लवाई ॥ ४॥

 

छंद

चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं ।

नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं ॥

कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं ।

मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं ॥

 

दोहा

सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय ।

छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय ॥ ३२२ ॥

 

चौपाई

सिय सुंदरता बरनि न जाई । लघु मति बहुत मनोहरताई ॥

आवत दीखि बरातिन्ह सीता ॥ रूप रासि सब भाँति पुनीता ॥ १॥

सबहि मनहिं मन किए प्रनामा । देखि राम भए पूरनकामा ॥

हरषे दसरथ सुतन्ह समेता । कहि न जाइ उर आनँदु जेता ॥ २॥

सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला । मुनि असीस धुनि मंगल मूला ॥

गान निसान कोलाहलु भारी । प्रेम प्रमोद मगन नर नारी ॥ ३॥

एहि बिधि सीय मंडपहिं आई । प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई ॥

तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू । दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू ॥४॥

 

छंद

आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं ।

सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं ॥

मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं ।

भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं ॥ १ ॥

कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो ।

एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो ॥

सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै ॥

मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै ॥ २ ॥

 

दोहा

होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं ।

बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं ॥ ३२३ ॥

 

चौपाई

जनक पाटमहिषी जग जानी । सीय मातु किमि जाइ बखानी ॥

सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई । सब समेटि बिधि रची बनाई ॥ १॥

समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई । सुनत सुआसिनि सादर ल्याई ॥

जनक बाम दिसि सोह सुनयना । हिमगिरि संग बनि जनु मयना ॥२॥

कनक कलस मनि कोपर रूरे । सुचि सुंगध मंगल जल पूरे ॥

निज कर मुदित रायँ अरु रानी । धरे राम के आगें आनी ॥ ३॥

पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी । गगन सुमन झरि अवसरु जानी ॥

बरु बिलोकि दंपति अनुरागे । पाय पुनीत पखारन लागे ॥ ४॥

 

छंद

लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली ।

नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली ॥

जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं ।

जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं ॥ १ ॥

जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई ।

मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई ॥

करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं ।

ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै ॥ २ ॥

बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं ।

भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैं ॥

सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो ।

करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो ॥ ३ ॥

हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई ।

तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई ॥

क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी ।

करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी ॥ ४ ॥

 

दोहा

जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान ।

सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान ॥ ३२४ ॥

 

चौपाई

कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं ॥ नयन लाभु सब सादर लेहीं ॥

जाइ न बरनि मनोहर जोरी । जो उपमा कछु कहौं सो थोरी ॥ १॥

राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं । जगमगात मनि खंभन माहीं ।

मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा । देखत राम बिआहु अनूपा ॥ २॥

दरस लालसा सकुच न थोरी । प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी ॥

भए मगन सब देखनिहारे । जनक समान अपान बिसारे ॥ ३॥

प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी । नेगसहित सब रीति निबेरीं ॥

राम सीय सिर सेंदुर देहीं । सोभा कहि न जाति बिधि केहीं ॥ ४॥

अरुन पराग जलजु भरि नीकें । ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें ॥

बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन । बरु दुलहिनि बैठे एक आसन ॥ ५॥

 

छंद

बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए ।

तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए ॥

भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा ।

केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा ॥ १ ॥

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै ।

माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के ॥

कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई ।

सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई ॥ २ ॥

जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै ।

सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै ॥

जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी ।

सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी ॥ ३ ॥

अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं ।

सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं ॥

सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं ।

जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं ॥ ४ ॥

 

दोहा

मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि ।

जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि ॥ ३२५ ॥

 

चौपाई

जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी । सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी ॥

कहि न जाइ कछु दाइज भूरी । रहा कनक मनि मंडपु पूरी ॥ १॥

कंबल बसन बिचित्र पटोरे । भाँति भाँति बहु मोल न थोरे ॥

गज रथ तुरग दास अरु दासी । धेनु अलंकृत कामदुहा सी ॥ २॥

बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा । कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा ॥

लोकपाल अवलोकि सिहाने । लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने ॥ ३॥

दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा । उबरा सो जनवासेहिं आवा ॥

तब कर जोरि जनकु मृदु बानी । बोले सब बरात सनमानी ॥ ४॥

 

छंद

सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै ।

प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै ॥

सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ ।

सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ ॥ १ ॥

कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों ।

बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों ॥

संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए ।

एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए ॥ २ ॥

ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई ।

अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई ॥

पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए ।

कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए ॥ ३ ॥

बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले ।

दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले ॥

तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै ।

दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै ॥ ४ ॥

 

दोहा

पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न ।

हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन ॥ ३२६ ॥

 

।। मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम ।।

 

चौपाई

स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन । सोभा कोटि मनोज लजावन ॥

जावक जुत पद कमल सुहाए । मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए ॥ १॥

पीत पुनीत मनोहर धोती । हरति बाल रबि दामिनि जोती ॥

कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर । बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ॥ २॥

पीत जनेउ महाछबि देई । कर मुद्रिका चोरि चितु लेई ॥

सोहत ब्याह साज सब साजे । उर आयत उरभूषन राजे ॥ ३॥

पिअर उपरना काखासोती । दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती ॥

नयन कमल कल कुंडल काना । बदनु सकल सौंदर्ज निधाना ॥४॥

सुंदर भृकुटि मनोहर नासा । भाल तिलकु रुचिरता निवासा ॥

सोहत मौरु मनोहर माथे । मंगलमय मुकुता मनि गाथे ॥ ५॥

 

छंद

गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं ।

पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं ॥

मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं ।

सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं ॥ १ ॥

कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै ।

अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै ॥

लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं ।

रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं ॥ २ ॥

निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की ।

चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी ॥

कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं ।

बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं ॥ ३ ॥

तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा ।

चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा ॥

जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी ।

चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी ॥ ४ ॥

 

दोहा

सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास ।

सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास ॥ ३२७ ॥

 

चौपाई

पुनि जेवनार भई बहु भाँती । पठए जनक बोलाइ बराती ॥

परत पाँवड़े बसन अनूपा । सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा ॥ ॥

सादर सबके पाय पखारे । जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे ॥

धोए जनक अवधपति चरना । सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना ॥ २॥

बहुरि राम पद पंकज धोए । जे हर हृदय कमल महुँ गोए ॥

तीनिउ भाई राम सम जानी । धोए चरन जनक निज पानी ॥ ३॥

आसन उचित सबहि नृप दीन्हे । बोलि सूपकारी सब लीन्हे ॥

सादर लगे परन पनवारे । कनक कील मनि पान सँवारे ॥ ४॥

 

दोहा

सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत ।

छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत ॥ ३२८ ॥

 

चौपाई

पंच कवल करि जेवन लागे । गारि गान सुनि अति अनुरागे ॥

भाँति अनेक परे पकवाने । सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने ॥ १॥

परुसन लगे सुआर सुजाना । बिंजन बिबिध नाम को जाना ॥

चारि भाँति भोजन बिधि गाई । एक एक बिधि बरनि न जाई ॥२॥

छरस रुचिर बिंजन बहु जाती । एक एक रस अगनित भाँती ॥

जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी । लै लै नाम पुरुष अरु नारी ॥ ३॥

समय सुहावनि गारि बिराजा । हँसत राउ सुनि सहित समाजा ॥

एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा । आदर सहित आचमनु दीन्हा ॥४॥

 

दोहा

देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज ।

जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज ॥ ३२९ ॥

 

चौपाई

नित नूतन मंगल पुर माहीं । निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं ॥

बड़े भोर भूपतिमनि जागे । जाचक गुन गन गावन लागे ॥ १॥

देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता । किमि कहि जात मोदु मन जेता ॥

प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं । महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं ॥ २॥

करि प्रनाम पूजा कर जोरी । बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी ॥

तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा । भयउँ आजु मैं पूरनकाजा ॥ ३॥

अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं । देहु धेनु सब भाँति बनाई ॥

सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई । पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई ॥ ४॥

 

दोहा

बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि ।

आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि ॥ ३३० ॥

 

चौपाई

दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे । पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे ॥

चारि लच्छ बर धेनु मगाई । कामसुरभि सम सील सुहाई ॥ १॥

सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं । मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं ॥

करत बिनय बहु बिधि नरनाहू । लहेउँ आजु जग जीवन लाहू ॥२॥

पाइ असीस महीसु अनंदा । लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा ॥

कनक बसन मनि हय गय स्यंदन । दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन ॥२॥

चले पढ़त गावत गुन गाथा । जय जय जय दिनकर कुल नाथा ॥

एहि बिधि राम बिआह उछाहू । सकइ न बरनि सहस मुख जाहू ॥ ३॥

 

दोहा

बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ ।

यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ ॥ ३३१ ॥

 

चौपाई

जनक सनेहु सीलु करतूती । नृपु सब भाँति सराह बिभूती ॥

दिन उठि बिदा अवधपति मागा । राखहिं जनकु सहित अनुरागा ॥ १॥

नित नूतन आदरु अधिकाई । दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई ॥

नित नव नगर अनंद उछाहू । दसरथ गवनु सोहाइ न काहू ॥ २॥

बहुत दिवस बीते एहि भाँती । जनु सनेह रजु बँधे बराती ॥

कौसिक सतानंद तब जाई । कहा बिदेह नृपहि समुझाई ॥ ३॥

अब दसरथ कहँ आयसु देहू । जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू ॥

भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए । कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए ॥४॥

 

दोहा

अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ ।

भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ ॥ ३३२ ॥

 

चौपाई

पुरबासी सुनि चलिहि बराता । बूझत बिकल परस्पर बाता ॥

सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने । मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने ॥ १॥

जहँ जहँ आवत बसे बराती । तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती ॥

बिबिध भाँति मेवा पकवाना । भोजन साजु न जाइ बखाना ॥ २॥

भरि भरि बसहँ अपार कहारा । पठई जनक अनेक सुसारा ॥

तुरग लाख रथ सहस पचीसा । सकल सँवारे नख अरु सीसा ॥ ३॥

मत्त सहस दस सिंधुर साजे । जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे ॥

कनक बसन मनि भरि भरि जाना । महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना ४॥॥

 

दोहा

दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि ।

जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि ॥ ३३३ ॥

 

चौपाई

सबु समाजु एहि भाँति बनाई । जनक अवधपुर दीन्ह पठाई ॥

चलिहि बरात सुनत सब रानीं । बिकल मीनगन जनु लघु पानीं ॥ १॥

पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं । देइ असीस सिखावनु देहीं ॥

होएहु संतत पियहि पिआरी । चिरु अहिबात असीस हमारी ॥ २॥

सासु ससुर गुर सेवा करेहू । पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ॥

अति सनेह बस सखीं सयानी । नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी ॥३॥

सादर सकल कुअँरि समुझाई । रानिन्ह बार बार उर लाई ॥

बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं । कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं ॥ ४॥

 

दोहा

तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु ।

चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु ॥ ३३४ ॥

 

चौपाई

चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए । नगर नारि नर देखन धाए ॥

कोउ कह चलन चहत हहिं आजू । कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू ॥१॥

लेहु नयन भरि रूप निहारी । प्रिय पाहुने भूप सुत चारी ॥

को जानै केहि सुकृत सयानी । नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी ॥ २॥

मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा । सुरतरु लहै जनम कर भूखा ॥

पाव नारकी हरिपदु जैसें । इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे ॥ ३॥

निरखि राम सोभा उर धरहू । निज मन फनि मूरति मनि करहू ॥

एहि बिधि सबहि नयन फलु देता । गए कुअँर सब राज निकेता ॥४॥

 

दोहा

रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु ।

करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु ॥ ३३५ ॥

 

चौपाई

देखि राम छबि अति अनुरागीं । प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं ॥

रही न लाज प्रीति उर छाई । सहज सनेहु बरनि किमि जाई ॥ १॥

भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए । छरस असन अति हेतु जेवाँए ॥

बोले रामु सुअवसरु जानी । सील सनेह सकुचमय बानी ॥ २॥

राउ अवधपुर चहत सिधाए । बिदा होन हम इहाँ पठाए ॥

मातु मुदित मन आयसु देहू । बालक जानि करब नित नेहू ॥३॥

सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू । बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू ॥

हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही । पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही ॥४॥

 

छंद

करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै ।

बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै ॥

परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी ।

तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी ॥

 

सोरठा

तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय ।

जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ॥ ३३६ ॥

 

चौपाई

अस कहि रही चरन गहि रानी । प्रेम पंक जनु गिरा समानी ॥

सुनि सनेहसानी बर बानी । बहुबिधि राम सासु सनमानी ॥ १॥

राम बिदा मागत कर जोरी । कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी ॥

पाइ असीस बहुरि सिरु नाई । भाइन सहित चले रघुराई।।२॥

मंजु मधुर मूरति उर आनी। भई सनेह सिथिल सब रानी।।

पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीं।।३॥

पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी।।

पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई।।४॥

 

दोहा

प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।

मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु।।337।।

 

चौपाई

सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए।।

ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही।।१॥

भए बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती।।

बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए।।२॥

सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।।

लीन्हि राँय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की।।३॥

समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने।।

बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुंदर पालकीं मगाई।।४॥

 

दोहा

प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।

कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस।।338।।

 

चौपाई

बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई।।

दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे।।१॥

सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी।।

भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा।।२॥

समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे।।

दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे।।३॥

चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा।।

सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना।।४॥

 

दोहा

सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान।

चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान।।339।।

 

चौपाई

नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे।।

भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे।।१॥

बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी।।

बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥२।।

पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए।।

राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े।।३॥

तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी।।

करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥४॥

 

दोहा

कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।

मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति।।340।।

 

चौपाई

मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा।।

सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता।।१॥

जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।

राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा।।२॥

करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।।

ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी।।३॥

मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।।

महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई।।४॥

 

दोहा

नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।

सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल।।341।।

 

चौपाई

सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई।।

होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा।।१॥

मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा।।

मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें।।२॥

बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें।।

सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे।।३॥

करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने।।

बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही।।४॥

 

दोहा

मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।

भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस।।342।।

 

चौपाई

बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई।।

जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई।।१॥

सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें।।

जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥२॥

सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी।।

कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई।।३॥

चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।।

रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी।।४॥

 

दोहा

बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।

अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत।।343।।û

 

चौपाई

हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे।।

झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।१॥

पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता।।

निज निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे।।२॥

गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई।।

बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना।।३॥

सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला।।

लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी॥४।।

 

दोहा

बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।

सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि।।344।।

 

चौपाई

भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा।।

मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई।।१॥

जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए।।

देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही।।२॥

जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि।।

सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती।।३॥

भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई।।

कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं।।४॥

 

दोहा

दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी।

प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि।।345।।

 

चौपाई

मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता।।

राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं।।१॥

बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे।।

हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला।।२॥

अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा।।

छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥३॥

सगुन सुंगध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी।।

रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना।।४॥

 

दोहा

कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।

चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात।।346।।

 

चौपाई

धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ।।

सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं।।१॥

मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे।।

प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।२॥

दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।।

सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।३॥

समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा।।

सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा।।४॥

 

दोहा

होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।

बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ।।347।।

 

चौपाई

मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर।।

जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी।।१॥

बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे।।

बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं।।२॥

पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे।।

करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा।।३॥

आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी।।

सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।।४॥

 

दोहा

एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।

मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार।।348।।

 

चौपाई

करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा।।

भूषन मनि पट नाना जाती।।करही निछावरि अगनित भाँती।।१॥

बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी।।

पुनि पुनि सीय राम छबि देखी।।मुदित सफल जग जीवन लेखी॥२॥

सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही।।

बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा।।३॥

देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं।।

देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रहीं रूप अनुरागीं।।४॥

 

दोहा

निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।

बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत।।349।।

 

चौपाई

चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए।।

तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनित पखारे।।१॥

धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि।।

बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं।।२॥

बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं।।

पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं।।३॥

जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा।।

मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई।।४॥

 

दोहा

एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।।

भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु।।350(क)।।

लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।

मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं।।350(ख)।।

 

चौपाई

देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की।।

सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना।।१॥

अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं।।

भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे।।२॥

आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि।।

पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए।।३॥

जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई।।

सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना।।४॥

 

दोहा

देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।

तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ।।351।।

 

चौपाई

जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही।।

भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी।।१॥

पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए।।

आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे।।२॥

बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा।।

कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी।।३॥

भीतर भवन दीन्ह बर बासु। मन जोगवत रह नृप रनिवासू।।

पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी।।४॥

 

दोहा

बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।

पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु।।352।।

 

चौपाई

बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें।।

नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा।।१॥

उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता।।

बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई।।२॥

बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं।।

नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं।।३॥

प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने।।

देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू।।४॥

 

दोहा

चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।

कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ।।353।।

 

चौपाई

सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू।।

जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे।।१॥

लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता।।

बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं।।२॥

देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू।।

कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू।।३॥

जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई।।

बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी।।४॥

 

दोहा

सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।

भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति।।354।।

 

चौपाई

मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि।।

अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए।।१॥

रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई।।

प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई।।२॥

कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू।।

सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी।।३॥

नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी।।

बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई।।४॥

 

दोहा

लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।

अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ।।355।।

 

चौपाई

भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए।।

सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना।।१॥

उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं।।

रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा।।२॥

सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए।।

अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही।।३॥

देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता।।

मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी।।४॥

 

दोहा

घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।।

मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु।।356।।

 

चौपाई

मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी।।

मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई।।१॥

मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी।।

कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा।।२॥

बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई।।

सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे।।३॥

आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा।।

जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें।।४॥

 

दोहा

राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।

सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन।।357।।

 

चौपाई

नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना।।

घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं।।१॥

पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी।।

सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई।।२॥

प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे।।

बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए।।३॥

बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता।।

जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे।।४॥

 

दोहा

कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।

प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ।।358।।

 

।। नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम ।।

 

चौपाई

भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई।।

देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी।।१॥

पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए।।

सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे।।२॥

कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा।।

मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी।।३॥

बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची।।

सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू।।४॥

 

दोहा

मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।

उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति।।359।।

 

चौपाई

सुदिन सोधि कल कंकन छौरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे।।

नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं।।२॥

बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं।।

दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ।।३॥

मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे।।

नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी।।४॥

करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू।।

अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी।।५॥

दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती।।

रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई।।६॥

 

दोहा

राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।

जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु।।360।।

 

चौपाई

बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी।।

सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ।।१॥

बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ।।

जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा।।२॥

आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें।।

प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू।।३॥

कबिकुल जीवनु पावन जानी।।राम सीय जसु मंगल खानी।।

तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी।।४॥

 

छंद

निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो।

रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो।।

उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।

बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं।।

 

सोरठा

सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।

तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।361।।

 

।। मासपारायण, बारहवाँ विश्राम ।।

 

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने प्रथमः सोपानः समाप्तः।

(बालकाण्ड समाप्त)