दोहा

प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु ।

बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु ॥ २८१ ॥

 

चौपाई

देखि कुठार बान धनु धारी । भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी ॥

नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा । बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा ॥ १॥

जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं । पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं ॥

छमहु चूक अनजानत केरी । चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी ॥

हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा ॥ कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा ॥२॥

राम मात्र लघु नाम हमारा । परसु सहित बड़ नाम तोहारा ॥

देव एकु गुनु धनुष हमारें । नव गुन परम पुनीत तुम्हारें ॥ ३॥

सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे । छमहु बिप्र अपराध हमारे ॥ ४॥

 

दोहा

बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम ।

बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम ॥ २८२ ॥

 

चौपाई

निपटहिं द्विज करि जानहि मोही । मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही ॥

चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू । कोप मोर अति घोर कृसानु ॥ १॥

समिधि सेन चतुरंग सुहाई । महा महीप भए पसु आई ॥

मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे । समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे ॥२॥

मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें । बोलसि निदरि बिप्र के भोरें ॥

भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा । अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा ॥

राम कहा मुनि कहहु बिचारी । रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी ॥ ३॥

छुअतहिं टूट पिनाक पुराना । मैं कहि हेतु करौं अभिमाना ॥ ४॥

 

दोहा

जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ ।

तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ ॥ २८३ ॥

 

चौपाई

देव दनुज भूपति भट नाना । समबल अधिक होउ बलवाना ॥

जौं रन हमहि पचारै कोऊ । लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥ १॥

छत्रिय तनु धरि समर सकाना । कुल कलंकु तेहिं पावँर आना ॥

कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी । कालहु डरहिं न रन रघुबंसी ॥ २॥

बिप्रबंस कै असि प्रभुताई । अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ॥

सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के । उघरे पटल परसुधर मति के ॥ ३॥

राम रमापति कर धनु लेहू । खैंचहु मिटै मोर संदेहू ॥

देत चापु आपुहिं चलि गयऊ । परसुराम मन बिसमय भयऊ ॥ ४॥

 

दोहा

जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात ।

जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात ॥ २८४ ॥

 

चौपाई

जय रघुबंस बनज बन भानू । गहन दनुज कुल दहन कृसानु ॥

जय सुर बिप्र धेनु हितकारी । जय मद मोह कोह भ्रम हारी ॥ १॥

बिनय सील करुना गुन सागर । जयति बचन रचना अति नागर ॥

सेवक सुखद सुभग सब अंगा । जय सरीर छबि कोटि अनंगा ॥ २॥

करौं काह मुख एक प्रसंसा । जय महेस मन मानस हंसा ॥

अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता । छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता ॥ ३॥

कहि जय जय जय रघुकुलकेतू । भृगुपति गए बनहि तप हेतू ॥

अपभयँ कुटिल महीप डेराने । जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने ॥ ४॥

 

दोहा

देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल ।

हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल ॥ २८५ ॥

 

चौपाई

अति गहगहे बाजने बाजे । सबहिं मनोहर मंगल साजे ॥

जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं । करहिं गान कल कोकिलबयनी ॥१॥

सुखु बिदेह कर बरनि न जाई । जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई ॥

गत त्रास भइ सीय सुखारी । जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी ॥ २॥

जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा । प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा ॥

मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं । अब जो उचित सो कहिअ गोसाई ॥३॥

कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना । रहा बिबाहु चाप आधीना ॥

टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू । सुर नर नाग बिदित सब काहु ॥ ४॥

 

दोहा

तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु ।

बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु ॥ २८६ ॥

 

चौपाई

दूत अवधपुर पठवहु जाई । आनहिं नृप दसरथहि बोलाई ॥

मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला । पठए दूत बोलि तेहि काला ॥ १॥

बहुरि महाजन सकल बोलाए । आइ सबन्हि सादर सिर नाए ॥

हाट बाट मंदिर सुरबासा । नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा ॥ २॥

हरषि चले निज निज गृह आए । पुनि परिचारक बोलि पठाए ॥

रचहु बिचित्र बितान बनाई । सिर धरि बचन चले सचु पाई ॥३॥

पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना । जे बितान बिधि कुसल सुजाना ॥

बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा । बिरचे कनक कदलि के खंभा ॥४॥

 

दोहा

हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल ।

रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल ॥ २८७ ॥

 

चौपाई

बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे । सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे ॥

कनक कलित अहिबेल बनाई । लखि नहि परइ सपरन सुहाई ॥ १॥

तेहि के रचि पचि बंध बनाए । बिच बिच मुकता दाम सुहाए ॥

मानिक मरकत कुलिस पिरोजा । चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ॥ २॥

किए भृंग बहुरंग बिहंगा । गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा ॥

सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी । मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी ॥ ३॥

चौंकें भाँति अनेक पुराईं । सिंधुर मनिमय सहज सुहाई ॥ ४॥

 

दोहा

सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि ॥

हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि ॥ २८८ ॥

 

चौपाई

रचे रुचिर बर बंदनिबारे । मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे ॥

मंगल कलस अनेक बनाए । ध्वज पताक पट चमर सुहाए ॥ १॥

दीप मनोहर मनिमय नाना । जाइ न बरनि बिचित्र बिताना ॥

जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही । सो बरनै असि मति कबि केही ॥ २॥

दूलहु रामु रूप गुन सागर । सो बितानु तिहुँ लोक उजागर ॥

जनक भवन कै सौभा जैसी । गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी ॥ ३॥

जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी । तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी ॥

जो संपदा नीच गृह सोहा । सो बिलोकि सुरनायक मोहा ॥ ४॥

 

दोहा

बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु ॥

तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु ॥ २८९ ॥

 

चौपाई

पहुँचे दूत राम पुर पावन । हरषे नगर बिलोकि सुहावन ॥

भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई । दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई ॥१॥

करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही । मुदित महीप आपु उठि लीन्ही ॥

बारि बिलोचन बाचत पाँती । पुलक गात आई भरि छाती ॥ २॥

रामु लखनु उर कर बर चीठी । रहि गए कहत न खाटी मीठी ॥

पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची । हरषी सभा बात सुनि साँची ॥ ३॥

खेलत रहे तहाँ सुधि पाई । आए भरतु सहित हित भाई ॥

पूछत अति सनेहँ सकुचाई । तात कहाँ तें पाती आई ॥ ४॥

 

दोहा

कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस ।

सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस ॥ २९० ॥

 

चौपाई

सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता । अधिक सनेहु समात न गाता ॥

प्रीति पुनीत भरत कै देखी । सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी ॥ १॥

तब नृप दूत निकट बैठारे । मधुर मनोहर बचन उचारे ॥

भैया कहहु कुसल दोउ बारे । तुम्ह नीकें निज नयन निहारे ॥ २॥

स्यामल गौर धरें धनु भाथा । बय किसोर कौसिक मुनि साथा ॥

पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ । प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ ॥ ३॥

जा दिन तें मुनि गए लवाई । तब तें आजु साँचि सुधि पाई ॥

कहहु बिदेह कवन बिधि जाने । सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने ॥ ४॥

 

दोहा

सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ ।

रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ ॥ २९१ ॥

 

चौपाई

पूछन जोगु न तनय तुम्हारे । पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे ॥

जिन्ह के जस प्रताप कें आगे । ससि मलीन रबि सीतल लागे ॥ १॥

तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे । देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे ॥

सीय स्वयंबर भूप अनेका । समिटे सुभट एक तें एका ॥ २॥

संभु सरासनु काहुँ न टारा । हारे सकल बीर बरिआरा ॥

तीनि लोक महँ जे भटमानी । सभ कै सकति संभु धनु भानी ॥३॥

सकइ उठाइ सरासुर मेरू । सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू ॥

जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा । सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा ॥ ४॥

 

दोहा

तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल ।

भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल ॥ २९२ ॥

 

चौपाई

सुनि सरोष भृगुनायकु आए । बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए ॥

देखि राम बलु निज धनु दीन्हा । करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा ॥ १॥

राजन रामु अतुलबल जैसें । तेज निधान लखनु पुनि तैसें ॥

कंपहि भूप बिलोकत जाकें । जिमि गज हरि किसोर के ताकें ॥ २॥

देव देखि तव बालक दोऊ । अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥

दूत बचन रचना प्रिय लागी । प्रेम प्रताप बीर रस पागी ॥ ३॥

सभा समेत राउ अनुरागे । दूतन्ह देन निछावरि लागे ॥

कहि अनीति ते मूदहिं काना । धरमु बिचारि सबहिं सुख माना ॥४॥

 

दोहा

तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ ।

कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ ॥ २९३ ॥

 

चौपाई

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई । पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई ॥

जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं । जद्यपि ताहि कामना नाहीं ॥ १॥

तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ । धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ ॥

तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी । तसि पुनीत कौसल्या देबी ॥ २॥

सुकृती तुम्ह समान जग माहीं । भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं ॥

तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें । राजन राम सरिस सुत जाकें ॥३॥

बीर बिनीत धरम ब्रत धारी । गुन सागर बर बालक चारी ॥

तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना । सजहु बरात बजाइ निसाना ॥ ४॥

 

दोहा

चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ ।

भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ ॥ २९४ ॥

 

चौपाई

राजा सबु रनिवास बोलाई । जनक पत्रिका बाचि सुनाई ॥

सुनि संदेसु सकल हरषानीं । अपर कथा सब भूप बखानीं ॥ १॥

प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी । मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी ॥

मुदित असीस देहिं गुरु नारीं । अति आनंद मगन महतारीं ॥ २॥

लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती । हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती ॥

राम लखन कै कीरति करनी । बारहिं बार भूपबर बरनी ॥ ३॥

मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए । रानिन्ह तब महिदेव बोलाए ॥

दिए दान आनंद समेता । चले बिप्रबर आसिष देता ॥ ४॥

 

सोरठा

जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि ।

चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के ॥ २९५ ॥

 

चौपाई

कहत चले पहिरें पट नाना । हरषि हने गहगहे निसाना ॥

समाचार सब लोगन्ह पाए । लागे घर घर होने बधाए ॥ १॥

भुवन चारि दस भरा उछाहू । जनकसुता रघुबीर बिआहू ॥

सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे । मग गृह गलीं सँवारन लागे ॥२॥

जद्यपि अवध सदैव सुहावनि । राम पुरी मंगलमय पावनि ॥

तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई । मंगल रचना रची बनाई ॥ ३॥

ध्वज पताक पट चामर चारु । छावा परम बिचित्र बजारू ॥

कनक कलस तोरन मनि जाला । हरद दूब दधि अच्छत माला ॥४॥

 

दोहा

मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ ।

बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ ॥ २९६ ॥

 

चौपाई

जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि । सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि ॥

बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि । निज सरुप रति मानु बिमोचनि ॥ १॥

गावहिं मंगल मंजुल बानीं । सुनिकल रव कलकंठि लजानीं ॥

भूप भवन किमि जाइ बखाना । बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना ॥ २॥

मंगल द्रब्य मनोहर नाना । राजत बाजत बिपुल निसाना ॥

कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं । कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं ॥ ३॥

गावहिं सुंदरि मंगल गीता । लै लै नामु रामु अरु सीता ॥

बहुत उछाहु भवनु अति थोरा । मानहुँ उमगि चला चहु ओरा ॥४॥

 

दोहा

सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार ।

जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार ॥ २९७ ॥

 

चौपाई

भूप भरत पुनि लिए बोलाई । हय गय स्यंदन साजहु जाई ॥

चलहु बेगि रघुबीर बराता । सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता ॥ १॥

भरत सकल साहनी बोलाए । आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए ॥

रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे । बरन बरन बर बाजि बिराजे ॥ २॥

सुभग सकल सुठि चंचल करनी । अय इव जरत धरत पग धरनी ॥

नाना जाति न जाहिं बखाने । निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने ॥ ३॥

तिन्ह सब छयल भए असवारा । भरत सरिस बय राजकुमारा ॥

सब सुंदर सब भूषनधारी । कर सर चाप तून कटि भारी ॥ ४॥

 

दोहा

छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन ।

जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन ॥ २९८ ॥

 

चौपाई

बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े । निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े ॥

फेरहिं चतुर तुरग गति नाना । हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना ॥ १॥

रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए । ध्वज पताक मनि भूषन लाए ॥

चवँर चारु किंकिन धुनि करही । भानु जान सोभा अपहरहीं ॥ २॥

सावँकरन अगनित हय होते । ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते ॥

सुंदर सकल अलंकृत सोहे । जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे ॥ ३॥

जे जल चलहिं थलहि की नाई । टाप न बूड़ बेग अधिकाई ॥

अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई । रथी सारथिन्ह लिए बोलाई ॥ ४॥

 

दोहा

चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात ।

होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात ॥ २९९ ॥

 

चौपाई

कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं । कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं ॥

चले मत्तगज घंट बिराजी । मनहुँ सुभग सावन घन राजी ॥ १॥

बाहन अपर अनेक बिधाना । सिबिका सुभग सुखासन जाना ॥

तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा । जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा ॥२॥

मागध सूत बंदि गुनगायक । चले जान चढ़ि जो जेहि लायक ॥

बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती । चले बस्तु भरि अगनित भाँती ॥ ३॥

कोटिन्ह काँवरि चले कहारा । बिबिध बस्तु को बरनै पारा ॥

चले सकल सेवक समुदाई । निज निज साजु समाजु बनाई ॥ ४॥

 

दोहा

सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर ।

कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर ॥ ३०० ॥

 

चौपाई

गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा । रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा ॥

निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना । निज पराइ कछु सुनिअ न काना ॥ १॥

महा भीर भूपति के द्वारें । रज होइ जाइ पषान पबारें ॥

चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं । लिँएँ आरती मंगल थारी ॥ २॥

गावहिं गीत मनोहर नाना । अति आनंदु न जाइ बखाना ॥

तब सुमंत्र दुइ स्पंदन साजी । जोते रबि हय निंदक बाजी ॥३॥

दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने । नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने ॥

राज समाजु एक रथ साजा । दूसर तेज पुंज अति भ्राजा ॥ ४॥

 

दोहा

तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु ।

आपु चढ़ेउ स्पंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु ॥ ३०१ ॥

 

चौपाई

सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें । सुर गुर संग पुरंदर जैसें ॥

करि कुल रीति बेद बिधि राऊ । देखि सबहि सब भाँति बनाऊ ॥१॥

सुमिरि रामु गुर आयसु पाई । चले महीपति संख बजाई ॥

हरषे बिबुध बिलोकि बराता । बरषहिं सुमन सुमंगल दाता ॥ २॥

भयउ कोलाहल हय गय गाजे । ब्योम बरात बाजने बाजे ॥

सुर नर नारि सुमंगल गाई । सरस राग बाजहिं सहनाई ॥ ३॥

घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं । सरव करहिं पाइक फहराहीं ॥

करहिं बिदूषक कौतुक नाना । हास कुसल कल गान सुजाना ॥४॥

 

दोहा

तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान ॥

नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान ॥ ३०२ ॥

 

चौपाई

बनइ न बरनत बनी बराता । होहिं सगुन सुंदर सुभदाता ॥

चारा चाषु बाम दिसि लेई । मनहुँ सकल मंगल कहि देई ॥ १॥

दाहिन काग सुखेत सुहावा । नकुल दरसु सब काहूँ पावा ॥

सानुकूल बह त्रिबिध बयारी । सघट सवाल आव बर नारी ॥ २॥

लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा । सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा ॥

मृगमाला फिरि दाहिनि आई । मंगल गन जनु दीन्हि देखाई ॥ ३॥

छेमकरी कह छेम बिसेषी । स्यामा बाम सुतरु पर देखी ॥

सनमुख आयउ दधि अरु मीना । कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना ॥ ४॥

 

दोहा

मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार ।

जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार ॥ ३०३ ॥

 

चौपाई

मंगल सगुन सुगम सब ताकें । सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें ॥

राम सरिस बरु दुलहिनि सीता । समधी दसरथु जनकु पुनीता ॥ १॥

सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे । अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे ॥

एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना । हय गय गाजहिं हने निसाना ॥ २॥

आवत जानि भानुकुल केतू । सरितन्हि जनक बँधाए सेतू ॥

बीच बीच बर बास बनाए । सुरपुर सरिस संपदा छाए ॥ ३॥

असन सयन बर बसन सुहाए । पावहिं सब निज निज मन भाए ॥

नित नूतन सुख लखि अनुकूले । सकल बरातिन्ह मंदिर भूले ॥४॥

 

दोहा

आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान ।

सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान ॥ ३०४ ॥

 

।। मासपारायण,दसवाँ विश्राम ।।

 

चौपाई

कनक कलस भरि कोपर थारा । भाजन ललित अनेक प्रकारा ॥

भरे सुधासम सब पकवाने । नाना भाँति न जाहिं बखाने ॥ १॥

फल अनेक बर बस्तु सुहाईं । हरषि भेंट हित भूप पठाईं ॥

भूषन बसन महामनि नाना । खग मृग हय गय बहुबिधि जाना ॥२॥

मंगल सगुन सुगंध सुहाए । बहुत भाँति महिपाल पठाए ॥

दधि चिउरा उपहार अपारा । भरि भरि काँवरि चले कहारा ॥ ३॥

अगवानन्ह जब दीखि बराता ।उर आनंदु पुलक भर गाता ॥

देखि बनाव सहित अगवाना । मुदित बरातिन्ह हने निसाना ॥ ४॥

 

दोहा

हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल ।

जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल ॥ ३०५ ॥

 

चौपाई

बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं । मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं ॥

बस्तु सकल राखीं नृप आगें । बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागें ॥१॥

प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा । भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा ॥

करि पूजा मान्यता बड़ाई । जनवासे कहुँ चले लवाई ॥ २॥

बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं । देखि धनहु धन मदु परिहरहीं ॥

अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा । जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा ॥ ३॥

जानी सियँ बरात पुर आई । कछु निज महिमा प्रगटि जनाई ॥

हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई । भूप पहुनई करन पठाई ॥ ४॥

 

दोहा

सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास ।

लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास ॥ ३०६ ॥

 

चौपाई

निज निज बास बिलोकि बराती । सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती ॥

बिभव भेद कछु कोउ न जाना । सकल जनक कर करहिं बखाना ॥१॥

सिय महिमा रघुनायक जानी । हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी ॥

पितु आगमनु सुनत दोउ भाई । हृदयँ न अति आनंदु अमाई ॥ २॥

सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं । पितु दरसन लालचु मन माहीं ॥

बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी । उपजा उर संतोषु बिसेषी ॥ ३॥

हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए । पुलक अंग अंबक जल छाए ॥

चले जहाँ दसरथु जनवासे । मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे ॥ ४॥

 

दोहा

भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत ।

उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत ॥ ३०७ ॥

 

चौपाई

मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा । बार बार पद रज धरि सीसा ॥

कौसिक राउ लिये उर लाई । कहि असीस पूछी कुसलाई ॥ १॥

पुनि दंडवत करत दोउ भाई । देखि नृपति उर सुखु न समाई ॥

सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे । मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे ॥ २॥

पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए । प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए ॥

बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं । मन भावती असीसें पाईं ॥ ३॥

भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा । लिए उठाइ लाइ उर रामा ॥

हरषे लखन देखि दोउ भ्राता । मिले प्रेम परिपूरित गाता ॥४॥

 

दोहा

पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत ।

मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत ॥ ३०८ ॥

 

चौपाई

रामहि देखि बरात जुड़ानी । प्रीति कि रीति न जाति बखानी ॥

नृप समीप सोहहिं सुत चारी । जनु धन धरमादिक तनुधारी ॥१॥

सुतन्ह समेत दसरथहि देखी । मुदित नगर नर नारि बिसेषी ॥

सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना । नाकनटीं नाचहिं करि गाना ॥२॥

सतानंद अरु बिप्र सचिव गन । मागध सूत बिदुष बंदीजन ॥

सहित बरात राउ सनमाना । आयसु मागि फिरे अगवाना ॥ ३॥

प्रथम बरात लगन तें आई । तातें पुर प्रमोदु अधिकाई ॥

ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं । बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं ॥४॥

 

दोहा

रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज ।

जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज ॥ ।३०९ ॥

 

चौपाई

जनक सुकृत मूरति बैदेही । दसरथ सुकृत रामु धरें देही ॥

इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे । काहिँ न इन्ह समान फल लाधे ॥ १॥

इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं । है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं ॥

हम सब सकल सुकृत कै रासी । भए जग जनमि जनकपुर बासी ॥ २॥

जिन्ह जानकी राम छबि देखी । को सुकृती हम सरिस बिसेषी ॥

पुनि देखब रघुबीर बिआहू । लेब भली बिधि लोचन लाहू ॥ ३॥

कहहिं परसपर कोकिलबयनीं । एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं ॥

बड़ें भाग बिधि बात बनाई । नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई ॥४॥

 

दोहा

बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय ।

लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय ॥ ३१० ॥

 

चौपाई

बिबिध भाँति होइहि पहुनाई । प्रिय न काहि अस सासुर माई ॥

तब तब राम लखनहि निहारी । होइहहिं सब पुर लोग सुखारी ॥ १॥

सखि जस राम लखनकर जोटा । तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा ॥

स्याम गौर सब अंग सुहाए । ते सब कहहिं देखि जे आए ॥ २॥

कहा एक मैं आजु निहारे । जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे ॥

भरतु रामही की अनुहारी । सहसा लखि न सकहिं नर नारी ॥ ३॥

लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा । नख सिख ते सब अंग अनूपा ॥

मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं । उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं ॥४॥

 

छंद

उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं ।

बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं ॥

पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं ॥

ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं ॥

 

सोरठा

कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन ।

सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ ॥ ३११ ॥

 

चौपाई

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं । आनँद उमगि उमगि उर भरहीं ॥

जे नृप सीय स्वयंबर आए । देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए ॥ १॥

कहत राम जसु बिसद बिसाला । निज निज भवन गए महिपाला ॥

गए बीति कुछ दिन एहि भाँती । प्रमुदित पुरजन सकल बराती ॥२॥

मंगल मूल लगन दिनु आवा । हिम रितु अगहनु मासु सुहावा ॥

ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू । लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू ॥३॥

पठै दीन्हि नारद सन सोई । गनी जनक के गनकन्ह जोई ॥

सुनी सकल लोगन्ह यह बाता । कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता ॥ ४॥

 

दोहा

धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल ।

बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल ॥ ३१२ ॥

 

चौपाई

उपरोहितहि कहेउ नरनाहा । अब बिलंब कर कारनु काहा ॥

सतानंद तब सचिव बोलाए । मंगल सकल साजि सब ल्याए ॥ १॥

संख निसान पनव बहु बाजे । मंगल कलस सगुन सुभ साजे ॥

सुभग सुआसिनि गावहिं गीता । करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता ॥ २॥

लेन चले सादर एहि भाँती । गए जहाँ जनवास बराती ॥

कोसलपति कर देखि समाजू । अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू ॥ ३॥

भयउ समउ अब धारिअ पाऊ । यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥

गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा । चले संग मुनि साधु समाजा ॥ ४॥

 

दोहा

भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि ।

लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि ॥ ३१३ ॥

 

चौपाई

सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना । बरषहिं सुमन बजाइ निसाना ॥

सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा । चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा ॥ १॥

प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू । चले बिलोकन राम बिआहू ॥

देखि जनकपुरु सुर अनुरागे । निज निज लोक सबहिं लघु लागे ॥

चितवहिं चकित बिचित्र बिताना । रचना सकल अलौकिक नाना ॥२॥

नगर नारि नर रूप निधाना । सुघर सुधरम सुसील सुजाना ॥

तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं । भए नखत जनु बिधु उजिआरीं ॥३॥

बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी । निज करनी कछु कतहुँ न देखी ॥ ४॥

 

दोहा

सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु ।

हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु ॥ ३१४ ॥

 

चौपाई

जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं । सकल अमंगल मूल नसाहीं ॥

करतल होहिं पदारथ चारी । तेइ सिय रामु कहेउ कामारी ॥ १॥

एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा । पुनि आगें बर बसह चलावा ॥

देवन्ह देखे दसरथु जाता । महामोद मन पुलकित गाता ॥ २॥

साधु समाज संग महिदेवा । जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा ॥

सोहत साथ सुभग सुत चारी । जनु अपबरग सकल तनुधारी ॥३॥

मरकत कनक बरन बर जोरी । देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी ॥

पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे । नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे ॥४॥

 

दोहा

राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि ।

पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि ॥ ३१५ ॥

 

चौपाई

केकि कंठ दुति स्यामल अंगा । तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा ॥

ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए । मंगल सब सब भाँति सुहाए ॥ १॥

सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन । नयन नवल राजीव लजावन ॥

सकल अलौकिक सुंदरताई । कहि न जाइ मनहीं मन भाई ॥ २॥

बंधु मनोहर सोहहिं संगा । जात नचावत चपल तुरंगा ॥

राजकुअँर बर बाजि देखावहिं । बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं ॥ ३॥

जेहि तुरंग पर रामु बिराजे । गति बिलोकि खगनायकु लाजे ॥

कहि न जाइ सब भाँति सुहावा । बाजि बेषु जनु काम बनावा ॥ ४॥

 

छंद

जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई ।

आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई ॥

जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे ।

किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे ॥

 

दोहा

प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव ।

भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव ॥ ३१६ ॥

 

चौपाई

जेहिं बर बाजि रामु असवारा । तेहि सारदउ न बरनै पारा ॥

संकरु राम रूप अनुरागे । नयन पंचदस अति प्रिय लागे ॥ १॥

हरि हित सहित रामु जब जोहे । रमा समेत रमापति मोहे ॥

निरखि राम छबि बिधि हरषाने । आठइ नयन जानि पछिताने ॥२॥

सुर सेनप उर बहुत उछाहू । बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू ॥

रामहि चितव सुरेस सुजाना । गौतम श्रापु परम हित माना ॥ ३॥

देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं । आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं ॥

मुदित देवगन रामहि देखी । नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी ॥ ४॥

 

छंद

अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी ।

बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी ॥

एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं ।

रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं ॥

 

दोहा

सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि ।

चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि ॥ ३१७ ॥

 

चौपाई

बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि । सब निज तन छबि रति मदु मोचनि ॥

पहिरें बरन बरन बर चीरा । सकल बिभूषन सजें सरीरा ॥ १॥

सकल सुमंगल अंग बनाएँ । करहिं गान कलकंठि लजाएँ ॥

कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं । चालि बिलोकि काम गज लाजहिं ॥२॥

बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा । नभ अरु नगर सुमंगलचारा ॥

सची सारदा रमा भवानी । जे सुरतिय सुचि सहज सयानी ॥ ३॥

कपट नारि बर बेष बनाई । मिलीं सकल रनिवासहिं जाई ॥

करहिं गान कल मंगल बानीं । हरष बिबस सब काहुँ न जानी ॥४॥

 

छंद

को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली ।

कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली ॥

आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई ॥

अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई ॥

 

दोहा

जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु ।

सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु ॥ ३१८ ॥

 

चौपाई

नयन नीरु हटि मंगल जानी । परिछनि करहिं मुदित मन रानी ॥

बेद बिहित अरु कुल आचारू । कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू ॥ १॥

पंच सबद धुनि मंगल गाना । पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना ॥

करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा । राम गमनु मंडप तब कीन्हा ॥ २॥

दसरथु सहित समाज बिराजे । बिभव बिलोकि लोकपति लाजे ॥

समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला । सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला ॥ ३॥

नभ अरु नगर कोलाहल होई । आपनि पर कछु सुनइ न कोई ॥

एहि बिधि रामु मंडपहिं आए । अरघु देइ आसन बैठाए ॥ ४॥

 

छंद

बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं ॥

मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं ॥

ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं ।

अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं ॥

 

दोहा

नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ ।

मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ ॥ ३१९ ॥

 

चौपाई

मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं । करि बैदिक लौकिक सब रीतीं ॥

मिलत महा दोउ राज बिराजे । उपमा खोजि खोजि कबि लाजे ॥ १॥

लही न कतहुँ हारि हियँ मानी । इन्ह सम एइ उपमा उर आनी ॥

सामध देखि देव अनुरागे । सुमन बरषि जसु गावन लागे ॥ २॥

जगु बिरंचि उपजावा जब तें । देखे सुने ब्याह बहु तब तें ॥

सकल भाँति सम साजु समाजू । सम समधी देखे हम आजू ॥ ३॥

देव गिरा सुनि सुंदर साँची । प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची ॥

देत पाँवड़े अरघु सुहाए । सादर जनकु मंडपहिं ल्याए ॥ ४॥

 

छंद

मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे ॥

निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे ॥

कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही ।

कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही ॥

 

दोहा

बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस ।

दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस ॥ ३२० ॥

 

चौपाई

बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा । जानि ईस सम भाउ न दूजा ॥

कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई । कहि निज भाग्य बिभव बहुताई ॥ १॥

पूजे भूपति सकल बराती । समधि सम सादर सब भाँती ॥

आसन उचित दिए सब काहू । कहौं काह मूख एक उछाहू ॥ २॥

सकल बरात जनक सनमानी । दान मान बिनती बर बानी ॥

बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ । जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ ॥ ३॥

कपट बिप्र बर बेष बनाएँ । कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ ॥

पूजे जनक देव सम जानें । दिए सुआसन बिनु पहिचानें ॥ ४॥

 

छंद

पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई ।

आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई ॥

सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए ।

अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए ॥