दोहा

नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप ।

जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप ॥ २४१ ॥

 

चौपाई

बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा । बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥

जनक जाति अवलोकहिं कैसैं । सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ॥ १॥

सहित बिदेह बिलोकहिं रानी । सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ॥

जोगिन्ह परम तत्वमय भासा । सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ॥ २॥

हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता । इष्टदेव इव सब सुख दाता ॥

रामहि चितव भायँ जेहि सीया । सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ॥ ३॥

उर अनुभवति न कहि सक सोऊ । कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ॥

एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ । तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ॥ ४॥

 

दोहा

राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर ।

सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ॥ २४२ ॥

 

चौपाई

सहज मनोहर मूरति दोऊ । कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥

सरद चंद निंदक मुख नीके । नीरज नयन भावते जी के ॥ १॥

चितवत चारु मार मनु हरनी । भावति हृदय जाति नहीं बरनी ॥

कल कपोल श्रुति कुंडल लोला । चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला ॥२॥

कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा । भृकुटी बिकट मनोहर नासा ॥

भाल बिसाल तिलक झलकाहीं । कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ॥३॥

पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई । कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं ॥

रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ । जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥ ४॥

 

दोहा

कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल ।

बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ॥ २४३ ॥

 

चौपाई

कटि तूनीर पीत पट बाँधे । कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥

पीत जग्य उपबीत सुहाए । नख सिख मंजु महाछबि छाए ॥ १॥

देखि लोग सब भए सुखारे । एकटक लोचन चलत न तारे ॥

हरषे जनकु देखि दोउ भाई । मुनि पद कमल गहे तब जाई ॥ २॥

करि बिनती निज कथा सुनाई । रंग अवनि सब मुनिहि देखाई ॥

जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ । तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ ॥३॥

निज निज रुख रामहि सबु देखा । कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा ॥

भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ । राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ॥ ४॥

 

दोहा

सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल ।

मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल ॥ २४४ ॥

 

चौपाई

प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे । जनु राकेस उदय भएँ तारे ॥

असि प्रतीति सब के मन माहीं । राम चाप तोरब सक नाहीं ॥ १॥

बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला । मेलिहि सीय राम उर माला ॥

अस बिचारि गवनहु घर भाई । जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ॥ २॥

बिहसे अपर भूप सुनि बानी । जे अबिबेक अंध अभिमानी ॥

तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा । बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ॥ ३॥

एक बार कालउ किन होऊ । सिय हित समर जितब हम सोऊ ॥

यह सुनि अवर महिप मुसकाने । धरमसील हरिभगत सयाने ॥ ४॥

 

सोरठा

सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ॥

जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ॥ २४५ ॥

 

चौपाई

ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई । मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ॥

सिख हमारि सुनि परम पुनीता । जगदंबा जानहु जियँ सीता ॥ १॥

जगत पिता रघुपतिहि बिचारी । भरि लोचन छबि लेहु निहारी ॥

सुंदर सुखद सकल गुन रासी । ए दोउ बंधु संभु उर बासी ॥ २॥

सुधा समुद्र समीप बिहाई । मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ॥

करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा । हम तौ आजु जनम फलु पावा ॥३॥

अस कहि भले भूप अनुरागे । रूप अनूप बिलोकन लागे ॥

देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना । बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ॥ ४॥

 

दोहा

जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई ।

चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं ॥ २४६ ॥

 

चौपाई

सिय सोभा नहिं जाइ बखानी । जगदंबिका रूप गुन खानी ॥

उपमा सकल मोहि लघु लागीं । प्राकृत नारि अंग अनुरागीं ॥ १॥

सिय बरनिअ तेइ उपमा देई । कुकबि कहाइ अजसु को लेई ॥

जौ पटतरिअ तीय सम सीया । जग असि जुबति कहाँ कमनीया ॥ २॥

गिरा मुखर तन अरध भवानी । रति अति दुखित अतनु पति जानी ॥

बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही । कहिअ रमासम किमि बैदेही ॥ ३॥

जौ छबि सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छप सोई ॥

सोभा रजु मंदरु सिंगारू । मथै पानि पंकज निज मारू ॥ ४॥

 

दोहा

एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल ।

तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ॥ २४७ ॥

 

चौपाई

चलिं संग लै सखीं सयानी । गावत गीत मनोहर बानी ॥

सोह नवल तनु सुंदर सारी । जगत जननि अतुलित छबि भारी ॥१॥

भूषन सकल सुदेस सुहाए । अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए ॥

रंगभूमि जब सिय पगु धारी । देखि रूप मोहे नर नारी ॥ २॥

हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई । बरषि प्रसून अपछरा गाई ॥

पानि सरोज सोह जयमाला । अवचट चितए सकल भुआला ॥३॥

सीय चकित चित रामहि चाहा । भए मोहबस सब नरनाहा ॥

मुनि समीप देखे दोउ भाई । लगे ललकि लोचन निधि पाई ॥ ४॥

 

दोहा

गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ॥

लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ॥ २४८ ॥

 

चौपाई

राम रूपु अरु सिय छबि देखें । नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें ॥

सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं । बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं ॥ १॥

हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई । मति हमारि असि देहि सुहाई ॥

बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु । सीय राम कर करै बिबाहू ॥ २॥

जग भल कहहि भाव सब काहू । हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू ॥

एहिं लालसाँ मगन सब लोगू । बरु साँवरो जानकी जोगू ॥ ३॥

तब बंदीजन जनक बौलाए । बिरिदावली कहत चलि आए ॥

कह नृप जाइ कहहु पन मोरा । चले भाट हियँ हरषु न थोरा ॥४॥

 

दोहा

बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल ।

पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल ॥ २४९ ॥

 

चौपाई

नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू । गरुअ कठोर बिदित सब काहू ॥

रावनु बानु महाभट भारे । देखि सरासन गवँहिं सिधारे ॥ १॥

सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा । राज समाज आजु जोइ तोरा ॥

त्रिभुवन जय समेत बैदेही ॥ बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ॥२॥

सुनि पन सकल भूप अभिलाषे । भटमानी अतिसय मन माखे ॥

परिकर बाँधि उठे अकुलाई । चले इष्टदेवन्ह सिर नाई ॥ ३॥

तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं । उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं ॥

जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं । चाप समीप महीप न जाहीं ॥ ४॥

 

दोहा

तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ ।

मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ ॥ २५० ॥

 

चौपाई

भूप सहस दस एकहि बारा । लगे उठावन टरइ न टारा ॥

डगइ न संभु सरासन कैसें । कामी बचन सती मनु जैसें ॥ १॥

सब नृप भए जोगु उपहासी । जैसें बिनु बिराग संन्यासी ॥

कीरति बिजय बीरता भारी । चले चाप कर बरबस हारी ॥ २॥

श्रीहत भए हारि हियँ राजा । बैठे निज निज जाइ समाजा ॥

नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने । बोले बचन रोष जनु साने ॥३॥

दीप दीप के भूपति नाना । आए सुनि हम जो पनु ठाना ॥

देव दनुज धरि मनुज सरीरा । बिपुल बीर आए रनधीरा ॥ ४॥

 

दोहा

कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय ।

पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय ॥ २५१ ॥

 

चौपाई

कहहु काहि यहु लाभु न भावा । काहुँ न संकर चाप चढ़ावा ॥

रहउ चढ़ाउब तोरब भाई । तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई ॥ १॥

अब जनि कोउ माखै भट मानी । बीर बिहीन मही मैं जानी ॥

तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ॥२॥

सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ । कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ ॥

जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई । तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ॥ ३॥

जनक बचन सुनि सब नर नारी । देखि जानकिहि भए दुखारी ॥

माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें । रदपट फरकत नयन रिसौंहें ॥ ४॥

 

दोहा

कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान ।

नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान ॥ २५२ ॥

 

चौपाई

रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई । तेहिं समाज अस कहइ न कोई ॥

कही जनक जसि अनुचित बानी । बिद्यमान रघुकुल मनि जानी ॥१॥

सुनहु भानुकुल पंकज भानू । कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू ॥

जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं । कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं ॥ २॥

काचे घट जिमि डारौं फोरी । सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी ॥

तव प्रताप महिमा भगवाना । को बापुरो पिनाक पुराना ॥ ३॥

नाथ जानि अस आयसु होऊ । कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ ॥

कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं । जोजन सत प्रमान लै धावौं ॥४॥

 

दोहा

तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ ।

जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ ॥ २५३ ॥

 

चौपाई

लखन सकोप बचन जे बोले । डगमगानि महि दिग्गज डोले ॥

सकल लोक सब भूप डेराने । सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने ॥ १॥

गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं । मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं ॥

सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे । प्रेम समेत निकट बैठारे ॥ २॥

बिस्वामित्र समय सुभ जानी । बोले अति सनेहमय बानी ॥

उठहु राम भंजहु भवचापा । मेटहु तात जनक परितापा ॥ ३॥

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा । हरषु बिषादु न कछु उर आवा ॥

ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ । ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ ॥ ४॥

 

दोहा

उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग ।

बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग ॥ २५४ ॥

 

चौपाई

नृपन्ह केरि आसा निसि नासी । बचन नखत अवली न प्रकासी ॥

मानी महिप कुमुद सकुचाने । कपटी भूप उलूक लुकाने ॥ १॥

भए बिसोक कोक मुनि देवा । बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा ॥

गुर पद बंदि सहित अनुरागा । राम मुनिन्ह सन आयसु मागा ॥२॥

सहजहिं चले सकल जग स्वामी । मत्त मंजु बर कुंजर गामी ॥

चलत राम सब पुर नर नारी । पुलक पूरि तन भए सुखारी ॥ ३॥

बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे । जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे ॥

तौ सिवधनु मृनाल की नाईं । तोरहुँ राम गनेस गोसाईं ॥ ४॥

 

दोहा

रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ ।

सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ ॥ २५५ ॥

 

चौपाई

सखि सब कौतुक देखनिहारे । जेठ कहावत हितू हमारे ॥

कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं । ए बालक असि हठ भलि नाहीं ॥ १॥

रावन बान छुआ नहिं चापा । हारे सकल भूप करि दापा ॥

सो धनु राजकुअँर कर देहीं । बाल मराल कि मंदर लेहीं ॥ २॥

भूप सयानप सकल सिरानी । सखि बिधि गति कछु जाति न जानी ॥

बोली चतुर सखी मृदु बानी । तेजवंत लघु गनिअ न रानी ॥ ३॥

कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा । सोषेउ सुजसु सकल संसारा ॥

रबि मंडल देखत लघु लागा । उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ॥ ४॥

 

दोहा

मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब ।

महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब ॥ २५६ ॥

 

चौपाई

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे । सकल भुवन अपने बस कीन्हे ॥

देबि तजिअ संसउ अस जानी । भंजब धनुष रामु सुनु रानी ॥ १॥

सखी बचन सुनि भै परतीती । मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती ॥

तब रामहि बिलोकि बैदेही । सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ॥ २॥

मनहीं मन मनाव अकुलानी । होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥

करहु सफल आपनि सेवकाई । करि हितु हरहु चाप गरुआई ॥ ३॥

गननायक बरदायक देवा । आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा ॥

बार बार बिनती सुनि मोरी । करहु चाप गुरुता अति थोरी ॥ ४॥

 

दोहा

देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर ॥

भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥ २५७ ॥

 

चौपाई

नीकें निरखि नयन भरि सोभा । पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा ॥

अहह तात दारुनि हठ ठानी । समुझत नहिं कछु लाभु न हानी ॥ १॥

सचिव सभय सिख देइ न कोई । बुध समाज बड़ अनुचित होई ॥

कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा । कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ॥ २॥

बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा । सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा ॥

सकल सभा कै मति भै भोरी । अब मोहि संभुचाप गति तोरी ॥ ३॥

निज जड़ता लोगन्ह पर डारी । होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी ॥

अति परिताप सीय मन माही । लव निमेष जुग सब सय जाहीं ॥ ४॥

 

दोहा

प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल ।

खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल ॥ २५८ ॥

 

चौपाई

गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी । प्रगट न लाज निसा अवलोकी ॥

लोचन जलु रह लोचन कोना । जैसे परम कृपन कर सोना ॥ १॥

सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी । धरि धीरजु प्रतीति उर आनी ॥

तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ॥२॥

तौ भगवानु सकल उर बासी । करिहिं मोहि रघुबर कै दासी ॥

जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू ॥ ३॥

प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना । कृपानिधान राम सबु जाना ॥

सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे । चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे ॥४॥

 

दोहा

लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु ।

पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु ॥ २५९ ॥

 

चौपाई

दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला । धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥

रामु चहहिं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥ १॥

चाप सपीप रामु जब आए । नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ॥

सब कर संसउ अरु अग्यानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू ॥ २॥

भृगुपति केरि गरब गरुआई । सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ॥

सिय कर सोचु जनक पछितावा । रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ॥३॥

संभुचाप बड बोहितु पाई । चढे जाइ सब संगु बनाई ॥

राम बाहुबल सिंधु अपारू । चहत पारु नहि कोउ कड़हारू ॥ ४॥

 

दोहा

राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि ।

चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥ २६० ॥

 

चौपाई

देखी बिपुल बिकल बैदेही । निमिष बिहात कलप सम तेही ॥

तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा । मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ॥१॥

का बरषा सब कृषी सुखानें । समय चुकें पुनि का पछितानें ॥

अस जियँ जानि जानकी देखी । प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ॥२॥

गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा । अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ॥

दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ । पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ ॥३॥

लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें । काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें ॥

तेहि छन राम मध्य धनु तोरा । भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥ ४॥

 

छंद

भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले ।

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ॥

सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं ।

कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही ॥

 

सोरठा

संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु ।

बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस ॥ २६१ ॥

 

चौपाई

प्रभु दोउ चापखंड महि डारे । देखि लोग सब भए सुखारे ॥

कोसिकरुप पयोनिधि पावन । प्रेम बारि अवगाहु सुहावन ॥ १॥

रामरूप राकेसु निहारी । बढ़त बीचि पुलकावलि भारी ॥

बाजे नभ गहगहे निसाना । देवबधू नाचहिं करि गाना ॥ २॥

ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा । प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा ॥

बरिसहिं सुमन रंग बहु माला । गावहिं किंनर गीत रसाला ॥३॥

रही भुवन भरि जय जय बानी । धनुषभंग धुनि जात न जानी ॥

मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी । भंजेउ राम संभुधनु भारी ॥४॥

 

दोहा

बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर ।

करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर ॥ २६२ ॥

 

चौपाई

झाँझि मृदंग संख सहनाई । भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई ॥

बाजहिं बहु बाजने सुहाए । जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए ॥ १॥

सखिन्ह सहित हरषी अति रानी । सूखत धान परा जनु पानी ॥

जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई । पैरत थकें थाह जनु पाई ॥२॥

श्रीहत भए भूप धनु टूटे । जैसें दिवस दीप छबि छूटे ॥

सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती । जनु चातकी पाइ जलु स्वाती ॥३॥

रामहि लखनु बिलोकत कैसें । ससिहि चकोर किसोरकु जैसें ॥

सतानंद तब आयसु दीन्हा । सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा ॥ ४॥

 

दोहा

संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार ।

गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार ॥ २६३ ॥

 

चौपाई

सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे । छबिगन मध्य महाछबि जैसें ॥

कर सरोज जयमाल सुहाई । बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई ॥ १॥

तन सकोचु मन परम उछाहू । गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू ॥

जाइ समीप राम छबि देखी । रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी ॥ २॥

चतुर सखीं लखि कहा बुझाई । पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥

सुनत जुगल कर माल उठाई । प्रेम बिबस पहिराइ न जाई ॥ ३॥

सोहत जनु जुग जलज सनाला । ससिहि सभीत देत जयमाला ॥

गावहिं छबि अवलोकि सहेली । सियँ जयमाल राम उर मेली ॥ ४॥

 

सोरठा

रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन ।

सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥ २६४ ॥

 

चौपाई

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे । खल भए मलिन साधु सब राजे ॥

सुर किंनर नर नाग मुनीसा । जय जय जय कहि देहिं असीसा ॥ १॥

नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं । बार बार कुसुमांजलि छूटीं ॥

जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं । बंदी बिरदावलि उच्चरहीं ॥ २॥

महि पाताल नाक जसु ब्यापा । राम बरी सिय भंजेउ चापा ॥

करहिं आरती पुर नर नारी । देहिं निछावरि बित्त बिसारी ॥ ३॥

सोहति सीय राम कै जौरी । छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी ॥

सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता । करति न चरन परस अति भीता ॥४॥

 

दोहा

गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि ।

मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि ॥ २६५ ॥

 

चौपाई

तब सिय देखि भूप अभिलाषे । कूर कपूत मूढ़ मन माखे ॥

उठि उठि पहिरि सनाह अभागे । जहँ तहँ गाल बजावन लागे ॥ १॥

लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ । धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ ॥

तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई । जीवत हमहि कुअँरि को बरई ॥ २॥

जौं बिदेहु कछु करै सहाई । जीतहु समर सहित दोउ भाई ॥

साधु भूप बोले सुनि बानी । राजसमाजहि लाज लजानी ॥ ३॥

बलु प्रतापु बीरता बड़ाई । नाक पिनाकहि संग सिधाई ॥

सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई । असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई ॥४॥

 

दोहा

देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु ।

लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु ॥ २६६ ॥

 

चौपाई

बैनतेय बलि जिमि चह कागू । जिमि ससु चहै नाग अरि भागू ॥

जिमि चह कुसल अकारन कोही । सब संपदा चहै सिवद्रोही ॥ १॥

लोभी लोलुप कल कीरति चहई । अकलंकता कि कामी लहई ॥

हरि पद बिमुख परम गति चाहा । तस तुम्हार लालचु नरनाहा ॥२॥

कोलाहलु सुनि सीय सकानी । सखीं लवाइ गईं जहँ रानी ॥

रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं । सिय सनेहु बरनत मन माहीं ॥ ३॥

रानिन्ह सहित सोचबस सीया । अब धौं बिधिहि काह करनीया ॥

भूप बचन सुनि इत उत तकहीं । लखनु राम डर बोलि न सकहीं ॥४॥

 

दोहा

अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप ।

मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप ॥ २६७ ॥

 

चौपाई

खरभरु देखि बिकल पुर नारीं । सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं ॥

तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा । आयसु भृगुकुल कमल पतंगा ॥१॥

देखि महीप सकल सकुचाने । बाज झपट जनु लवा लुकाने ॥

गौरि सरीर भूति भल भ्राजा । भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा ॥ २॥

सीस जटा ससिबदनु सुहावा । रिसबस कछुक अरुन होइ आवा ॥

भृकुटी कुटिल नयन रिस राते । सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते ॥३॥

बृषभ कंध उर बाहु बिसाला । चारु जनेउ माल मृगछाला ॥

कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें । धनु सर कर कुठारु कल काँधें ॥ ४॥

 

दोहा

सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप ।

धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप ॥ २६८ ॥

 

चौपाई

देखत भृगुपति बेषु कराला । उठे सकल भय बिकल भुआला ॥

पितु समेत कहि कहि निज नामा । लगे करन सब दंड प्रनामा ॥ १॥

जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी । सो जानइ जनु आइ खुटानी ॥

जनक बहोरि आइ सिरु नावा । सीय बोलाइ प्रनामु करावा ॥ २॥

आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं । निज समाज लै गई सयानीं ॥

बिस्वामित्रु मिले पुनि आई । पद सरोज मेले दोउ भाई ॥ ३॥

रामु लखनु दसरथ के ढोटा । दीन्हि असीस देखि भल जोटा ॥

रामहि चितइ रहे थकि लोचन । रूप अपार मार मद मोचन ॥४॥

 

दोहा

बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर ॥

पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर ॥ २६९ ॥

 

चौपाई

समाचार कहि जनक सुनाए । जेहि कारन महीप सब आए ॥

सुनत बचन फिरि अनत निहारे । देखे चापखंड महि डारे ॥ १॥

अति रिस बोले बचन कठोरा । कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा ॥

बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू । उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू ॥२॥

अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं । कुटिल भूप हरषे मन माहीं ॥

सुर मुनि नाग नगर नर नारी ॥ सोचहिं सकल त्रास उर भारी ॥ ३॥

मन पछिताति सीय महतारी । बिधि अब सँवरी बात बिगारी ॥

भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता । अरध निमेष कलप सम बीता ॥ ४॥

 

दोहा

सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु ।

हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु ॥ २७० ॥

 

।। मासपारायण, नवाँ विश्राम ।।

 

चौपाई

नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ॥

आयसु काह कहिअ किन मोही । सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ॥ १॥

सेवकु सो जो करै सेवकाई । अरि करनी करि करिअ लराई ॥

सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ॥ २॥

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा । न त मारे जैहहिं सब राजा ॥

सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरहि अपमाने ॥ ३॥

बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं । कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ॥

एहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ॥ ४॥

 

दोहा

रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार ॥

धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार ॥ २७१ ॥

 

चौपाई

लखन कहा हँसि हमरें जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ॥

का छति लाभु जून धनु तौरें । देखा राम नयन के भोरें ॥ १॥

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू । मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।

बोले चितइ परसु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ॥ २॥

बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही । केवल मुनि जड़ जानहि मोही ॥

बाल ब्रह्मचारी अति कोही । बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही ॥ ३॥

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही । बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ॥

सहसबाहु भुज छेदनिहारा । परसु बिलोकु महीपकुमारा ॥ ४॥

 

दोहा

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर ।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ॥ २७२ ॥

 

चौपाई

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महा भटमानी ॥

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू । चहत उड़ावन फूँकि पहारू ॥ १॥

इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं । जे तरजनी देखि मरि जाहीं ॥

देखि कुठारु सरासन बाना । मैं कछु कहा सहित अभिमाना ॥ २॥

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी । जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी ॥

सुर महिसुर हरिजन अरु गाई । हमरें कुल इन्ह पर न सुराई ॥ ३॥

बधें पापु अपकीरति हारें । मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें ॥

कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा । ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ॥ ४॥

 

दोहा

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर ।

सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर ॥ २७३ ॥

 

चौपाई

कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु । कुटिल कालबस निज कुल घालकु ॥

भानु बंस राकेस कलंकू । निपट निरंकुस अबुध असंकू ॥ १॥

काल कवलु होइहि छन माहीं । कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं ॥

तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा । कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा ॥२॥

लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा । तुम्हहि अछत को बरनै पारा ॥

अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी । बार अनेक भाँति बहु बरनी ॥३॥

नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू । जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ॥

बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा । गारी देत न पावहु सोभा ॥ ४॥

 

दोहा

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु ।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ॥ २७४ ॥

 

चौपाई

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोहि लागि बोलावा ॥

सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधारि धरेउ कर घोरा ॥ १॥

अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू । कटुबादी बालकु बधजोगू ॥

बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब यहु मरनिहार भा साँचा ॥ २॥

कौसिक कहा छमिअ अपराधू । बाल दोष गुन गनहिं न साधू ॥

खर कुठार मैं अकरुन कोही । आगें अपराधी गुरुद्रोही ॥ ३॥

उतर देत छोड़उँ बिनु मारें । केवल कौसिक सील तुम्हारें ॥

न त एहि काटि कुठार कठोरें । गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें ॥४॥

 

दोहा

गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ ।

अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ॥ २७५ ॥

 

चौपाई

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहि जान बिदित संसारा ॥

माता पितहि उरिन भए नीकें । गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें ॥ १॥

सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा । दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा ॥

अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली । तुरत देउँ मैं थैली खोली ॥ २॥

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा । हाय हाय सब सभा पुकारा ॥

भृगुबर परसु देखावहु मोही । बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही ॥ ३॥

मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े । द्विज देवता घरहि के बाढ़े ॥

अनुचित कहि सब लोग पुकारे । रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे ॥४॥

 

दोहा

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु ।

बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ॥ २७६ ॥

 

चौपाई

नाथ करहु बालक पर छोहू । सूध दूधमुख करिअ न कोहू ॥

जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना । तौ कि बराबरि करत अयाना ॥ १॥

जौं लरिका कछु अचगरि करहीं । गुर पितु मातु मोद मन भरहीं ॥

करिअ कृपा सिसु सेवक जानी । तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी ॥२॥

राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने । कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने ॥

हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी । राम तोर भ्राता बड़ पापी ॥ ३॥

गौर सरीर स्याम मन माहीं । कालकूटमुख पयमुख नाहीं ॥

सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही । नीचु मीचु सम देख न मौहीं ॥ ४॥

 

दोहा

लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल ।

जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल ॥ २७७ ॥

 

चौपाई

मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया । परिहरि कोपु करिअ अब दाया ॥

टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने । बैठिअ होइहिं पाय पिराने ॥ १॥

जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई । जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई ॥

बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं । मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं ॥२॥

थर थर कापहिं पुर नर नारी । छोट कुमार खोट बड़ भारी ॥

भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी । रिस तन जरइ होइ बल हानी ॥३॥

बोले रामहि देइ निहोरा । बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा ॥

मनु मलीन तनु सुंदर कैसें । बिष रस भरा कनक घटु जैसैं ॥ ४॥

 

दोहा

सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम ।

गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम ॥ २७८ ॥

 

चौपाई

अति बिनीत मृदु सीतल बानी । बोले रामु जोरि जुग पानी ॥

सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना । बालक बचनु करिअ नहिं काना ॥ १॥

बररै बालक एकु सुभाऊ । इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ ॥

तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा । अपराधी में नाथ तुम्हारा ॥ २॥

कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं । मो पर करिअ दास की नाई ॥

कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई । मुनिनायक सोइ करौं उपाई ॥३॥

कह मुनि राम जाइ रिस कैसें । अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें ॥

एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा । तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा ॥ ४॥

 

दोहा

गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर ।

परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर ॥ २७९ ॥

 

चौपाई

बहइ न हाथु दहइ रिस छाती । भा कुठारु कुंठित नृपघाती ॥

भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ । मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ ॥ १॥

आजु दया दुखु दुसह सहावा । सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा ॥

बाउ कृपा मूरति अनुकूला । बोलत बचन झरत जनु फूला ॥ २॥

जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता । क्रोध भएँ तनु राख बिधाता ॥

देखु जनक हठि बालक एहू । कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू ॥ ३॥

बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा । देखत छोट खोट नृप ढोटा ॥

बिहसे लखनु कहा मन माहीं । मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं ॥ ४॥

 

दोहा

परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु ।

संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु ॥ २८० ॥

 

चौपाई

बंधु कहइ कटु संमत तोरें । तू छल बिनय करसि कर जोरें ॥

करु परितोषु मोर संग्रामा । नाहिं त छाड़ कहाउब रामा ॥ १॥

छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही । बंधु सहित न त मारउँ तोही ॥

भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ । मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ ॥२॥

गुनह लखन कर हम पर रोषू । कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू ॥

टेढ़ जानि सब बंदइ काहू । बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू ॥ ३॥

राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा । कर कुठारु आगें यह सीसा ॥

जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी । मोहि जानि आपन अनुगामी ॥४॥