दोहा
देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड ।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड ॥ २०१ ॥
चौपाई
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन । बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन ॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ । सोउ देखा जो सुना न काऊ ॥ १॥
देखी माया सब बिधि गाढ़ी । अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी ॥
देखा जीव नचावइ जाही । देखी भगति जो छोरइ ताही ॥ २॥
तन पुलकित मुख बचन न आवा । नयन मूदि चरननि सिरु नावा ॥
बिसमयवंत देखि महतारी । भए बहुरि सिसुरूप खरारी ॥ ३॥
अस्तुति करि न जाइ भय माना । जगत पिता मैं सुत करि जाना ॥
हरि जननि बहुबिधि समुझाई । यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई ॥ ४॥
दोहा
बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि ॥
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि ॥ २०२ ॥
चौपाई
बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा । अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा ॥
कछुक काल बीतें सब भाई । बड़े भए परिजन सुखदाई ॥ १॥
चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई । बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई ॥
परम मनोहर चरित अपारा । करत फिरत चारिउ सुकुमारा ॥२॥
मन क्रम बचन अगोचर जोई । दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई ॥
भोजन करत बोल जब राजा । नहिं आवत तजि बाल समाजा ॥३॥
कौसल्या जब बोलन जाई । ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई ॥
निगम नेति सिव अंत न पावा । ताहि धरै जननी हठि धावा ॥ ४॥
धूरस धूरि भरें तनु आए । भूपति बिहसि गोद बैठाए ॥ ५॥
दोहा
भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ ॥ २०३ ॥
चौपाई
बालचरित अति सरल सुहाए । सारद सेष संभु श्रुति गाए ॥
जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता । ते जन बंचित किए बिधाता ॥ १॥
भए कुमार जबहिं सब भ्राता । दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता ॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई । अलप काल बिद्या सब आई ॥ २॥
जाकी सहज स्वास श्रुति चारी । सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी ॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला । खेलहिं खेल सकल नृपलीला ॥३॥
करतल बान धनुष अति सोहा । देखत रूप चराचर मोहा ॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई । थकित होहिं सब लोग लुगाई ॥४॥
दोहा
कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल ।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल ॥ २०४ ॥
चौपाई
बंधु सखा संग लेहिं बोलाई । बन मृगया नित खेलहिं जाई ॥
पावन मृग मारहिं जियँ जानी । दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी ॥ १॥
जे मृग राम बान के मारे । ते तनु तजि सुरलोक सिधारे ॥
अनुज सखा सँग भोजन करहीं । मातु पिता अग्या अनुसरहीं ॥ २॥
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा । करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा ॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई । आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई ॥ ३॥
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा । मातु पिता गुरु नावहिं माथा ॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा । देखि चरित हरषइ मन राजा ॥ ४॥
दोहा
ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप ।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप ॥ २०५ ॥
चौपाई
यह सब चरित कहा मैं गाई । आगिलि कथा सुनहु मन लाई ॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी । बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी ॥ १॥
जहँ जप जग्य मुनि करही । अति मारीच सुबाहुहि डरहीं ॥
देखत जग्य निसाचर धावहि । करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं ॥ २॥
गाधितनय मन चिंता ब्यापी । हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी ॥
तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा । प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा ॥ ३॥
एहुँ मिस देखौं पद जाई । करि बिनती आनौ दोउ भाई ॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना । सो प्रभु मै देखब भरि नयना ॥ ४॥
दोहा
बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार ।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार ॥ २०६ ॥
चौपाई
मुनि आगमन सुना जब राजा । मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा ॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी । निज आसन बैठारेन्हि आनी ॥ १॥
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा । मो सम आजु धन्य नहिं दूजा ॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा । मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा ॥ २॥
पुनि चरननि मेले सुत चारी । राम देखि मुनि देह बिसारी ॥
भए मगन देखत मुख सोभा । जनु चकोर पूरन ससि लोभा ॥ ३॥
तब मन हरषि बचन कह राऊ । मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा । कहहु सो करत न लावउँ बारा ॥ ४॥
असुर समूह सतावहिं मोही । मै जाचन आयउँ नृप तोही ॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा । निसिचर बध मैं होब सनाथा ॥ ५॥
दोहा
देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान ।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान ॥ २०७ ॥
चौपाई
सुनि राजा अति अप्रिय बानी । हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी ॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी । बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी ॥ १॥
मागहु भूमि धेनु धन कोसा । सर्बस देउँ आजु सहरोसा ॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाही । सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही ॥२॥
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं । राम देत नहिं बनइ गोसाई ॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा । कहँ सुंदर सुत परम किसोरा ॥ ३॥
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी । हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी ॥
तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा । नृप संदेह नास कहँ पावा ॥ ४॥
अति आदर दोउ तनय बोलाए । हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए ॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ । तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ ॥ ५॥
दोहा
सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस ।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस ॥ २०८(क) ॥
सो॰ पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन ॥
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन ॥ २०८(ख)
चौपाई
अरुन नयन उर बाहु बिसाला । नील जलज तनु स्याम तमाला ॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा । रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा ॥ १॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई । बिस्बामित्र महानिधि पाई ॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना । मोहि निति पिता तजेहु भगवाना ॥ २॥
चले जात मुनि दीन्हि दिखाई । सुनि ताड़का क्रोध करि धाई ॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा । दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा ॥३॥
तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही । बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही ॥
जाते लाग न छुधा पिपासा । अतुलित बल तनु तेज प्रकासा ॥ ४॥
दोहा
आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि ।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि ॥ २०९ ॥
चौपाई
प्रात कहा मुनि सन रघुराई । निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई ॥
होम करन लागे मुनि झारी । आपु रहे मख कीं रखवारी ॥ १॥
सुनि मारीच निसाचर क्रोही । लै सहाय धावा मुनिद्रोही ॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा । सत जोजन गा सागर पारा ॥२॥
पावक सर सुबाहु पुनि मारा । अनुज निसाचर कटकु सँघारा ॥
मारि असुर द्विज निर्मयकारी । अस्तुति करहिं देव मुनि झारी ॥ ३॥
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया । रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया ॥
भगति हेतु बहु कथा पुराना । कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना ॥ ४॥
तब मुनि सादर कहा बुझाई । चरित एक प्रभु देखिअ जाई ॥
धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा । हरषि चले मुनिबर के साथा ॥ ५॥
आश्रम एक दीख मग माहीं । खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं ॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी । सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ॥ ६॥
दोहा
गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर ।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ २१० ॥
छंद
परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही ।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही ॥
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही ।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ॥
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई ।
अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ॥
मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई ।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई ॥
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना ।
देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना ॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना ।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना ॥
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी ।
सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी ॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी ।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी ॥
दोहा
अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल ।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल ॥ २११ ॥
।। मासपारायण, सातवाँ विश्राम ।।
चौपाई
चले राम लछिमन मुनि संगा । गए जहाँ जग पावनि गंगा ॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई । जेहि प्रकार सुरसरि महि आई ॥ १॥
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए । बिबिध दान महिदेवन्हि पाए ॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया । बेगि बिदेह नगर निअराया ॥ २॥
पुर रम्यता राम जब देखी । हरषे अनुज समेत बिसेषी ॥
बापीं कूप सरित सर नाना । सलिल सुधासम मनि सोपाना ॥ ३॥
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा । कूजत कल बहुबरन बिहंगा ॥
बरन बरन बिकसे बन जाता । त्रिबिध समीर सदा सुखदाता ॥ ४॥
दोहा
सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास ।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास ॥ २१२ ॥
चौपाई
बनइ न बरनत नगर निकाई । जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई ॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी । मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी ॥ १॥
धनिक बनिक बर धनद समाना । बैठ सकल बस्तु लै नाना ॥
चौहट सुंदर गलीं सुहाई । संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ॥ २॥
मंगलमय मंदिर सब केरें । चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें ॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता । धरमसील ग्यानी गुनवंता ॥३॥
अति अनूप जहँ जनक निवासू । बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू ॥
होत चकित चित कोट बिलोकी । सकल भुवन सोभा जनु रोकी ॥४॥
दोहा
धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति ।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति ॥ २१३ ॥
चौपाई
सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा । भूप भीर नट मागध भाटा ॥
बनी बिसाल बाजि गज साला । हय गय रथ संकुल सब काला ॥ १॥
सूर सचिव सेनप बहुतेरे । नृपगृह सरिस सदन सब केरे ॥
पुर बाहेर सर सारित समीपा । उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा ॥ २॥
देखि अनूप एक अँवराई । सब सुपास सब भाँति सुहाई ॥
कौसिक कहेउ मोर मनु माना । इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना ॥ ३॥
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता । उतरे तहँ मुनिबृंद समेता ॥
बिस्वामित्र महामुनि आए । समाचार मिथिलापति पाए ॥ ४॥
दोहा
संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति ।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति ॥ २१४ ॥
चौपाई
कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा । दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा ॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे । जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे ॥ १॥
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा । बिस्वामित्र नृपहि बैठारा ॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई । गए रहे देखन फुलवाई ॥ २॥
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा । लोचन सुखद बिस्व चित चोरा ॥
उठे सकल जब रघुपति आए । बिस्वामित्र निकट बैठाए ॥ ३॥
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता । बारि बिलोचन पुलकित गाता ॥
मूरति मधुर मनोहर देखी । भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥ ४॥
दोहा
प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर ।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥ २१५ ॥
चौपाई
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक । मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा । उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥ १॥
सहज बिरागरुप मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ । कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ ॥ २॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा । बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका । बचन तुम्हार न होइ अलीका ॥३॥
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी । मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी ॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए । मम हित लागि नरेस पठाए ॥ ४॥
दोहा
रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम ।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम ॥ २१६ ॥
चौपाई
मुनि तव चरन देखि कह राऊ । कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता । आनँदहू के आनँद दाता ॥ १॥
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि । कहि न जाइ मन भाव सुहावनि ॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू । ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू ॥२॥
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू । पुलक गात उर अधिक उछाहू ॥
म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू । चलेउ लवाइ नगर अवनीसू ॥ ३॥
सुंदर सदनु सुखद सब काला । तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला ॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई । गयउ राउ गृह बिदा कराई ॥ ४॥
दोहा
रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु ।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु ॥ २१७ ॥
चौपाई
लखन हृदयँ लालसा बिसेषी । जाइ जनकपुर आइअ देखी ॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं । प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं ॥ १॥
राम अनुज मन की गति जानी । भगत बछलता हिंयँ हुलसानी ॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई । बोले गुर अनुसासन पाई ॥ २॥
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं । प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं ॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं । नगर देखाइ तुरत लै आवौ ॥ ३॥
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती । कस न राम तुम्ह राखहु नीती ॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता । प्रेम बिबस सेवक सुखदाता ॥४॥
दोहा
जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ ॥ २१८ ॥
।। मासपारायण, आठवाँ विश्राम ।।
।। नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम ।।
चौपाई
मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता । चले लोक लोचन सुख दाता ॥
बालक बृंदि देखि अति सोभा । लगे संग लोचन मनु लोभा ॥ १॥
पीत बसन परिकर कटि भाथा । चारु चाप सर सोहत हाथा ॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी । स्यामल गौर मनोहर जोरी ॥ २॥
केहरि कंधर बाहु बिसाला । उर अति रुचिर नागमनि माला ॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन । बदन मयंक तापत्रय मोचन ॥ ३॥
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं । चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं ॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी । तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी ॥४॥
दोहा
रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस ।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस ॥ २१९ ॥
चौपाई
देखन नगरु भूपसुत आए । समाचार पुरबासिन्ह पाए ॥
धाए धाम काम सब त्यागी । मनहु रंक निधि लूटन लागी ॥ १॥
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई । होहिं सुखी लोचन फल पाई ॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं । निरखहिं राम रूप अनुरागीं ॥ २॥
कहहिं परसपर बचन सप्रीती । सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती ॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं । सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं ॥३॥
बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी । बिकट बेष मुख पंच पुरारी ॥
अपर देउ अस कोउ न आही । यह छबि सखि पटतरिअ जाही ॥ ४॥
दोहा
बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम ॥ २२० ॥
चौपाई
कहहु सखी अस को तनुधारी । जो न मोह यह रूप निहारी ॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी । जो मैं सुना सो सुनहु सयानी ॥ १॥
ए दोऊ दसरथ के ढोटा । बाल मरालन्हि के कल जोटा ॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे । जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे ॥२॥
स्याम गात कल कंज बिलोचन । जो मारीच सुभुज मदु मोचन ॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी । नामु रामु धनु सायक पानी ॥ ३॥
गौर किसोर बेषु बर काछें । कर सर चाप राम के पाछें ॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता । सुनु सखि तासु सुमित्रा माता ॥ ४॥
दोहा
बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि ।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि ॥ २२१ ॥
चौपाई
देखि राम छबि कोउ एक कहई । जोगु जानकिहि यह बरु अहई ॥
जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू । पन परिहरि हठि करइ बिबाहू ॥ १॥
कोउ कह ए भूपति पहिचाने । मुनि समेत सादर सनमाने ॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई । बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई ॥ २॥
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता । सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता ॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू । नाहिन आलि इहाँ संदेहू ॥ ३॥
जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू । तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू ॥
सखि हमरें आरति अति तातें । कबहुँक ए आवहिं एहि नातें ॥४॥
दोहा
नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि ।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि ॥ २२२ ॥
चौपाई
बोली अपर कहेहु सखि नीका । एहिं बिआह अति हित सबहीं का ॥
कोउ कह संकर चाप कठोरा । ए स्यामल मृदुगात किसोरा ॥ १॥
सबु असमंजस अहइ सयानी । यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी ॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं । बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं ॥२॥
परसि जासु पद पंकज धूरी । तरी अहल्या कृत अघ भूरी ॥
सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें । यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें ॥ ३॥
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी । तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी ॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं । ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी ॥ ४॥
दोहा
हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद ।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद ॥ २२३ ॥
चौपाई
पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई । जहँ धनुमख हित भूमि बनाई ॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी । बिमल बेदिका रुचिर सँवारी ॥ १॥
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला । रचे जहाँ बेठहिं महिपाला ॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा । अपर मंच मंडली बिलासा ॥ २॥
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई । बैठहिं नगर लोग जहँ जाई ॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए । धवल धाम बहुबरन बनाए ॥३॥
जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी । जथा जोगु निज कुल अनुहारी ॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना । सादर प्रभुहि देखावहिं रचना ॥४॥
दोहा
सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात ।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात ॥ २२४ ॥
चौपाई
सिसु सब राम प्रेमबस जाने । प्रीति समेत निकेत बखाने ॥
निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई । सहित सनेह जाहिं दोउ भाई ॥ १॥
राम देखावहिं अनुजहि रचना । कहि मृदु मधुर मनोहर बचना ॥
लव निमेष महँ भुवन निकाया । रचइ जासु अनुसासन माया ॥ २॥
भगति हेतु सोइ दीनदयाला । चितवत चकित धनुष मखसाला ॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं । जानि बिलंबु त्रास मन माहीं ॥ ३॥
जासु त्रास डर कहुँ डर होई । भजन प्रभाउ देखावत सोई ॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं । किए बिदा बालक बरिआई ॥ ४॥
दोहा
सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ ॥ २२५ ॥
चौपाई
निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा । सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा ॥
कहत कथा इतिहास पुरानी । रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी ॥ १॥
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई । लगे चरन चापन दोउ भाई ॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी । करत बिबिध जप जोग बिरागी ॥ २॥
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते । गुर पद कमल पलोटत प्रीते ॥
बारबार मुनि अग्या दीन्ही । रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही ॥ ३॥
चापत चरन लखनु उर लाएँ । सभय सप्रेम परम सचु पाएँ ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता । पौढ़े धरि उर पद जलजाता ॥ ४॥
दोहा
उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान ॥
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान ॥ २२६ ॥
चौपाई
सकल सौच करि जाइ नहाए । नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए ॥
समय जानि गुर आयसु पाई । लेन प्रसून चले दोउ भाई ॥ १॥
भूप बागु बर देखेउ जाई । जहँ बसंत रितु रही लोभाई ॥
लागे बिटप मनोहर नाना । बरन बरन बर बेलि बिताना ॥ २॥
नव पल्लव फल सुमान सुहाए । निज संपति सुर रूख लजाए ॥
चातक कोकिल कीर चकोरा । कूजत बिहग नटत कल मोरा ॥३॥
मध्य बाग सरु सोह सुहावा । मनि सोपान बिचित्र बनावा ॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा । जलखग कूजत गुंजत भृंगा ॥ ४॥
दोहा
बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत ।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत ॥ २२७ ॥
चौपाई
चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन । लगे लेन दल फूल मुदित मन ॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई । गिरिजा पूजन जननि पठाई ॥ १॥
संग सखीं सब सुभग सयानी । गावहिं गीत मनोहर बानी ॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा । बरनि न जाइ देखि मनु मोहा ॥२॥
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता । गई मुदित मन गौरि निकेता ॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा । निज अनुरूप सुभग बरु मागा ॥ ३॥
एक सखी सिय संगु बिहाई । गई रही देखन फुलवाई ॥
तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई । प्रेम बिबस सीता पहिं आई ॥ ४॥
दोहा
तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन ।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन ॥ २२८ ॥
चौपाई
देखन बागु कुअँर दुइ आए । बय किसोर सब भाँति सुहाए ॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी । गिरा अनयन नयन बिनु बानी ॥ १॥
सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी । सिय हियँ अति उतकंठा जानी ॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली । सुने जे मुनि सँग आए काली ॥ २॥
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी । कीन्ह स्वबस नगर नर नारी ॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू । अवसि देखिअहिं देखन जोगू ॥ ३॥
तासु वचन अति सियहि सुहाने । दरस लागि लोचन अकुलाने ॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई । प्रीति पुरातन लखइ न कोई ॥ ४॥
दोहा
सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत ॥
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत ॥ २२९ ॥
चौपाई
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि । कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि ॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही ॥ मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही ॥ १॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा । सिय मुख ससि भए नयन चकोरा ॥
भए बिलोचन चारु अचंचल । मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल ॥ २॥
देखि सीय सोभा सुखु पावा । हृदयँ सराहत बचनु न आवा ॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई । बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई ॥ ३॥
सुंदरता कहुँ सुंदर करई । छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई ॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी । केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी ॥ ४॥
दोहा
सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि ।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि ॥ २३० ॥
चौपाई
तात जनकतनया यह सोई । धनुषजग्य जेहि कारन होई ॥
पूजन गौरि सखीं लै आई । करत प्रकासु फिरइ फुलवाई ॥ १॥
जासु बिलोकि अलोकिक सोभा । सहज पुनीत मोर मनु छोभा ॥
सो सबु कारन जान बिधाता । फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता ॥२॥
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ । मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी । जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी ॥ ३॥
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी । नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी ॥
मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं । ते नरबर थोरे जग माहीं ॥ ४॥
दोहा
करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान ।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान ॥ २३१ ॥
चौपाई
चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता । कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता ॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी । जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी ॥ १॥
लता ओट तब सखिन्ह लखाए । स्यामल गौर किसोर सुहाए ॥
देखि रूप लोचन ललचाने । हरषे जनु निज निधि पहिचाने ॥ २॥
थके नयन रघुपति छबि देखें । पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें ॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी । सरद ससिहि जनु चितव चकोरी ॥ ३॥
लोचन मग रामहि उर आनी । दीन्हे पलक कपाट सयानी ॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी । कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी ॥४॥
दोहा
लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ ॥ २३२ ॥
चौपाई
सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा । नील पीत जलजाभ सरीरा ॥
मोरपंख सिर सोहत नीके । गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के ॥ १॥
भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए । श्रवन सुभग भूषन छबि छाए ॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे । नव सरोज लोचन रतनारे ॥ २॥
चारु चिबुक नासिका कपोला । हास बिलास लेत मनु मोला ॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं । जो बिलोकि बहु काम लजाहीं ॥३॥
उर मनि माल कंबु कल गीवा । काम कलभ कर भुज बलसींवा ॥
सुमन समेत बाम कर दोना । सावँर कुअँर सखी सुठि लोना ॥ ४॥
दोहा
केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान ।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान ॥ २३३ ॥
चौपाई
धरि धीरजु एक आलि सयानी । सीता सन बोली गहि पानी ॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू । भूपकिसोर देखि किन लेहू ॥ १॥
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे । सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे ॥
नख सिख देखि राम कै सोभा । सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा ॥२॥
परबस सखिन्ह लखी जब सीता । भयउ गहरु सब कहहि सभीता ॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली । अस कहि मन बिहसी एक आली ॥ ३॥
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी । भयउ बिलंबु मातु भय मानी ॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने । फिरि अपनपउ पितुबस जाने ॥ ४॥
दोहा
देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि ।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि ॥ २३४ ॥
चौपाई
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति । चली राखि उर स्यामल मूरति ॥
प्रभु जब जात जानकी जानी । सुख सनेह सोभा गुन खानी ॥ १॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही । चारु चित भीतीं लिख लीन्ही ॥
गई भवानी भवन बहोरी । बंदि चरन बोली कर जोरी ॥ २॥
जय जय गिरिबरराज किसोरी । जय महेस मुख चंद चकोरी ॥
जय गज बदन षड़ानन माता । जगत जननि दामिनि दुति गाता ॥३॥
नहिं तव आदि मध्य अवसाना । अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि । बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ॥४॥
दोहा
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख ।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष ॥ २३५ ॥
चौपाई
सेवत तोहि सुलभ फल चारी । बरदायनी पुरारि पिआरी ॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे । सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ॥१॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें । बसहु सदा उर पुर सबही कें ॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं । अस कहि चरन गहे बैदेहीं ॥ २॥
बिनय प्रेम बस भई भवानी । खसी माल मूरति मुसुकानी ॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ । बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ ॥ ३॥
सुनु सिय सत्य असीस हमारी । पूजिहि मन कामना तुम्हारी ॥
नारद बचन सदा सुचि साचा । सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ॥४॥
छंद
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो ।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली ।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥
सोरठा
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥ २३६ ॥
चौपाई
हृदयँ सराहत सीय लोनाई । गुर समीप गवने दोउ भाई ॥
राम कहा सबु कौसिक पाहीं । सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ॥ १॥
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही । पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही ॥
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे । रामु लखनु सुनि भए सुखारे ॥ २॥
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी । लगे कहन कछु कथा पुरानी ॥
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई । संध्या करन चले दोउ भाई ॥ ३॥
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा । सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा ॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं । सीय बदन सम हिमकर नाहीं ॥ ४॥
दोहा
जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक ।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक ॥ २३७ ॥
चौपाई
घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई । ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई ॥
कोक सिकप्रद पंकज द्रोही । अवगुन बहुत चंद्रमा तोही ॥ १॥
बैदेही मुख पटतर दीन्हे । होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे ॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी । गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी ॥२॥
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा । आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा ॥
बिगत निसा रघुनायक जागे । बंधु बिलोकि कहन अस लागे ॥ ३॥
उदउ अरुन अवलोकहु ताता । पंकज कोक लोक सुखदाता ॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी । प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी ॥ ४॥
दोहा
अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन ।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन ॥ २३८ ॥
चौपाई
नृप सब नखत करहिं उजिआरी । टारि न सकहिं चाप तम भारी ॥
कमल कोक मधुकर खग नाना । हरषे सकल निसा अवसाना ॥ १॥
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे । होइहहिं टूटें धनुष सुखारे ॥
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा । दुरे नखत जग तेजु प्रकासा ॥ २॥
रबि निज उदय ब्याज रघुराया । प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया ॥
तव भुज बल महिमा उदघाटी । प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी ॥ ३॥
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने । होइ सुचि सहज पुनीत नहाने ॥
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए । चरन सरोज सुभग सिर नाए ॥ ४॥
सतानंदु तब जनक बोलाए । कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए ॥
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई । हरषे बोलि लिए दोउ भाई ॥ ५॥
दोहा
सतानंद =FB पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ ॥ २३९ ॥
चौपाई
सीय स्वयंबरु देखिअ जाई । ईसु काहि धौं देइ बड़ाई ॥
लखन कहा जस भाजनु सोई । नाथ कृपा तव जापर होई ॥ १॥
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी । दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ॥
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला । देखन चले धनुषमख साला ॥ २॥
रंगभूमि आए दोउ भाई । असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई ॥
चले सकल गृह काज बिसारी । बाल जुबान जरठ नर नारी ॥ ३॥
देखी जनक भीर भै भारी । सुचि सेवक सब लिए हँकारी ॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू । आसन उचित देहू सब काहू ॥ ४॥
दोहा
कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि ।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि ॥ २४० ॥
चौपाई
राजकुअँर तेहि अवसर आए । मनहुँ मनोहरता तन छाए ॥
गुन सागर नागर बर बीरा । सुंदर स्यामल गौर सरीरा ॥ १॥
राज समाज बिराजत रूरे । उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥२॥
देखहिं रूप महा रनधीरा । मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी । मनहुँ भयानक मूरति भारी ॥ ३॥
रहे असुर छल छोनिप बेषा । तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ॥
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई । नरभूषन लोचन सुखदाई ॥ ४॥