दोहा

अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु ।

लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥ १६१(क) ॥

 

सोरठा

तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।

सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥ १६१(ख)

 

चौपाई

तातें गुपुत रहउँ जग माहीं । हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं ॥

प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ । कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ ॥ १॥

तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें । प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें ॥

अब जौं तात दुरावउँ तोही । दारुन दोष घटइ अति मोही ॥ २॥

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा । तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा ॥

देखा स्वबस कर्म मन बानी । तब बोला तापस बगध्यानी ॥ ३॥

नाम हमार एकतनु भाई । सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई ॥

कहहु नाम कर अरथ बखानी । मोहि सेवक अति आपन जानी ॥४॥

 

दोहा

आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि ।

नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ॥ १६२ ॥

 

चौपाई

जनि आचरुज करहु मन माहीं । सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं ॥

तपबल तें जग सृजइ बिधाता । तपबल बिष्नु भए परित्राता ॥ १॥

तपबल संभु करहिं संघारा । तप तें अगम न कछु संसारा ॥

भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा । कथा पुरातन कहै सो लागा ॥ २॥

करम धरम इतिहास अनेका । करइ निरूपन बिरति बिबेका ॥

उदभव पालन प्रलय कहानी । कहेसि अमित आचरज बखानी ॥ ३॥

सुनि महिप तापस बस भयऊ । आपन नाम कहत तब लयऊ ॥

कह तापस नृप जानउँ तोही । कीन्हेहु कपट लाग भल मोही ॥ ४॥

 

सोरठा

सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप ।

मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव ॥ १६३ ॥

 

चौपाई

नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा । सत्यकेतु तव पिता नरेसा ॥

गुर प्रसाद सब जानिअ राजा । कहिअ न आपन जानि अकाजा ॥ १॥

देखि तात तव सहज सुधाई । प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई ॥

उपजि परि ममता मन मोरें । कहउँ कथा निज पूछे तोरें ॥ २॥

अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं । मागु जो भूप भाव मन माहीं ॥

सुनि सुबचन भूपति हरषाना । गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना ॥३॥

कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें । चारि पदारथ करतल मोरें ॥

प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी । मागि अगम बर होउँ असोकी ॥ ४॥

 

दोहा

जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ ।

एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ ॥ १६४ ॥

 

चौपाई

कह तापस नृप ऐसेइ होऊ । कारन एक कठिन सुनु सोऊ ॥

कालउ तुअ पद नाइहि सीसा । एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा ॥ १॥

तपबल बिप्र सदा बरिआरा । तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा ॥

जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा । तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा ॥२॥

चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई । सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई ॥

बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला । तोर नास नहि कवनेहुँ काला ॥ ३॥

हरषेउ राउ बचन सुनि तासू । नाथ न होइ मोर अब नासू ॥

तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना । मो कहुँ सर्ब काल कल्याना ॥ ४॥

 

दोहा

एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि ।

मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि ॥ १६५ ॥

 

चौपाई

तातें मै तोहि बरजउँ राजा । कहें कथा तव परम अकाजा ॥

छठें श्रवन यह परत कहानी । नास तुम्हार सत्य मम बानी ॥ १॥

यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा । नास तोर सुनु भानुप्रतापा ॥

आन उपायँ निधन तव नाहीं । जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं ॥ २॥

सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा । द्विज गुर कोप कहहु को राखा ॥

राखइ गुर जौं कोप बिधाता । गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता ॥ ३॥

जौं न चलब हम कहे तुम्हारें । होउ नास नहिं सोच हमारें ॥

एकहिं डर डरपत मन मोरा । प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा ॥ ४॥

 

दोहा

होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ ।

तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ ॥ १६६ ॥

 

चौपाई

सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं । कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं ॥

अहइ एक अति सुगम उपाई । तहाँ परंतु एक कठिनाई ॥ १॥

मम आधीन जुगुति नृप सोई । मोर जाब तव नगर न होई ॥

आजु लगें अरु जब तें भयऊँ । काहू के गृह ग्राम न गयऊँ ॥२॥

जौं न जाउँ तव होइ अकाजू । बना आइ असमंजस आजू ॥

सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी । नाथ निगम असि नीति बखानी ॥३॥

बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं । गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ॥

जलधि अगाध मौलि बह फेनू । संतत धरनि धरत सिर रेनू ॥ ४॥

 

दोहा

अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल ।

मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल ॥ १६७ ॥

 

चौपाई

जानि नृपहि आपन आधीना । बोला तापस कपट प्रबीना ॥

सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही । जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही ॥ १॥

अवसि काज मैं करिहउँ तोरा । मन तन बचन भगत तैं मोरा ॥

जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ । फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ ॥ २॥

जौं नरेस मैं करौं रसोई । तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई ॥

अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई । सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई ॥३॥

पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ । तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ॥

जाइ उपाय रचहु नृप एहू । संबत भरि संकलप करेहू ॥ ४॥

 

दोहा

नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार ।

मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं=FBकरिब जेवनार ॥ १६८ ॥

 

चौपाई

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें । होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें ॥

करिहहिं बिप्र होम मख सेवा । तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा ॥१॥

और एक तोहि कहऊँ लखाऊ । मैं एहि बेष न आउब काऊ ॥

तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया । हरि आनब मैं करि निज माया ॥ २॥

तपबल तेहि करि आपु समाना । रखिहउँ इहाँ बरष परवाना ॥

मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा । सब बिधि तोर सँवारब काजा ॥ ३॥

गै निसि बहुत सयन अब कीजे । मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे ॥

मैं तपबल तोहि तुरग समेता । पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता ॥ ४॥

 

दोहा

मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि ।

जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि ॥ १६९ ॥

 

चौपाई

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी । आसन जाइ बैठ छलग्यानी ॥

श्रमित भूप निद्रा अति आई । सो किमि सोव सोच अधिकाई ॥ १॥

कालकेतु निसिचर तहँ आवा । जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा ॥

परम मित्र तापस नृप केरा । जानइ सो अति कपट घनेरा ॥ २॥

तेहि के सत सुत अरु दस भाई । खल अति अजय देव दुखदाई ॥

प्रथमहि भूप समर सब मारे । बिप्र संत सुर देखि दुखारे ॥ ३॥

तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा । तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा ॥

जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ । भावी बस न जान कछु राऊ ॥४॥

 

दोहा

रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु ।

अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु ॥ १७० ॥

 

चौपाई

तापस नृप निज सखहि निहारी । हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी ॥

मित्रहि कहि सब कथा सुनाई । जातुधान बोला सुख पाई ॥ १॥

अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा । जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा ॥

परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई । बिनु औषध बिआधि बिधि खोई ॥२॥

कुल समेत रिपु मूल बहाई । चौथे दिवस मिलब मैं आई ॥

तापस नृपहि बहुत परितोषी । चला महाकपटी अतिरोषी ॥ ३॥

भानुप्रतापहि बाजि समेता । पहुँचाएसि छन माझ निकेता ॥

नृपहि नारि पहिं सयन कराई । हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई ॥४॥

 

दोहा

राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि ।

लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि ॥ १७१ ॥

 

चौपाई

आपु बिरचि उपरोहित रूपा । परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा ॥

जागेउ नृप अनभएँ बिहाना । देखि भवन अति अचरजु माना ॥ १॥

मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी । उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी ॥

कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं । पुर नर नारि न जानेउ केहीं ॥ २॥

गएँ जाम जुग भूपति आवा । घर घर उत्सव बाज बधावा ॥

उपरोहितहि देख जब राजा । चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा ॥३॥

जुग सम नृपहि गए दिन तीनी । कपटी मुनि पद रह मति लीनी ॥

समय जानि उपरोहित आवा । नृपहि मते सब कहि समुझावा ॥ ४॥

 

दोहा

नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत ।

बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत ॥ १७२ ॥

 

चौपाई

उपरोहित जेवनार बनाई । छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई ॥

मायामय तेहिं कीन्ह रसोई । बिंजन बहु गनि सकइ न कोई ॥१॥

बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा । तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा ॥

भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए । पद पखारि सादर बैठाए ॥ २॥

परुसन जबहिं लाग महिपाला । भै अकासबानी तेहि काला ॥

बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू । है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू ॥३॥

भयउ रसोईं भूसुर माँसू । सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ॥

भूप बिकल मति मोहँ भुलानी । भावी बस आव मुख बानी ॥ ४॥

 

दोहा

बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार ।

जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥ १७३ ॥

 

चौपाई

छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई । घालै लिए सहित समुदाई ॥

ईस्वर राखा धरम हमारा । जैहसि तैं समेत परिवारा ॥१॥

संबत मध्य नास तव होऊ । जलदाता न रहिहि कुल कोऊ ॥

नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा । भै बहोरि बर गिरा अकासा ॥२॥

बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा । नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा ॥

चकित बिप्र सब सुनि नभबानी । भूप गयउ जहँ भोजन खानी ॥ ३॥

तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा । फिरेउ राउ मन सोच अपारा ॥

सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई । त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई ॥ ४॥

 

दोहा

भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर ।

किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर ॥ १७४ ॥

 

चौपाई

अस कहि सब महिदेव सिधाए । समाचार पुरलोगन्ह पाए ॥

सोचहिं दूषन दैवहि देहीं । बिचरत हंस काग किय जेहीं ॥ १॥

उपरोहितहि भवन पहुँचाई । असुर तापसहि खबरि जनाई ॥

तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए । सजि सजि सेन भूप सब धाए ॥२॥

घेरेन्हि नगर निसान बजाई । बिबिध भाँति नित होई लराई ॥

जूझे सकल सुभट करि करनी । बंधु समेत परेउ नृप धरनी ॥ ३॥

सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा । बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा ॥

रिपु जिति सब नृप नगर बसाई । निज पुर गवने जय जसु पाई ॥४॥

 

दोहा

भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम ।

धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ॥ ।१७५ ॥

 

चौपाई

काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा । भयउ निसाचर सहित समाजा ॥

दस सिर ताहि बीस भुजदंडा । रावन नाम बीर बरिबंडा ॥१॥

भूप अनुज अरिमर्दन नामा । भयउ सो कुंभकरन बलधामा ॥

सचिव जो रहा धरमरुचि जासू । भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू ॥२॥

नाम बिभीषन जेहि जग जाना । बिष्नुभगत बिग्यान निधाना ॥

रहे जे सुत सेवक नृप केरे । भए निसाचर घोर घनेरे ॥३॥

कामरूप खल जिनस अनेका । कुटिल भयंकर बिगत बिबेका ॥

कृपा रहित हिंसक सब पापी । बरनि न जाहिं बिस्व परितापी ॥४॥

 

दोहा

उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप ।

तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप ॥ १७६ ॥

 

चौपाई

कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई । परम उग्र नहिं बरनि सो जाई ॥

गयउ निकट तप देखि बिधाता । मागहु बर प्रसन्न मैं ताता ॥१॥

करि बिनती पद गहि दससीसा । बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा ॥

हम काहू के मरहिं न मारें । बानर मनुज जाति दुइ बारें ॥२॥

एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा । मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा ॥

पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ । तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ ॥३॥

जौं एहिं खल नित करब अहारू । होइहि सब उजारि संसारू ॥

सारद प्रेरि तासु मति फेरी । मागेसि नीद मास षट केरी ॥४॥

 

दोहा

गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु ।

तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ॥ १७७ ॥

 

चौपाई

तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए । हरषित ते अपने गृह आए ॥

मय तनुजा मंदोदरि नामा । परम सुंदरी नारि ललामा ॥१॥

सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी । होइहि जातुधानपति जानी ॥

हरषित भयउ नारि भलि पाई । पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई ॥२॥

गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी । बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी ॥

सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा । कनक रचित मनिभवन अपारा ॥ ३॥

भोगावति जसि अहिकुल बासा । अमरावति जसि सक्रनिवासा ॥

तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका । जग बिख्यात नाम तेहि लंका ॥ ४॥

 

दोहा

खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव ।

कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव ॥ १७८(क) ॥

हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ ।

सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ ॥ १७८(ख) ॥

 

चौपाई

रहे तहाँ निसिचर भट भारे । ते सब सुरन्ह समर संघारे ॥

अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे । रच्छक कोटि जच्छपति केरे ॥१॥

दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई । सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई ॥

देखि बिकट भट बड़ि कटकाई । जच्छ जीव लै गए पराई ॥ २॥

फिरि सब नगर दसानन देखा । गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा ॥

सुंदर सहज अगम अनुमानी । कीन्हि तहाँ रावन रजधानी ॥ ३॥

जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे । सुखी सकल रजनीचर कीन्हे ॥

एक बार कुबेर पर धावा । पुष्पक जान जीति लै आवा ॥ ४॥

 

दोहा

कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ ।

मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ ॥ १७९ ॥

 

चौपाई

सुख संपति सुत सेन सहाई । जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई ॥

नित नूतन सब बाढ़त जाई । जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ॥१॥

अतिबल कुंभकरन अस भ्राता । जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता ॥

करइ पान सोवइ षट मासा । जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा ॥ २॥

जौं दिन प्रति अहार कर सोई । बिस्व बेगि सब चौपट होई ॥

समर धीर नहिं जाइ बखाना । तेहि सम अमित बीर बलवाना ॥३॥

बारिदनाद जेठ सुत तासू । भट महुँ प्रथम लीक जग जासू ॥

जेहि न होइ रन सनमुख कोई । सुरपुर नितहिं परावन होई ॥ ४॥

 

दोहा

कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय ।

एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय ॥ १८० ॥

 

चौपाई

कामरूप जानहिं सब माया । सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया ॥

दसमुख बैठ सभाँ एक बारा । देखि अमित आपन परिवारा ॥१॥

सुत समूह जन परिजन नाती । गे को पार निसाचर जाती ॥

सेन बिलोकि सहज अभिमानी । बोला बचन क्रोध मद सानी ॥ २॥

सुनहु सकल रजनीचर जूथा । हमरे बैरी बिबुध बरूथा ॥

ते सनमुख नहिं करही लराई । देखि सबल रिपु जाहिं पराई ॥ ३॥

तेन्ह कर मरन एक बिधि होई । कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥

द्विजभोजन मख होम सराधा ॥ सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा ॥ ४॥

 

दोहा

छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ ।

तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ ॥ १८१ ॥

 

चौपाई

मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा । दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा ॥

जे सुर समर धीर बलवाना । जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना ॥ १॥

तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी । उठि सुत पितु अनुसासन काँधी ॥

एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही । आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही ॥ २॥

चलत दसानन डोलति अवनी । गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी ॥

रावन आवत सुनेउ सकोहा । देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा ॥ ३॥

दिगपालन्ह के लोक सुहाए । सूने सकल दसानन पाए ॥

पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी । देइ देवतन्ह गारि पचारी ॥ ४॥

रन मद मत्त फिरइ जग धावा । प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा ॥

रबि ससि पवन बरुन धनधारी । अगिनि काल जम सब अधिकारी ॥ ५॥

किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा । हठि सबही के पंथहिं लागा ॥

ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी । दसमुख बसबर्ती नर नारी ॥ ६॥

आयसु करहिं सकल भयभीता । नवहिं आइ नित चरन बिनीता ॥७॥

 

दोहा

भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र ।

मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र ॥ १८२(ख) ॥

देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि ।

जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि ॥ १८२ख ॥

 

चौपाई

इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ । सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ ॥

प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा । तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा ॥ १॥

देखत भीमरूप सब पापी । निसिचर निकर देव परितापी ॥

करहि उपद्रव असुर निकाया । नाना रूप धरहिं करि माया ॥ २॥

जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला । सो सब करहिं बेद प्रतिकूला ॥

जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं । नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं ॥३॥

सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई । देव बिप्र गुरू मान न कोई ॥

नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना । सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना ॥ ४॥

 

छंद

जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा ।

आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा ॥

अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना ।

तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना ॥

 

सोरठा

बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं ।

हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥ १८३ ॥

 

।। मासपारायण, छठा विश्राम ।।

 

चौपाई

बाढ़े खल बहु चोर जुआरा । जे लंपट परधन परदारा ॥

मानहिं मातु पिता नहिं देवा । साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥१॥

जिन्ह के यह आचरन भवानी । ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥

अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी । परम सभीत धरा अकुलानी ॥ २॥

गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही । जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ॥

सकल धर्म देखइ बिपरीता । कहि न सकइ रावन भय भीता ॥ ३॥

धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी । गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥

निज संताप सुनाएसि रोई । काहू तें कछु काज न होई ॥ ४॥

 

छंद

सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका ।

सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥

ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई ।

जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥

 

सोरठा

धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु ।

जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥ १८४ ॥

 

चौपाई

बैठे सुर सब करहिं बिचारा । कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥

पुर बैकुंठ जान कह कोई । कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥१॥

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति । प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥

तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ । अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ॥ २॥

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना । प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं । कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥ ३॥

अग जगमय सब रहित बिरागी । प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ॥

मोर बचन सब के मन माना । साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥ ४॥

 

दोहा

सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर ।

अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर ॥ १८५ ॥

 

छंद

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता ।

गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता ॥

पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई ।

जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ॥

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा ।

अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ॥

जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा ।

निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ॥

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा ।

सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥

जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा ।

मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना ।

जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ॥

भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा ।

मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥

 

दोहा

जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह ।

गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥ १८६ ॥

 

चौपाई

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा । तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा ॥

अंसन्ह सहित मनुज अवतारा । लेहउँ दिनकर बंस उदारा ॥ १॥

कस्यप अदिति महातप कीन्हा । तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥

ते दसरथ कौसल्या रूपा । कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा ॥ २॥

तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई । रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥

नारद बचन सत्य सब करिहउँ । परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ॥३॥

हरिहउँ सकल भूमि गरुआई । निर्भय होहु देव समुदाई ॥

गगन ब्रह्मबानी सुनी काना । तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ॥ ४॥

तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा । अभय भई भरोस जियँ आवा ॥५॥

 

दोहा

निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ ।

बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥ १८७ ॥

 

चौपाई

गए देव सब निज निज धामा । भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।

जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा । हरषे देव बिलंब न कीन्हा ॥१॥

बनचर देह धरि छिति माहीं । अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ॥

गिरि तरु नख आयुध सब बीरा । हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥२॥

गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी । रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥

यह सब रुचिर चरित मैं भाषा । अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥ ३॥

अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ । बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ ॥

धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी । हृदयँ भगति मति सारँगपानी ॥ ४॥

 

दोहा

कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत ।

पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥ १८८ ॥

 

चौपाई

एक बार भूपति मन माहीं । भै गलानि मोरें सुत नाहीं ॥

गुर गृह गयउ तुरत महिपाला । चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥ १॥

निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ । कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ॥

धरहु धीर होइहहिं सुत चारी । त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥ २॥

सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा । पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥

भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें । प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥ ३॥

जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा । सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥

यह हबि बाँटि देहु नृप जाई । जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥ ४॥

 

दोहा

तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ ॥

परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥ १८९ ॥

 

चौपाई

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं । कौसल्यादि तहाँ चलि आई ॥

अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा । उभय भाग आधे कर कीन्हा ॥१॥

कैकेई कहँ नृप सो दयऊ । रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ॥

कौसल्या कैकेई हाथ धरि । दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ॥ २॥

एहि बिधि गर्भसहित सब नारी । भईं हृदयँ हरषित सुख भारी ॥

जा दिन तें हरि गर्भहिं आए । सकल लोक सुख संपति छाए ॥ ३॥

मंदिर महँ सब राजहिं रानी । सोभा सील तेज की खानीं ॥

सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ । जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ ॥४॥

 

दोहा

जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल ।

चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥ १९० ॥

 

चौपाई

नौमी तिथि मधु मास पुनीता । सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता ॥

मध्यदिवस अति सीत न घामा । पावन काल लोक बिश्रामा ॥ १॥

सीतल मंद सुरभि बह बाऊ । हरषित सुर संतन मन चाऊ ॥

बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा । स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा ॥२॥

सो अवसर बिरंचि जब जाना । चले सकल सुर साजि बिमाना ॥

गगन बिमल सकुल सुर जूथा । गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा ॥ ३॥

बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी । गहगहि गगन दुंदुभी बाजी ॥

अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा । बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ॥४॥

 

दोहा

सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम ।

जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ॥ १९१ ॥

 

छंद

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।

भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।

माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।

सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ॥

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।

मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै ॥

उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।

कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥

माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा ।

कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥

सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।

यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥

 

दोहा

बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार ।

निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥ १९२ ॥

 

चौपाई

सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी । संभ्रम चलि आई सब रानी ॥

हरषित जहँ तहँ धाईं दासी । आनँद मगन सकल पुरबासी ॥१॥

दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना । मानहुँ ब्रह्मानंद समाना ॥

परम प्रेम मन पुलक सरीरा । चाहत उठत करत मति धीरा ॥२॥

जाकर नाम सुनत सुभ होई । मोरें गृह आवा प्रभु सोई ॥

परमानंद पूरि मन राजा । कहा बोलाइ बजावहु बाजा ॥ ३॥

गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा । आए द्विजन सहित नृपद्वारा ॥

अनुपम बालक देखेन्हि जाई । रूप रासि गुन कहि न सिराई ॥४॥

 

दोहा

नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह ।

हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह ॥ १९३ ॥

 

चौपाई

ध्वज पताक तोरन पुर छावा । कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा ॥

सुमनबृष्टि अकास तें होई । ब्रह्मानंद मगन सब लोई ॥१॥

बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई । सहज संगार किएँ उठि धाई ॥

कनक कलस मंगल धरि थारा । गावत पैठहिं भूप दुआरा ॥२॥

करि आरति नेवछावरि करहीं । बार बार सिसु चरनन्हि परहीं ॥

मागध सूत बंदिगन गायक । पावन गुन गावहिं रघुनायक ॥ ३॥

सर्बस दान दीन्ह सब काहू । जेहिं पावा राखा नहिं ताहू ॥

मृगमद चंदन कुंकुम कीचा । मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा ॥ ४॥

 

दोहा

गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद ।

हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद ॥ १९४ ॥

 

चौपाई

कैकयसुता सुमित्रा दोऊ । सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ ॥

वह सुख संपति समय समाजा । कहि न सकइ सारद अहिराजा ॥ १॥

अवधपुरी सोहइ एहि भाँती । प्रभुहि मिलन आई जनु राती ॥

देखि भानू जनु मन सकुचानी । तदपि बनी संध्या अनुमानी ॥ २॥

अगर धूप बहु जनु अँधिआरी । उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी ॥

मंदिर मनि समूह जनु तारा । नृप गृह कलस सो इंदु उदारा ॥ ३॥

भवन बेदधुनि अति मृदु बानी । जनु खग मूखर समयँ जनु सानी ॥

कौतुक देखि पतंग भुलाना । एक मास तेइँ जात न जाना ॥ ४॥

 

दोहा

मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ ।

रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ ॥ १९५ ॥

 

चौपाई

यह रहस्य काहू नहिं जाना । दिन मनि चले करत गुनगाना ॥

देखि महोत्सव सुर मुनि नागा । चले भवन बरनत निज भागा ॥ १॥

औरउ एक कहउँ निज चोरी । सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी ॥

काक भुसुंडि संग हम दोऊ । मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ ॥ २॥

परमानंद प्रेमसुख फूले । बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले ॥

यह सुभ चरित जान पै सोई । कृपा राम कै जापर होई ॥ ३॥

तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा । दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा ॥

गज रथ तुरग हेम गो हीरा । दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा ॥ ४॥

 

दोहा

मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस ।

सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस ॥ १९६ ॥

 

चौपाई

कछुक दिवस बीते एहि भाँती । जात न जानिअ दिन अरु राती ॥

नामकरन कर अवसरु जानी । भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी ॥ १॥

करि पूजा भूपति अस भाषा । धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा ॥

इन्ह के नाम अनेक अनूपा । मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा ॥ २॥

जो आनंद सिंधु सुखरासी । सीकर तें त्रैलोक सुपासी ॥

सो सुख धाम राम अस नामा । अखिल लोक दायक बिश्रामा ॥ ३॥

बिस्व भरन पोषन कर जोई । ताकर नाम भरत अस होई ॥

जाके सुमिरन तें रिपु नासा । नाम सत्रुहन बेद प्रकासा ॥ ४॥

 

दोहा

लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार ।

गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार ॥ १९७ ॥

 

चौपाई

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी । बेद तत्व नृप तव सुत चारी ॥

मुनि धन जन सरबस सिव प्राना । बाल केलि तेहिं सुख माना ॥१॥

बारेहि ते निज हित पति जानी । लछिमन राम चरन रति मानी ॥

भरत सत्रुहन दूनउ भाई । प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई ॥ २॥

स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी । निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी ॥

चारिउ सील रूप गुन धामा । तदपि अधिक सुखसागर रामा ॥३॥

हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा । सूचत किरन मनोहर हासा ॥

कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना । मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना ॥४॥

 

दोहा

ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद ।

सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद ॥ १९८ ॥

 

चौपाई

काम कोटि छबि स्याम सरीरा । नील कंज बारिद गंभीरा ॥

अरुन चरन पकंज नख जोती । कमल दलन्हि बैठे जनु मोती ॥ १॥

रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे । नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे ॥

कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा । नाभि गभीर जान जेहि देखा ॥ २॥

भुज बिसाल भूषन जुत भूरी । हियँ हरि नख अति सोभा रूरी ॥

उर मनिहार पदिक की सोभा । बिप्र चरन देखत मन लोभा ॥ ३॥

कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई । आनन अमित मदन छबि छाई ॥

दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे । नासा तिलक को बरनै पारे ॥ ४॥

सुंदर श्रवन सुचारु कपोला । अति प्रिय मधुर तोतरे बोला ॥

चिक्कन कच कुंचित गभुआरे । बहु प्रकार रचि मातु सँवारे ॥ ५॥

पीत झगुलिआ तनु पहिराई । जानु पानि बिचरनि मोहि भाई ॥

रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा । सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा ॥६॥

 

दोहा

सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत ।

दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत ॥ १९९ ॥

 

चौपाई

एहि बिधि राम जगत पितु माता । कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता ॥

जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी । तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी ॥ १॥

रघुपति बिमुख जतन कर कोरी । कवन सकइ भव बंधन छोरी ॥

जीव चराचर बस कै राखे । सो माया प्रभु सों भय भाखे ॥ २॥

भृकुटि बिलास नचावइ ताही । अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही ॥

मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई । भजत कृपा करिहहिं रघुराई ॥३॥

एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा । सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा ॥

लै उछंग कबहुँक हलरावै । कबहुँ पालनें घालि झुलावै ॥ ४॥

 

दोहा

प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान ।

सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान ॥ २०० ॥

 

चौपाई

एक बार जननीं अन्हवाए । करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए ॥

निज कुल इष्टदेव भगवाना । पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना ॥ १॥

करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा । आपु गई जहँ पाक बनावा ॥

बहुरि मातु तहवाँ चलि आई । भोजन करत देख सुत जाई ॥२॥

गै जननी सिसु पहिं भयभीता । देखा बाल तहाँ पुनि सूता ॥

बहुरि आइ देखा सुत सोई । हृदयँ कंप मन धीर न होई ॥ ३॥

इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा । मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा ॥

देखि राम जननी अकुलानी । प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी ॥४॥