दोहा

असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु ।

जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु ॥ १२१ ॥

 

चौपाई

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं । कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं ॥

राम जनम के हेतु अनेका । परम बिचित्र एक तें एका ॥१॥

जनम एक दुइ कहउँ बखानी । सावधान सुनु सुमति भवानी ॥

द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ । जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥२॥

बिप्र श्राप तें दूनउ भाई । तामस असुर देह तिन्ह पाई ॥

कनककसिपु अरु हाटक लोचन । जगत बिदित सुरपति मद मोचन ॥३॥

बिजई समर बीर बिख्याता । धरि बराह बपु एक निपाता ॥

होइ नरहरि दूसर पुनि मारा । जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा ॥४॥

 

दोहा

भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान ।

कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान ॥ १२२ ।

 

चौपाई

मुकुत न भए हते भगवाना । तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ॥

एक बार तिन्ह के हित लागी । धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥१॥

कस्यप अदिति तहाँ पितु माता । दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥

एक कलप एहि बिधि अवतारा । चरित्र पवित्र किए संसारा ॥२॥

एक कलप सुर देखि दुखारे । समर जलंधर सन सब हारे ॥

संभु कीन्ह संग्राम अपारा । दनुज महाबल मरइ न मारा ॥३॥

परम सती असुराधिप नारी । तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥४॥

 

दोहा

छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह ॥

जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह ॥ १२३ ॥

 

चौपाई

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना । कौतुकनिधि कृपाल भगवाना ॥

तहाँ जलंधर रावन भयऊ । रन हति राम परम पद दयऊ ॥१॥

एक जनम कर कारन एहा । जेहि लागि राम धरी नरदेहा ॥

प्रति अवतार कथा प्रभु केरी । सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी ॥२॥

नारद श्राप दीन्ह एक बारा । कलप एक तेहि लगि अवतारा ॥

गिरिजा चकित भई सुनि बानी । नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि ॥३॥

कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा । का अपराध रमापति कीन्हा ॥

यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी । मुनि मन मोह आचरज भारी ॥४॥

 

दोहा

बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ ।

जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ ॥ १२४(क) ॥

 

सोरठा

कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु ।

भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद ॥ १२४(ख) ॥

 

चौपाई

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि । बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥

आश्रम परम पुनीत सुहावा । देखि देवरिषि मन अति भावा ॥१॥

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा । भयउ रमापति पद अनुरागा ॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी । सहज बिमल मन लागि समाधी ॥२॥

मुनि गति देखि सुरेस डेराना । कामहि बोलि कीन्ह समाना ॥

सहित सहाय जाहु मम हेतू । चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू ॥३॥

सुनासीर मन महुँ असि त्रासा । चहत देवरिषि मम पुर बासा ॥

जे कामी लोलुप जग माहीं । कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ॥४॥

 

दोहा

सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज ।

छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥ १२५ ॥

 

चौपाई

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ । निज मायाँ बसंत निरमयऊ ॥

कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा । कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा ॥१॥

चली सुहावनि त्रिबिध बयारी । काम कृसानु बढ़ावनिहारी ॥

रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना ॥२॥

करहिं गान बहु तान तरंगा । बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा ॥

देखि सहाय मदन हरषाना । कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना ॥३॥

काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी । निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ॥

सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु । बड़ रखवार रमापति जासू ॥४॥

 

दोहा

सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन ।

गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन ॥ १२६ ॥

 

चौपाई

भयउ न नारद मन कछु रोषा । कहि प्रिय बचन काम परितोषा ॥

नाइ चरन सिरु आयसु पाई । गयउ मदन तब सहित सहाई ॥१॥

मुनि सुसीलता आपनि करनी । सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी ॥

सुनि सब कें मन अचरजु आवा । मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा ॥२॥

तब नारद गवने सिव पाहीं । जिता काम अहमिति मन माहीं ॥

मार चरित संकरहिं सुनाए । अतिप्रिय जानि महेस सिखाए ॥३॥

बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं । जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं ॥

तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ । चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ ॥४॥

 

दोहा

संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान ।

भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥ १२७ ॥

 

चौपाई

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई । करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥

संभु बचन मुनि मन नहिं भाए । तब बिरंचि के लोक सिधाए ॥१॥

एक बार करतल बर बीना । गावत हरि गुन गान प्रबीना ॥

छीरसिंधु गवने मुनिनाथा । जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा ॥२॥

हरषि मिले उठि रमानिकेता । बैठे आसन रिषिहि समेता ॥

बोले बिहसि चराचर राया । बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया ॥३॥

काम चरित नारद सब भाषे । जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे ॥

अति प्रचंड रघुपति कै माया । जेहि न मोह अस को जग जाया ॥४॥

 

दोहा

रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।

तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान ॥ १२८ ॥

 

चौपाई

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें । ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके ॥

ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा । तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा ॥१॥

नारद कहेउ सहित अभिमाना । कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ॥

करुनानिधि मन दीख बिचारी । उर अंकुरेउ गरब तरु भारी ॥२॥

बेगि सो मै डारिहउँ उखारी । पन हमार सेवक हितकारी ॥

मुनि कर हित मम कौतुक होई । अवसि उपाय करबि मै सोई ॥३॥

तब नारद हरि पद सिर नाई । चले हृदयँ अहमिति अधिकाई ॥

श्रीपति निज माया तब प्रेरी । सुनहु कठिन करनी तेहि केरी ॥४॥

 

दोहा

बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार ।

श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार ॥ १२९ ॥

 

चौपाई

बसहिं नगर सुंदर नर नारी । जनु बहु मनसिज रति तनुधारी ॥

तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा । अगनित हय गय सेन समाजा ॥१॥

सत सुरेस सम बिभव बिलासा । रूप तेज बल नीति निवासा ॥

बिस्वमोहनी तासु कुमारी । श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी ॥२॥

सोइ हरिमाया सब गुन खानी । सोभा तासु कि जाइ बखानी ॥

करइ स्वयंबर सो नृपबाला । आए तहँ अगनित महिपाला ॥३॥

मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ । पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ ॥

सुनि सब चरित भूपगृहँ आए । करि पूजा नृप मुनि बैठाए ॥४॥

 

दोहा

आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि ।

कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि ॥ १३० ॥

 

चौपाई

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी । बड़ी बार लगि रहे निहारी ॥

लच्छन तासु बिलोकि भुलाने । हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥१॥

जो एहि बरइ अमर सोइ होई । समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥

सेवहिं सकल चराचर ताही । बरइ सीलनिधि कन्या जाही ॥२॥

लच्छन सब बिचारि उर राखे । कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥

सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं । नारद चले सोच मन माहीं ॥३॥

करौं जाइ सोइ जतन बिचारी । जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥

जप तप कछु न होइ तेहि काला । हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ॥४॥

 

दोहा

एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल ।

जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल ॥ १३१ ॥

 

चौपाई

हरि सन मागौं सुंदरताई । होइहि जात गहरु अति भाई ॥

मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ । एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥१॥

बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला । प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥

प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने । होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥२॥

अति आरति कहि कथा सुनाई । करहु कृपा करि होहु सहाई ॥

आपन रूप देहु प्रभु मोही । आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥३॥

जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा । करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥

निज माया बल देखि बिसाला । हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥४॥

 

दोहा

जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार ।

सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥ १३२ ॥

 

चौपाई

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी । बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥

एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ । कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ ॥१॥

माया बिबस भए मुनि मूढ़ा । समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा ॥

गवने तुरत तहाँ रिषिराई । जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई ॥२॥

निज निज आसन बैठे राजा । बहु बनाव करि सहित समाजा ॥

मुनि मन हरष रूप अति मोरें । मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें ॥३॥

मुनि हित कारन कृपानिधाना । दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥

सो चरित्र लखि काहुँ न पावा । नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥४॥

 

दोहा

रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ ।

बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥ १३३ ॥

 

चौपाई

जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई । हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥

तहँ बैठ महेस गन दोऊ । बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥१॥

करहिं कूटि नारदहि सुनाई । नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥

रीझहि राजकुअँरि छबि देखी । इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥२॥

मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ । हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥

जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी । समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥३॥

काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा । सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥

मर्कट बदन भयंकर देही । देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥४॥

 

दोहा

सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल ।

देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥ १३४ ॥

 

चौपाई

जेहि दिसि बैठे नारद फूली । सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥

पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं । देखि दसा हर गन मुसकाहीं ॥१॥

धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला । कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥

दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा । नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥२॥

मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी । मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥

तब हर गन बोले मुसुकाई । निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥३॥

अस कहि दोउ भागे भयँ भारी । बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥

बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा । तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥४॥

 

दोहा

होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ ।

हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥ १३५ ॥

 

चौपाई

पुनि जल दीख रूप निज पावा । तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥

फरकत अधर कोप मन माहीं । सपदी चले कमलापति पाहीं ॥१॥

देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई । जगत मोर उपहास कराई ॥

बीचहिं पंथ मिले दनुजारी । संग रमा सोइ राजकुमारी ॥२॥

बोले मधुर बचन सुरसाईं । मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥

सुनत बचन उपजा अति क्रोधा । माया बस न रहा मन बोधा ॥३॥

पर संपदा सकहु नहिं देखी । तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥

मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु । सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥४॥

 

दोहा

असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु ।

स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥ १३६ ॥

 

चौपाई

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई । भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥

भलेहि मंद मंदेहि भल करहू । बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥१॥

डहकि डहकि परिचेहु सब काहू । अति असंक मन सदा उछाहू ॥

करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा । अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥२॥

भले भवन अब बायन दीन्हा । पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥

बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा । सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥३॥

कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी । करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥

मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी । नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥४॥

 

दोहा

श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि ।

निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥ १३७ ॥

 

चौपाई

जब हरि माया दूरि निवारी । नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥

तब मुनि अति सभीत हरि चरना । गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥१॥

मृषा होउ मम श्राप कृपाला । मम इच्छा कह दीनदयाला ॥

मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे । कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥२॥

जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा ॥

कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥३॥

जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥

अस उर धरि महि बिचरहु जाई । अब न तुम्हहि माया निअराई ॥४॥

 

दोहा

बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान ॥

सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥ १३८ ॥

 

चौपाई

हर गन मुनिहि जात पथ देखी । बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥

अति सभीत नारद पहिं आए । गहि पद आरत बचन सुनाए ॥१॥

हर गन हम न बिप्र मुनिराया । बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥

श्राप अनुग्रह करहु कृपाला । बोले नारद दीनदयाला ॥२॥

निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ । बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥

भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ । धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ ॥३॥

समर मरन हरि हाथ तुम्हारा । होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥

चले जुगल मुनि पद सिर नाई । भए निसाचर कालहि पाई ॥४॥

 

दोहा

एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार ।

सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार ॥ १३९ ॥

 

चौपाई

एहि बिधि जनम करम हरि केरे । सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे ॥

कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं । चारु चरित नानाबिधि करहीं ॥१॥

तब तब कथा मुनीसन्ह गाई । परम पुनीत प्रबंध बनाई ॥

बिबिध प्रसंग अनूप बखाने । करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥२॥

हरि अनंत हरिकथा अनंता । कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥

रामचंद्र के चरित सुहाए । कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥३॥

यह प्रसंग मैं कहा भवानी । हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥

प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥ सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥४॥

 

सोरठा

सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ॥

अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥ १४० ॥

 

चौपाई

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी । कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥

जेहि कारन अज अगुन अरूपा । ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा ॥१॥

जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा । बंधु समेत धरें मुनिबेषा ॥

जासु चरित अवलोकि भवानी । सती सरीर रहिहु बौरानी ॥२॥

अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी । तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥

लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा । सो सब कहिहउँ मति अनुसारा ॥३॥

भरद्वाज सुनि संकर बानी । सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी ॥

लगे बहुरि बरने बृषकेतू । सो अवतार भयउ जेहि हेतू ॥४॥

 

दोहा

सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥

राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ ॥ १४१ ॥

 

चौपाई

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा । जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥

दंपति धरम आचरन नीका । अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥१॥

नृप उत्तानपाद सुत तासू । ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू ॥

लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही । बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥२॥

देवहूति पुनि तासु कुमारी । जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥

आदिदेव प्रभु दीनदयाला । जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥३॥

सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना । तत्व बिचार निपुन भगवाना ॥

तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला । प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥४॥

 

सोरठा

होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन ।

हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥ १४२ ॥

 

चौपाई

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा । नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥

तीरथ बर नैमिष बिख्याता । अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥१॥

बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा । तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥

पंथ जात सोहहिं मतिधीरा । ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥२॥

पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा । हरषि नहाने निरमल नीरा ॥

आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी । धरम धुरंधर नृपरिषि जानी ॥३॥

जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए । मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥

कृस सरीर मुनिपट परिधाना । सत समाज नित सुनहिं पुराना ॥४॥

 

दोहा

द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग ।

बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग ॥ १४३ ॥

 

चौपाई

करहिं अहार साक फल कंदा । सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा ॥

पुनि हरि हेतु करन तप लागे । बारि अधार मूल फल त्यागे ॥१॥

उर अभिलाष निंरंतर होई । देखा नयन परम प्रभु सोई ॥

अगुन अखंड अनंत अनादी । जेहि चिंतहिं परमारथबादी ॥२॥

नेति नेति जेहि बेद निरूपा । निजानंद निरुपाधि अनूपा ॥

संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना । उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥३॥

ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई । भगत हेतु लीलातनु गहई ॥

जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा । तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥४॥

 

दोहा

एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार ।

संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार ॥ १४४ ॥

 

चौपाई

बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ । ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥

बिधि हरि तप देखि अपारा । मनु समीप आए बहु बारा ॥१॥

मागहु बर बहु भाँति लोभाए । परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥

अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा । तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥२॥

प्रभु सर्बग्य दास निज जानी । गति अनन्य तापस नृप रानी ॥

मागु मागु बरु भै नभ बानी । परम गभीर कृपामृत सानी ॥३॥

मृतक जिआवनि गिरा सुहाई । श्रबन रंध्र होइ उर जब आई ॥

ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए । मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥४॥

 

दोहा

श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात ।

बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात ॥ १४५ ॥

 

चौपाई

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु । बिधि हरि हर बंदित पद रेनू ॥

सेवत सुलभ सकल सुख दायक । प्रनतपाल सचराचर नायक ॥१॥

जौं अनाथ हित हम पर नेहू । तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥

जो सरूप बस सिव मन माहीं । जेहि कारन मुनि जतन कराहीं ॥२॥

जो भुसुंडि मन मानस हंसा । सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥

देखहिं हम सो रूप भरि लोचन । कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥३॥

दंपति बचन परम प्रिय लागे । मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥

भगत बछल प्रभु कृपानिधाना । बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥४॥

 

दोहा

नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम ।

लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥ १४६ ॥

 

चौपाई

सरद मयंक बदन छबि सींवा । चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥

अधर अरुन रद सुंदर नासा । बिधु कर निकर बिनिंदक हासा ॥१॥

नव अबुंज अंबक छबि नीकी । चितवनि ललित भावँती जी की ॥

भुकुटि मनोज चाप छबि हारी । तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥२॥

कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा । कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥

उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला । पदिक हार भूषन मनिजाला ॥३॥

केहरि कंधर चारु जनेउ । बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ ॥

करि कर सरि सुभग भुजदंडा । कटि निषंग कर सर कोदंडा ॥४॥

 

दोहा

तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि ॥

नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥ १४७ ॥

 

चौपाई

पद राजीव बरनि नहि जाहीं । मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं ॥

बाम भाग सोभति अनुकूला । आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥१॥

जासु अंस उपजहिं गुनखानी । अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥

भृकुटि बिलास जासु जग होई । राम बाम दिसि सीता सोई ॥२॥

छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी । एकटक रहे नयन पट रोकी ॥

चितवहिं सादर रूप अनूपा । तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥३॥

हरष बिबस तन दसा भुलानी । परे दंड इव गहि पद पानी ॥

सिर परसे प्रभु निज कर कंजा । तुरत उठाए करुनापुंजा ॥४॥

 

दोहा

बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि ।

मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥ १४८ ॥

 

चौपाई

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी । धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥

नाथ देखि पद कमल तुम्हारे । अब पूरे सब काम हमारे ॥१॥

एक लालसा बड़ि उर माही । सुगम अगम कहि जात सो नाहीं ॥

तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं । अगम लाग मोहि निज कृपनाईं ॥२॥

जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई । बहु संपति मागत सकुचाई ॥

तासु प्रभा जान नहिं सोई । तथा हृदयँ मम संसय होई ॥३॥

सो तुम्ह जानहु अंतरजामी । पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥

सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि । मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥४॥

 

दोहा

दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ ॥

चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥ १४९ ॥

 

चौपाई

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले । एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥

आपु सरिस खोजौं कहँ जाई । नृप तव तनय होब मैं आई ॥१॥

सतरूपहि बिलोकि कर जोरें । देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥

जो बरु नाथ चतुर नृप मागा । सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥२॥

प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई । जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥

तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी । ब्रह्म सकल उर अंतरजामी ॥३॥

अस समुझत मन संसय होई । कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥

जे निज भगत नाथ तव अहहीं । जो सुख पावहिं जो गति लहहीं ॥४॥

 

दोहा

सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ॥

सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥ १५० ॥

 

चौपाई

सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना । कृपासिंधु बोले मृदु बचना ॥

जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं । मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं ॥१॥

मातु बिबेक अलोकिक तोरें । कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।

बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी । अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥२॥

सुत बिषइक तव पद रति होऊ । मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥

मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना । मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥३॥

अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ । एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥

अब तुम्ह मम अनुसासन मानी । बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥४॥

 

सोरठा

तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि ।

होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥ १५१ ॥

 

चौपाई

इच्छामय नरबेष सँवारें । होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥

अंसन्ह सहित देह धरि ताता । करिहउँ चरित भगत सुखदाता ॥१॥

जे सुनि सादर नर बड़भागी । भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥

आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया । सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥२॥

पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा । सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥

पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना । अंतरधान भए भगवाना ॥३॥

दंपति उर धरि भगत कृपाला । तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥

समय पाइ तनु तजि अनयासा । जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥४॥

 

दोहा

यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु ।

भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥ १५२ ॥

 

।। मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम ।।

 

चौपाई

सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी । जो गिरिजा प्रति संभु बखानी ॥

बिस्व बिदित एक कैकय देसू । सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू ॥१॥

धरम धुरंधर नीति निधाना । तेज प्रताप सील बलवाना ॥

तेहि कें भए जुगल सुत बीरा । सब गुन धाम महा रनधीरा ॥२॥

राज धनी जो जेठ सुत आही । नाम प्रतापभानु अस ताही ॥

अपर सुतहि अरिमर्दन नामा । भुजबल अतुल अचल संग्रामा ॥ ३॥

भाइहि भाइहि परम समीती । सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥

जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा । हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ॥ ४॥

 

दोहा

जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस ।

प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस ॥ १५३ ॥

 

चौपाई

नृप हितकारक सचिव सयाना । नाम धरमरुचि सुक्र समाना ॥

सचिव सयान बंधु बलबीरा । आपु प्रतापपुंज रनधीरा ॥१॥

सेन संग चतुरंग अपारा । अमित सुभट सब समर जुझारा ॥

सेन बिलोकि राउ हरषाना । अरु बाजे गहगहे निसाना ॥ २॥

बिजय हेतु कटकई बनाई । सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई ॥

जँह तहँ परीं अनेक लराईं । जीते सकल भूप बरिआई ॥ ३॥

सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे । लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें ॥

सकल अवनि मंडल तेहि काला । एक प्रतापभानु महिपाला ॥४॥

 

दोहा

स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु ।

अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु ॥ १५४ ॥

 

चौपाई

भूप प्रतापभानु बल पाई । कामधेनु भै भूमि सुहाई ॥

सब दुख बरजित प्रजा सुखारी । धरमसील सुंदर नर नारी ॥१॥

सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती । नृप हित हेतु सिखव नित नीती ॥

गुर सुर संत पितर महिदेवा । करइ सदा नृप सब कै सेवा ॥ २॥

भूप धरम जे बेद बखाने । सकल करइ सादर सुख माने ॥

दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना । सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना ॥३॥

नाना बापीं कूप तड़ागा । सुमन बाटिका सुंदर बागा ॥

बिप्रभवन सुरभवन सुहाए । सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए ॥ ४॥

 

दोहा

जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग ।

बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग ॥ १५५ ॥

 

चौपाई

हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना । भूप बिबेकी परम सुजाना ॥

करइ जे धरम करम मन बानी । बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी ॥ १॥

चढ़ि बर बाजि बार एक राजा । मृगया कर सब साजि समाजा ॥

बिंध्याचल गभीर बन गयऊ । मृग पुनीत बहु मारत भयऊ ॥ २॥

फिरत बिपिन नृप दीख बराहू । जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥

बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं । मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं ॥३॥

कोल कराल दसन छबि गाई । तनु बिसाल पीवर अधिकाई ॥

घुरुघुरात हय आरौ पाएँ । चकित बिलोकत कान उठाएँ ॥ ४॥

 

दोहा

नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु ।

चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ॥ १५६ ॥

 

चौपाई

आवत देखि अधिक रव बाजी । चलेउ बराह मरुत गति भाजी ॥

तुरत कीन्ह नृप सर संधाना । महि मिलि गयउ बिलोकत बाना ॥ १॥

तकि तकि तीर महीस चलावा । करि छल सुअर सरीर बचावा ॥

प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा । रिस बस भूप चलेउ संग लागा ॥ २॥

गयउ दूरि घन गहन बराहू । जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू ॥

अति अकेल बन बिपुल कलेसू । तदपि न मृग मग तजइ नरेसू ॥ ३॥

कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा । भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा ॥

अगम देखि नृप अति पछिताई । फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ॥ ४॥

 

दोहा

खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत ।

खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत ॥ १५७ ॥

 

चौपाई

फिरत बिपिन आश्रम एक देखा । तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा ॥

जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई । समर सेन तजि गयउ पराई ॥ १॥

समय प्रतापभानु कर जानी । आपन अति असमय अनुमानी ॥

गयउ न गृह मन बहुत गलानी । मिला न राजहि नृप अभिमानी ॥२॥

रिस उर मारि रंक जिमि राजा । बिपिन बसइ तापस कें साजा ॥

तासु समीप गवन नृप कीन्हा । यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा ॥ ३॥

राउ तृषित नहि सो पहिचाना । देखि सुबेष महामुनि जाना ॥

उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा । परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥ ४॥

 

दोहा

भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ ।

मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ ॥ १५८ ॥

 

चौपाई

गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ । निज आश्रम तापस लै गयऊ ॥

आसन दीन्ह अस्त रबि जानी । पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी ॥१॥

को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें । सुंदर जुबा जीव परहेलें ॥

चक्रबर्ति के लच्छन तोरें । देखत दया लागि अति मोरें ॥ २॥

नाम प्रतापभानु अवनीसा । तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा ॥

फिरत अहेरें परेउँ भुलाई । बडे भाग देखउँ पद आई ॥ ३॥

हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा । जानत हौं कछु भल होनिहारा ॥

कह मुनि तात भयउ अँधियारा । जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा ॥४॥

 

दोहा

निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान ।

बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥ १५९(क) ॥

तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ ।

आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥ १५९(ख) ॥

 

चौपाई

भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा । बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा ॥

नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही । चरन बंदि निज भाग्य सराही ॥ १॥

पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई । जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई ॥

मोहि मुनिस सुत सेवक जानी । नाथ नाम निज कहहु बखानी ॥ २॥

तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना । भूप सुह्रद सो कपट सयाना ॥

बैरी पुनि छत्री पुनि राजा । छल बल कीन्ह चहइ निज काजा ॥ ३॥

समुझि राजसुख दुखित अराती । अवाँ अनल इव सुलगइ छाती ॥

सरल बचन नृप के सुनि काना । बयर सँभारि हृदयँ हरषाना ॥ ४॥

 

दोहा

कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत ।

नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति ॥ १६० ॥

 

चौपाई

कह नृप जे बिग्यान निधाना । तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना ॥

सदा रहहि अपनपौ दुराएँ । सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ ॥ १॥

तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें । परम अकिंचन प्रिय हरि केरें ॥

तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा । होत बिरंचि सिवहि संदेहा ॥ २॥

जोसि सोसि तव चरन नमामी । मो पर कृपा करिअ अब स्वामी ॥

सहज प्रीति भूपति कै देखी । आपु बिषय बिस्वास बिसेषी ॥ ३॥

सब प्रकार राजहि अपनाई । बोलेउ अधिक सनेह जनाई ॥

सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला । इहाँ बसत बीते बहु काला ॥ ४॥