दोहा

तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु ।

नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु ॥ ८१ ॥

 

चौपाई

जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए । करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए ॥

बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई । कथा उमा कै सकल सुनाई ॥१॥

भए मगन सिव सुनत सनेहा । हरषि सप्तरिषि गवने गेहा ॥

मनु थिर करि तब संभु सुजाना । लगे करन रघुनायक ध्याना ॥२॥

तारकु असुर भयउ तेहि काला । भुज प्रताप बल तेज बिसाला ॥

तेंहि सब लोक लोकपति जीते । भए देव सुख संपति रीते ॥३॥

अजर अमर सो जीति न जाई । हारे सुर करि बिबिध लराई ॥

तब बिरंचि सन जाइ पुकारे । देखे बिधि सब देव दुखारे ॥४॥

 

दोहा

सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ ।

संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ ॥ ८२ ॥

 

चौपाई

मोर कहा सुनि करहु उपाई । होइहि ईस्वर करिहि सहाई ॥

सतीं जो तजी दच्छ मख देहा । जनमी जाइ हिमाचल गेहा ॥१॥

तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी । सिव समाधि बैठे सबु त्यागी ॥

जदपि अहइ असमंजस भारी । तदपि बात एक सुनहु हमारी ॥२॥

पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं । करै छोभु संकर मन माहीं ॥

तब हम जाइ सिवहि सिर नाई । करवाउब बिबाहु बरिआई ॥३॥

एहि बिधि भलेहि देवहित होई । मर अति नीक कहइ सबु कोई ॥

अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू । प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू ॥४॥

 

दोहा

सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार ।

संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार ॥ ८३ ॥

 

चौपाई

तदपि करब मैं काजु तुम्हारा । श्रुति कह परम धरम उपकारा ॥

पर हित लागि तजइ जो देही । संतत संत प्रसंसहिं तेही ॥१॥

अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई । सुमन धनुष कर सहित सहाई ॥

चलत मार अस हृदयँ बिचारा । सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा ॥२॥

तब आपन प्रभाउ बिस्तारा । निज बस कीन्ह सकल संसारा ॥

कोपेउ जबहि बारिचरकेतू । छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू ॥३॥

ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना । धीरज धरम ग्यान बिग्याना ॥

सदाचार जप जोग बिरागा । सभय बिबेक कटकु सब भागा ॥४॥

 

छंद

भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे ।

सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे ॥

होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा ।

दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा ॥

 

दोहा

जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम ।

ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम ॥ ८४ ॥

 

चौपाई

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा । लता निहारि नवहिं तरु साखा ॥

नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई । संगम करहिं तलाव तलाई ॥१॥

जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी । को कहि सकइ सचेतन करनी ॥

पसु पच्छी नभ जल थलचारी । भए कामबस समय बिसारी ॥२॥

मदन अंध ब्याकुल सब लोका । निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका ॥

देव दनुज नर किंनर ब्याला । प्रेत पिसाच भूत बेताला ॥३॥

इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी । सदा काम के चेरे जानी ॥

सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी । तेपि कामबस भए बियोगी ॥४॥

 

छंद

भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै ।

देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे ॥

अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं ।

दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं ॥

 

सोरठा

धरी न काहूँ धिर सबके मन मनसिज हरे ।

जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ ॥ ८५ ॥

 

चौपाई

उभय घरी अस कौतुक भयऊ । जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ ॥

सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू । भयउ जथाथिति सबु संसारू ॥१॥

भए तुरत सब जीव सुखारे । जिमि मद उतरि गएँ मतवारे ॥

रुद्रहि देखि मदन भय माना । दुराधरष दुर्गम भगवाना ॥२॥

फिरत लाज कछु करि नहिं जाई । मरनु ठानि मन रचेसि उपाई ॥

प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा । कुसुमित नव तरु राजि बिराजा ॥३॥

बन उपबन बापिका तड़ागा । परम सुभग सब दिसा बिभागा ॥

जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा । देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा ॥४॥

 

छंद

जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही ।

सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही ॥

बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा ।

कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा ॥

 

दोहा

सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत ।

चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत ॥ ८६ ॥

 

चौपाई

देखि रसाल बिटप बर साखा । तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा ॥

सुमन चाप निज सर संधाने । अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने ॥१॥

छाड़े बिषम बिसिख उर लागे । छुटि समाधि संभु तब जागे ॥

भयउ ईस मन छोभु बिसेषी । नयन उघारि सकल दिसि देखी ॥२॥

सौरभ पल्लव मदनु बिलोका । भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका ॥

तब सिवँ तीसर नयन उघारा । चितवत कामु भयउ जरि छारा ॥३॥

हाहाकार भयउ जग भारी । डरपे सुर भए असुर सुखारी ॥

समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी । भए अकंटक साधक जोगी ॥४॥

 

छंद

जोगि अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई ।

रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई ।

अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही ।

प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही ॥

 

दोहा

अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु ।

बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु ॥ ८७ ॥

 

चौपाई

जब जदुबंस कृष्न अवतारा । होइहि हरन महा महिभारा ॥

कृष्न तनय होइहि पति तोरा । बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥१॥

रति गवनी सुनि संकर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥

देवन्ह समाचार सब पाए । ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए ॥२॥

सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता । गए जहाँ सिव कृपानिकेता ॥

पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा । भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा ॥३॥

बोले कृपासिंधु बृषकेतू । कहहु अमर आए केहि हेतू ॥

कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी । तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी ॥४॥

 

दोहा

सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु ।

निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु ॥ ८८ ॥

 

चौपाई

यह उत्सव देखिअ भरि लोचन । सोइ कछु करहु मदन मद मोचन ।

कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा । कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा ॥१॥

सासति करि पुनि करहिं पसाऊ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ ॥

पारबतीं तपु कीन्ह अपारा । करहु तासु अब अंगीकारा ॥ २॥

सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी । ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी ॥

तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं । बरषि सुमन जय जय सुर साई ॥३॥

अवसरु जानि सप्तरिषि आए । तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए ॥

प्रथम गए जहँ रही भवानी । बोले मधुर बचन छल सानी ॥४॥

 

दोहा

कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस ।

अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥ ८९ ॥

 

।। मासपारायण,तीसरा विश्राम ।।

 

चौपाई

सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी । उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी ॥

तुम्हरें जान कामु अब जारा । अब लगि संभु रहे सबिकारा ॥१॥

हमरें जान सदा सिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ॥

जौं मैं सिव सेये अस जानी । प्रीति समेत कर्म मन बानी ॥२॥

तौ हमार पन सुनहु मुनीसा । करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा ॥

तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा । सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा ॥३॥

तात अनल कर सहज सुभाऊ । हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ ॥

गएँ समीप सो अवसि नसाई । असि मन्मथ महेस की नाई ॥४॥

 

दोहा

हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास ॥

चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास ॥ ९० ॥

 

चौपाई

सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा । मदन दहन सुनि अति दुखु पावा ॥

बहुरि कहेउ रति कर बरदाना । सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना ॥१॥

हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई । सादर मुनिबर लिए बोलाई ॥

सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई । बेगि बेदबिधि लगन धराई ॥२॥

पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही । गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही ॥

जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती । बाचत प्रीति न हृदयँ समाती ॥३॥

लगन बाचि अज सबहि सुनाई । हरषे मुनि सब सुर समुदाई ॥

सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे । मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे ॥४॥

 

दोहा

लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान ।

होहि सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान ॥ ९१ ॥

 

चौपाई

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा । जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा ॥

कुंडल कंकन पहिरे ब्याला । तन बिभूति पट केहरि छाला ॥१॥

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा । नयन तीनि उपबीत भुजंगा ॥

गरल कंठ उर नर सिर माला । असिव बेष सिवधाम कृपाला ॥२॥

कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा । चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा ॥

देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं । बर लायक दुलहिनि जग नाहीं ॥३॥

बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता । चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता ॥

सुर समाज सब भाँति अनूपा । नहिं बरात दूलह अनुरूपा ॥४॥

 

दोहा

बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज ।

बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज ॥ ९२ ॥

 

चौपाई

बर अनुहारि बरात न भाई । हँसी करैहहु पर पुर जाई ॥

बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने । निज निज सेन सहित बिलगाने ॥१॥

मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं । हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं ॥

अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे । भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे ॥२॥

सिव अनुसासन सुनि सब आए । प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए ॥

नाना बाहन नाना बेषा । बिहसे सिव समाज निज देखा ॥३॥

कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू । बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू ॥

बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना । रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना ॥४॥

 

छंद

तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें ।

भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें ॥

खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै ।

बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै ॥

 

सोरठा

नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब ।

देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि ॥ ९३ ॥

 

चौपाई

जस दूलहु तसि बनी बराता । कौतुक बिबिध होहिं मग जाता ॥

इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना । अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना ॥१॥

सैल सकल जहँ लगि जग माहीं । लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं ॥

बन सागर सब नदीं तलावा । हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा ॥२॥

कामरूप सुंदर तन धारी । सहित समाज सहित बर नारी ॥

गए सकल तुहिनाचल गेहा । गावहिं मंगल सहित सनेहा ॥३॥

प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए । जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए ॥

पुर सोभा अवलोकि सुहाई । लागइ लघु बिरंचि निपुनाई ॥४॥

 

छंद

लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही ।

बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही ॥

मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं ॥

बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं ॥

 

दोहा

जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ ।

रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ ॥ ९४ ॥

 

चौपाई

नगर निकट बरात सुनि आई । पुर खरभरु सोभा अधिकाई ॥

करि बनाव सजि बाहन नाना । चले लेन सादर अगवाना ॥१॥

हियँ हरषे सुर सेन निहारी । हरिहि देखि अति भए सुखारी ॥

सिव समाज जब देखन लागे । बिडरि चले बाहन सब भागे ॥२॥

धरि धीरजु तहँ रहे सयाने । बालक सब लै जीव पराने ॥

गएँ भवन पूछहिं पितु माता । कहहिं बचन भय कंपित गाता ॥३॥

कहिअ काह कहि जाइ न बाता । जम कर धार किधौं बरिआता ॥

बरु बौराह बसहँ असवारा । ब्याल कपाल बिभूषन छारा ॥४॥

 

छंद

तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा ।

सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा ॥

जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही ।

देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही ॥

 

दोहा

समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं ।

बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं ॥ ९५ ॥

 

चौपाई

लै अगवान बरातहि आए । दिए सबहि जनवास सुहाए ॥

मैनाँ सुभ आरती सँवारी । संग सुमंगल गावहिं नारी ॥१॥

कंचन थार सोह बर पानी । परिछन चली हरहि हरषानी ॥

बिकट बेष रुद्रहि जब देखा । अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा ॥२॥

भागि भवन पैठीं अति त्रासा । गए महेसु जहाँ जनवासा ॥

मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी । लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी ॥३॥

अधिक सनेहँ गोद बैठारी । स्याम सरोज नयन भरे बारी ॥

जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा । तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा ॥४॥

 

छंद

कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई ।

जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई ॥

तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं ॥

घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं ॥

 

दोहा

भई बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि ।

करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि ॥ ९६ ॥

 

चौपाई

नारद कर मैं काह बिगारा । भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा ॥

अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा । बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा ॥१॥

साचेहुँ उन्ह के मोह न माया । उदासीन धनु धामु न जाया ॥

पर घर घालक लाज न भीरा । बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा ॥२॥

जननिहि बिकल बिलोकि भवानी । बोली जुत बिबेक मृदु बानी ॥

अस बिचारि सोचहि मति माता । सो न टरइ जो रचइ बिधाता ॥३॥

करम लिखा जौ बाउर नाहू । तौ कत दोसु लगाइअ काहू ॥

तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका । मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका ॥४॥

 

छंद

जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं ।

दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं ॥

सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं ॥

बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं ॥

 

दोहा

तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत ।

समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत ॥ ९७ ॥

 

चौपाई

तब नारद सबहि समुझावा । पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा ॥

मयना सत्य सुनहु मम बानी । जगदंबा तव सुता भवानी ॥१॥

अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि । सदा संभु अरधंग निवासिनि ॥

जग संभव पालन लय कारिनि । निज इच्छा लीला बपु धारिनि ॥२॥

जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई । नामु सती सुंदर तनु पाई ॥

तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं । कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं ॥३॥

एक बार आवत सिव संगा । देखेउ रघुकुल कमल पतंगा ॥

भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा । भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा ॥४॥

 

छंद

सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं ।

हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं ॥

अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया ।

अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया ॥

 

दोहा

सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद ।

छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद ॥ ९८ ॥

 

चौपाई

तब मयना हिमवंतु अनंदे । पुनि पुनि पारबती पद बंदे ॥

नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने । नगर लोग सब अति हरषाने ॥१॥

लगे होन पुर मंगलगाना । सजे सबहि हाटक घट नाना ॥

भाँति अनेक भई जेवराना । सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा ॥२॥

सो जेवनार कि जाइ बखानी । बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी ॥

सादर बोले सकल बराती । बिष्नु बिरंचि देव सब जाती ॥३॥

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा । लागे परुसन निपुन सुआरा ॥

नारिबृंद सुर जेवँत जानी । लगीं देन गारीं मृदु बानी ॥४॥

 

छंद

गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं ।

भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं ॥

जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो ।

अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो ॥

 

दोहा

बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ ।

समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ ॥ ९९ ॥

 

चौपाई

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे । सबहि जथोचित आसन दीन्हे ॥

बेदी बेद बिधान सँवारी । सुभग सुमंगल गावहिं नारी ॥१॥

सिंघासनु अति दिब्य सुहावा । जाइ न बरनि बिरंचि बनावा ॥

बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई । हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई ॥२॥

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई । करि सिंगारु सखीं लै आई ॥

देखत रूपु सकल सुर मोहे । बरनै छबि अस जग कबि को है ॥३॥

जगदंबिका जानि भव भामा । सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा ॥

सुंदरता मरजाद भवानी । जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी ॥४॥

 

छंद

कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा ।

सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा ॥

छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ ॥

अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ ॥

 

दोहा

मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि ।

कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि ॥ १०० ॥

 

चौपाई

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई । महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥

गहि गिरीस कुस कन्या पानी । भवहि समरपीं जानि भवानी ॥१॥

पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा । हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥

बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं । जय जय जय संकर सुर करहीं ॥२॥

बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना । सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥

हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू । सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥३॥

दासीं दास तुरग रथ नागा । धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥

अन्न कनकभाजन भरि जाना । दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥४॥

 

छंद

दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो ।

का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो ॥

सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो ।

पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥

 

दोहा

नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु ।

छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥ १०१ ॥

 

चौपाई

बहु बिधि संभु सास समुझाई । गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥

जननीं उमा बोलि तब लीन्ही । लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ॥१॥

करेहु सदा संकर पद पूजा । नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥

बचन कहत भरे लोचन बारी । बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥२॥

कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं । पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥

भै अति प्रेम बिकल महतारी । धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥३॥

पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना । परम प्रेम कछु जाइ न बरना ॥

सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी । जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥४॥

 

छंद

जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं ।

फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई ॥

जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले ।

सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥

 

दोहा

चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु ।

बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥ १०२ ॥

 

चौपाई

तुरत भवन आए गिरिराई । सकल सैल सर लिए बोलाई ॥

आदर दान बिनय बहुमाना । सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥१॥

जबहिं संभु कैलासहिं आए । सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥

जगत मातु पितु संभु भवानी । तेही सिंगारु न कहउँ बखानी ॥२॥

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा । गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥

हर गिरिजा बिहार नित नयऊ । एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥३॥

तब जनमेउ षटबदन कुमारा । तारकु असुर समर जेहिं मारा ॥

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना । षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥४॥

 

छंद

जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा ।

तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा ॥

यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं ।

कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं ॥

 

दोहा

चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु ।

बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु ॥ १०३ ॥

 

चौपाई

संभु चरित सुनि सरस सुहावा । भरद्वाज मुनि अति सुख पावा ॥

बहु लालसा कथा पर बाढ़ी । नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी ॥१॥

प्रेम बिबस मुख आव न बानी । दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥

अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा । तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥२॥

सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं । रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं ॥

बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू । राम भगत कर लच्छन एहू ॥३॥

सिव सम को रघुपति ब्रतधारी । बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥

पनु करि रघुपति भगति देखाई । को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥४॥

 

दोहा

प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार ।

सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥ १०४ ॥

 

चौपाई

मैं जाना तुम्हार गुन सीला । कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥

सुनु मुनि आजु समागम तोरें । कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें ॥१॥

राम चरित अति अमित मुनिसा । कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥

तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी । सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥२॥

सारद दारुनारि सम स्वामी । रामु सूत्रधर अंतरजामी ॥

जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी । कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥३॥

प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा । बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा ॥

परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥४॥

 

दोहा

सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद ।

बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद ॥ १०५ ॥

 

चौपाई

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं । ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं ॥

तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला । नित नूतन सुंदर सब काला ॥१॥

त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया । सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥

एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ । तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥२॥

निज कर डासि नागरिपु छाला । बैठै सहजहिं संभु कृपाला ॥

कुंद इंदु दर गौर सरीरा । भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा ॥३॥

तरुन अरुन अंबुज सम चरना । नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥

भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी । आननु सरद चंद छबि हारी ॥४॥

 

दोहा

जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल ।

नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥ १०६ ॥

 

चौपाई

बैठे सोह कामरिपु कैसें । धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥

पारबती भल अवसरु जानी । गई संभु पहिं मातु भवानी ॥१॥

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा । बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥

बैठीं सिव समीप हरषाई । पूरुब जन्म कथा चित आई ॥२॥

पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी । बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥

कथा जो सकल लोक हितकारी । सोइ पूछन चह सैलकुमारी ॥३॥

बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी । त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥

चर अरु अचर नाग नर देवा । सकल करहिं पद पंकज सेवा ॥४॥

 

दोहा

प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम ॥

जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥ १०७ ॥

 

चौपाई

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी । जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥

तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना । कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥१॥

जासु भवनु सुरतरु तर होई । सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई ॥

ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी । हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥२॥

प्रभु जे मुनि परमारथबादी । कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी ॥

सेस सारदा बेद पुराना । सकल करहिं रघुपति गुन गाना ॥३॥

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती । सादर जपहु अनँग आराती ॥

रामु सो अवध नृपति सुत सोई । की अज अगुन अलखगति कोई ॥४॥

 

दोहा

जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि ।

देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥ १०८ ॥

 

चौपाई

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ । कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ॥

अग्य जानि रिस उर जनि धरहू । जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू ॥१॥

मै बन दीखि राम प्रभुताई । अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥

तदपि मलिन मन बोधु न आवा । सो फलु भली भाँति हम पावा ॥२॥

अजहूँ कछु संसउ मन मोरे । करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें ॥

प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा । नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥३॥

तब कर अस बिमोह अब नाहीं । रामकथा पर रुचि मन माहीं ॥

कहहु पुनीत राम गुन गाथा । भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥४॥

 

दोहा

बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि ।

बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि ॥ १०९ ॥

 

चौपाई

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी । दासी मन क्रम बचन तुम्हारी ॥

गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं । आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥१॥

अति आरति पूछउँ सुरराया । रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥

प्रथम सो कारन कहहु बिचारी । निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी ॥२॥

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा । बालचरित पुनि कहहु उदारा ॥

कहहु जथा जानकी बिबाहीं । राज तजा सो दूषन काहीं ॥३॥

बन बसि कीन्हे चरित अपारा । कहहु नाथ जिमि रावन मारा ॥

राज बैठि कीन्हीं बहु लीला । सकल कहहु संकर सुखलीला ॥४॥

 

दोहा

बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम ।

प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ॥ ११० ॥

 

चौपाई

पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी । जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ॥

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा । पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥१॥

औरउ राम रहस्य अनेका । कहहु नाथ अति बिमल बिबेका ॥

जो प्रभु मैं पूछा नहि होई । सोउ दयाल राखहु जनि गोई ॥२॥

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना । आन जीव पाँवर का जाना ॥

प्रस्न उमा कै सहज सुहाई । छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥३॥

हर हियँ रामचरित सब आए । प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥

श्रीरघुनाथ रूप उर आवा । परमानंद अमित सुख पावा ॥४॥

 

दोहा

मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह ।

रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥ १११ ॥

 

चौपाई

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥

जेहि जानें जग जाइ हेराई । जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥१॥

बंदउँ बालरूप सोई रामू । सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ॥

मंगल भवन अमंगल हारी । द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ॥२॥

करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी । हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥

धन्य धन्य गिरिराजकुमारी । तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी ॥३॥

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा । सकल लोक जग पावनि गंगा ॥

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी । कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी ॥४॥

 

दोहा

रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं ।

सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं ॥ ११२ ॥

 

चौपाई

तदपि असंका कीन्हिहु सोई । कहत सुनत सब कर हित होई ॥

जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना । श्रवन रंध्र अहिभवन समाना ॥१॥

नयनन्हि संत दरस नहिं देखा । लोचन मोरपंख कर लेखा ॥

ते सिर कटु तुंबरि समतूला । जे न नमत हरि गुर पद मूला ॥२॥

जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी । जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥

जो नहिं करइ राम गुन गाना । जीह सो दादुर जीह समाना ॥३॥

कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती । सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥

गिरिजा सुनहु राम कै लीला । सुर हित दनुज बिमोहनसीला ॥४॥

 

दोहा

रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि ।

सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥ ११३ ॥

 

चौपाई

रामकथा सुंदर कर तारी । संसय बिहग उडावनिहारी ॥

रामकथा कलि बिटप कुठारी । सादर सुनु गिरिराजकुमारी ॥१॥

राम नाम गुन चरित सुहाए । जनम करम अगनित श्रुति गाए ॥

जथा अनंत राम भगवाना । तथा कथा कीरति गुन नाना ॥२॥

तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी । कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी ॥

उमा प्रस्न तव सहज सुहाई । सुखद संतसंमत मोहि भाई ॥३॥

एक बात नहि मोहि सोहानी । जदपि मोह बस कहेहु भवानी ॥

तुम जो कहा राम कोउ आना । जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ॥४॥

 

दोहा

कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच ।

पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥ ११४ ॥

 

चौपाई

अग्य अकोबिद अंध अभागी । काई बिषय मुकर मन लागी ॥

लंपट कपटी कुटिल बिसेषी । सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी ॥१॥

कहहिं ते बेद असंमत बानी । जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी ॥

मुकर मलिन अरु नयन बिहीना । राम रूप देखहिं किमि दीना ॥२॥

जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका । जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ॥

हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं । तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं ॥३॥

बातुल भूत बिबस मतवारे । ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥

जिन्ह कृत महामोह मद पाना । तिन् कर कहा करिअ नहिं काना ॥४॥

 

सोरठा

अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद ।

सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम ॥ ११५ ॥

 

चौपाई

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा । गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥

अगुन अरुप अलख अज जोई । भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥१॥

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें । जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें ॥

जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा । तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा ॥२॥

राम सच्चिदानंद दिनेसा । नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥

सहज प्रकासरुप भगवाना । नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ॥३॥

हरष बिषाद ग्यान अग्याना । जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥

राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना । परमानन्द परेस पुराना ॥४॥

 

दोहा

पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ ॥

रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ ॥ ११६ ॥

 

चौपाई

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी । प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ॥

जथा गगन घन पटल निहारी । झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी ॥१॥

चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ । प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ ॥

उमा राम बिषइक अस मोहा । नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥२॥

बिषय करन सुर जीव समेता । सकल एक तें एक सचेता ॥

सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ॥३॥

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥

जासु सत्यता तें जड माया । भास सत्य इव मोह सहाया ॥४॥

 

दोहा

रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि ।

जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि ॥ ११७ ॥

 

चौपाई

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई । जदपि असत्य देत दुख अहई ॥

जौं सपनें सिर काटै कोई । बिनु जागें न दूरि दुख होई ॥१॥

जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई । गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥

आदि अंत कोउ जासु न पावा । मति अनुमानि निगम अस गावा ॥२॥

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना । कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥

आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥३॥

तनु बिनु परस नयन बिनु देखा । ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥

असि सब भाँति अलौकिक करनी । महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥४॥

 

दोहा

जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ॥

सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ॥ ११८ ॥

 

चौपाई

कासीं मरत जंतु अवलोकी । जासु नाम बल करउँ बिसोकी ॥

सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी । रघुबर सब उर अंतरजामी ॥१॥

बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं । जनम अनेक रचित अघ दहहीं ॥

सादर सुमिरन जे नर करहीं । भव बारिधि गोपद इव तरहीं ॥२॥

राम सो परमातमा भवानी । तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी ॥

अस संसय आनत उर माहीं । ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं ॥३॥

सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना । मिटि गै सब कुतरक कै रचना ॥

भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती । दारुन असंभावना बीती ॥४॥

 

दोहा

पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि ।

बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि ॥ ११९ ॥

 

चौपाई

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी । मिटा मोह सरदातप भारी ॥

तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ । राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ ॥१॥

नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा । सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा ॥

अब मोहि आपनि किंकरि जानी । जदपि सहज जड नारि अयानी ॥२॥

प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू । जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू ॥

राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी । सर्ब रहित सब उर पुर बासी ॥३॥

नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू । मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥

उमा बचन सुनि परम बिनीता । रामकथा पर प्रीति पुनीता ॥४॥

 

दोहा

हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान

बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान ॥ १२०(क) ॥

 

।। मासपारायण, चौथा विश्राम ।।

।। नवाह्नपारायण, पहला विश्राम ।।

 

सोरठा

सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल ।

कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड ॥ १२०(ख) ॥

सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब ।

सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ ॥ १२०(ग) ॥

हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित ।

मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥ १२०(घ ॥

 

चौपाई

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए । बिपुल बिसद निगमागम गाए ॥

हरि अवतार हेतु जेहि होई । इदमित्थं कहि जाइ न सोई ॥१॥

राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी । मत हमार अस सुनहि सयानी ॥

तदपि संत मुनि बेद पुराना । जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥२॥

तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही । समुझि परइ जस कारन मोही ॥

जब जब होइ धरम कै हानी । बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥३॥

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी । सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥

तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा । हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥४॥