दोहा

समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग ।

कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥ ४१ ॥

 

चौपाई

कीरति सरित छहूँ रितु रूरी । समय सुहावनि पावनि भूरी ॥

हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू । सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू ॥१॥

बरनब राम बिबाह समाजू । सो मुद मंगलमय रितुराजू ॥

ग्रीषम दुसह राम बनगवनू । पंथकथा खर आतप पवनू ॥२॥

बरषा घोर निसाचर रारी । सुरकुल सालि सुमंगलकारी ॥

राम राज सुख बिनय बड़ाई । बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई ॥३॥

सती सिरोमनि सिय गुनगाथा । सोइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥

भरत सुभाउ सुसीतलताई । सदा एकरस बरनि न जाई ॥४॥

 

दोहा

अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास ।

भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास ॥ ४२ ॥

 

चौपाई

आरति बिनय दीनता मोरी । लघुता ललित सुबारि न थोरी ॥

अदभुत सलिल सुनत गुनकारी । आस पिआस मनोमल हारी ॥१॥

राम सुप्रेमहि पोषत पानी । हरत सकल कलि कलुष गलानौ ॥

भव श्रम सोषक तोषक तोषा । समन दुरित दुख दारिद दोषा ॥२॥

काम कोह मद मोह नसावन । बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन ॥

सादर मज्जन पान किए तें । मिटहिं पाप परिताप हिए तें ॥३॥

जिन्ह एहि बारि न मानस धोए । ते कायर कलिकाल बिगोए ॥

तृषित निरखि रबि कर भव बारी । फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी ॥४॥

 

दोहा

मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ ।

सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ ॥ ४३(क) ॥

अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।

कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद ॥ ४३(ख) ॥

 

चौपाई

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा । तिन्हहि राम पद अति अनुरागा ॥

तापस सम दम दया निधाना । परमारथ पथ परम सुजाना ॥१॥

माघ मकरगत रबि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥

देव दनुज किंनर नर श्रेनी । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं ॥२॥

पूजहि माधव पद जलजाता । परसि अखय बटु हरषहिं गाता ॥

भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिबर मन भावन ॥३॥

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा । जाहिं जे मज्जन तीरथराजा ॥

मज्जहिं प्रात समेत उछाहा । कहहिं परसपर हरि गुन गाहा ॥४॥

 

दोहा

ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग ।

कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग ॥ ४४ ॥

 

चौपाई

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं । पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं ॥

प्रति संबत अति होइ अनंदा । मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा ॥१॥

एक बार भरि मकर नहाए । सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥

जगबालिक मुनि परम बिबेकी । भरव्दाज राखे पद टेकी ॥२॥

सादर चरन सरोज पखारे । अति पुनीत आसन बैठारे ॥

करि पूजा मुनि सुजस बखानी । बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥३॥

नाथ एक संसउ बड़ मोरें । करगत बेदतत्व सबु तोरें ॥

कहत सो मोहि लागत भय लाजा । जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥४॥

 

दोहा

संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव ।

होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥ ४५ ॥

 

चौपाई

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू । हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥

रास नाम कर अमित प्रभावा । संत पुरान उपनिषद गावा ॥१॥

संतत जपत संभु अबिनासी । सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥

आकर चारि जीव जग अहहीं । कासीं मरत परम पद लहहीं ॥२॥

सोपि राम महिमा मुनिराया । सिव उपदेसु करत करि दाया ॥

रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ॥३॥

एक राम अवधेस कुमारा । तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥

नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा । भयहु रोषु रन रावनु मारा ॥४॥

 

दोहा

प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि ।

सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि ॥ ४६ ॥

 

चौपाई

जैसे मिटै मोर भ्रम भारी । कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ॥

जागबलिक बोले मुसुकाई । तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई ॥१॥

राममगत तुम्ह मन क्रम बानी । चतुराई तुम्हारी मैं जानी ॥

चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा ॥२॥

तात सुनहु सादर मनु लाई । कहउँ राम कै कथा सुहाई ॥

महामोहु महिषेसु बिसाला । रामकथा कालिका कराला ॥३॥

रामकथा ससि किरन समाना । संत चकोर करहिं जेहि पाना ॥

ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी । महादेव तब कहा बखानी ॥४॥

 

दोहा

कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद ।

भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद ॥ ४७ ॥

 

चौपाई

एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाहीं ॥

संग सती जगजननि भवानी । पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥१॥

रामकथा मुनीबर्ज बखानी । सुनी महेस परम सुखु मानी ॥

रिषि पूछी हरिभगति सुहाई । कही संभु अधिकारी पाई ॥२॥

कहत सुनत रघुपति गुन गाथा । कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ॥

मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी । चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥३॥

तेहि अवसर भंजन महिभारा । हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥

पिता बचन तजि राजु उदासी । दंडक बन बिचरत अबिनासी ॥४॥

 

दोहा

ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ ।

गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ ॥ ४८(क) ॥

 

सोरठा

संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ ॥

तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची ॥ ४८(ख) ॥

 

चौपाई

रावन मरन मनुज कर जाचा । प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ॥

जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा । करत बिचारु न बनत बनावा ॥१॥

एहि बिधि भए सोचबस ईसा । तेहि समय जाइ दससीसा ॥

लीन्ह नीच मारीचहि संगा । भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा ॥२॥

करि छलु मूढ़ हरी बैदेही । प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही ॥

मृग बधि बन्धु सहित हरि आए । आश्रमु देखि नयन जल छाए ॥३॥

बिरह बिकल नर इव रघुराई । खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई ॥

कबहूँ जोग बियोग न जाकें । देखा प्रगट बिरह दुख ताकें ॥४॥

 

दोहा

अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान ।

जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥ ४९ ॥

 

चौपाई

संभु समय तेहि रामहि देखा । उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा ॥

भरि लोचन छबिसिंधु निहारी । कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी ॥१॥

जय सच्चिदानंद जग पावन । अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥

चले जात सिव सती समेता । पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥२॥

सतीं सो दसा संभु कै देखी । उर उपजा संदेहु बिसेषी ॥

संकरु जगतबंद्य जगदीसा । सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥३॥

तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा । कहि सच्चिदानंद परधमा ॥

भए मगन छबि तासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥४॥

 

दोहा

ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद ।

सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद ॥ ५० ॥

 

चौपाई

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी । सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥

खोजइ सो कि अग्य इव नारी । ग्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥१॥

संभुगिरा पुनि मृषा न होई । सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥

अस संसय मन भयउ अपारा । होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥२॥

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी । हर अंतरजामी सब जानी ॥

सुनहि सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिअ उर काऊ ॥३॥

जासु कथा कुभंज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥

सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥४॥

 

छंद

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं ।

कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ॥

सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी ।

अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि ॥

सो॰ लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु ।

बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ ॥ ५१ ॥

 

चौपाई

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू । तौ किन जाइ परीछा लेहू ॥

तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं । जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही ॥१॥

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी । करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥

चलीं सती सिव आयसु पाई । करहिं बिचारु करौं का भाई ॥२॥

इहाँ संभु अस मन अनुमाना । दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना ॥

मोरेहु कहें न संसय जाहीं । बिधी बिपरीत भलाई नाहीं ॥३॥

होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥

अस कहि लगे जपन हरिनामा । गई सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥४॥

 

दोहा

पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप ।

आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप ॥ ५२ ॥

 

चौपाई

लछिमन दीख उमाकृत बेषा चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा ॥

कहि न सकत कछु अति गंभीरा । प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥१॥

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी । सबदरसी सब अंतरजामी ॥

सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना । सोइ सरबग्य रामु भगवाना ॥२॥

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ । देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ ॥

निज माया बलु हृदयँ बखानी । बोले बिहसि रामु मृदु बानी ॥३॥

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू । पिता समेत लीन्ह निज नामू ॥

कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू । बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ॥४॥

 

दोहा

राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु ।

सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥ ५३ ॥

 

चौपाई

मैं संकर कर कहा न माना । निज अग्यानु राम पर आना ॥

जाइ उतरु अब देहउँ काहा । उर उपजा अति दारुन दाहा ॥१॥

जाना राम सतीं दुखु पावा । निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ॥

सतीं दीख कौतुकु मग जाता । आगें रामु सहित श्री भ्राता ॥२॥

फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा । सहित बंधु सिय सुंदर वेषा ॥

जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना ॥३॥

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका । अमित प्रभाउ एक तें एका ॥

बंदत चरन करत प्रभु सेवा । बिबिध बेष देखे सब देवा ॥४॥

 

दोहा

सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप ।

जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ॥ ५४ ॥

 

चौपाई

देखे जहँ तहँ रघुपति जेते । सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ॥

जीव चराचर जो संसारा । देखे सकल अनेक प्रकारा ॥१॥

पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा । राम रूप दूसर नहिं देखा ॥

अवलोके रघुपति बहुतेरे । सीता सहित न बेष घनेरे ॥२॥

सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता । देखि सती अति भई सभीता ॥

हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं । नयन मूदि बैठीं मग माहीं ॥३॥

बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी । कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥

पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा । चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा ॥४॥

 

दोहा

गई समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात ।

लीन्ही परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥ ५५ ॥

 

।। मासपारायण, दूसरा विश्राम ।।

 

चौपाई

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ । भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ ॥

कछु न परीछा लीन्हि गोसाई । कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई ॥१॥

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई । मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥

तब संकर देखेउ धरि ध्याना । सतीं जो कीन्ह चरित सब जाना ॥२॥

बहुरि राममायहि सिरु नावा । प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा ॥

हरि इच्छा भावी बलवाना । हृदयँ बिचारत संभु सुजाना ॥३॥

सतीं कीन्ह सीता कर बेषा । सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा ॥

जौं अब करउँ सती सन प्रीती । मिटइ भगति पथु होइ अनीती ॥४॥

 

दोहा

परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु ।

प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु ॥ ५६ ॥

 

चौपाई

तब संकर प्रभु पद सिरु नावा । सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥

एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं ॥१॥

अस बिचारि संकरु मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥

चलत गगन भै गिरा सुहाई । जय महेस भलि भगति दृढ़ाई ॥२॥

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना । रामभगत समरथ भगवाना ॥

सुनि नभगिरा सती उर सोचा । पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥३॥

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥

जदपि सतीं पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥४॥

 

दोहा

सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य ।

कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥ ५७क ॥

 

चौपाई

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी । चिंता अमित जाइ नहि बरनी ॥

कृपासिंधु सिव परम अगाधा । प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥१॥

संकर रुख अवलोकि भवानी । प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥

निज अघ समुझि न कछु कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ॥२॥

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू । कहीं कथा सुंदर सुख हेतू ॥

बरनत पंथ बिबिध इतिहासा । बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥३॥

तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन । बैठे बट तर करि कमलासन ॥

संकर सहज सरुप सम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा ॥४॥

 

दोहा

सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं ।

मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं ॥ ५८ ॥

 

चौपाई

नित नव सोचु सतीं उर भारा । कब जैहउँ दुख सागर पारा ॥

मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना । पुनिपति बचनु मृषा करि जाना ॥१॥

सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा । जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा ॥

अब बिधि अस बूझिअ नहि तोही । संकर बिमुख जिआवसि मोही ॥२॥

कहि न जाई कछु हृदय गलानी । मन महुँ रामाहि सुमिर सयानी ॥

जौ प्रभु दीनदयालु कहावा । आरती हरन बेद जसु गावा ॥३॥

तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी । छूटउ बेगि देह यह मोरी ॥

जौं मोरे सिव चरन सनेहू । मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू ॥४॥

 

दोहा

तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ ।

होइ मरनु जेही बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥ ५९ ॥

 

सोरठा

जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि ।

बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ॥ ५७ख ॥

 

चौपाई

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी । अकथनीय दारुन दुखु भारी ॥

बीतें संबत सहस सतासी । तजी समाधि संभु अबिनासी ॥१॥

राम नाम सिव सुमिरन लागे । जानेउ सतीं जगतपति जागे ॥

जाइ संभु पद बंदनु कीन्ही । सनमुख संकर आसनु दीन्हा ॥२॥

लगे कहन हरिकथा रसाला । दच्छ प्रजेस भए तेहि काला ॥

देखा बिधि बिचारि सब लायक । दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक ॥३॥

बड़ अधिकार दच्छ जब पावा । अति अभिमानु हृदयँ तब आवा ॥

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं । प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ॥४॥

 

दोहा

दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग ।

नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग ॥ ६० ॥

 

चौपाई

किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा । बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा ॥

बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई । चले सकल सुर जान बनाई ॥१॥

सतीं बिलोके ब्योम बिमाना । जात चले सुंदर बिधि नाना ॥

सुर सुंदरी करहिं कल गाना । सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना ॥२॥

पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी । पिता जग्य सुनि कछु हरषानी ॥

जौं महेसु मोहि आयसु देहीं । कुछ दिन जाइ रहौं मिस एहीं ॥३॥

पति परित्याग हृदय दुखु भारी । कहइ न निज अपराध बिचारी ॥

बोली सती मनोहर बानी । भय संकोच प्रेम रस सानी ॥४॥

 

दोहा

पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ ।

तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ ॥ ६१ ॥

 

चौपाई

कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा । यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ॥

दच्छ सकल निज सुता बोलाई । हमरें बयर तुम्हउ बिसराई ॥१॥

ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना । तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना ॥

जौं बिनु बोलें जाहु भवानी । रहइ न सीलु सनेहु न कानी ॥२॥

जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥

तदपि बिरोध मान जहँ कोई । तहाँ गएँ कल्यानु न होई ॥३॥

भाँति अनेक संभु समुझावा । भावी बस न ग्यानु उर आवा ॥

कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ । नहिं भलि बात हमारे भाएँ ॥४॥

 

दोहा

कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि ।

दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥ ६२ ॥

 

चौपाई

पिता भवन जब गई भवानी । दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी ॥

सादर भलेहिं मिली एक माता । भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता ॥१॥

दच्छ न कछु पूछी कुसलाता । सतिहि बिलोकि जरे सब गाता ॥

सतीं जाइ देखेउ तब जागा । कतहुँ न दीख संभु कर भागा ॥२॥

तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ । प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ ॥

पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा । जस यह भयउ महा परितापा ॥३॥

जद्यपि जग दारुन दुख नाना । सब तें कठिन जाति अवमाना ॥

समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा । बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा ॥४॥

 

दोहा

सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध ।

सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ॥ ६३ ॥

 

चौपाई

सुनहु सभासद सकल मुनिंदा । कही सुनी जिन्ह संकर निंदा ॥

सो फलु तुरत लहब सब काहूँ । भली भाँति पछिताब पिताहूँ ॥१॥

संत संभु श्रीपति अपबादा । सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा ॥

काटिअ तासु जीभ जो बसाई । श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ॥२॥

जगदातमा महेसु पुरारी । जगत जनक सब के हितकारी ॥

पिता मंदमति निंदत तेही । दच्छ सुक्र संभव यह देही ॥३॥

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू । उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू ॥

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । भयउ सकल मख हाहाकारा ॥४॥

 

दोहा

सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस ।

जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥ ६४ ॥

 

चौपाई

समाचार सब संकर पाए । बीरभद्रु करि कोप पठाए ॥

जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा । सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा ॥१॥

भे जगबिदित दच्छ गति सोई । जसि कछु संभु बिमुख कै होई ॥

यह इतिहास सकल जग जानी । ताते मैं संछेप बखानी ॥२॥

सतीं मरत हरि सन बरु मागा । जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥

तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई । जनमीं पारबती तनु पाई ॥३॥

जब तें उमा सैल गृह जाईं । सकल सिद्धि संपति तहँ छाई ॥

जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे । उचित बास हिम भूधर दीन्हे ॥४॥

 

दोहा

सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति ।

प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ॥ ६५ ॥

 

चौपाई

सरिता सब पुनित जलु बहहीं । खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं ॥

सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा । गिरि पर सकल करहिं अनुरागा ॥१॥

सोह सैल गिरिजा गृह आएँ । जिमि जनु रामभगति के पाएँ ॥

नित नूतन मंगल गृह तासू । ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू ॥२॥

नारद समाचार सब पाए । कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए ॥

सैलराज बड़ आदर कीन्हा । पद पखारि बर आसनु दीन्हा ॥३॥

नारि सहित मुनि पद सिरु नावा । चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा ॥

निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना । सुता बोलि मेली मुनि चरना ॥४॥

 

दोहा

त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि ॥

कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि ॥ ६६ ॥

 

चौपाई

कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी । सुता तुम्हारि सकल गुन खानी ॥

सुंदर सहज सुसील सयानी । नाम उमा अंबिका भवानी ॥१॥

सब लच्छन संपन्न कुमारी । होइहि संतत पियहि पिआरी ॥

सदा अचल एहि कर अहिवाता । एहि तें जसु पैहहिं पितु माता ॥२॥

होइहि पूज्य सकल जग माहीं । एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं ॥

एहि कर नामु सुमिरि संसारा । त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा ॥३॥

सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी । सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी ॥

अगुन अमान मातु पितु हीना । उदासीन सब संसय छीना ॥४॥

 

दोहा

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष ॥

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख ॥ ६७ ॥

 

चौपाई

सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी । दुख दंपतिहि उमा हरषानी ॥

नारदहुँ यह भेदु न जाना । दसा एक समुझब बिलगाना ॥१॥

सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना । पुलक सरीर भरे जल नैना ॥

होइ न मृषा देवरिषि भाषा । उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा ॥२॥

उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू ॥

जानि कुअवसरु प्रीति दुराई । सखी उछँग बैठी पुनि जाई ॥३॥

झूठि न होइ देवरिषि बानी । सोचहि दंपति सखीं सयानी ॥

उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ । कहहु नाथ का करिअ उपाऊ ॥४॥

 

दोहा

कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार ।

देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार ॥ ६८ ॥

 

चौपाई

तदपि एक मैं कहउँ उपाई । होइ करै जौं दैउ सहाई ॥

जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं । मिलहि उमहि तस संसय नाहीं ॥१॥

जे जे बर के दोष बखाने । ते सब सिव पहि मैं अनुमाने ॥

जौं बिबाहु संकर सन होई । दोषउ गुन सम कह सबु कोई ॥२॥

जौं अहि सेज सयन हरि करहीं । बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं ॥

भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं । तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं ॥३॥

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई । सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ॥

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई । रबि पावक सुरसरि की नाई ॥४॥

 

दोहा

जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान ।

परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान ॥ ६९ ॥

 

चौपाई

सुरसरि जल कृत बारुनि जाना । कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना ॥

सुरसरि मिलें सो पावन जैसें । ईस अनीसहि अंतरु तैसें ॥१॥

संभु सहज समरथ भगवाना । एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना ॥

दुराराध्य पै अहहिं महेसू । आसुतोष पुनि किएँ कलेसू ॥२॥

जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी । भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥

जद्यपि बर अनेक जग माहीं । एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं ॥३॥

बर दायक प्रनतारति भंजन । कृपासिंधु सेवक मन रंजन ॥

इच्छित फल बिनु सिव अवराधे । लहिअ न कोटि जोग जप साधें ॥४॥

 

दोहा

अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस ।

होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस ॥ ७० ॥

 

चौपाई

कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ । आगिल चरित सुनहु जस भयऊ ॥

पतिहि एकांत पाइ कह मैना । नाथ न मैं समुझे मुनि बैना ॥१॥

जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा । करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा ॥

न त कन्या बरु रहउ कुआरी । कंत उमा मम प्रानपिआरी ॥२॥

जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू । गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू ॥

सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू । जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू ॥३॥

अस कहि परि चरन धरि सीसा । बोले सहित सनेह गिरीसा ॥

बरु पावक प्रगटै ससि माहीं । नारद बचनु अन्यथा नाहीं ॥४॥

 

दोहा

प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान ।

पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान ॥ ७१ ॥

 

चौपाई

अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू । तौ अस जाइ सिखावन देहू ॥

करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू । आन उपायँ न मिटहि कलेसू ॥१॥

नारद बचन सगर्भ सहेतू । सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू ॥

अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका । सबहि भाँति संकरु अकलंका ॥२॥

सुनि पति बचन हरषि मन माहीं । गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं ॥

उमहि बिलोकि नयन भरे बारी । सहित सनेह गोद बैठारी ॥३॥

बारहिं बार लेति उर लाई । गदगद कंठ न कछु कहि जाई ॥

जगत मातु सर्बग्य भवानी । मातु सुखद बोलीं मृदु बानी ॥४॥

 

दोहा

सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि ।

सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि ॥ ७२ ॥

 

चौपाई

करहि जाइ तपु सैलकुमारी । नारद कहा सो सत्य बिचारी ॥

मातु पितहि पुनि यह मत भावा । तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा ॥१॥

तपबल रचइ प्रपंच बिधाता । तपबल बिष्नु सकल जग त्राता ॥

तपबल संभु करहिं संघारा । तपबल सेषु धरइ महिभारा ॥२॥

तप अधार सब सृष्टि भवानी । करहि जाइ तपु अस जियँ जानी ॥

सुनत बचन बिसमित महतारी । सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी ॥३॥

मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई । चलीं उमा तप हित हरषाई ॥

प्रिय परिवार पिता अरु माता । भए बिकल मुख आव न बाता ॥४॥

 

दोहा

बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ ॥

पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ ॥ ७३ ॥

 

चौपाई

उर धरि उमा प्रानपति चरना । जाइ बिपिन लागीं तपु करना ॥

अति सुकुमार न तनु तप जोगू । पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू ॥१॥

नित नव चरन उपज अनुरागा । बिसरी देह तपहिं मनु लागा ॥

संबत सहस मूल फल खाए । सागु खाइ सत बरष गवाँए ॥२॥

कछु दिन भोजनु बारि बतासा । किए कठिन कछु दिन उपबासा ॥

बेल पाती महि परइ सुखाई । तीनि सहस संबत सोई खाई ॥३॥

पुनि परिहरे सुखानेउ परना । उमहि नाम तब भयउ अपरना ॥

देखि उमहि तप खीन सरीरा । ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥४॥

 

दोहा

भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिजाकुमारि ।

परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि ॥ ७४ ॥

 

चौपाई

अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी । भउ अनेक धीर मुनि ग्यानी ॥

अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी । सत्य सदा संतत सुचि जानी ॥१॥

आवै पिता बोलावन जबहीं । हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं ॥

मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा । जानेहु तब प्रमान बागीसा ॥२॥

सुनत गिरा बिधि गगन बखानी । पुलक गात गिरिजा हरषानी ॥

उमा चरित सुंदर मैं गावा । सुनहु संभु कर चरित सुहावा ॥३॥

जब तें सती जाइ तनु त्यागा । तब सें सिव मन भयउ बिरागा ॥

जपहिं सदा रघुनायक नामा । जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा ॥४॥

 

दोहा

चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम ।

बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम ॥ ७५ ॥

 

चौपाई

कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना । कतहुँ राम गुन करहिं बखाना ॥

जदपि अकाम तदपि भगवाना । भगत बिरह दुख दुखित सुजाना ॥१॥

एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती । नित नै होइ राम पद प्रीती ॥

नैमु प्रेमु संकर कर देखा । अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा ॥२॥

प्रगटै रामु कृतग्य कृपाला । रूप सील निधि तेज बिसाला ॥

बहु प्रकार संकरहि सराहा । तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा ॥३॥

बहुबिधि राम सिवहि समुझावा । पारबती कर जन्मु सुनावा ॥

अति पुनीत गिरिजा कै करनी । बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी ॥४॥

 

दोहा

अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु ।

जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु ॥ ७६ ॥

 

चौपाई

कह सिव जदपि उचित अस नाहीं । नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं ॥

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरमु यह नाथ हमारा ॥१॥

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी । बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ॥

तुम्ह सब भाँति परम हितकारी । अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी ॥२॥

प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना । भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना ॥

कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ । अब उर राखेहु जो हम कहेऊ ॥३॥

अंतरधान भए अस भाषी । संकर सोइ मूरति उर राखी ॥

तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए । बोले प्रभु अति बचन सुहाए ॥४॥

 

दोहा

पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु ।

गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु ॥ ७७ ॥

 

चौपाई

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी । मूरतिमंत तपस्या जैसी ॥

बोले मुनि सुनु सैलकुमारी । करहु कवन कारन तपु भारी ॥१॥

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू । हम सन सत्य मरमु किन कहहू ॥

कहत बचत मनु अति सकुचाई । हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई ॥२॥

मनु हठ परा न सुनइ सिखावा । चहत बारि पर भीति उठावा ॥

नारद कहा सत्य सोइ जाना । बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना ॥३॥

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा । चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥४॥

 

दोहा

सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तब देह ।

नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह ॥ ७८ ॥

 

चौपाई

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई । तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥

चित्रकेतु कर घरु उन घाला । कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥१॥

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी । अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी ॥

मन कपटी तन सज्जन चीन्हा । आपु सरिस सबही चह कीन्हा ॥२॥

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा । तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा ॥

निर्गुन निलज कुबेष कपाली । अकुल अगेह दिगंबर ब्याली ॥३॥

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ । भल भूलिहु ठग के बौराएँ ॥

पंच कहें सिवँ सती बिबाही । पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही ॥४॥

 

दोहा

अब सुख सोवत सोचु नहि भीख मागि भव खाहिं ।

सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं ॥ ७९ ॥

 

चौपाई

अजहूँ मानहु कहा हमारा । हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा ॥

अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला । गावहिं बेद जासु जस लीला ॥१॥

दूषन रहित सकल गुन रासी । श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी ॥

अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी । सुनत बिहसि कह बचन भवानी ॥२॥

सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा । हठ न छूट छूटै बरु देहा ॥

कनकउ पुनि पषान तें होई । जारेहुँ सहजु न परिहर सोई ॥३॥

नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ ॥

गुर कें बचन प्रतीति न जेही । सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही ॥४॥

 

दोहा

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम ।

जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥ ८० ॥

 

चौपाई

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा । सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ॥

अब मैं जन्मु संभु हित हारा । को गुन दूषन करै बिचारा ॥१॥

जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी । रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ॥

तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं । बर कन्या अनेक जग माहीं ॥२॥

जन्म कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥

तजउँ न नारद कर उपदेसू । आपु कहहि सत बार महेसू ॥३॥

मैं पा परउँ कहइ जगदंबा । तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा ॥

देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी । जय जय जगदंबिके भवानी ॥४॥