दोहा

सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल,

जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ||२८१ ||

 

चौपाई

सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा, बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा ||

जो सृजि पालइ हरइ बहोरी, बाल केलि सम बिधि मति भोरी ||

कौसल्या कह दोसु न काहू, करम बिबस दुख सुख छति लाहू ||

कठिन करम गति जान बिधाता, जो सुभ असुभ सकल फल दाता ||

ईस रजाइ सीस सबही कें, उतपति थिति लय बिषहु अमी कें ||

देबि मोह बस सोचिअ बादी, बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी ||

भूपति जिअब मरब उर आनी, सोचिअ सखि लखि निज हित हानी ||

सीय मातु कह सत्य सुबानी, सुकृती अवधि अवधपति रानी ||

 

दोहा

लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु,

गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ||२८२ ||

 

चौपाई

ईस प्रसाद असीस तुम्हारी, सुत सुतबधू देवसरि बारी ||

राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ, सो करि कहउँ सखी सति भाऊ ||

भरत सील गुन बिनय बड़ाई, भायप भगति भरोस भलाई ||

कहत सारदहु कर मति हीचे, सागर सीप कि जाहिं उलीचे ||

जानउँ सदा भरत कुलदीपा, बार बार मोहि कहेउ महीपा ||

कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ, पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ,

अनुचित आजु कहब अस मोरा, सोक सनेहँ सयानप थोरा ||

सुनि सुरसरि सम पावनि बानी, भईं सनेह बिकल सब रानी ||

 

दोहा

कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि,

को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि ||२८३ ||

 

चौपाई

रानि राय सन अवसरु पाई, अपनी भाँति कहब समुझाई ||

रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन, जौं यह मत मानै महीप मन ||

तौ भल जतनु करब सुबिचारी, मोरें सौचु भरत कर भारी ||

गूढ़ सनेह भरत मन माही, रहें नीक मोहि लागत नाहीं ||

लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी, सब भइ मगन करुन रस रानी ||

नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि, सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि ||

सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ, तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ ||

देबि दंड जुग जामिनि बीती, राम मातु सुनी उठी सप्रीती ||

 

दोहा

बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय,

हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय ||२८४ ||

 

चौपाई

लखि सनेह सुनि बचन बिनीता, जनकप्रिया गह पाय पुनीता ||

देबि उचित असि बिनय तुम्हारी, दसरथ घरिनि राम महतारी ||

प्रभु अपने नीचहु आदरहीं, अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं ||

सेवकु राउ करम मन बानी, सदा सहाय महेसु भवानी ||

रउरे अंग जोगु जग को है, दीप सहाय कि दिनकर सोहै ||

रामु जाइ बनु करि सुर काजू, अचल अवधपुर करिहहिं राजू ||

अमर नाग नर राम बाहुबल, सुख बसिहहिं अपनें अपने थल ||

यह सब जागबलिक कहि राखा, देबि न होइ मुधा मुनि भाषा ||

 

दोहा

अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ ||

सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ ||२८५ ||

 

चौपाई

प्रिय परिजनहि मिली बैदेही, जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही ||

तापस बेष जानकी देखी, भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी ||

जनक राम गुर आयसु पाई, चले थलहि सिय देखी आई ||

लीन्हि लाइ उर जनक जानकी, पाहुन पावन पेम प्रान की ||

उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू, भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू ||

सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा, ता पर राम पेम सिसु सोहा ||

चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु, बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु ||

मोह मगन मति नहिं बिदेह की, महिमा सिय रघुबर सनेह की ||

 

दोहा

सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि,

धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि ||२८६ ||

 

चौपाई

तापस बेष जनक सिय देखी, भयउ पेमु परितोषु बिसेषी ||

पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ, सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ ||

जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी, गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी ||

गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे, एहिं किए साधु समाज घनेरे ||

पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी, सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी ||

पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई, सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई ||

कहति न सीय सकुचि मन माहीं, इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं ||

लखि रुख रानि जनायउ राऊ, हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ ||

 

दोहा

बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि,

कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि ||२८७ ||

 

चौपाई

सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू, सोन सुगंध सुधा ससि सारू ||

मूदे सजल नयन पुलके तन, सुजसु सराहन लगे मुदित मन ||

सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि, भरत कथा भव बंध बिमोचनि ||

धरम राजनय ब्रह्मबिचारू, इहाँ जथामति मोर प्रचारू ||

सो मति मोरि भरत महिमाही, कहै काह छलि छुअति न छाँही ||

बिधि गनपति अहिपति सिव सारद, कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद ||

भरत चरित कीरति करतूती, धरम सील गुन बिमल बिभूती ||

समुझत सुनत सुखद सब काहू, सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू ||

 

दोहा

निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि,

कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि ||२८८ ||

 

चौपाई

अगम सबहि बरनत बरबरनी, जिमि जलहीन मीन गमु धरनी ||

भरत अमित महिमा सुनु रानी, जानहिं रामु न सकहिं बखानी ||

बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ, तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ ||

बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं, सब कर भल सब के मन माहीं ||

देबि परंतु भरत रघुबर की, प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी ||

भरतु अवधि सनेह ममता की, जद्यपि रामु सीम समता की ||

परमारथ स्वारथ सुख सारे, भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे ||

साधन सिद्ध राम पग नेहू ||मोहि लखि परत भरत मत एहू ||

 

दोहा

भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ,

करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ ||२८९ ||

 

चौपाई

राम भरत गुन गनत सप्रीती, निसि दंपतिहि पलक सम बीती ||

राज समाज प्रात जुग जागे, न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे ||

गे नहाइ गुर पहीं रघुराई, बंदि चरन बोले रुख पाई ||

नाथ भरतु पुरजन महतारी, सोक बिकल बनबास दुखारी ||

सहित समाज राउ मिथिलेसू, बहुत दिवस भए सहत कलेसू ||

उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा, हित सबही कर रौरें हाथा ||

अस कहि अति सकुचे रघुराऊ, मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ ||

तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा, नरक सरिस दुहु राज समाजा ||

 

दोहा

प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम,

तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम ||२९० ||

 

चौपाई

सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ, जहँ न राम पद पंकज भाऊ ||

जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू, जहँ नहिं राम पेम परधानू ||

तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं, तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं ||

राउर आयसु सिर सबही कें, बिदित कृपालहि गति सब नीकें ||

आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ, भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ ||

करि प्रनाम तब रामु सिधाए, रिषि धरि धीर जनक पहिं आए ||

राम बचन गुरु नृपहि सुनाए, सील सनेह सुभायँ सुहाए ||

महाराज अब कीजिअ सोई, सब कर धरम सहित हित होई,

 

दोहा

ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल,

तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल ||२९१ ||

 

चौपाई

सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे, लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे ||

सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं, आए इहाँ कीन्ह भल नाही ||

रामहि रायँ कहेउ बन जाना, कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना ||

हम अब बन तें बनहि पठाई, प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई ||

तापस मुनि महिसुर सुनि देखी, भए प्रेम बस बिकल बिसेषी ||

समउ समुझि धरि धीरजु राजा, चले भरत पहिं सहित समाजा ||

भरत आइ आगें भइ लीन्हे, अवसर सरिस सुआसन दीन्हे ||

तात भरत कह तेरहुति राऊ, तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ ||

 

दोहा

राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु ||

संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ||२९२ ||

 

चौपाई

सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी, बोले भरतु धीर धरि भारी ||

प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू, कुलगुरु सम हित माय न बापू ||

कौसिकादि मुनि सचिव समाजू, ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू ||

सिसु सेवक आयसु अनुगामी, जानि मोहि सिख देइअ स्वामी ||

एहिं समाज थल बूझब राउर, मौन मलिन मैं बोलब बाउर ||

छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता, छमब तात लखि बाम बिधाता ||

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना, सेवाधरमु कठिन जगु जाना ||

स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू, बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू ||

 

दोहा

राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि,

सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि ||२९३ ||

 

चौपाई

भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ, सहित समाज सराहत राऊ ||

सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे, अरथु अमित अति आखर थोरे ||

ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी, गहि न जाइ अस अदभुत बानी ||

भूप भरत मुनि सहित समाजू, गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू ||

सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा, मनहुँ मीनगन नव जल जोगा ||

देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी, निरखि बिदेह सनेह बिसेषी ||

राम भगतिमय भरतु निहारे, सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे ||

सब कोउ राम पेममय पेखा, भउ अलेख सोच बस लेखा ||

 

दोहा

रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज,

रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु ||२९४ ||

 

चौपाई

सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही, देबि देव सरनागत पाही ||

फेरि भरत मति करि निज माया, पालु बिबुध कुल करि छल छाया ||

बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी, बोली सुर स्वारथ जड़ जानी ||

मो सन कहहु भरत मति फेरू, लोचन सहस न सूझ सुमेरू ||

बिधि हरि हर माया बड़ि भारी, सोउ न भरत मति सकइ निहारी ||

सो मति मोहि कहत करु भोरी, चंदिनि कर कि चंडकर चोरी ||

भरत हृदयँ सिय राम निवासू, तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू ||

अस कहि सारद गइ बिधि लोका, बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका ||

 

दोहा

सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु ||

रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु ||२९५ ||

 

चौपाई

करि कुचालि सोचत सुरराजू, भरत हाथ सबु काजु अकाजू ||

गए जनकु रघुनाथ समीपा, सनमाने सब रबिकुल दीपा ||

समय समाज धरम अबिरोधा, बोले तब रघुबंस पुरोधा ||

जनक भरत संबादु सुनाई, भरत कहाउति कही सुहाई ||

तात राम जस आयसु देहू, सो सबु करै मोर मत एहू ||

सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी, बोले सत्य सरल मृदु बानी ||

बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू, मोर कहब सब भाँति भदेसू ||

राउर राय रजायसु होई, राउरि सपथ सही सिर सोई ||

 

दोहा

राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत,

सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत ||२९६ ||

 

चौपाई

सभा सकुच बस भरत निहारी, रामबंधु धरि धीरजु भारी ||

कुसमउ देखि सनेहु सँभारा, बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा ||

सोक कनकलोचन मति छोनी, हरी बिमल गुन गन जगजोनी ||

भरत बिबेक बराहँ बिसाला, अनायास उधरी तेहि काला ||

करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे, रामु राउ गुर साधु निहोरे ||

छमब आजु अति अनुचित मोरा, कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा ||

हियँ सुमिरी सारदा सुहाई, मानस तें मुख पंकज आई ||

बिमल बिबेक धरम नय साली, भरत भारती मंजु मराली ||

 

दोहा

निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु,

करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु ||२९७ ||

 

चौपाई

प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी, पूज्य परम हित अतंरजामी ||

सरल सुसाहिबु सील निधानू, प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू ||

समरथ सरनागत हितकारी, गुनगाहकु अवगुन अघ हारी ||

स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई, मोहि समान मैं साइँ दोहाई ||

प्रभु पितु बचन मोह बस पेली, आयउँ इहाँ समाजु सकेली ||

जग भल पोच ऊँच अरु नीचू, अमिअ अमरपद माहुरु मीचू ||

राम रजाइ मेट मन माहीं, देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं ||

सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई, प्रभु मानी सनेह सेवकाई ||

 

दोहा

कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर,

दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर ||२९८ ||

 

चौपाई

राउरि रीति सुबानि बड़ाई, जगत बिदित निगमागम गाई ||

कूर कुटिल खल कुमति कलंकी, नीच निसील निरीस निसंकी ||

तेउ सुनि सरन सामुहें आए, सकृत प्रनामु किहें अपनाए ||

देखि दोष कबहुँ न उर आने, सुनि गुन साधु समाज बखाने ||

को साहिब सेवकहि नेवाजी, आपु समाज साज सब साजी ||

निज करतूति न समुझिअ सपनें, सेवक सकुच सोचु उर अपनें ||

सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी, भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी ||

पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना, गुन गति नट पाठक आधीना ||

 

दोहा

यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर,

को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर ||२९९ ||

 

चौपाई

सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ, आयउँ लाइ रजायसु बाएँ ||

तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा, सबहि भाँति भल मानेउ मोरा ||

देखेउँ पाय सुमंगल मूला, जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला ||

बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू, बड़ीं चूक साहिब अनुरागू ||

कृपा अनुग्रह अंगु अघाई, कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई ||

राखा मोर दुलार गोसाईं, अपनें सील सुभायँ भलाईं ||

नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई, स्वामि समाज सकोच बिहाई ||

अबिनय बिनय जथारुचि बानी, छमिहि देउ अति आरति जानी ||

 

दोहा

सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि,

आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि ||३०० ||

 

चौपाई

प्रभु पद पदुम पराग दोहाई, सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई ||

सो करि कहउँ हिए अपने की, रुचि जागत सोवत सपने की ||

सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई, स्वारथ छल फल चारि बिहाई ||

अग्या सम न सुसाहिब सेवा, सो प्रसादु जन पावै देवा ||

अस कहि प्रेम बिबस भए भारी, पुलक सरीर बिलोचन बारी ||

प्रभु पद कमल गहे अकुलाई, समउ सनेहु न सो कहि जाई ||

कृपासिंधु सनमानि सुबानी, बैठाए समीप गहि पानी ||

भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ, सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ ||

 

छंद

रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी,

मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी ||

भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से,

तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से ||

 

सोरठा

देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब,

मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत ||३०१ ||

 

चौपाई

कपट कुचालि सीवँ सुरराजू, पर अकाज प्रिय आपन काजू ||

काक समान पाकरिपु रीती, छली मलीन कतहुँ न प्रतीती ||

प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला, सो उचाटु सब कें सिर मेला ||

सुरमायाँ सब लोग बिमोहे, राम प्रेम अतिसय न बिछोहे ||

भय उचाट बस मन थिर नाहीं, छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं ||

दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी, सरित सिंधु संगम जनु बारी ||

दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं, एक एक सन मरमु न कहहीं ||

लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू, सरिस स्वान मघवान जुबानू ||

 

दोहा

भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ,

लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ ||३०२ ||

 

चौपाई

कृपासिंधु लखि लोग दुखारे, निज सनेहँ सुरपति छल भारे ||

सभा राउ गुर महिसुर मंत्री, भरत भगति सब कै मति जंत्री ||

रामहि चितवत चित्र लिखे से, सकुचत बोलत बचन सिखे से ||

भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई, सुनत सुखद बरनत कठिनाई ||

जासु बिलोकि भगति लवलेसू, प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू ||

महिमा तासु कहै किमि तुलसी, भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी ||

आपु छोटि महिमा बड़ि जानी, कबिकुल कानि मानि सकुचानी ||

कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई, मति गति बाल बचन की नाई ||

 

दोहा

भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि,

उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि ||३०३ ||

 

चौपाई

भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ, लघु मति चापलता कबि छमहूँ ||

कहत सुनत सति भाउ भरत को, सीय राम पद होइ न रत को ||

सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को, जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को ||

देखि दयाल दसा सबही की, राम सुजान जानि जन जी की ||

धरम धुरीन धीर नय नागर, सत्य सनेह सील सुख सागर ||

देसु काल लखि समउ समाजू, नीति प्रीति पालक रघुराजू ||

बोले बचन बानि सरबसु से, हित परिनाम सुनत ससि रसु से ||

तात भरत तुम्ह धरम धुरीना, लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना ||

 

दोहा

करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात,

गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात ||३०४ ||

 

चौपाई

जानहु तात तरनि कुल रीती, सत्यसंध पितु कीरति प्रीती ||

समउ समाजु लाज गुरुजन की, उदासीन हित अनहित मन की ||

तुम्हहि बिदित सबही कर करमू, आपन मोर परम हित धरमू ||

मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा, तदपि कहउँ अवसर अनुसारा ||

तात तात बिनु बात हमारी, केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी ||

नतरु प्रजा परिजन परिवारू, हमहि सहित सबु होत खुआरू ||

जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू, जग केहि कहहु न होइ कलेसू ||

तस उतपातु तात बिधि कीन्हा, मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा ||

 

दोहा

राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम,

गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम ||३०५ ||

 

चौपाई

सहित समाज तुम्हार हमारा, घर बन गुर प्रसाद रखवारा ||

मातु पिता गुर स्वामि निदेसू, सकल धरम धरनीधर सेसू ||

सो तुम्ह करहु करावहु मोहू, तात तरनिकुल पालक होहू ||

साधक एक सकल सिधि देनी, कीरति सुगति भूतिमय बेनी ||

सो बिचारि सहि संकटु भारी, करहु प्रजा परिवारु सुखारी ||

बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई, तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई ||

जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा, कुसमयँ तात न अनुचित मोरा ||

होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए, ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए ||

 

दोहा

सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ,

तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ ||३०६ ||

 

चौपाई

सभा सकल सुनि रघुबर बानी, प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी ||

सिथिल समाज सनेह समाधी, देखि दसा चुप सारद साधी ||

भरतहि भयउ परम संतोषू, सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू ||

मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू, भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू ||

कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी, बोले पानि पंकरुह जोरी ||

नाथ भयउ सुखु साथ गए को, लहेउँ लाहु जग जनमु भए को ||

अब कृपाल जस आयसु होई, करौं सीस धरि सादर सोई ||

सो अवलंब देव मोहि देई, अवधि पारु पावौं जेहि सेई ||

 

दोहा

देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ,

आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ ||३०७ ||

 

चौपाई

एकु मनोरथु बड़ मन माहीं, सभयँ सकोच जात कहि नाहीं ||

कहहु तात प्रभु आयसु पाई, बोले बानि सनेह सुहाई ||

चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन, खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन ||

प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी, आयसु होइ त आवौं देखी ||

अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू, तात बिगतभय कानन चरहू ||

मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता, पावन परम सुहावन भ्राता ||

रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं, राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं ||

सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा, मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा ||

 

दोहा

भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल,

सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल ||३०८ ||

 

चौपाई

धन्य भरत जय राम गोसाईं, कहत देव हरषत बरिआई,

मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू, भरत बचन सुनि भयउ उछाहू ||

भरत राम गुन ग्राम सनेहू, पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू ||

सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन, नेमु पेमु अति पावन पावन ||

मति अनुसार सराहन लागे, सचिव सभासद सब अनुरागे ||

सुनि सुनि राम भरत संबादू, दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू ||

राम मातु दुखु सुखु सम जानी, कहि गुन राम प्रबोधीं रानी ||

एक कहहिं रघुबीर बड़ाई, एक सराहत भरत भलाई ||

 

दोहा

अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप,

राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप ||३०९ ||

 

चौपाई

भरत अत्रि अनुसासन पाई, जल भाजन सब दिए चलाई ||

सानुज आपु अत्रि मुनि साधू, सहित गए जहँ कूप अगाधू ||

पावन पाथ पुन्यथल राखा, प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा ||

तात अनादि सिद्ध थल एहू, लोपेउ काल बिदित नहिं केहू ||

तब सेवकन्ह सरस थलु देखा, किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा ||

बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू, सुगम अगम अति धरम बिचारू ||

भरतकूप अब कहिहहिं लोगा, अति पावन तीरथ जल जोगा ||

प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी, होइहहिं बिमल करम मन बानी ||

 

दोहा

कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ,

अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ ||३१० ||

 

चौपाई

कहत धरम इतिहास सप्रीती, भयउ भोरु निसि सो सुख बीती ||

नित्य निबाहि भरत दोउ भाई, राम अत्रि गुर आयसु पाई ||

सहित समाज साज सब सादें, चले राम बन अटन पयादें ||

कोमल चरन चलत बिनु पनहीं, भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं ||

कुस कंटक काँकरीं कुराईं, कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं ||

महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे, बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे ||

सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं, बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं ||

मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी, सेवहिं सकल राम प्रिय जानी ||

 

दोहा

सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात,

राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात ||३११ ||

 

चौपाई

एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं, नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं ||

पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा, खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा ||

चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी, बूझत भरतु दिब्य सब देखी ||

सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ, हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ ||

कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा, कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा ||

कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई, सुमिरत सीय सहित दोउ भाई ||

देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा, देहिं असीस मुदित बनदेवा ||

फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई, प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई ||

 

दोहा

देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ,

कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ ||३१२ ||

 

चौपाई

भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू, भरत भूमिसुर तेरहुति राजू ||

भल दिन आजु जानि मन माहीं, रामु कृपाल कहत सकुचाहीं ||

गुर नृप भरत सभा अवलोकी, सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी ||

सील सराहि सभा सब सोची, कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची ||

भरत सुजान राम रुख देखी, उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी ||

करि दंडवत कहत कर जोरी, राखीं नाथ सकल रुचि मोरी ||

मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू, बहुत भाँति दुखु पावा आपू ||

अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई, सेवौं अवध अवधि भरि जाई ||

 

दोहा

जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल,

सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल ||३१३ ||

 

चौपाई

पुरजन परिजन प्रजा गोसाई, सब सुचि सरस सनेहँ सगाई ||

राउर बदि भल भव दुख दाहू, प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू ||

स्वामि सुजानु जानि सब ही की, रुचि लालसा रहनि जन जी की ||

प्रनतपालु पालिहि सब काहू, देउ दुहू दिसि ओर निबाहू ||

अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो, किएँ बिचारु न सोचु खरो सो ||

आरति मोर नाथ कर छोहू, दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू ||

यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी, तजि सकोच सिखइअ अनुगामी ||

भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी, खीर नीर बिबरन गति हंसी ||

 

दोहा

दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन,

देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन ||३१४ ||

 

चौपाई

तात तुम्हारि मोरि परिजन की, चिंता गुरहि नृपहि घर बन की ||

माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू, हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू ||

मोर तुम्हार परम पुरुषारथु, स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु ||

पितु आयसु पालिहिं दुहु भाई, लोक बेद भल भूप भलाई ||

गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें, चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ||

अस बिचारि सब सोच बिहाई, पालहु अवध अवधि भरि जाई ||

देसु कोसु परिजन परिवारू, गुर पद रजहिं लाग छरुभारू ||

तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी, पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी ||

 

दोहा

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक,

पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक ||३१५ ||

 

चौपाई

राजधरम सरबसु एतनोई, जिमि मन माहँ मनोरथ गोई ||

बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती, बिनु अधार मन तोषु न साँती ||

भरत सील गुर सचिव समाजू, सकुच सनेह बिबस रघुराजू ||

प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं, सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ||

चरनपीठ करुनानिधान के, जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के ||

संपुट भरत सनेह रतन के, आखर जुग जुन जीव जतन के ||

कुल कपाट कर कुसल करम के, बिमल नयन सेवा सुधरम के ||

भरत मुदित अवलंब लहे तें, अस सुख जस सिय रामु रहे तें ||

 

दोहा

मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ,

लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ ||३१६ ||

 

चौपाई

सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी, अवधि आस सम जीवनि जी की ||

नतरु लखन सिय सम बियोगा, हहरि मरत सब लोग कुरोगा ||

रामकृपाँ अवरेब सुधारी, बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी ||

भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो, राम प्रेम रसु कहि न परत सो ||

तन मन बचन उमग अनुरागा, धीर धुरंधर धीरजु त्यागा ||

बारिज लोचन मोचत बारी, देखि दसा सुर सभा दुखारी ||

मुनिगन गुर धुर धीर जनक से, ग्यान अनल मन कसें कनक से ||

जे बिरंचि निरलेप उपाए, पदुम पत्र जिमि जग जल जाए ||

 

दोहा

तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार,

भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार ||३१७ ||

 

चौपाई

जहाँ जनक गुर मति भोरी, प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी ||

बरनत रघुबर भरत बियोगू, सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू ||

सो सकोच रसु अकथ सुबानी, समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी ||

भेंटि भरत रघुबर समुझाए, पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए ||

सेवक सचिव भरत रुख पाई, निज निज काज लगे सब जाई ||

सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा, लगे चलन के साजन साजा ||

प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई, चले सीस धरि राम रजाई ||

मुनि तापस बनदेव निहोरी, सब सनमानि बहोरि बहोरी ||

 

दोहा

लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि,

चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि ||३१८ ||

 

चौपाई

सानुज राम नृपहि सिर नाई, कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई ||

देव दया बस बड़ दुखु पायउ, सहित समाज काननहिं आयउ ||

पुर पगु धारिअ देइ असीसा, कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा ||

मुनि महिदेव साधु सनमाने, बिदा किए हरि हर सम जाने ||

सासु समीप गए दोउ भाई, फिरे बंदि पग आसिष पाई ||

कौसिक बामदेव जाबाली, पुरजन परिजन सचिव सुचाली ||

जथा जोगु करि बिनय प्रनामा, बिदा किए सब सानुज रामा ||

नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे, सब सनमानि कृपानिधि फेरे ||

 

दोहा

भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि,

बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि ||३१९ ||

 

चौपाई

परिजन मातु पितहि मिलि सीता, फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता ||

करि प्रनामु भेंटी सब सासू, प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू ||

सुनि सिख अभिमत आसिष पाई, रही सीय दुहु प्रीति समाई ||

रघुपति पटु पालकीं मगाईं, करि प्रबोधु सब मातु चढ़ाई ||

बार बार हिलि मिलि दुहु भाई, सम सनेहँ जननी पहुँचाई ||

साजि बाजि गज बाहन नाना, भरत भूप दल कीन्ह पयाना ||

हृदयँ रामु सिय लखन समेता, चले जाहिं सब लोग अचेता ||

बसह बाजि गज पसु हियँ हारें, चले जाहिं परबस मन मारें ||

 

दोहा

गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत,

फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत ||३२० ||

 

चौपाई

बिदा कीन्ह सनमानि निषादू, चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू ||

कोल किरात भिल्ल बनचारी, फेरे फिरे जोहारि जोहारी ||

प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं, प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं ||

भरत सनेह सुभाउ सुबानी, प्रिया अनुज सन कहत बखानी ||

प्रीति प्रतीति बचन मन करनी, श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी ||

तेहि अवसर खग मृग जल मीना, चित्रकूट चर अचर मलीना ||

बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की, बरषि सुमन कहि गति घर घर की ||

प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो, चले मुदित मन डर न खरो सो ||

 

दोहा

सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर,

भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर ||३२१ ||

 

चौपाई

मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू, राम बिरहँ सबु साजु बिहालू ||

प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं, सब चुपचाप चले मग जाहीं ||

जमुना उतरि पार सबु भयऊ, सो बासरु बिनु भोजन गयऊ ||

उतरि देवसरि दूसर बासू, रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू ||

सई उतरि गोमतीं नहाए, चौथें दिवस अवधपुर आए,

जनकु रहे पुर बासर चारी, राज काज सब साज सँभारी ||

सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू, तेरहुति चले साजि सबु साजू ||

नगर नारि नर गुर सिख मानी, बसे सुखेन राम रजधानी ||

 

दोहा

राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास,

तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस ||३२२ ||

 

चौपाई

सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे, निज निज काज पाइ पाइ सिख ओधे ||

पुनि सिख दीन्ह बोलि लघु भाई, सौंपी सकल मातु सेवकाई ||

भूसुर बोलि भरत कर जोरे, करि प्रनाम बय बिनय निहोरे ||

ऊँच नीच कारजु भल पोचू, आयसु देब न करब सँकोचू ||

परिजन पुरजन प्रजा बोलाए, समाधानु करि सुबस बसाए ||

सानुज गे गुर गेहँ बहोरी, करि दंडवत कहत कर जोरी ||

आयसु होइ त रहौं सनेमा, बोले मुनि तन पुलकि सपेमा ||

समुझव कहब करब तुम्ह जोई, धरम सारु जग होइहि सोई ||

 

दोहा

सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि,

सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि ||३२३ ||

 

चौपाई

राम मातु गुर पद सिरु नाई, प्रभु पद पीठ रजायसु पाई ||

नंदिगावँ करि परन कुटीरा, कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा ||

जटाजूट सिर मुनिपट धारी, महि खनि कुस साँथरी सँवारी ||

असन बसन बासन ब्रत नेमा, करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा ||

भूषन बसन भोग सुख भूरी, मन तन बचन तजे तिन तूरी ||

अवध राजु सुर राजु सिहाई, दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई ||

तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा, चंचरीक जिमि चंपक बागा ||

रमा बिलासु राम अनुरागी, तजत बमन जिमि जन बड़भागी ||

 

दोहा

राम पेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति,

चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति ||३२४ ||

 

चौपाई

देह दिनहुँ दिन दूबरि होई, घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई ||

नित नव राम प्रेम पनु पीना, बढ़त धरम दलु मनु न मलीना ||

जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे, बिलसत बेतस बनज बिकासे ||

सम दम संजम नियम उपासा, नखत भरत हिय बिमल अकासा ||

ध्रुव बिस्वास अवधि राका सी, स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी ||

राम पेम बिधु अचल अदोषा, सहित समाज सोह नित चोखा ||

भरत रहनि समुझनि करतूती, भगति बिरति गुन बिमल बिभूती ||

बरनत सकल सुकचि सकुचाहीं, सेस गनेस गिरा गमु नाहीं ||

 

दोहा

नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति ||

मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति ||३२५ ||

 

चौपाई

पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू, जीह नामु जप लोचन नीरू ||

लखन राम सिय कानन बसहीं, भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं ||

दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू, सब बिधि भरत सराहन जोगू ||

सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं, देखि दसा मुनिराज लजाहीं ||

परम पुनीत भरत आचरनू, मधुर मंजु मुद मंगल करनू ||

हरन कठिन कलि कलुष कलेसू, महामोह निसि दलन दिनेसू ||

पाप पुंज कुंजर मृगराजू, समन सकल संताप समाजू,

जन रंजन भंजन भव भारू, राम सनेह सुधाकर सारू ||

 

छंद

सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को,

मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को ||

दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को,

कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को ||

 

सोरठा

भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं,

सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति ||३२६ ||

 

मासपारायण, इक्कीसवाँ विश्राम

 

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने द्वितीयः सोपानः समाप्तः,

(अयोध्याकाण्ड समाप्त)