दोहा
मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम,
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम ||२४१ ||
चौपाई
भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई, बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई ||
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे, अभिमत आसिष पाइ अनंदे ||
सानुज भरत उमगि अनुरागा, धरि सिर सिय पद पदुम परागा ||
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए, सिर कर कमल परसि बैठाए ||
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं, मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं ||
सब बिधि सानुकूल लखि सीता, भे निसोच उर अपडर बीता ||
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा, प्रेम भरा मन निज गति छूँछा ||
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि, जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि ||
दोहा
नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग,
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग ||२४२ ||
चौपाई
सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू, सिय समीप राखे रिपुदवनू ||
चले सबेग रामु तेहि काला, धीर धरम धुर दीनदयाला ||
गुरहि देखि सानुज अनुरागे, दंड प्रनाम करन प्रभु लागे ||
मुनिबर धाइ लिए उर लाई, प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई ||
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू, कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू ||
रामसखा रिषि बरबस भेंटा, जनु महि लुठत सनेह समेटा ||
रघुपति भगति सुमंगल मूला, नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला ||
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं, बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं ||
दोहा
जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ,
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ ||२४३ ||
चौपाई
आरत लोग राम सबु जाना, करुनाकर सुजान भगवाना ||
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी, तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी ||
सानुज मिलि पल महु सब काहू, कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू ||
यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं, जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं ||
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा, पुरजन सकल सराहहिं भागा ||
देखीं राम दुखित महतारीं, जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं ||
प्रथम राम भेंटी कैकेई, सरल सुभायँ भगति मति भेई ||
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी, काल करम बिधि सिर धरि खोरी ||
दोहा
भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु ||
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु ||२४४ ||
चौपाई
गुरतिय पद बंदे दुहु भाई, सहित बिप्रतिय जे सँग आई ||
गंग गौरि सम सब सनमानीं ||देहिं असीस मुदित मृदु बानी ||
गहि पद लगे सुमित्रा अंका, जनु भेटीं संपति अति रंका ||
पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता, परे पेम ब्याकुल सब गाता ||
अति अनुराग अंब उर लाए, नयन सनेह सलिल अन्हवाए ||
तेहि अवसर कर हरष बिषादू, किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू ||
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ, गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ ||
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू, जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू ||
दोहा
महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ ||
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ ||२४५ ||
चौपाई
सीय आइ मुनिबर पग लागी, उचित असीस लही मन मागी ||
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता, मिली पेमु कहि जाइ न जेता ||
बंदि बंदि पग सिय सबही के, आसिरबचन लहे प्रिय जी के ||
सासु सकल जब सीयँ निहारीं, मूदे नयन सहमि सुकुमारीं ||
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं, काह कीन्ह करतार कुचालीं ||
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा, सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा ||
जनकसुता तब उर धरि धीरा, नील नलिन लोयन भरि नीरा ||
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई, तेहि अवसर करुना महि छाई ||
दोहा
लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग ||
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग ||२४६ ||
चौपाई
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं, बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं ||
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा, कहे कछुक परमारथ गाथा ||
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा, सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा ||
मरन हेतु निज नेहु बिचारी, भे अति बिकल धीर धुर धारी ||
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी, बिलपत लखन सीय सब रानी ||
सोक बिकल अति सकल समाजू, मानहुँ राजु अकाजेउ आजू ||
मुनिबर बहुरि राम समुझाए, सहित समाज सुसरित नहाए ||
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा, मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा ||
दोहा
भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह ||
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह ||२४७ ||
चौपाई
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी, भे पुनीत पातक तम तरनी ||
जासु नाम पावक अघ तूला, सुमिरत सकल सुमंगल मूला ||
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस, तीरथ आवाहन सुरसरि जस ||
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते, बोले गुर सन राम पिरीते ||
नाथ लोग सब निपट दुखारी, कंद मूल फल अंबु अहारी ||
सानुज भरतु सचिव सब माता, देखि मोहि पल जिमि जुग जाता ||
सब समेत पुर धारिअ पाऊ, आपु इहाँ अमरावति राऊ ||
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई, उचित होइ तस करिअ गोसाँई ||
दोहा
धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम,
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम ||२४८ ||
चौपाई
राम बचन सुनि सभय समाजू, जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू ||
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला, भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला ||
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं, जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं ||
मंगलमूरति लोचन भरि भरि, निरखहिं हरषि दंडवत करि करि ||
राम सैल बन देखन जाहीं, जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं ||
झरना झरिहिं सुधासम बारी, त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी ||
बिटप बेलि तृन अगनित जाती, फल प्रसून पल्लव बहु भाँती ||
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं, जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं ||
दोहा
सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग,
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग ||२४९ ||
चौपाई
कोल किरात भिल्ल बनबासी, मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी ||
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी, कंद मूल फल अंकुर जूरी ||
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा, कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा ||
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं, फेरत राम दोहाई देहीं ||
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी, मानत साधु पेम पहिचानी ||
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा, पावा दरसनु राम प्रसादा ||
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा, जस मरु धरनि देवधुनि धारा ||
राम कृपाल निषाद नेवाजा, परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा ||
दोहा
यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु,
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु ||२५० ||
चौपाई
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे, सेवा जोगु न भाग हमारे ||
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई, ईधनु पात किरात मिताई ||
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई, लेहि न बासन बसन चोराई ||
हम जड़ जीव जीव गन घाती, कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ||
पाप करत निसि बासर जाहीं, नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं ||
सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ, यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ ||
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे, मिटे दुसह दुख दोष हमारे ||
बचन सुनत पुरजन अनुरागे, तिन्ह के भाग सराहन लागे ||
छंद
लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं,
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं ||
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा,
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा ||
सोरठा
बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब,
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम ||२५१ ||
चौपाई
पुर जन नारि मगन अति प्रीती, बासर जाहिं पलक सम बीती ||
सीय सासु प्रति बेष बनाई, सादर करइ सरिस सेवकाई ||
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ, माया सब सिय माया माहूँ ||
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं, तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं ||
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई, कुटिल रानि पछितानि अघाई ||
अवनि जमहि जाचति कैकेई, महि न बीचु बिधि मीचु न देई ||
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं, राम बिमुख थलु नरक न लहहीं ||
यहु संसउ सब के मन माहीं, राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं ||
दोहा
निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच,
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच ||२५२ ||
चौपाई
कीन्ही मातु मिस काल कुचाली, ईति भीति जस पाकत साली ||
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू, मोहि अवकलत उपाउ न एकू ||
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी, मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी ||
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ, राम जननि हठ करबि कि काऊ ||
मोहि अनुचर कर केतिक बाता, तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता ||
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू, हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू ||
एकउ जुगुति न मन ठहरानी, सोचत भरतहि रैनि बिहानी ||
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई, बैठत पठए रिषयँ बोलाई ||
दोहा
गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ,
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ ||२५३ ||
चौपाई
बोले मुनिबरु समय समाना, सुनहु सभासद भरत सुजाना ||
धरम धुरीन भानुकुल भानू, राजा रामु स्वबस भगवानू ||
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू, राम जनमु जग मंगल हेतू ||
गुर पितु मातु बचन अनुसारी, खल दलु दलन देव हितकारी ||
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु, कोउ न राम सम जान जथारथु ||
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला, माया जीव करम कुलि काला ||
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई, जोग सिद्धि निगमागम गाई ||
करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें, राम रजाइ सीस सबही कें ||
दोहा
राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ,
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ ||२५४ ||
चौपाई
सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू, मंगल मोद मूल मग एकू ||
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ, कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ ||
सब सादर सुनि मुनिबर बानी, नय परमारथ स्वारथ सानी ||
उतरु न आव लोग भए भोरे, तब सिरु नाइ भरत कर जोरे ||
भानुबंस भए भूप घनेरे, अधिक एक तें एक बड़ेरे ||
जनमु हेतु सब कहँ पितु माता, करम सुभासुभ देइ बिधाता ||
दलि दुख सजइ सकल कल्याना, अस असीस राउरि जगु जाना ||
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी, सकइ को टारि टेक जो टेकी ||
दोहा
बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु,
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु ||२५५ ||
चौपाई
तात बात फुरि राम कृपाहीं, राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं ||
सकुचउँ तात कहत एक बाता, अरध तजहिं बुध सरबस जाता ||
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई, फेरिअहिं लखन सीय रघुराई ||
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता, भे प्रमोद परिपूरन गाता ||
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा, जनु जिय राउ रामु भए राजा ||
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी, सम दुख सुख सब रोवहिं रानी ||
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे, फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे ||
कानन करउँ जनम भरि बासू, एहिं तें अधिक न मोर सुपासू ||
दोहा
अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान,
जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान ||२५६ ||
चौपाई
भरत बचन सुनि देखि सनेहू, सभा सहित मुनि भए बिदेहू ||
भरत महा महिमा जलरासी, मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी ||
गा चह पार जतनु हियँ हेरा, पावति नाव न बोहितु बेरा ||
औरु करिहि को भरत बड़ाई, सरसी सीपि कि सिंधु समाई ||
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए, सहित समाज राम पहिँ आए ||
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु, बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु ||
बोले मुनिबरु बचन बिचारी, देस काल अवसर अनुहारी ||
सुनहु राम सरबग्य सुजाना, धरम नीति गुन ग्यान निधाना ||
दोहा
सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ,
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ ||२५७ ||
चौपाई
आरत कहहिं बिचारि न काऊ, सूझ जूआरिहि आपन दाऊ ||
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ, नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ ||
सब कर हित रुख राउरि राखेँ, आयसु किएँ मुदित फुर भाषें ||
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई, माथेँ मानि करौ सिख सोई ||
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ, सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ ||
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा, भरत सनेहँ बिचारु न राखा ||
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी, भरत भगति बस भइ मति मोरी ||
मोरेँ जान भरत रुचि राखि, जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी ||
दोहा
भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि,
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि ||२५८ ||
चौपाई
गुरु अनुराग भरत पर देखी, राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी ||
भरतहि धरम धुरंधर जानी, निज सेवक तन मानस बानी ||
बोले गुर आयस अनुकूला, बचन मंजु मृदु मंगलमूला ||
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई, भयउ न भुअन भरत सम भाई ||
जे गुर पद अंबुज अनुरागी, ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी ||
राउर जा पर अस अनुरागू, को कहि सकइ भरत कर भागू ||
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई, करत बदन पर भरत बड़ाई ||
भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई, अस कहि राम रहे अरगाई ||
दोहा
तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात,
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात ||२५९ ||
चौपाई
सुनि मुनि बचन राम रुख पाई, गुरु साहिब अनुकूल अघाई ||
लखि अपने सिर सबु छरु भारू, कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू ||
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें, नीरज नयन नेह जल बाढ़ें ||
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा, एहि तें अधिक कहौं मैं काहा,
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ, अपराधिहु पर कोह न काऊ ||
मो पर कृपा सनेह बिसेषी, खेलत खुनिस न कबहूँ देखी ||
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू, कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू ||
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही, हारेहुँ खेल जितावहिं मोही ||
दोहा
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन,
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन ||२६० ||
चौपाई
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा, नीच बीचु जननी मिस पारा,
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा, अपनीं समुझि साधु सुचि को भा ||
मातु मंदि मैं साधु सुचाली, उर अस आनत कोटि कुचाली ||
फरइ कि कोदव बालि सुसाली, मुकुता प्रसव कि संबुक काली ||
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू, मोर अभाग उदधि अवगाहू ||
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू, जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ||
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा, एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा ||
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू, लागत मोहि नीक परिनामू ||
दोहा
साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ,
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ ||२६१ ||
चौपाई
भूपति मरन पेम पनु राखी, जननी कुमति जगतु सबु साखी ||
देखि न जाहि बिकल महतारी, जरहिं दुसह जर पुर नर नारी ||
महीं सकल अनरथ कर मूला, सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला ||
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा, करि मुनि बेष लखन सिय साथा ||
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ, संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ ||
बहुरि निहार निषाद सनेहू, कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू ||
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई, जिअत जीव जड़ सबइ सहाई ||
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी, तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी ||
दोहा
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि,
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि ||२६२ ||
चौपाई
सुनि अति बिकल भरत बर बानी, आरति प्रीति बिनय नय सानी ||
सोक मगन सब सभाँ खभारू, मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू ||
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी, भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी ||
बोले उचित बचन रघुनंदू, दिनकर कुल कैरव बन चंदू ||
तात जाँय जियँ करहु गलानी, ईस अधीन जीव गति जानी ||
तीनि काल तिभुअन मत मोरें, पुन्यसिलोक तात तर तोरे ||
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई, जाइ लोकु परलोकु नसाई ||
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई, जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई ||
दोहा
मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार,
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार ||२६३ ||
चौपाई
कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी, भरत भूमि रह राउरि राखी ||
तात कुतरक करहु जनि जाएँ, बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ ||
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं, बाधक बधिक बिलोकि पराहीं ||
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना, मानुष तनु गुन ग्यान निधाना ||
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें, करौं काह असमंजस जीकें ||
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी, तनु परिहरेउ पेम पन लागी ||
तासु बचन मेटत मन सोचू, तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू ||
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा, अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा ||
दोहा
मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु,
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु ||२६४ ||
चौपाई
सुर गन सहित सभय सुरराजू, सोचहिं चाहत होन अकाजू ||
बनत उपाउ करत कछु नाहीं, राम सरन सब गे मन माहीं ||
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं, रघुपति भगत भगति बस अहहीं,
सुधि करि अंबरीष दुरबासा, भे सुर सुरपति निपट निरासा ||
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा, नरहरि किए प्रगट प्रहलादा ||
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा, अब सुर काज भरत के हाथा ||
आन उपाउ न देखिअ देवा, मानत रामु सुसेवक सेवा ||
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि, निज गुन सील राम बस करतहि ||
दोहा
सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु,
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु ||२६५ ||
चौपाई
सीतापति सेवक सेवकाई, कामधेनु सय सरिस सुहाई ||
भरत भगति तुम्हरें मन आई, तजहु सोचु बिधि बात बनाई ||
देखु देवपति भरत प्रभाऊ, सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ ||
मन थिर करहु देव डरु नाहीं, भरतहि जानि राम परिछाहीं ||
सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू, अंतरजामी प्रभुहि सकोचू ||
निज सिर भारु भरत जियँ जाना, करत कोटि बिधि उर अनुमाना ||
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका, राम रजायस आपन नीका ||
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा, छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा ||
दोहा
कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ,
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ ||२६६ ||
चौपाई
कहौं कहावौं का अब स्वामी, कृपा अंबुनिधि अंतरजामी ||
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला, मिटी मलिन मन कलपित सूला ||
अपडर डरेउँ न सोच समूलें, रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें ||
मोर अभागु मातु कुटिलाई, बिधि गति बिषम काल कठिनाई ||
पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला, प्रनतपाल पन आपन पाला ||
यह नइ रीति न राउरि होई, लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई ||
जगु अनभल भल एकु गोसाईं, कहिअ होइ भल कासु भलाईं ||
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ, सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ ||
दोहा
जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच,
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच ||२६७ ||
चौपाई
लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू, मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू ||
अब करुनाकर कीजिअ सोई, जन हित प्रभु चित छोभु न होई ||
जो सेवकु साहिबहि सँकोची, निज हित चहइ तासु मति पोची ||
सेवक हित साहिब सेवकाई, करै सकल सुख लोभ बिहाई ||
स्वारथु नाथ फिरें सबही का, किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका ||
यह स्वारथ परमारथ सारु, सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु ||
देव एक बिनती सुनि मोरी, उचित होइ तस करब बहोरी ||
तिलक समाजु साजि सबु आना, करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना ||
दोहा
सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ,
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ ||२६८ ||
चौपाई
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई, बहुरिअ सीय सहित रघुराई ||
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई, करुना सागर कीजिअ सोई ||
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु, मोरें नीति न धरम बिचारु ||
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू, रहत न आरत कें चित चेतू ||
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई, सो सेवकु लखि लाज लजाई ||
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू, स्वामि सनेहँ सराहत साधू ||
अब कृपाल मोहि सो मत भावा, सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा ||
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ, जग मंगल हित एक उपाऊ ||
दोहा
प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब,
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब ||२६९ ||
चौपाई
भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे, साधु सराहि सुमन सुर बरषे ||
असमंजस बस अवध नेवासी, प्रमुदित मन तापस बनबासी ||
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची, प्रभु गति देखि सभा सब सोची ||
जनक दूत तेहि अवसर आए, मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए ||
करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे, बेषु देखि भए निपट दुखारे ||
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता, कहहु बिदेह भूप कुसलाता ||
सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा, बोले चर बर जोरें हाथा ||
बूझब राउर सादर साईं, कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं ||
दोहा
नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गइ नाथ,
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ ||२७० ||
चौपाई
कोसलपति गति सुनि जनकौरा, भे सब लोक सोक बस बौरा ||
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू, नामु सत्य अस लाग न केहू ||
रानि कुचालि सुनत नरपालहि, सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि ||
भरत राज रघुबर बनबासू, भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू ||
नृप बूझे बुध सचिव समाजू, कहहु बिचारि उचित का आजू ||
समुझि अवध असमंजस दोऊ, चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ ||
नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी, पठए अवध चतुर चर चारी ||
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ, आएहु बेगि न होइ लखाऊ ||
दोहा
गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति,
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति ||२७१ ||
चौपाई
दूतन्ह आइ भरत कइ करनी, जनक समाज जथामति बरनी ||
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति, भे सब सोच सनेहँ बिकल अति ||
धरि धीरजु करि भरत बड़ाई, लिए सुभट साहनी बोलाई ||
घर पुर देस राखि रखवारे, हय गय रथ बहु जान सँवारे ||
दुघरी साधि चले ततकाला, किए बिश्रामु न मग महीपाला ||
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा, चले जमुन उतरन सबु लागा ||
खबरि लेन हम पठए नाथा, तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा ||
साथ किरात छ सातक दीन्हे, मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे ||
दोहा
सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु,
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु ||२७२ ||
चौपाई
गरइ गलानि कुटिल कैकेई, काहि कहै केहि दूषनु देई ||
अस मन आनि मुदित नर नारी, भयउ बहोरि रहब दिन चारी ||
एहि प्रकार गत बासर सोऊ, प्रात नहान लाग सबु कोऊ ||
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी, गनप गौरि तिपुरारि तमारी ||
रमा रमन पद बंदि बहोरी, बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी ||
राजा रामु जानकी रानी, आनँद अवधि अवध रजधानी ||
सुबस बसउ फिरि सहित समाजा, भरतहि रामु करहुँ जुबराजा ||
एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू, देव देहु जग जीवन लाहू ||
दोहा
गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ,
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ ||२७३ ||
चौपाई
सुनि सनेहमय पुरजन बानी, निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी ||
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन, रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन ||
ऊँच नीच मध्यम नर नारी, लहहिं दरसु निज निज अनुहारी ||
सावधान सबही सनमानहिं, सकल सराहत कृपानिधानहिं ||
लरिकाइहि ते रघुबर बानी, पालत नीति प्रीति पहिचानी ||
सील सकोच सिंधु रघुराऊ, सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ ||
कहत राम गुन गन अनुरागे, सब निज भाग सराहन लागे ||
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे, जिन्हहि रामु जानत करि मोरे ||
दोहा
प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु,
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु ||२७४ ||
चौपाई
भाइ सचिव गुर पुरजन साथा, आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा ||
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं, करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं ||
राम दरस लालसा उछाहू, पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू ||
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही, बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही ||
आवत जनकु चले एहि भाँती, सहित समाज प्रेम मति माती ||
आए निकट देखि अनुरागे, सादर मिलन परसपर लागे ||
लगे जनक मुनिजन पद बंदन, रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन ||
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि, चले लवाइ समेत समाजहि ||
दोहा
आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु,
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु ||२७५ ||
चौपाई
बोरति ग्यान बिराग करारे, बचन ससोक मिलत नद नारे ||
सोच उसास समीर तंरगा, धीरज तट तरुबर कर भंगा ||
बिषम बिषाद तोरावति धारा, भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा ||
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा, सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा ||
बनचर कोल किरात बिचारे, थके बिलोकि पथिक हियँ हारे ||
आश्रम उदधि मिली जब जाई, मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई ||
सोक बिकल दोउ राज समाजा, रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा ||
भूप रूप गुन सील सराही, रोवहिं सोक सिंधु अवगाही ||
छंद
अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा,
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा ||
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की,
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की ||
सो -किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह,
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन ||२७६ ||
चौपाई
जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा, बचन किरन मुनि कमल बिकासा ||
तेहि कि मोह ममता निअराई, यह सिय राम सनेह बड़ाई ||
बिषई साधक सिद्ध सयाने, त्रिबिध जीव जग बेद बखाने ||
राम सनेह सरस मन जासू, साधु सभाँ बड़ आदर तासू ||
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू, करनधार बिनु जिमि जलजानू ||
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए, रामघाट सब लोग नहाए ||
सकल सोक संकुल नर नारी, सो बासरु बीतेउ बिनु बारी ||
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू, प्रिय परिजन कर कौन बिचारू ||
दोहा
दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात,
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात ||२७७ ||
चौपाई
जे महिसुर दसरथ पुर बासी, जे मिथिलापति नगर निवासी ||
हंस बंस गुर जनक पुरोधा, जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा ||
लगे कहन उपदेस अनेका, सहित धरम नय बिरति बिबेका ||
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं, समुझाई सब सभा सुबानीं ||
तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ, नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ ||
मुनि कह उचित कहत रघुराई, गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई ||
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू, इहाँ उचित नहिं असन अनाजू ||
कहा भूप भल सबहि सोहाना, पाइ रजायसु चले नहाना ||
दोहा
तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार,
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार ||२७८ ||
चौपाई
कामद मे गिरि राम प्रसादा, अवलोकत अपहरत बिषादा ||
सर सरिता बन भूमि बिभागा, जनु उमगत आनँद अनुरागा ||
बेलि बिटप सब सफल सफूला, बोलत खग मृग अलि अनुकूला ||
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू, त्रिबिध समीर सुखद सब काहू ||
जाइ न बरनि मनोहरताई, जनु महि करति जनक पहुनाई ||
तब सब लोग नहाइ नहाई, राम जनक मुनि आयसु पाई ||
देखि देखि तरुबर अनुरागे, जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे ||
दल फल मूल कंद बिधि नाना, पावन सुंदर सुधा समाना ||
दोहा
सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार,
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार ||२७९ ||
चौपाई
एहि बिधि बासर बीते चारी, रामु निरखि नर नारि सुखारी ||
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं, बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं ||
सीता राम संग बनबासू, कोटि अमरपुर सरिस सुपासू ||
परिहरि लखन रामु बैदेही, जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही ||
दाहिन दइउ होइ जब सबही, राम समीप बसिअ बन तबही ||
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला, राम दरसु मुद मंगल माला ||
अटनु राम गिरि बन तापस थल, असनु अमिअ सम कंद मूल फल ||
सुख समेत संबत दुइ साता, पल सम होहिं न जनिअहिं जाता ||
दोहा
एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु ||
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु ||२८० ||
चौपाई
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं, बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं ||
सीय मातु तेहि समय पठाईं, दासीं देखि सुअवसरु आईं ||
सावकास सुनि सब सिय सासू, आयउ जनकराज रनिवासू ||
कौसल्याँ सादर सनमानी, आसन दिए समय सम आनी ||
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा, द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा ||
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन, महि नख लिखन लगीं सब सोचन ||
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती, जनु करुना बहु बेष बिसूरति ||
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी, जो पय फेनु फोर पबि टाँकी ||