दोहा

हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ,

जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ ||१६१ ||

 

चौपाई

जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ, खंड खंड होइ ह्रदउ न गयऊ ||

बर मागत मन भइ नहिं पीरा, गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा ||

भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही, मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही ||

बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी, सकल कपट अघ अवगुन खानी ||

सरल सुसील धरम रत राऊ, सो किमि जानै तीय सुभाऊ ||

अस को जीव जंतु जग माहीं, जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं ||

भे अति अहित रामु तेउ तोही, को तू अहसि सत्य कहु मोही ||

जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई, आँखि ओट उठि बैठहिं जाई ||

 

दोहा

राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि,

मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि ||१६२ ||

 

चौपाई

सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई, जरहिं गात रिस कछु न बसाई ||

तेहि अवसर कुबरी तहँ आई, बसन बिभूषन बिबिध बनाई ||

लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई, बरत अनल घृत आहुति पाई ||

हुमगि लात तकि कूबर मारा, परि मुह भर महि करत पुकारा ||

कूबर टूटेउ फूट कपारू, दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू ||

आह दइअ मैं काह नसावा, करत नीक फलु अनइस पावा ||

सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी, लगे घसीटन धरि धरि झोंटी ||

भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई, कौसल्या पहिं गे दोउ भाई ||

 

दोहा

मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार,

कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार ||१६३ ||

 

चौपाई

भरतहि देखि मातु उठि धाई, मुरुछित अवनि परी झइँ आई ||

देखत भरतु बिकल भए भारी, परे चरन तन दसा बिसारी ||

मातु तात कहँ देहि देखाई, कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई ||

कैकइ कत जनमी जग माझा, जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा ||

कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही, अपजस भाजन प्रियजन द्रोही ||

को तिभुवन मोहि सरिस अभागी, गति असि तोरि मातु जेहि लागी ||

पितु सुरपुर बन रघुबर केतू, मैं केवल सब अनरथ हेतु ||

धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी, दुसह दाह दुख दूषन भागी ||

 

दोहा

मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि ||

लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि ||१६४ ||

 

चौपाई

सरल सुभाय मायँ हियँ लाए, अति हित मनहुँ राम फिरि आए ||

भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई, सोकु सनेहु न हृदयँ समाई ||

देखि सुभाउ कहत सबु कोई, राम मातु अस काहे न होई ||

माताँ भरतु गोद बैठारे, आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे ||

अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू, कुसमउ समुझि सोक परिहरहू ||

जनि मानहु हियँ हानि गलानी, काल करम गति अघटित जानि ||

काहुहि दोसु देहु जनि ताता, भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता ||

जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा, अजहुँ को जानइ का तेहि भावा ||

 

दोहा

पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर,

बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर ||१६५ ||

 

चौपाई

मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू, सब कर सब बिधि करि परितोषू ||

चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी, रहइ न राम चरन अनुरागी ||

सुनतहिं लखनु चले उठि साथा, रहहिं न जतन किए रघुनाथा ||

तब रघुपति सबही सिरु नाई, चले संग सिय अरु लघु भाई ||

रामु लखनु सिय बनहि सिधाए, गइउँ न संग न प्रान पठाए ||

यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें, तउ न तजा तनु जीव अभागें ||

मोहि न लाज निज नेहु निहारी, राम सरिस सुत मैं महतारी ||

जिऐ मरै भल भूपति जाना, मोर हृदय सत कुलिस समाना ||

 

दोहा

कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास,

ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु ||१६६ ||

 

चौपाई

बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई, कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई ||

भाँति अनेक भरतु समुझाए, कहि बिबेकमय बचन सुनाए ||

भरतहुँ मातु सकल समुझाईं, कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं ||

छल बिहीन सुचि सरल सुबानी, बोले भरत जोरि जुग पानी ||

जे अघ मातु पिता सुत मारें, गाइ गोठ महिसुर पुर जारें ||

जे अघ तिय बालक बध कीन्हें, मीत महीपति माहुर दीन्हें ||

जे पातक उपपातक अहहीं, करम बचन मन भव कबि कहहीं ||

ते पातक मोहि होहुँ बिधाता, जौं यहु होइ मोर मत माता ||

 

दोहा

जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर,

तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर ||१६७ ||

 

चौपाई

बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं, पिसुन पराय पाप कहि देहीं ||

कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी, बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी ||

लोभी लंपट लोलुपचारा, जे ताकहिं परधनु परदारा ||

पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा, जौं जननी यहु संमत मोरा ||

जे नहिं साधुसंग अनुरागे, परमारथ पथ बिमुख अभागे ||

जे न भजहिं हरि नरतनु पाई, जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई ||

तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं, बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं ||

तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ, जननी जौं यहु जानौं भेऊ ||

 

दोहा

मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ,

कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ ||१६८ ||

 

चौपाई

राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे, तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे ||

बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी, होइ बारिचर बारि बिरागी ||

भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू, तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू ||

मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं, सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं ||

अस कहि मातु भरतु हियँ लाए, थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए ||

करत बिलाप बहुत यहि भाँती, बैठेहिं बीति गइ सब राती ||

बामदेउ बसिष्ठ तब आए, सचिव महाजन सकल बोलाए ||

मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे, कहि परमारथ बचन सुदेसे ||

 

दोहा

तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु,

उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु ||१६९ ||

 

चौपाई

नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा, परम बिचित्र बिमानु बनावा ||

गहि पद भरत मातु सब राखी, रहीं रानि दरसन अभिलाषी ||

चंदन अगर भार बहु आए, अमित अनेक सुगंध सुहाए ||

सरजु तीर रचि चिता बनाई, जनु सुरपुर सोपान सुहाई ||

एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही, बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही ||

सोधि सुमृति सब बेद पुराना, कीन्ह भरत दसगात बिधाना ||

जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा, तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा ||

भए बिसुद्ध दिए सब दाना, धेनु बाजि गज बाहन नाना ||

 

दोहा

सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम,

दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम ||१७० ||

 

चौपाई

पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी, सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी ||

सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए, सचिव महाजन सकल बोलाए ||

बैठे राजसभाँ सब जाई, पठए बोलि भरत दोउ भाई ||

भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे, नीति धरममय बचन उचारे ||

प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी, कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी ||

भूप धरमब्रतु सत्य सराहा, जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा ||

कहत राम गुन सील सुभाऊ, सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ ||

बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी, सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी ||

 

दोहा

सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ,

हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ ||१७१ ||

 

चौपाई

अस बिचारि केहि देइअ दोसू, ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू ||

तात बिचारु केहि करहु मन माहीं, सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं ||

सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना, तजि निज धरमु बिषय लयलीना ||

सोचिअ नृपति जो नीति न जाना, जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ||

सोचिअ बयसु कृपन धनवानू, जो न अतिथि सिव भगति सुजानू ||

सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी, मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी ||

सोचिअ पुनि पति बंचक नारी, कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी ||

सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई, जो नहिं गुर आयसु अनुसरई ||

 

दोहा

सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग,

सोचिअ जति प्रंपच रत बिगत बिबेक बिराग ||१७२ ||

 

चौपाई

बैखानस सोइ सोचै जोगु, तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू ||

सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी, जननि जनक गुर बंधु बिरोधी ||

सब बिधि सोचिअ पर अपकारी, निज तनु पोषक निरदय भारी ||

सोचनीय सबहि बिधि सोई, जो न छाड़ि छलु हरि जन होई ||

सोचनीय नहिं कोसलराऊ, भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ ||

भयउ न अहइ न अब होनिहारा, भूप भरत जस पिता तुम्हारा ||

बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा, बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा ||

 

दोहा

कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु,

राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु ||१७३ ||

 

चौपाई

सब प्रकार भूपति बड़भागी, बादि बिषादु करिअ तेहि लागी ||

यहु सुनि समुझि सोचु परिहरहू, सिर धरि राज रजायसु करहू ||

राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा, पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा ||

तजे रामु जेहिं बचनहि लागी, तनु परिहरेउ राम बिरहागी ||

नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना, करहु तात पितु बचन प्रवाना ||

करहु सीस धरि भूप रजाई, हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई ||

परसुराम पितु अग्या राखी, मारी मातु लोक सब साखी ||

तनय जजातिहि जौबनु दयऊ, पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ ||

 

दोहा

अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन,

ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन ||१७४ ||

 

चौपाई

अवसि नरेस बचन फुर करहू, पालहु प्रजा सोकु परिहरहू ||

सुरपुर नृप पाइहि परितोषू, तुम्ह कहुँ सुकृत सुजसु नहिं दोषू ||

बेद बिदित संमत सबही का, जेहि पितु देइ सो पावइ टीका ||

करहु राजु परिहरहु गलानी, मानहु मोर बचन हित जानी ||

सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं, अनुचित कहब न पंडित केहीं ||

कौसल्यादि सकल महतारीं, तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं ||

परम तुम्हार राम कर जानिहि, सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि ||

सौंपेहु राजु राम कै आएँ, सेवा करेहु सनेह सुहाएँ ||

 

दोहा

कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि,

रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि ||१७५ ||

 

चौपाई

कौसल्या धरि धीरजु कहई, पूत पथ्य गुर आयसु अहई ||

सो आदरिअ करिअ हित मानी, तजिअ बिषादु काल गति जानी ||

बन रघुपति सुरपति नरनाहू, तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू ||

परिजन प्रजा सचिव सब अंबा, तुम्हही सुत सब कहँ अवलंबा ||

लखि बिधि बाम कालु कठिनाई, धीरजु धरहु मातु बलि जाई ||

सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू, प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू ||

गुर के बचन सचिव अभिनंदनु, सुने भरत हिय हित जनु चंदनु ||

सुनी बहोरि मातु मृदु बानी, सील सनेह सरल रस सानी ||

 

छंद

सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए,

लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए ||

सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की,

तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की ||

 

सोरठा

भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि,

बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि ||१७६ ||

 

मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम

 

चौपाई

मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका, प्रजा सचिव संमत सबही का ||

मातु उचित धरि आयसु दीन्हा, अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा ||

गुर पितु मातु स्वामि हित बानी, सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी ||

उचित कि अनुचित किएँ बिचारू, धरमु जाइ सिर पातक भारू ||

तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई, जो आचरत मोर भल होई ||

जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें, तदपि होत परितोषु न जी कें ||

अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू, मोहि अनुहरत सिखावनु देहू ||

ऊतरु देउँ छमब अपराधू, दुखित दोष गुन गनहिं न साधू ||

 

दोहा

पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु,

एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु ||१७७ ||

 

चौपाई

हित हमार सियपति सेवकाई, सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई ||

मैं अनुमानि दीख मन माहीं, आन उपायँ मोर हित नाहीं ||

सोक समाजु राजु केहि लेखें, लखन राम सिय बिनु पद देखें ||

बादि बसन बिनु भूषन भारू, बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू ||

सरुज सरीर बादि बहु भोगा, बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा ||

जायँ जीव बिनु देह सुहाई, बादि मोर सबु बिनु रघुराई ||

जाउँ राम पहिं आयसु देहू, एकहिं आँक मोर हित एहू ||

मोहि नृप करि भल आपन चहहू, सोउ सनेह जड़ता बस कहहू ||

 

दोहा

कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज,

तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज ||१७८ ||

 

चौपाई

कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू, चाहिअ धरमसील नरनाहू ||

मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं, रसा रसातल जाइहि तबहीं ||

मोहि समान को पाप निवासू, जेहि लगि सीय राम बनबासू ||

रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा, बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा ||

मैं सठु सब अनरथ कर हेतू, बैठ बात सब सुनउँ सचेतू ||

बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू, रहे प्रान सहि जग उपहासू ||

राम पुनीत बिषय रस रूखे, लोलुप भूमि भोग के भूखे ||

कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई, निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई ||

 

दोहा

कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर,

कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर ||१७९ ||

 

चौपाई

कैकेई भव तनु अनुरागे, पाँवर प्रान अघाइ अभागे ||

जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे, देखब सुनब बहुत अब आगे ||

लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा, पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा ||

लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू, दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू ||

मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू, कीन्ह कैकेईं सब कर काजू ||

एहि तें मोर काह अब नीका, तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका ||

कैकई जठर जनमि जग माहीं, यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं ||

मोरि बात सब बिधिहिं बनाई, प्रजा पाँच कत करहु सहाई ||

 

दोहा

ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार,

तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार ||१८० ||

 

चौपाई

कैकइ सुअन जोगु जग जोई, चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई ||

दसरथ तनय राम लघु भाई, दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई ||

तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका, राय रजायसु सब कहँ नीका ||

उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही, कहहु सुखेन जथा रुचि जेही ||

मोहि कुमातु समेत बिहाई, कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई ||

मो बिनु को सचराचर माहीं, जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं ||

परम हानि सब कहँ बड़ लाहू, अदिनु मोर नहि दूषन काहू ||

संसय सील प्रेम बस अहहू, सबुइ उचित सब जो कछु कहहू ||

 

दोहा

राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि,

कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि ||१८१||

 

चौपाई

गुर बिबेक सागर जगु जाना, जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना ||

मो कहँ तिलक साज सज सोऊ, भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ ||

परिहरि रामु सीय जग माहीं, कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं ||

सो मैं सुनब सहब सुखु मानी, अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी ||

डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू, परलोकहु कर नाहिन सोचू ||

एकइ उर बस दुसह दवारी, मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी ||

जीवन लाहु लखन भल पावा, सबु तजि राम चरन मनु लावा ||

मोर जनम रघुबर बन लागी, झूठ काह पछिताउँ अभागी ||

 

दोहा

आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ,

देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ ||१८२ ||

 

चौपाई

आन उपाउ मोहि नहि सूझा, को जिय कै रघुबर बिनु बूझा ||

एकहिं आँक इहइ मन माहीं, प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं ||

जद्यपि मैं अनभल अपराधी, भै मोहि कारन सकल उपाधी ||

तदपि सरन सनमुख मोहि देखी, छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी ||

सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ, कृपा सनेह सदन रघुराऊ ||

अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा, मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा ||

तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी, आयसु आसिष देहु सुबानी ||

जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी, आवहिं बहुरि रामु रजधानी ||

 

दोहा

जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस,

आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस ||१८३ ||

 

चौपाई

भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे, राम सनेह सुधाँ जनु पागे ||

लोग बियोग बिषम बिष दागे, मंत्र सबीज सुनत जनु जागे ||

मातु सचिव गुर पुर नर नारी, सकल सनेहँ बिकल भए भारी ||

भरतहि कहहि सराहि सराही, राम प्रेम मूरति तनु आही ||

तात भरत अस काहे न कहहू, प्रान समान राम प्रिय अहहू ||

जो पावँरु अपनी जड़ताई, तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई ||

सो सठु कोटिक पुरुष समेता, बसिहि कलप सत नरक निकेता ||

अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई, हरइ गरल दुख दारिद दहई ||

 

दोहा

अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह,

सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह ||१८४ ||

 

चौपाई

भा सब कें मन मोदु न थोरा, जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा ||

चलत प्रात लखि निरनउ नीके, भरतु प्रानप्रिय भे सबही के ||

मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई, चले सकल घर बिदा कराई ||

धन्य भरत जीवनु जग माहीं, सीलु सनेहु सराहत जाहीं ||

कहहि परसपर भा बड़ काजू, सकल चलै कर साजहिं साजू ||

जेहि राखहिं रहु घर रखवारी, सो जानइ जनु गरदनि मारी ||

कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू, को न चहइ जग जीवन लाहू ||

 

दोहा

जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ,

सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ ||१८५ ||

 

चौपाई

घर घर साजहिं बाहन नाना, हरषु हृदयँ परभात पयाना ||

भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू, नगरु बाजि गज भवन भँडारू ||

संपति सब रघुपति कै आही, जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही ||

तौ परिनाम न मोरि भलाई, पाप सिरोमनि साइँ दोहाई ||

करइ स्वामि हित सेवकु सोई, दूषन कोटि देइ किन कोई ||

अस बिचारि सुचि सेवक बोले, जे सपनेहुँ निज धरम न डोले ||

कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा, जो जेहि लायक सो तेहिं राखा ||

करि सबु जतनु राखि रखवारे, राम मातु पहिं भरतु सिधारे ||

 

दोहा

आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान,

कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान ||१८६ ||

 

चौपाई

चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी, चहत प्रात उर आरत भारी ||

जागत सब निसि भयउ बिहाना, भरत बोलाए सचिव सुजाना ||

कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू, बनहिं देब मुनि रामहिं राजू ||

बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे, तुरत तुरग रथ नाग सँवारे ||

अरुंधती अरु अगिनि समाऊ, रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ ||

बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना, चले सकल तप तेज निधाना ||

नगर लोग सब सजि सजि जाना, चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना ||

सिबिका सुभग न जाहिं बखानी, चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी ||

 

दोहा

सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ,

सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ ||१८७ ||

 

चौपाई

राम दरस बस सब नर नारी, जनु करि करिनि चले तकि बारी ||

बन सिय रामु समुझि मन माहीं, सानुज भरत पयादेहिं जाहीं ||

देखि सनेहु लोग अनुरागे, उतरि चले हय गय रथ त्यागे ||

जाइ समीप राखि निज डोली, राम मातु मृदु बानी बोली ||

तात चढ़हु रथ बलि महतारी, होइहि प्रिय परिवारु दुखारी ||

तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू, सकल सोक कृस नहिं मग जोगू ||

सिर धरि बचन चरन सिरु नाई, रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई ||

तमसा प्रथम दिवस करि बासू, दूसर गोमति तीर निवासू ||

 

दोहा

पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग,

करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग ||१८८ ||

 

चौपाई

सई तीर बसि चले बिहाने, सृंगबेरपुर सब निअराने ||

समाचार सब सुने निषादा, हृदयँ बिचार करइ सबिषादा ||

कारन कवन भरतु बन जाहीं, है कछु कपट भाउ मन माहीं ||

जौं पै जियँ न होति कुटिलाई, तौ कत लीन्ह संग कटकाई ||

जानहिं सानुज रामहि मारी, करउँ अकंटक राजु सुखारी ||

भरत न राजनीति उर आनी, तब कलंकु अब जीवन हानी ||

सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा, रामहि समर न जीतनिहारा ||

का आचरजु भरतु अस करहीं, नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं ||

 

दोहा

अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु,

हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु ||१८९ ||

 

चौपाई

होहु सँजोइल रोकहु घाटा, ठाटहु सकल मरै के ठाटा ||

सनमुख लोह भरत सन लेऊँ, जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ ||

समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा, राम काजु छनभंगु सरीरा ||

भरत भाइ नृपु मै जन नीचू, बड़ें भाग असि पाइअ मीचू ||

स्वामि काज करिहउँ रन रारी, जस धवलिहउँ भुवन दस चारी ||

तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें, दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें ||

साधु समाज न जाकर लेखा, राम भगत महुँ जासु न रेखा ||

जायँ जिअत जग सो महि भारू, जननी जौबन बिटप कुठारू ||

 

दोहा

बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु,

सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु ||१९० ||

 

चौपाई

बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ, सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ ||

भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा, एकहिं एक बढ़ावइ करषा ||

चले निषाद जोहारि जोहारी, सूर सकल रन रूचइ रारी ||

सुमिरि राम पद पंकज पनहीं, भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं ||

अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं, फरसा बाँस सेल सम करहीं ||

एक कुसल अति ओड़न खाँड़े, कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े ||

निज निज साजु समाजु बनाई, गुह राउतहि जोहारे जाई ||

देखि सुभट सब लायक जाने, लै लै नाम सकल सनमाने ||

 

दोहा

भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि,

सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि ||१९१ ||

 

चौपाई

राम प्रताप नाथ बल तोरे, करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे ||

जीवत पाउ न पाछें धरहीं, रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं ||

दीख निषादनाथ भल टोलू, कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू ||

एतना कहत छींक भइ बाँए, कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए ||

बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी, भरतहि मिलिअ न होइहि रारी ||

रामहि भरतु मनावन जाहीं, सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं ||

सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा, सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा ||

भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें, बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें ||

 

दोहा

गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ,

बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ ||१९२ ||

 

चौपाई

लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ, बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ ||

अस कहि भेंट सँजोवन लागे, कंद मूल फल खग मृग मागे ||

मीन पीन पाठीन पुराने, भरि भरि भार कहारन्ह आने ||

मिलन साजु सजि मिलन सिधाए, मंगल मूल सगुन सुभ पाए ||

देखि दूरि तें कहि निज नामू, कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू ||

जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा, भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा ||

राम सखा सुनि संदनु त्यागा, चले उतरि उमगत अनुरागा ||

गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई, कीन्ह जोहारु माथ महि लाई ||

 

दोहा

करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ,

मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ ||१९३ ||

 

चौपाई

भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती, लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती ||

धन्य धन्य धुनि मंगल मूला, सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला ||

लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा, जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा ||

तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता, मिलत पुलक परिपूरित गाता ||

राम राम कहि जे जमुहाहीं, तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं ||

यह तौ राम लाइ उर लीन्हा, कुल समेत जगु पावन कीन्हा ||

करमनास जलु सुरसरि परई, तेहि को कहहु सीस नहिं धरई ||

उलटा नामु जपत जगु जाना, बालमीकि भए ब्रह्म समाना ||

 

दोहा

स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात,

रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात ||१९४ ||

 

चौपाई

नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई, केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई ||

राम नाम महिमा सुर कहहीं, सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं ||

रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा, पूँछी कुसल सुमंगल खेमा ||

देखि भरत कर सील सनेहू, भा निषाद तेहि समय बिदेहू ||

सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा, भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा ||

धरि धीरजु पद बंदि बहोरी, बिनय सप्रेम करत कर जोरी ||

कुसल मूल पद पंकज पेखी, मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी ||

अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें, सहित कोटि कुल मंगल मोरें ||

 

दोहा

समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ,

जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ ||१९५ ||

 

चौपाई

कपटी कायर कुमति कुजाती, लोक बेद बाहेर सब भाँती ||

राम कीन्ह आपन जबही तें, भयउँ भुवन भूषन तबही तें ||

देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई, मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई ||

कहि निषाद निज नाम सुबानीं, सादर सकल जोहारीं रानीं ||

जानि लखन सम देहिं असीसा, जिअहु सुखी सय लाख बरीसा ||

निरखि निषादु नगर नर नारी, भए सुखी जनु लखनु निहारी ||

कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू, भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू ||

सुनि निषादु निज भाग बड़ाई, प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई ||

 

दोहा

सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ,

घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ ||१९६ ||

 

चौपाई

सृंगबेरपुर भरत दीख जब, भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब ||

सोहत दिएँ निषादहि लागू, जनु तनु धरें बिनय अनुरागू ||

एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा, दीखि जाइ जग पावनि गंगा ||

रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू, भा मनु मगनु मिले जनु रामू ||

करहिं प्रनाम नगर नर नारी, मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी ||

करि मज्जनु मागहिं कर जोरी, रामचंद्र पद प्रीति न थोरी ||

भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू, सकल सुखद सेवक सुरधेनू ||

जोरि पानि बर मागउँ एहू, सीय राम पद सहज सनेहू ||

 

दोहा

एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ,

मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ ||१९७ ||

 

चौपाई

जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा, भरत सोधु सबही कर लीन्हा ||

सुर सेवा करि आयसु पाई, राम मातु पहिं गे दोउ भाई ||

चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी, जननीं सकल भरत सनमानी ||

भाइहि सौंपि मातु सेवकाई, आपु निषादहि लीन्ह बोलाई ||

चले सखा कर सों कर जोरें, सिथिल सरीर सनेह न थोरें ||

पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ, नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ ||

जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए, कहत भरे जल लोचन कोए ||

भरत बचन सुनि भयउ बिषादू, तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू ||

 

दोहा

जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु,

अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु ||१९८ ||

 

चौपाई

कुस साँथरी निहारि सुहाई, कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई ||

चरन रेख रज आँखिन्ह लाई, बनइ न कहत प्रीति अधिकाई ||

कनक बिंदु दुइ चारिक देखे, राखे सीस सीय सम लेखे ||

सजल बिलोचन हृदयँ गलानी, कहत सखा सन बचन सुबानी ||

श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना, जथा अवध नर नारि बिलीना ||

पिता जनक देउँ पटतर केही, करतल भोगु जोगु जग जेही ||

ससुर भानुकुल भानु भुआलू, जेहि सिहात अमरावतिपालू ||

प्राननाथु रघुनाथ गोसाई, जो बड़ होत सो राम बड़ाई ||

 

दोहा

पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि,

बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि ||१९९ ||

 

चौपाई

लालन जोगु लखन लघु लोने, भे न भाइ अस अहहिं न होने ||

पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे, सिय रघुबरहि प्रानपिआरे ||

मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ, तात बाउ तन लाग न काऊ ||

ते बन सहहिं बिपति सब भाँती, निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती ||

राम जनमि जगु कीन्ह उजागर, रूप सील सुख सब गुन सागर ||

पुरजन परिजन गुर पितु माता, राम सुभाउ सबहि सुखदाता ||

बैरिउ राम बड़ाई करहीं, बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं ||

सारद कोटि कोटि सत सेषा, करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा ||

 

दोहा

सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान,

ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान ||२०० ||

 

चौपाई

राम सुना दुखु कान न काऊ, जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ ||

पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती, जोगवहिं जननि सकल दिन राती ||

ते अब फिरत बिपिन पदचारी, कंद मूल फल फूल अहारी ||

धिग कैकेई अमंगल मूला, भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला ||

मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी, सबु उतपातु भयउ जेहि लागी ||

कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ, साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ ||

सुनि सप्रेम समुझाव निषादू, नाथ करिअ कत बादि बिषादू ||

राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि, यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि ||

 

छंद

बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी,

तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी ||

तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ,

परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ ||