दोहा

सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि,

रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि ||८१ ||

 

चौपाई

जौ नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई, सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई ||

तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी, फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी ||१||

जब सिय कानन देखि डेराई, कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई ||

सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू, पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू ||२||

पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी, रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी ||

एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा, फिरइ त होइ प्रान अवलंबा ||३||

नाहिं त मोर मरनु परिनामा, कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा ||

अस कहि मुरुछि परा महि राऊ, रामु लखनु सिय आनि देखाऊ ||४||

 

दोहा

पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ,

गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ ||८२ ||

 

चौपाई

तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए, करि बिनती रथ रामु चढ़ाए ||

चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई, चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई ||१||

चलत रामु लखि अवध अनाथा, बिकल लोग सब लागे साथा ||

कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं, फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं ||२||

लागति अवध भयावनि भारी, मानहुँ कालराति अँधिआरी ||

घोर जंतु सम पुर नर नारी, डरपहिं एकहि एक निहारी ||३||

घर मसान परिजन जनु भूता, सुत हित मीत मनहुँ जमदूता ||

बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं, सरित सरोवर देखि न जाहीं ||४||

 

दोहा

हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर,

पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर ||८३ ||

 

चौपाई

राम बियोग बिकल सब ठाढ़े, जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े ||

नगरु सफल बनु गहबर भारी, खग मृग बिपुल सकल नर नारी ||१||

बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही, जेंहि दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही ||

सहि न सके रघुबर बिरहागी, चले लोग सब ब्याकुल भागी ||२||

सबहिं बिचार कीन्ह मन माहीं, राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं ||

जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू, बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू ||३||

चले साथ अस मंत्रु दृढ़ाई, सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई ||

राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही, बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही ||४||

 

दोहा

बालक बृद्ध बिहाइ गृँह लगे लोग सब साथ,

तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ ||८४ ||

 

चौपाई

रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी, सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी ||

करुनामय रघुनाथ गोसाँई, बेगि पाइअहिं पीर पराई ||१||

कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए, बहुबिधि राम लोग समुझाए ||

किए धरम उपदेस घनेरे, लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे ||२||

सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई, असमंजस बस भे रघुराई ||

लोग सोग श्रम बस गए सोई, कछुक देवमायाँ मति मोई ||३||

जबहिं जाम जुग जामिनि बीती, राम सचिव सन कहेउ सप्रीती ||

खोज मारि रथु हाँकहु ताता, आन उपायँ बनिहि नहिं बाता ||४||

 

दोहा

राम लखन सुय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ ||

सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ ||८५ ||

 

चौपाई

जागे सकल लोग भएँ भोरू, गे रघुनाथ भयउ अति सोरू ||

रथ कर खोज कतहहुँ नहिं पावहिं, राम राम कहि चहु दिसि धावहिं ||१||

मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू, भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू ||

एकहि एक देंहिं उपदेसू, तजे राम हम जानि कलेसू ||२||

निंदहिं आपु सराहहिं मीना, धिग जीवनु रघुबीर बिहीना ||

जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा, तौ कस मरनु न मागें दीन्हा ||३||

एहि बिधि करत प्रलाप कलापा, आए अवध भरे परितापा ||

बिषम बियोगु न जाइ बखाना, अवधि आस सब राखहिं प्राना ||४||

 

दोहा

राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि,

मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि ||८६ ||

 

चौपाई

सीता सचिव सहित दोउ भाई, सृंगबेरपुर पहुँचे जाई ||

उतरे राम देवसरि देखी, कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी ||१||

लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा, सबहि सहित सुखु पायउ रामा ||

गंग सकल मुद मंगल मूला, सब सुख करनि हरनि सब सूला ||२||

कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा, रामु बिलोकहिं गंग तरंगा ||

सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई, बिबुध नदी महिमा अधिकाई ||३||

मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ, सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ ||

सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू, तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू ||४||

 

दोहा

सुध्द सचिदानंदमय कंद भानुकुल केतु,

चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु ||८७ ||

 

चौपाई

यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई, मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई ||

लिए फल मूल भेंट भरि भारा, मिलन चलेउ हिँयँ हरषु अपारा ||१||

करि दंडवत भेंट धरि आगें, प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें ||

सहज सनेह बिबस रघुराई, पूँछी कुसल निकट बैठाई ||२||

नाथ कुसल पद पंकज देखें, भयउँ भागभाजन जन लेखें ||

देव धरनि धनु धामु तुम्हारा, मैं जनु नीचु सहित परिवारा ||३||

कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ, थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ ||

कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना, मोहि दीन्ह पितु आयसु आना ||४||

 

दोहा

बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु,

ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु ||८८ ||

 

चौपाई

राम लखन सिय रूप निहारी, कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी ||

ते पितु मातु कहहु सखि कैसे, जिन्ह पठए बन बालक ऐसे ||१||

एक कहहिं भल भूपति कीन्हा, लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा ||

तब निषादपति उर अनुमाना, तरु सिंसुपा मनोहर जाना ||२||

लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा, कहेउ राम सब भाँति सुहावा ||

पुरजन करि जोहारु घर आए, रघुबर संध्या करन सिधाए ||३||

गुहँ सँवारि साँथरी डसाई, कुस किसलयमय मृदुल सुहाई ||

सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी, दोना भरि भरि राखेसि पानी ||४||

 

दोहा

सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ,

सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ ||८९ ||

 

चौपाई

उठे लखनु प्रभु सोवत जानी, कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी ||

कछुक दूर सजि बान सरासन, जागन लगे बैठि बीरासन ||१||

गुँह बोलाइ पाहरू प्रतीती, ठावँ ठाँव राखे अति प्रीती ||

आपु लखन पहिं बैठेउ जाई, कटि भाथी सर चाप चढ़ाई ||२||

सोवत प्रभुहि निहारि निषादू, भयउ प्रेम बस ह्दयँ बिषादू ||

तनु पुलकित जलु लोचन बहई, बचन सप्रेम लखन सन कहई ||३||

भूपति भवन सुभायँ सुहावा, सुरपति सदनु न पटतर पावा ||

मनिमय रचित चारु चौबारे, जनु रतिपति निज हाथ सँवारे ||४||

 

दोहा

सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास,

पलँग मंजु मनिदीप जहँ सब बिधि सकल सुपास ||९० ||

 

चौपाई

बिबिध बसन उपधान तुराई, छीर फेन मृदु बिसद सुहाई ||

तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं, निज छबि रति मनोज मदु हरहीं ||१||

ते सिय रामु साथरीं सोए, श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए ||

मातु पिता परिजन पुरबासी, सखा सुसील दास अरु दासी ||२||

जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाई, महि सोवत तेइ राम गोसाईं ||

पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ, ससुर सुरेस सखा रघुराऊ ||३||

रामचंदु पति सो बैदेही, सोवत महि बिधि बाम न केही ||

सिय रघुबीर कि कानन जोगू, करम प्रधान सत्य कह लोगू ||४||

 

दोहा

कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह,

जेहीं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ||९१ ||

 

चौपाई

भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी, कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी ||

भयउ बिषादु निषादहि भारी, राम सीय महि सयन निहारी ||१||

बोले लखन मधुर मृदु बानी, ग्यान बिराग भगति रस सानी ||

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता, निज कृत करम भोग सबु भ्राता ||२||

जोग बियोग भोग भल मंदा, हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा ||

जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू, संपती बिपति करमु अरु कालू ||३||

धरनि धामु धनु पुर परिवारू, सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ||

देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं, मोह मूल परमारथु नाहीं ||४||

 

दोहा

सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ,

जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ ||९२ ||

 

चौपाई

अस बिचारि नहिं कीजा रोसू, काहुहि बादि न देइअ दोसू ||

मोह निसाँ सबु सोवनिहारा, देखिअ सपन अनेक प्रकारा ||१||

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी, परमारथी प्रपंच बियोगी ||

जानिअ तबहिं जीव जग जागा, जब जब बिषय बिलास बिरागा ||२||

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा, तब रघुनाथ चरन अनुरागा ||

सखा परम परमारथु एहू, मन क्रम बचन राम पद नेहू ||३||

राम ब्रह्म परमारथ रूपा, अबिगत अलख अनादि अनूपा ||

सकल बिकार रहित गतभेदा, कहि नित नेति निरूपहिं बेदा ||४||

 

दोहा

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल,

करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल ||९३ ||

 

मासपारायण, पंद्रहवा विश्राम

 

चौपाई

सखा समुझि अस परिहरि मोहु, सिय रघुबीर चरन रत होहू ||

कहत राम गुन भा भिनुसारा, जागे जग मंगल सुखदारा ||१||

सकल सोच करि राम नहावा, सुचि सुजान बट छीर मगावा ||

अनुज सहित सिर जटा बनाए, देखि सुमंत्र नयन जल छाए ||२||

हृदयँ दाहु अति बदन मलीना, कह कर जोरि बचन अति दीना ||

नाथ कहेउ अस कोसलनाथा, लै रथु जाहु राम कें साथा ||३||

बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई, आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई ||

लखनु रामु सिय आनेहु फेरी, संसय सकल सँकोच निबेरी ||४||

 

दोहा

नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौं बलि सोइ,

करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ ||९४ ||

 

चौपाई

तात कृपा करि कीजिअ सोई, जातें अवध अनाथ न होई ||

मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा, तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा ||१||

सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा, सहे धरम हित कोटि कलेसा ||

रंतिदेव बलि भूप सुजाना, धरमु धरेउ सहि संकट नाना ||२||

धरमु न दूसर सत्य समाना, आगम निगम पुरान बखाना ||

मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा, तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा ||३||

संभावित कहुँ अपजस लाहू, मरन कोटि सम दारुन दाहू ||

तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ, दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ ||४||

 

दोहा

पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि,

चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि ||९५ ||

 

चौपाई

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें, बिनती करउँ तात कर जोरें ||

सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें, दुख न पाव पितु सोच हमारें ||१||

सुनि रघुनाथ सचिव संबादू, भयउ सपरिजन बिकल निषादू ||

पुनि कछु लखन कही कटु बानी, प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ||२||

सकुचि राम निज सपथ देवाई, लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई ||

कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू, सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू ||३||

जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया, सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया ||

नतरु निपट अवलंब बिहीना, मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ||४||

 

दोहा

मइकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान ||

तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान ||९६ ||

 

चौपाई

बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती, आरति प्रीति न सो कहि जाती ||

पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना, सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना ||१||

सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू, फिरतु त सब कर मिटै खभारू ||

सुनि पति बचन कहति बैदेही, सुनहु प्रानपति परम सनेही ||२||

प्रभु करुनामय परम बिबेकी, तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी ||

प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई, कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई ||३||

पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई, कहति सचिव सन गिरा सुहाई ||

तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी, उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी ||४||

 

दोहा

आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात,

आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात ||९७ ||

 

चौपाई

पितु बैभव बिलास मैं डीठा, नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा ||

सुखनिधान अस पितु गृह मोरें, पिय बिहीन मन भाव न भोरें ||१||

ससुर चक्कवइ कोसलराऊ, भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ ||

आगें होइ जेहि सुरपति लेई, अरध सिंघासन आसनु देई ||२||

ससुरु एतादृस अवध निवासू, प्रिय परिवारु मातु सम सासू ||

बिनु रघुपति पद पदुम परागा, मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा ||३||

अगम पंथ बनभूमि पहारा, करि केहरि सर सरित अपारा ||

कोल किरात कुरंग बिहंगा, मोहि सब सुखद प्रानपति संगा ||४||

 

दोहा

सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ ||

मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ ||९८ ||

 

चौपाई

प्राननाथ प्रिय देवर साथा, बीर धुरीन धरें धनु भाथा ||

नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें, मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें ||१||

सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी, भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी ||

नयन सूझ नहिं सुनइ न काना, कहि न सकइ कछु अति अकुलाना ||२||

राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँति, तदपि होति नहिं सीतलि छाती ||

जतन अनेक साथ हित कीन्हे, उचित उतर रघुनंदन दीन्हे ||३||

मेटि जाइ नहिं राम रजाई, कठिन करम गति कछु न बसाई ||

राम लखन सिय पद सिरु नाई, फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई ||४||

 

दोहा

रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं,

देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं ||९९ ||

 

चौपाई

जासु बियोग बिकल पसु ऐसे, प्रजा मातु पितु जीहहिं कैसें ||

बरबस राम सुमंत्रु पठाए, सुरसरि तीर आपु तब आए ||१||

मागी नाव न केवटु आना, कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना ||

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई, मानुष करनि मूरि कछु अहई ||२||

छुअत सिला भइ नारि सुहाई, पाहन तें न काठ कठिनाई ||

तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई, बाट परइ मोरि नाव उड़ाई ||३||

एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू, नहिं जानउँ कछु अउर कबारू ||

जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू, मोहि पद पदुम पखारन कहहू ||४||

 

छंद

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं,

मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं ||

बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं,

तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं ||

 

सोरठा

सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे,

बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन ||१०० ||

 

चौपाई

कृपासिंधु बोले मुसुकाई, सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई ||

वेगि आनु जल पाय पखारू, होत बिलंबु उतारहि पारू ||१||

जासु नाम सुमरत एक बारा, उतरहिं नर भवसिंधु अपारा ||

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा, जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ||२||

पद नख निरखि देवसरि हरषी, सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी ||

केवट राम रजायसु पावा, पानि कठवता भरि लेइ आवा ||३||

अति आनंद उमगि अनुरागा, चरन सरोज पखारन लागा ||

बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं, एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं ||४||

 

दोहा

पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार,

पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार ||१०१ ||

 

चौपाई

उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता, सीयराम गुह लखन समेता ||

केवट उतरि दंडवत कीन्हा, प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा ||१||

पिय हिय की सिय जाननिहारी, मनि मुदरी मन मुदित उतारी ||

कहेउ कृपाल लेहि उतराई, केवट चरन गहे अकुलाई ||२||

नाथ आजु मैं काह न पावा, मिटे दोष दुख दारिद दावा ||

बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी, आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी ||३||

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें, दीनदयाल अनुग्रह तोरें ||

फिरती बार मोहि जे देबा, सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा ||४||

 

दोहा

बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ ||

बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ ||१०२ ||

 

चौपाई

तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा, पूजि पारथिव नायउ माथा ||

सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी, मातु मनोरथ पुरउबि मोरी ||१||

पति देवर संग कुसल बहोरी, आइ करौं जेहिं पूजा तोरी ||

सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी, भइ तब बिमल बारि बर बानी ||२||

सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही, तव प्रभाउ जग बिदित न केही ||

लोकप होहिं बिलोकत तोरें, तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें ||३||

तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई, कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई ||

तदपि देबि मैं देबि असीसा, सफल होपन हित निज बागीसा ||४||

 

दोहा

प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ,

पूजहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ ||१०३ ||

 

चौपाई

गंग बचन सुनि मंगल मूला, मुदित सीय सुरसरि अनुकुला ||

तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू, सुनत सूख मुखु भा उर दाहू ||१||

दीन बचन गुह कह कर जोरी, बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी ||

नाथ साथ रहि पंथु देखाई, करि दिन चारि चरन सेवकाई ||२||

जेहिं बन जाइ रहब रघुराई, परनकुटी मैं करबि सुहाई ||

तब मोहि कहँ जसि देब रजाई, सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई ||३||

सहज सनेह राम लखि तासु, संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू ||

पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे, करि परितोषु बिदा तब कीन्हे ||४||

 

दोहा

तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ,

सखा अनुज सिया सहित बन गवनु कीन्ह रधुनाथ ||१०४ ||

 

चौपाई

तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू, लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू ||

प्रात प्रातकृत करि रधुसाई, तीरथराजु दीख प्रभु जाई ||१||

सचिव सत्य श्रध्दा प्रिय नारी, माधव सरिस मीतु हितकारी ||

चारि पदारथ भरा भँडारु, पुन्य प्रदेस देस अति चारु ||२||

छेत्र अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा, सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा ||

सेन सकल तीरथ बर बीरा, कलुष अनीक दलन रनधीरा ||३||

संगमु सिंहासनु सुठि सोहा, छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ||

चवँर जमुन अरु गंग तरंगा, देखि होहिं दुख दारिद भंगा ||४||

 

दोहा

सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मनकाम,

बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम ||१०५ ||

 

चौपाई

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ, कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ ||

अस तीरथपति देखि सुहावा, सुख सागर रघुबर सुखु पावा ||१||

कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई, श्रीमुख तीरथराज बड़ाई ||

करि प्रनामु देखत बन बागा, कहत महातम अति अनुरागा ||२||

एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी, सुमिरत सकल सुमंगल देनी ||

मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा, पुजि जथाबिधि तीरथ देवा ||३||

तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए, करत दंडवत मुनि उर लाए ||

मुनि मन मोद न कछु कहि जाइ, ब्रह्मानंद रासि जनु पाई ||४||

 

दोहा

दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि,

लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि ||१०६ ||

 

चौपाई

कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे, पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे ||

कंद मूल फल अंकुर नीके, दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के ||१||

सीय लखन जन सहित सुहाए, अति रुचि राम मूल फल खाए ||

भए बिगतश्रम रामु सुखारे, भरव्दाज मृदु बचन उचारे ||२||

आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू, आजु सुफल जप जोग बिरागू ||

सफल सकल सुभ साधन साजू, राम तुम्हहि अवलोकत आजू ||३||

लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी, तुम्हारें दरस आस सब पूजी ||

अब करि कृपा देहु बर एहू, निज पद सरसिज सहज सनेहू ||४||

 

दोहा

करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार,

तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार ||

 

चौपाई

सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने, भाव भगति आनंद अघाने ||

तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा, कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा ||१||

सो बड सो सब गुन गन गेहू, जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू ||

मुनि रघुबीर परसपर नवहीं, बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं ||२||

यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी, बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी ||

भरद्वाज आश्रम सब आए, देखन दसरथ सुअन सुहाए ||३||

राम प्रनाम कीन्ह सब काहू, मुदित भए लहि लोयन लाहू ||

देहिं असीस परम सुखु पाई, फिरे सराहत सुंदरताई ||४||

 

दोहा

राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ,

चले सहित सिय लखन जन मुददित मुनिहि सिरु नाइ ||१०८ ||

 

चौपाई

राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं, नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं ||

मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं, सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं ||१||

साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए, सुनि मन मुदित पचासक आए ||

सबन्हि राम पर प्रेम अपारा, सकल कहहि मगु दीख हमारा ||२||

मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे, जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे ||

करि प्रनामु रिषि आयसु पाई, प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई ||३||

ग्राम निकट जब निकसहि जाई, देखहि दरसु नारि नर धाई ||

होहि सनाथ जनम फलु पाई, फिरहि दुखित मनु संग पठाई ||४||

 

दोहा

बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम,

उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम ||१०९ ||

 

चौपाई

सुनत तीरवासी नर नारी, धाए निज निज काज बिसारी ||

लखन राम सिय सुन्दरताई, देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई ||१||

अति लालसा बसहिं मन माहीं, नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं ||

जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने, तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने ||२||

सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई, बनहि चले पितु आयसु पाई ||

सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं, रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं ||३||

तेहि अवसर एक तापसु आवा, तेजपुंज लघुबयस सुहावा ||

कवि अलखित गति बेषु बिरागी, मन क्रम बचन राम अनुरागी ||४||

 

दोहा

सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि,

परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि ||११० ||

 

चौपाई

राम सप्रेम पुलकि उर लावा, परम रंक जनु पारसु पावा ||

मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ, मिलत धरे तन कह सबु कोऊ ||

बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा, लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा ||

पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा, जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा ||

कीन्ह निषाद दंडवत तेही, मिलेउ मुदित लखि राम सनेही ||

पिअत नयन पुट रूपु पियूषा, मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा ||

ते पितु मातु कहहु सखि कैसे, जिन्ह पठए बन बालक ऐसे ||

राम लखन सिय रूपु निहारी, होहिं सनेह बिकल नर नारी ||

 

दोहा

तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह,

राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेँइँ कीन्ह ||१११ ||

 

चौपाई

पुनि सियँ राम लखन कर जोरी, जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी ||

चले ससीय मुदित दोउ भाई, रबितनुजा कइ करत बड़ाई ||

पथिक अनेक मिलहिं मग जाता, कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता ||

राज लखन सब अंग तुम्हारें, देखि सोचु अति हृदय हमारें ||

मारग चलहु पयादेहि पाएँ, ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ ||

अगमु पंथ गिरि कानन भारी, तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी ||

करि केहरि बन जाइ न जोई, हम सँग चलहि जो आयसु होई ||

जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई, फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई ||

 

दोहा

एहि बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन,

कृपासिंधु फेरहि तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन ||११२ ||

 

चौपाई

जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं, तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं ||

केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए, धन्य पुन्यमय परम सुहाए ||

जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं, तिन्ह समान अमरावति नाहीं ||

पुन्यपुंज मग निकट निवासी, तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी ||

जे भरि नयन बिलोकहिं रामहि, सीता लखन सहित घनस्यामहि ||

जे सर सरित राम अवगाहहिं, तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं ||

जेहि तरु तर प्रभु बैठहिं जाई, करहिं कलपतरु तासु बड़ाई ||

परसि राम पद पदुम परागा, मानति भूमि भूरि निज भागा ||

 

दोहा

छाँह करहि घन बिबुधगन बरषहि सुमन सिहाहिं,

देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं ||११३ ||

 

चौपाई

सीता लखन सहित रघुराई, गाँव निकट जब निकसहिं जाई ||

सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी, चलहिं तुरत गृहकाजु बिसारी ||

राम लखन सिय रूप निहारी, पाइ नयनफलु होहिं सुखारी ||

सजल बिलोचन पुलक सरीरा, सब भए मगन देखि दोउ बीरा ||

बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी, लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी ||

एकन्ह एक बोलि सिख देहीं, लोचन लाहु लेहु छन एहीं ||

रामहि देखि एक अनुरागे, चितवत चले जाहिं सँग लागे ||

एक नयन मग छबि उर आनी, होहिं सिथिल तन मन बर बानी ||

 

दोहा

एक देखिं बट छाँह भलि डासि मृदुल तृन पात,

कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रमु गवनब अबहिं कि प्रात ||११४ ||

 

चौपाई

एक कलस भरि आनहिं पानी, अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी ||

सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी, राम कृपाल सुसील बिसेषी ||

जानी श्रमित सीय मन माहीं, घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं ||

मुदित नारि नर देखहिं सोभा, रूप अनूप नयन मनु लोभा ||

एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा, रामचंद्र मुख चंद चकोरा ||

तरुन तमाल बरन तनु सोहा, देखत कोटि मदन मनु मोहा ||

दामिनि बरन लखन सुठि नीके, नख सिख सुभग भावते जी के ||

मुनिपट कटिन्ह कसें तूनीरा, सोहहिं कर कमलिनि धनु तीरा ||

 

दोहा

जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल,

सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल ||११५ ||

 

चौपाई

बरनि न जाइ मनोहर जोरी, सोभा बहुत थोरि मति मोरी ||

राम लखन सिय सुंदरताई, सब चितवहिं चित मन मति लाई ||

थके नारि नर प्रेम पिआसे, मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से ||

सीय समीप ग्रामतिय जाहीं, पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं ||

बार बार सब लागहिं पाएँ, कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ ||

राजकुमारि बिनय हम करहीं, तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं,

स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी, बिलगु न मानब जानि गवाँरी ||

राजकुअँर दोउ सहज सलोने, इन्ह तें लही दुति मरकत सोने ||

 

दोहा

स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन,

सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन ||११६ ||

 

मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम

नवान्हपारायण, चौथा विश्राम

 

चौपाई

कोटि मनोज लजावनिहारे, सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे ||

सुनि सनेहमय मंजुल बानी, सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी ||

तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी, दुहुँ सकोच सकुचित बरबरनी ||

सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी, बोली मधुर बचन पिकबयनी ||

सहज सुभाय सुभग तन गोरे, नामु लखनु लघु देवर मोरे ||

बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी, पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी ||

खंजन मंजु तिरीछे नयननि, निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि ||

भइ मुदित सब ग्रामबधूटीं, रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं ||

 

दोहा

अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस,

सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस ||११७ ||

 

चौपाई

पारबती सम पतिप्रिय होहू, देबि न हम पर छाड़ब छोहू ||

पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी, जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी ||

दरसनु देब जानि निज दासी, लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी ||

मधुर बचन कहि कहि परितोषीं, जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं ||

तबहिं लखन रघुबर रुख जानी, पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी ||

सुनत नारि नर भए दुखारी, पुलकित गात बिलोचन बारी ||

मिटा मोदु मन भए मलीने, बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने ||

समुझि करम गति धीरजु कीन्हा, सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा ||

 

दोहा

लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ,

फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ ||११८ ||

 

चौपाई

फिरत नारि नर अति पछिताहीं, देअहि दोषु देहिं मन माहीं ||

सहित बिषाद परसपर कहहीं, बिधि करतब उलटे सब अहहीं ||

निपट निरंकुस निठुर निसंकू, जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू ||

रूख कलपतरु सागरु खारा, तेहिं पठए बन राजकुमारा ||

जौं पे इन्हहि दीन्ह बनबासू, कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू ||

ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना, रचे बादि बिधि बाहन नाना ||

ए महि परहिं डासि कुस पाता, सुभग सेज कत सृजत बिधाता ||

तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा, धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा ||

 

दोहा

जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार,

बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार ||११९ ||

 

चौपाई

जौं ए कंद मूल फल खाहीं, बादि सुधादि असन जग माहीं ||

एक कहहिं ए सहज सुहाए, आपु प्रगट भए बिधि न बनाए ||

जहँ लगि बेद कही बिधि करनी, श्रवन नयन मन गोचर बरनी ||

देखहु खोजि भुअन दस चारी, कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी ||

इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा, पटतर जोग बनावै लागा ||

कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए, तेहिं इरिषा बन आनि दुराए ||

एक कहहिं हम बहुत न जानहिं, आपुहि परम धन्य करि मानहिं ||

ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे, जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे ||

 

दोहा

एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर,

किमि चलिहहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर ||१२० ||

 

चौपाई

नारि सनेह बिकल बस होहीं, चकई साँझ समय जनु सोहीं ||

मृदु पद कमल कठिन मगु जानी, गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी ||

परसत मृदुल चरन अरुनारे, सकुचति महि जिमि हृदय हमारे ||

जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा, कस न सुमनमय मारगु कीन्हा ||

जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं, ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं ||

जे नर नारि न अवसर आए, तिन्ह सिय रामु न देखन पाए ||

सुनि सुरुप बूझहिं अकुलाई, अब लगि गए कहाँ लगि भाई ||

समरथ धाइ बिलोकहिं जाई, प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई ||