दोहा
मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर,
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर ||४१ ||
चौपाई
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू, बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु,
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा, प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा ||१||
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी, परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी ||
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं, देखु बिचारि मातु मन माहीं ||२||
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी, निपट बिकल नरनायकु देखी ||
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी, होति प्रतीति न मोहि महतारी ||३||
राउ धीर गुन उदधि अगाधू, भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू ||
जातें मोहि न कहत कछु राऊ, मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ ||४||
दोहा
सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान,
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान ||४२ ||
चौपाई
रहसी रानि राम रुख पाई, बोली कपट सनेहु जनाई ||
सपथ तुम्हार भरत कै आना, हेतु न दूसर मै कछु जाना ||१||
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता, जननी जनक बंधु सुखदाता ||
राम सत्य सबु जो कछु कहहू, तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू ||२||
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई, चौथेंपन जेहिं अजसु न होई ||
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे, उचित न तासु निरादरु कीन्हे ||३||
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे, मगहँ गयादिक तीरथ जैसे ||
रामहि मातु बचन सब भाए, जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए ||४||
दोहा
गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह,
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह ||४३ ||
चौ॰-अवनिप अकनि रामु पगु धारे, धरि धीरजु तब नयन उघारे ||
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे, चरन परत नृप रामु निहारे ||१||
लिए सनेह बिकल उर लाई, गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई ||
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू, चला बिलोचन बारि प्रबाहू ||२||
सोक बिबस कछु कहै न पारा, हृदयँ लगावत बारहिं बारा ||
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं, जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं ||३||
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी, बिनती सुनहु सदासिव मोरी ||
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी, आरति हरहु दीन जनु जानी ||४||
दोहा
तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु,
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु ||४४ ||
चौपाई
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ, नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ ||
सब दुख दुसह सहावहु मोही, लोचन ओट रामु जनि होंही ||१||
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला, पीपर पात सरिस मनु डोला ||
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी, पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी ||२||
देस काल अवसर अनुसारी, बोले बचन बिनीत बिचारी ||
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई, अनुचितु छमब जानि लरिकाई ||३||
अति लघु बात लागि दुखु पावा, काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा ||
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता, सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता ||४||
दोहा
मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात,
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात ||४५ ||
चौपाई
धन्य जनमु जगतीतल तासू, पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू ||
चारि पदारथ करतल ताकें, प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें ||१||
आयसु पालि जनम फलु पाई, ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई ||
बिदा मातु सन आवउँ मागी, चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी ||२||
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा, भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा ||
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी, छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी ||३||
सुनि भए बिकल सकल नर नारी, बेलि बिटप जिमि देखि दवारी ||
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई, बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई ||४||
दोहा
मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ,
मनहुँ करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ ||४६ ||
चौपाई
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी, जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी ||
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ, छाइ भवन पर पावकु धरेऊ ||१||
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा, डारि सुधा बिषु चाहत चीखा ||
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी, भइ रघुबंस बेनु बन आगी ||२||
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा, सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा ||
सदा रामु एहि प्रान समाना, कारन कवन कुटिलपनु ठाना ||३||
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ, सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ ||
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई, जानि न जाइ नारि गति भाई ||४||
दोहा
काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ,
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ ||४७ ||
चौपाई
का सुनाइ बिधि काह सुनावा, का देखाइ चह काह देखावा ||
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा, बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा ||१||
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु, अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु ||
एक धरम परमिति पहिचाने, नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने ||२||
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी, एक एक सन कहहिं बखानी ||
एक भरत कर संमत कहहीं, एक उदास भायँ सुनि रहहीं ||३||
कान मूदि कर रद गहि जीहा, एक कहहिं यह बात अलीहा ||
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे, रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे ||४||
दोहा
चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल,
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल ||४८ ||
चौपाई
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं, सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं ||
खरभरु नगर सोचु सब काहू, दुसह दाहु उर मिटा उछाहू ||१||
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी, जे प्रिय परम कैकेई केरी ||
लगीं देन सिख सीलु सराही, बचन बानसम लागहिं ताही ||२||
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना, सदा कहहु यहु सबु जगु जाना ||
करहु राम पर सहज सनेहू, केहिं अपराध आजु बनु देहू ||३||
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू, प्रीति प्रतीति जान सबु देसू ||
कौसल्याँ अब काह बिगारा, तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा ||४||
दोहा
सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम,
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जीहि बिनु राम ||४९ ||
चौपाई
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू, सोक कलंक कोठि जनि होहू ||
भरतहि अवसि देहु जुबराजू, कानन काह राम कर काजू ||१||
नाहिन रामु राज के भूखे, धरम धुरीन बिषय रस रूखे ||
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू, नृप सन अस बरु दूसर लेहू ||२||
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे, नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे ||
जौं परिहास कीन्हि कछु होई, तौ कहि प्रगट जनावहु सोई ||३||
राम सरिस सुत कानन जोगू, काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू ||
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई, जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई ||४||
छंद
जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही,
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही ||
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी,
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी ||
सोरठा
सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित,
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी ||५० ||
चौपाई
उतरु न देइ दुसह रिस रूखी, मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी ||
ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी, चलीं कहत मतिमंद अभागी ||१||
राजु करत यह दैअँ बिगोई, कीन्हेसि अस जस करइ न कोई ||
एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं, देहिं कुचालिहि कोटिक गारीं ||२||
जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा, कवनि राम बिनु जीवन आसा ||
बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी, जनु जलचर गन सूखत पानी ||३||
अति बिषाद बस लोग लोगाई, गए मातु पहिं रामु गोसाई ||
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ, मिटा सोचु जनि राखै राऊ ||४||
दोहा
नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान,
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान ||५१ ||
चौपाई
रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा, मुदित मातु पद नायउ माथा ||
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे, भूषन बसन निछावरि कीन्हे ||१||
बार बार मुख चुंबति माता, नयन नेह जलु पुलकित गाता ||
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए, स्त्रवत प्रेनरस पयद सुहाए ||२||
प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई, रंक धनद पदबी जनु पाई ||
सादर सुंदर बदनु निहारी, बोली मधुर बचन महतारी ||३||
कहहु तात जननी बलिहारी, कबहिं लगन मुद मंगलकारी ||
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई, जनम लाभ कइ अवधि अघाई ||४||
दोहा
जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति,
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति ||५२ ||
चौपाई
तात जाउँ बलि बेगि नहाहू, जो मन भाव मधुर कछु खाहू ||
पितु समीप तब जाएहु भैआ, भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ ||१||
मातु बचन सुनि अति अनुकूला, जनु सनेह सुरतरु के फूला ||
सुख मकरंद भरे श्रियमूला, निरखि राम मनु भवरुँ न भूला ||२||
धरम धुरीन धरम गति जानी, कहेउ मातु सन अति मृदु बानी ||
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू, जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू ||३||
आयसु देहि मुदित मन माता, जेहिं मुद मंगल कानन जाता ||
जनि सनेह बस डरपसि भोरें, आनँदु अंब अनुग्रह तोरें ||४||
दोहा
बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान,
आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान ||५३ ||
चौपाई
बचन बिनीत मधुर रघुबर के, सर सम लगे मातु उर करके ||
सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी, जिमि जवास परें पावस पानी ||१||
कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू, मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू ||
नयन सजल तन थर थर काँपी, माजहि खाइ मीन जनु मापी ||२||
धरि धीरजु सुत बदनु निहारी, गदगद बचन कहति महतारी ||
तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे, देखि मुदित नित चरित तुम्हारे ||३||
राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा, कहेउ जान बन केहिं अपराधा ||
तात सुनावहु मोहि निदानू, को दिनकर कुल भयउ कृसानू ||४||
दोहा
निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ,
सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ ||५४ ||
चौपाई
राखि न सकइ न कहि सक जाहू, दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू ||
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू, बिधि गति बाम सदा सब काहू ||१||
धरम सनेह उभयँ मति घेरी, भइ गति साँप छुछुंदरि केरी ||
राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू, धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू ||२||
कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी, संकट सोच बिबस भइ रानी ||
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी, रामु भरतु दोउ सुत सम जानी ||३||
सरल सुभाउ राम महतारी, बोली बचन धीर धरि भारी ||
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका, पितु आयसु सब धरमक टीका ||४||
दोहा
राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु,
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु ||५५ ||
चौपाई
जौं केवल पितु आयसु ताता, तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता ||
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना, तौं कानन सत अवध समाना ||१||
पितु बनदेव मातु बनदेवी, खग मृग चरन सरोरुह सेवी ||
अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू, बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू ||२||
बड़भागी बनु अवध अभागी, जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी ||
जौं सुत कहौ संग मोहि लेहू, तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू ||३||
पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के, प्रान प्रान के जीवन जी के ||
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ, मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ ||४||
दोहा
यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ,
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ ||५६ ||
चौपाई
देव पितर सब तुन्हहि गोसाई, राखहुँ पलक नयन की नाई ||
अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना, तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना ||१||
अस बिचारि सोइ करहु उपाई, सबहि जिअत जेहिं भेंटेहु आई ||
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ, करि अनाथ जन परिजन गाऊँ ||२||
सब कर आजु सुकृत फल बीता, भयउ कराल कालु बिपरीता ||
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी, परम अभागिनि आपुहि जानी ||३||
दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा, बरनि न जाहिं बिलाप कलापा ||
राम उठाइ मातु उर लाई, कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई ||४||
दोहा
समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ,
जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ ||५७ ||
चौपाई
दीन्हि असीस सासु मृदु बानी, अति सुकुमारि देखि अकुलानी ||
बैठि नमितमुख सोचति सीता, रूप रासि पति प्रेम पुनीता ||१||
चलन चहत बन जीवननाथू, केहि सुकृती सन होइहि साथू ||
की तनु प्रान कि केवल प्राना, बिधि करतबु कछु जाइ न जाना ||२||
चारु चरन नख लेखति धरनी, नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी ||
मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं, हमहि सीय पद जनि परिहरहीं ||३||
मंजु बिलोचन मोचति बारी, बोली देखि राम महतारी ||
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी, सासु ससुर परिजनहि पिआरी ||४||
दोहा
पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु,
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु ||५८ ||
चौपाई
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई, रूप रासि गुन सील सुहाई ||
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई, राखेउँ प्रान जानिकिहिं लाई ||१||
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली, सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली ||
फूलत फलत भयउ बिधि बामा, जानि न जाइ काह परिनामा ||२||
पलँग पीठ तजि गोद हिंड़ोरा, सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा ||
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ, दीप बाति नहिं टारन कहऊँ ||३||
सोइ सिय चलन चहति बन साथा, आयसु काह होइ रघुनाथा,
चंद किरन रस रसिक चकोरी, रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी ||४||
दोहा
करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि,
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि ||५९ ||
चौपाई
बन हित कोल किरात किसोरी, रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी ||
पाइन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ, तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ ||१||
कै तापस तिय कानन जोगू, जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू ||
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती, चित्रलिखित कपि देखि डेराती ||२||
सुरसर सुभग बनज बन चारी, डाबर जोगु कि हंसकुमारी ||
अस बिचारि जस आयसु होई, मैं सिख देउँ जानकिहि सोई ||३||
जौं सिय भवन रहै कह अंबा, मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा ||
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी, सील सनेह सुधाँ जनु सानी ||४||
दोहा
कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष,
लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष ||६० ||
मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम
चौपाई
मातु समीप कहत सकुचाहीं, बोले समउ समुझि मन माहीं ||
राजकुमारि सिखावन सुनहू, आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू ||१||
आपन मोर नीक जौं चहहू, बचनु हमार मानि गृह रहहू ||
आयसु मोर सासु सेवकाई, सब बिधि भामिनि भवन भलाई ||२||
एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा, सादर सासु ससुर पद पूजा ||
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी, होइहि प्रेम बिकल मति भोरी ||३||
तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी, सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी ||
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही, सुमुखि मातु हित राखउँ तोही ||४||
दोहा
गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस,
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस ||६१ ||
चौपाई
मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी, बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी ||
दिवस जात नहिं लागिहि बारा, सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा ||१||
जौ हठ करहु प्रेम बस बामा, तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा ||
काननु कठिन भयंकरु भारी, घोर घामु हिम बारि बयारी ||२||
कुस कंटक मग काँकर नाना, चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना ||
चरन कमल मुदु मंजु तुम्हारे, मारग अगम भूमिधर भारे ||३||
कंदर खोह नदीं नद नारे, अगम अगाध न जाहिं निहारे ||
भालु बाघ बृक केहरि नागा, करहिं नाद सुनि धीरजु भागा ||४||
दोहा
भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल,
ते कि सदा सब दिन मिलिहिं सबुइ समय अनुकूल ||६२ ||
चौपाई
नर अहार रजनीचर चरहीं, कपट बेष बिधि कोटिक करहीं ||
लागइ अति पहार कर पानी, बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी ||१||
ब्याल कराल बिहग बन घोरा, निसिचर निकर नारि नर चोरा ||
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ, मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ ||२||
हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू, सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू ||
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली, जिअइ कि लवन पयोधि मराली ||३||
नव रसाल बन बिहरनसीला, सोह कि कोकिल बिपिन करीला ||
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी, चंदबदनि दुखु कानन भारी ||४||
दोहा
सहज सुह्द गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि ||
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि ||६३ ||
चौपाई
सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के, लोचन ललित भरे जल सिय के ||
सीतल सिख दाहक भइ कैंसें, चकइहि सरद चंद निसि जैंसें ||१||
उतरु न आव बिकल बैदेही, तजन चहत सुचि स्वामि सनेही ||
बरबस रोकि बिलोचन बारी, धरि धीरजु उर अवनिकुमारी ||२||
लागि सासु पग कह कर जोरी, छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी ||
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई, जेहि बिधि मोर परम हित होई ||३||
मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं, पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं ||४||
दोहा
प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान,
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान ||६४ ||
चौपाई
मातु पिता भगिनी प्रिय भाई, प्रिय परिवारु सुह्रद समुदाई ||
सासु ससुर गुर सजन सहाई, सुत सुंदर सुसील सुखदाई ||१||
जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते, पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते ||
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू, पति बिहीन सबु सोक समाजू ||२||
भोग रोगसम भूषन भारू, जम जातना सरिस संसारू ||
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं, मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं ||३||
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी, तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ||
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें, सरद बिमल बिधु बदनु निहारें ||४||
दोहा
खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल,
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल ||६५ ||
चौपाई
बनदेवीं बनदेव उदारा, करिहहिं सासु ससुर सम सारा ||
कुस किसलय साथरी सुहाई, प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई ||१||
कंद मूल फल अमिअ अहारू, अवध सौध सत सरिस पहारू ||
छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकि, रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी ||२||
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे, भय बिषाद परिताप घनेरे ||
प्रभु बियोग लवलेस समाना, सब मिलि होहिं न कृपानिधाना ||३||
अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि, लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि ||
बिनती बहुत करौं का स्वामी, करुनामय उर अंतरजामी ||४||
दोहा
राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान,
दीनबंधु संदर सुखद सील सनेह निधान ||६६ ||
चौपाई
मोहि मग चलत न होइहि हारी, छिनु छिनु चरन सरोज निहारी ||
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं, मारग जनित सकल श्रम हरिहौं ||१||
पाय पखारी बैठि तरु छाहीं, करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं ||
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें, कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें ||२||
सम महि तृन तरुपल्लव डासी, पाग पलोटिहि सब निसि दासी ||
बारबार मृदु मूरति जोही, लागहि तात बयारि न मोही ||३||
को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा, सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा ||
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू, तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू ||४||
दोहा
ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न ह्रदउ बिलगान,
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान ||६७ ||
चौपाई
अस कहि सीय बिकल भइ भारी, बचन बियोगु न सकी सँभारी ||
देखि दसा रघुपति जियँ जाना, हठि राखें नहिं राखिहि प्राना ||१||
कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा, परिहरि सोचु चलहु बन साथा ||
नहिं बिषाद कर अवसरु आजू, बेगि करहु बन गवन समाजू ||२||
कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई, लगे मातु पद आसिष पाई ||
बेगि प्रजा दुख मेटब आई, जननी निठुर बिसरि जनि जाई ||३||
फिरहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी, देखिहउँ नयन मनोहर जोरी ||
सुदिन सुघरी तात कब होइहि, जननी जिअत बदन बिधु जोइहि ||४||
दोहा
बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात,
कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात ||६८ ||
चौपाई
लखि सनेह कातरि महतारी, बचनु न आव बिकल भइ भारी ||
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना, समउ सनेहु न जाइ बखाना ||१||
तब जानकी सासु पग लागी, सुनिअ माय मैं परम अभागी ||
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा, मोर मनोरथु सफल न कीन्हा ||२||
तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू, करमु कठिन कछु दोसु न मोहू ||
सुनि सिय बचन सासु अकुलानी, दसा कवनि बिधि कहौं बखानी ||३||
बारहि बार लाइ उर लीन्ही, धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही ||
अचल होउ अहिवातु तुम्हारा, जब लगि गंग जमुन जल धारा ||४||
दोहा
सीतहि सासु असीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार,
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार ||६९ ||
चौपाई
समाचार जब लछिमन पाए, ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए ||
कंप पुलक तन नयन सनीरा, गहे चरन अति प्रेम अधीरा ||
कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े, मीनु दीन जनु जल तें काढ़े ||
सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा, सबु सुखु सुकृत सिरान हमारा ||
मो कहुँ काह कहब रघुनाथा, रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा ||
राम बिलोकि बंधु कर जोरें, देह गेह सब सन तृनु तोरें ||
बोले बचनु राम नय नागर, सील सनेह सरल सुख सागर ||
तात प्रेम बस जनि कदराहू, समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू ||
दोहा
मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहि सुभायँ,
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ ||७० ||
चौपाई
अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई, करहु मातु पितु पद सेवकाई ||
भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं, राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं ||१||
मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा, होइ सबहि बिधि अवध अनाथा ||
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू, सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू ||२||
रहहु करहु सब कर परितोषू, नतरु तात होइहि बड़ दोषू ||
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृपु अवसि नरक अधिकारी ||३||
रहहु तात असि नीति बिचारी, सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी ||
सिअरें बचन सूखि गए कैंसें, परसत तुहिन तामरसु जैसें ||४||
दोहा
उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ,
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ ||७१ ||
चौपाई
दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं, लागि अगम अपनी कदराईं ||
नरबर धीर धरम धुर धारी, निगम नीति कहुँ ते अधिकारी ||१||
मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला, मंदरु मेरु कि लेहिं मराला ||
गुर पितु मातु न जानउँ काहू, कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू ||२||
जहँ लगि जगत सनेह सगाई, प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई ||
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी, दीनबंधु उर अंतरजामी ||३||
धरम नीति उपदेसिअ ताही, कीरति भूति सुगति प्रिय जाही ||
मन क्रम बचन चरन रत होई, कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई ||४||
दोहा
करुनासिंधु सुबंध के सुनि मृदु बचन बिनीत,
समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत ||७२ ||
चौपाई
मागहु बिदा मातु सन जाई, आवहु बेगि चलहु बन भाई ||
मुदित भए सुनि रघुबर बानी, भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी ||१||
हरषित ह्दयँ मातु पहिं आए, मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए,
जाइ जननि पग नायउ माथा, मनु रघुनंदन जानकि साथा ||२||
पूँछे मातु मलिन मन देखी, लखन कही सब कथा बिसेषी ||
गई सहमि सुनि बचन कठोरा, मृगी देखि दव जनु चहु ओरा ||३||
लखन लखेउ भा अनरथ आजू, एहिं सनेह बस करब अकाजू ||
मागत बिदा सभय सकुचाहीं, जाइ संग बिधि कहिहि कि नाही ||४||
दोहा
समुझि सुमित्राँ राम सिय रूप सुसीलु सुभाउ,
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ ||७३ ||
चौपाई
धीरजु धरेउ कुअवसर जानी, सहज सुह्द बोली मृदु बानी ||
तात तुम्हारि मातु बैदेही, पिता रामु सब भाँति सनेही ||१||
अवध तहाँ जहँ राम निवासू, तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू ||
जौ पै सीय रामु बन जाहीं, अवध तुम्हार काजु कछु नाहिं ||२||
गुर पितु मातु बंधु सुर साई, सेइअहिं सकल प्रान की नाईं ||
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के, स्वारथ रहित सखा सबही कै ||३||
पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें, सब मानिअहिं राम के नातें ||
अस जियँ जानि संग बन जाहू, लेहु तात जग जीवन लाहू ||४||
दोहा
भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ,
जौम तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ ||४ ||
चौपाई
पुत्रवती जुबती जग सोई, रघुपति भगतु जासु सुतु होई ||
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी, राम बिमुख सुत तें हित जानी ||१||
तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं, दूसर हेतु तात कछु नाहीं ||
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू, राम सीय पद सहज सनेहू ||२||
राग रोषु इरिषा मदु मोहू, जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू ||
सकल प्रकार बिकार बिहाई, मन क्रम बचन करेहु सेवकाई ||३||
तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू, सँग पितु मातु रामु सिय जासू ||
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू, सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू ||४||
छंद
उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं,
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं,
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई,
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नई ||
सोरठा
मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ,
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस ||७५ ||
चौपाई
गए लखनु जहँ जानकिनाथू, भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू ||
बंदि राम सिय चरन सुहाए, चले संग नृपमंदिर आए ||१||
कहहिं परसपर पुर नर नारी, भलि बनाइ बिधि बात बिगारी ||
तन कृस दुखु बदन मलीने, बिकल मनहुँ माखी मधु छीने ||२||
कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं, जनु बिन पंख बिहग अकुलाहीं ||
भइ बड़ि भीर भूप दरबारा, बरनि न जाइ बिषादु अपारा ||३||
सचिवँ उठाइ राउ बैठारे, कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे ||
सिय समेत दोउ तनय निहारी, ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी ||४||
दोहा
सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ,
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ ||७६ ||
चौपाई
सकइ न बोलि बिकल नरनाहू, सोक जनित उर दारुन दाहू ||
नाइ सीसु पद अति अनुरागा, उठि रघुबीर बिदा तब मागा ||१||
पितु असीस आयसु मोहि दीजै, हरष समय बिसमउ कत कीजै ||
तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू, जसु जग जाइ होइ अपबादू ||२||
सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ, बैठारे रघुपति गहि बाहाँ ||
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं, रामु चराचर नायक अहहीं ||३||
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी, ईस देइ फलु ह्दयँ बिचारी ||
करइ जो करम पाव फल सोई, निगम नीति असि कह सबु कोई ||४||
दोहा
औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु,
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु ||७७ ||
चौपाई
रायँ राम राखन हित लागी, बहुत उपाय किए छलु त्यागी ||
लखी राम रुख रहत न जाने, धरम धुरंधर धीर सयाने ||१||
तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही, अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही ||
कहि बन के दुख दुसह सुनाए, सासु ससुर पितु सुख समुझाए ||२||
सिय मनु राम चरन अनुरागा, घरु न सुगमु बनु बिषमु न लागा ||
औरउ सबहिं सीय समुझाई, कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई ||३||
सचिव नारि गुर नारि सयानी, सहित सनेह कहहिं मृदु बानी ||
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू, करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू ||४||
दोहा
सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि,
सरद चंद चंदनि लगत जनु चकई अकुलानि ||७८ ||
चौपाई
सीय सकुच बस उतरु न देई, सो सुनि तमकि उठी कैकेई ||
मुनि पट भूषन भाजन आनी, आगें धरि बोली मृदु बानी ||१||
नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा, सील सनेह न छाड़िहि भीरा ||
सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ, तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ ||२||
अस बिचारि सोइ करहु जो भावा, राम जननि सिख सुनि सुखु पावा ||
भूपहि बचन बानसम लागे, करहिं न प्रान पयान अभागे ||३||
लोग बिकल मुरुछित नरनाहू, काह करिअ कछु सूझ न काहू ||
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई, चले जनक जननिहि सिरु नाई ||४||
दोहा
सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत,
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत ||७९ ||
चौपाई
निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े, देखे लोग बिरह दव दाढ़े ||
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए, बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए ||१||
गुर सन कहि बरषासन दीन्हे, आदर दान बिनय बस कीन्हे ||
जाचक दान मान संतोषे, मीत पुनीत प्रेम परितोषे ||२||
दासीं दास बोलाइ बहोरी, गुरहि सौंपि बोले कर जोरी ||
सब कै सार सँभार गोसाईं, करबि जनक जननी की नाई ||३||
बारहिं बार जोरि जुग पानी, कहत रामु सब सन मृदु बानी ||
सोइ सब भाँति मोर हितकारी, जेहि तें रहै भुआल सुखारी ||४||
दोहा
मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन,
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन ||८० ||
चौपाई
एहि बिधि राम सबहि समुझावा, गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा ||
गनपती गौरि गिरीसु मनाई, चले असीस पाइ रघुराई ||१||
राम चलत अति भयउ बिषादू, सुनि न जाइ पुर आरत नादू ||
कुसगुन लंक अवध अति सोकू, हहरष बिषाद बिबस सुरलोकू ||२||
गइ मुरुछा तब भूपति जागे, बोलि सुमंत्रु कहन अस लागे ||
रामु चले बन प्रान न जाहीं, केहि सुख लागि रहत तन माहीं ||३||
एहि तें कवन ब्यथा बलवाना, जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना ||
पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू, लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू ||४||