सोरठा

रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि ।

अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन ॥ २१(क) ॥

 

दोहा

सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ ।

तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ ॥ २१(ख) ॥

 

चौपाई

सुनत सभासद उठे अकुलाई । समुझाई गहि बाहँ उठाई ॥

कह लंकेस कहसि निज बाता । केँइँ तव नासा कान निपाता ॥१॥

अवध नृपति दसरथ के जाए । पुरुष सिंघ बन खेलन आए ॥

समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी । रहित निसाचर करिहहिं धरनी ॥२॥

जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन । अभय भए बिचरत मुनि कानन ॥

देखत बालक काल समाना । परम धीर धन्वी गुन नाना ॥३॥

अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता । खल बध रत सुर मुनि सुखदाता ॥

सोभाधाम राम अस नामा । तिन्ह के संग नारि एक स्यामा ॥४॥

रुप रासि बिधि नारि सँवारी । रति सत कोटि तासु बलिहारी ॥

तासु अनुज काटे श्रुति नासा । सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा ॥५॥

खर दूषन सुनि लगे पुकारा । छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ॥

खर दूषन तिसिरा कर घाता । सुनि दससीस जरे सब गाता ॥६॥

 

दोहा

सुपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति ।

गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति ॥ २२ ॥

 

चौपाई

सुर नर असुर नाग खग माहीं । मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं ॥

खर दूषन मोहि सम बलवंता । तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ॥१॥

सुर रंजन भंजन महि भारा । जौं भगवंत लीन्ह अवतारा ॥

तौ मै जाइ बैरु हठि करऊँ । प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ ॥२॥

होइहि भजनु न तामस देहा । मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ॥

जौं नररुप भूपसुत कोऊ । हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ ॥३॥

चला अकेल जान चढि तहवाँ । बस मारीच सिंधु तट जहवाँ ॥

इहाँ राम जसि जुगुति बनाई । सुनहु उमा सो कथा सुहाई ॥४॥

 

दोहा

लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद ।

जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद ॥ २३ ॥

 

चौपाई

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला । मैं कछु करबि ललित नरलीला ॥

तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा । जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥१॥

जबहिं राम सब कहा बखानी । प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी ॥

निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता । तैसइ सील रुप सुबिनीता ॥२॥

लछिमनहूँ यह मरमु न जाना । जो कछु चरित रचा भगवाना ॥

दसमुख गयउ जहाँ मारीचा । नाइ माथ स्वारथ रत नीचा ॥३॥

नवनि नीच कै अति दुखदाई । जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई ॥

भयदायक खल कै प्रिय बानी । जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥४॥

 

दोहा

करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात ।

कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात ॥ २४ ॥

 

चौपाई

दसमुख सकल कथा तेहि आगें । कही सहित अभिमान अभागें ॥

होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी । जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी ॥१॥

तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा । ते नररुप चराचर ईसा ॥

तासों तात बयरु नहिं कीजे । मारें मरिअ जिआएँ जीजै ॥२॥

मुनि मख राखन गयउ कुमारा । बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा ॥

सत जोजन आयउँ छन माहीं । तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं ॥३॥

भइ मम कीट भृंग की नाई । जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई ॥

जौं नर तात तदपि अति सूरा । तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा ॥४॥

 

दोहा

जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड ॥

खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड ॥ २५ ॥

 

चौपाई

जाहु भवन कुल कुसल बिचारी । सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी ॥

गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा । कहु जग मोहि समान को जोधा ॥१॥

तब मारीच हृदयँ अनुमाना । नवहि बिरोधें नहिं कल्याना ॥

सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी । बैद बंदि कबि भानस गुनी ॥२॥

उभय भाँति देखा निज मरना । तब ताकिसि रघुनायक सरना ॥

उतरु देत मोहि बधब अभागें । कस न मरौं रघुपति सर लागें ॥३॥

अस जियँ जानि दसानन संगा । चला राम पद प्रेम अभंगा ॥

मन अति हरष जनाव न तेही । आजु देखिहउँ परम सनेही ॥४॥

 

छंद

निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं ।

श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं ॥

निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी ।

निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी ॥

 

दोहा

मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान ।

फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन ॥ २६ ॥

 

चौपाई

तेहि बन निकट दसानन गयऊ । तब मारीच कपटमृग भयऊ ॥

अति बिचित्र कछु बरनि न जाई । कनक देह मनि रचित बनाई ॥१॥

सीता परम रुचिर मृग देखा । अंग अंग सुमनोहर बेषा ॥

सुनहु देव रघुबीर कृपाला । एहि मृग कर अति सुंदर छाला ॥२॥

सत्यसंध प्रभु बधि करि एही । आनहु चर्म कहति बैदेही ॥

तब रघुपति जानत सब कारन । उठे हरषि सुर काजु सँवारन ॥३॥

मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा । करतल चाप रुचिर सर साँधा ॥

प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई । फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई ॥४॥

सीता केरि करेहु रखवारी । बुधि बिबेक बल समय बिचारी ॥

प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी । धाए रामु सरासन साजी ॥५॥

निगम नेति सिव ध्यान न पावा । मायामृग पाछें सो धावा ॥

कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई । कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई ॥६॥

प्रगटत दुरत करत छल भूरी । एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी ॥

तब तकि राम कठिन सर मारा । धरनि परेउ करि घोर पुकारा ॥७॥

लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा । पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा ॥

प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा । सुमिरेसि रामु समेत सनेहा ॥८॥

अंतर प्रेम तासु पहिचाना । मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना ॥९॥

 

दोहा

बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ ।

निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ ॥ २७ ॥

 

चौपाई

खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा । सोह चाप कर कटि तूनीरा ॥

आरत गिरा सुनी जब सीता । कह लछिमन सन परम सभीता ॥१॥

जाहु बेगि संकट अति भ्राता । लछिमन बिहसि कहा सुनु माता ॥

भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई । सपनेहुँ संकट परइ कि सोई ॥२॥

मरम बचन जब सीता बोला । हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ॥

बन दिसि देव सौंपि सब काहू । चले जहाँ रावन ससि राहू ॥३॥

सून बीच दसकंधर देखा । आवा निकट जती कें बेषा ॥

जाकें डर सुर असुर डेराहीं । निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं ॥४॥

सो दससीस स्वान की नाई । इत उत चितइ चला भड़िहाई ॥

इमि कुपंथ पग देत खगेसा । रह न तेज बुधि बल लेसा ॥५॥

नाना बिधि करि कथा सुहाई । राजनीति भय प्रीति देखाई ॥

कह सीता सुनु जती गोसाईं । बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं ॥६॥

तब रावन निज रूप देखावा । भई सभय जब नाम सुनावा ॥

कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा । आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा ॥७॥

जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा । भएसि कालबस निसिचर नाहा ॥

सुनत बचन दससीस रिसाना । मन महुँ चरन बंदि सुख माना ॥८॥

 

दोहा

क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ ।

चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ ॥ २८ ॥

 

चौपाई

हा जग एक बीर रघुराया । केहिं अपराध बिसारेहु दाया ॥

आरति हरन सरन सुखदायक । हा रघुकुल सरोज दिननायक ॥१॥

हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा । सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा ॥

बिबिध बिलाप करति बैदेही । भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही ॥२॥

बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा । पुरोडास चह रासभ खावा ॥

सीता कै बिलाप सुनि भारी । भए चराचर जीव दुखारी ॥३॥

गीधराज सुनि आरत बानी । रघुकुलतिलक नारि पहिचानी ॥

अधम निसाचर लीन्हे जाई । जिमि मलेछ बस कपिला गाई ॥४॥

सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा । करिहउँ जातुधान कर नासा ॥

धावा क्रोधवंत खग कैसें । छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे ॥५॥

रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही । निर्भय चलेसि न जानेहि मोही ॥

आवत देखि कृतांत समाना । फिरि दसकंधर कर अनुमाना ॥६॥

की मैनाक कि खगपति होई । मम बल जान सहित पति सोई ॥

जाना जरठ जटायू एहा । मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा ॥७॥

सुनत गीध क्रोधातुर धावा । कह सुनु रावन मोर सिखावा ॥

तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू । नाहिं त अस होइहि बहुबाहू ॥८॥

राम रोष पावक अति घोरा । होइहि सकल सलभ कुल तोरा ॥

उतरु न देत दसानन जोधा । तबहिं गीध धावा करि क्रोधा ॥९॥

धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा । सीतहि राखि गीध पुनि फिरा ॥

चौचन्ह मारि बिदारेसि देही । दंड एक भइ मुरुछा तेही ॥१०॥

तब सक्रोध निसिचर खिसिआना । काढ़ेसि परम कराल कृपाना ॥

काटेसि पंख परा खग धरनी । सुमिरि राम करि अदभुत करनी ॥११॥

सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी । चला उताइल त्रास न थोरी ॥

करति बिलाप जाति नभ सीता । ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता ॥१२॥

गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी । कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी ॥

एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ । बन असोक महँ राखत भयऊ ॥१३॥

 

दोहा

हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ ।

तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ ॥ २९(क) ॥

 

नवान्हपारायण, छठा विश्राम

 

दोहा

जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम ।

सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम ॥ २९(ख) ॥

 

चौपाई

रघुपति अनुजहि आवत देखी । बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी ॥

जनकसुता परिहरिहु अकेली । आयहु तात बचन मम पेली ॥१॥

निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं । मम मन सीता आश्रम नाहीं ॥

गहि पद कमल अनुज कर जोरी । कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी ॥२॥

अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ । गोदावरि तट आश्रम जहवाँ ॥

आश्रम देखि जानकी हीना । भए बिकल जस प्राकृत दीना ॥३॥

हा गुन खानि जानकी सीता । रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥

लछिमन समुझाए बहु भाँती । पूछत चले लता तरु पाँती ॥४॥

हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी । तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ॥

खंजन सुक कपोत मृग मीना । मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥५॥

कुंद कली दाड़िम दामिनी । कमल सरद ससि अहिभामिनी ॥

बरुन पास मनोज धनु हंसा । गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥६॥

श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं । नेकु न संक सकुच मन माहीं ॥

सुनु जानकी तोहि बिनु आजू । हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥७॥

किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं ॥

एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी । मनहुँ महा बिरही अति कामी ॥८॥

पूरनकाम राम सुख रासी । मनुज चरित कर अज अबिनासी ॥

आगे परा गीधपति देखा । सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा ॥९॥

 

दोहा

कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रधुबीर ॥

निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ॥ ३० ॥

 

चौपाई

तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भंजन भव भीरा ॥

नाथ दसानन यह गति कीन्ही । तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही ॥१॥

लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई । बिलपति अति कुररी की नाई ॥

दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना । चलन चहत अब कृपानिधाना ॥२॥

राम कहा तनु राखहु ताता । मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता ॥

जा कर नाम मरत मुख आवा । अधमउ मुकुत होई श्रुति गावा ॥३॥

सो मम लोचन गोचर आगें । राखौं देह नाथ केहि खाँगेँ ॥

जल भरि नयन कहहिँ रघुराई । तात कर्म निज ते गतिं पाई ॥४॥

परहित बस जिन्ह के मन माहीँ । तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ॥

तनु तजि तात जाहु मम धामा । देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ॥५॥

 

दोहा

सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ ॥

जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ ॥ ३१ ॥

 

चौपाई

गीध देह तजि धरि हरि रुपा । भूषन बहु पट पीत अनूपा ॥

स्याम गात बिसाल भुज चारी । अस्तुति करत नयन भरि बारी ॥

 

छंद

जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही ।

दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही ॥

पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं ।

नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं ॥ १ ॥

बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं ।

गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं ॥

जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं ।

नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं ॥२॥

जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं ॥

करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं ॥

सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई ।

मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई ॥ ३ ॥

जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा ।

पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा ॥

सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी ।

मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी ॥ ४ ॥

 

दोहा

अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम ।

तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ॥ ३२ ॥

 

चौपाई

कोमल चित अति दीनदयाला । कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ॥

गीध अधम खग आमिष भोगी । गति दीन्हि जो जाचत जोगी ॥१॥

१सुनहु उमा ते लोग अभागी । हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ॥

पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई । चले बिलोकत बन बहुताई ॥२॥

संकुल लता बिटप घन कानन । बहु खग मृग तहँ गज पंचानन ॥

आवत पंथ कबंध निपाता । तेहिं सब कही साप कै बाता ॥३॥

दुरबासा मोहि दीन्ही सापा । प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा ॥

सुनु गंधर्ब कहउँ मै तोही । मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही ॥४॥

 

दोहा

मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव ।

मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव ॥ ३३ ॥

 

चौपाई

सापत ताड़त परुष कहंता । बिप्र पूज्य अस गावहिं संता ॥

पूजिअ बिप्र सील गुन हीना । सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥१॥

कहि निज धर्म ताहि समुझावा । निज पद प्रीति देखि मन भावा ॥

रघुपति चरन कमल सिरु नाई । गयउ गगन आपनि गति पाई ॥२॥

ताहि देइ गति राम उदारा । सबरी कें आश्रम पगु धारा ॥

सबरी देखि राम गृहँ आए । मुनि के बचन समुझि जियँ भाए ॥३॥

सरसिज लोचन बाहु बिसाला । जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई । सबरी परी चरन लपटाई ॥४॥

प्रेम मगन मुख बचन न आवा । पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥

सादर जल लै चरन पखारे । पुनि सुंदर आसन बैठारे ॥५॥

 

दोहा

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि ।

प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ॥ ३४ ॥

 

चौपाई

पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी । प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी ॥

केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी । अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥१॥

अधम ते अधम अधम अति नारी । तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता । मानउँ एक भगति कर नाता ॥२॥

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई । धन बल परिजन गुन चतुराई ॥

भगति हीन नर सोहइ कैसा । बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥३॥

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं । सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥४॥

 

दोहा

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥ ३५ ॥

 

चौपाई

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥

छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥१॥

सातवँ सम मोहि मय जग देखा । मोतें संत अधिक करि लेखा ॥

आठवँ जथालाभ संतोषा । सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥२॥

नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥

नव महुँ एकउ जिन्ह के होई । नारि पुरुष सचराचर कोई ॥३॥

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥

जोगि बृंद दुरलभ गति जोई । तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ॥४॥

मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ॥

जनकसुता कइ सुधि भामिनी । जानहि कहु करिबरगामिनी ॥५॥

पंपा सरहि जाहु रघुराई । तहँ होइहि सुग्रीव मिताई ॥

सो सब कहिहि देव रघुबीरा । जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥६॥

बार बार प्रभु पद सिरु नाई । प्रेम सहित सब कथा सुनाई ॥७॥

 

छंद

कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे ।

तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे ॥

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू ॥

 

दोहा

जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि ।

महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥ ३६ ॥

 

चौपाई

चले राम त्यागा बन सोऊ । अतुलित बल नर केहरि दोऊ ॥

बिरही इव प्रभु करत बिषादा । कहत कथा अनेक संबादा ॥१॥

लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा । देखत केहि कर मन नहिं छोभा ॥

नारि सहित सब खग मृग बृंदा । मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा ॥२॥

हमहि देखि मृग निकर पराहीं । मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं ॥

तुम्ह आनंद करहु मृग जाए । कंचन मृग खोजन ए आए ॥३॥

संग लाइ करिनीं करि लेहीं । मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं ॥

सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ । भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ ॥४॥

राखिअ नारि जदपि उर माहीं । जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं ॥

देखहु तात बसंत सुहावा । प्रिया हीन मोहि भय उपजावा ॥५॥

 

दोहा

बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल ।

सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल ॥ ३७(क) ॥

देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात ।

डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात ॥ ३७(ख) ॥

 

चौपाई

बिटप बिसाल लता अरुझानी । बिबिध बितान दिए जनु तानी ॥

कदलि ताल बर धुजा पताका । दैखि न मोह धीर मन जाका ॥१॥

बिबिध भाँति फूले तरु नाना । जनु बानैत बने बहु बाना ॥

कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए । जनु भट बिलग बिलग होइ छाए ॥२॥

कूजत पिक मानहुँ गज माते । ढेक महोख ऊँट बिसराते ॥

मोर चकोर कीर बर बाजी । पारावत मराल सब ताजी ॥३॥

तीतिर लावक पदचर जूथा । बरनि न जाइ मनोज बरुथा ॥

रथ गिरि सिला दुंदुभी झरना । चातक बंदी गुन गन बरना ॥४॥

मधुकर मुखर भेरि सहनाई । त्रिबिध बयारि बसीठीं आई ॥

चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें । बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें ॥५॥

लछिमन देखत काम अनीका । रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका ॥

एहि कें एक परम बल नारी । तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ॥६॥

 

दोहा

तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ ।

मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ॥ ३८(क) ॥

लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि ।

क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि ॥ ३८(ख) ॥

 

चौपाई

गुनातीत सचराचर स्वामी । राम उमा सब अंतरजामी ॥

कामिन्ह कै दीनता देखाई । धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई ॥१॥

क्रोध मनोज लोभ मद माया । छूटहिं सकल राम कीं दाया ॥

सो नर इंद्रजाल नहिं भूला । जा पर होइ सो नट अनुकूला ॥२॥

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना । सत हरि भजनु जगत सब सपना ॥

पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा । पंपा नाम सुभग गंभीरा ॥३॥

संत हृदय जस निर्मल बारी । बाँधे घाट मनोहर चारी ॥

जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा । जनु उदार गृह जाचक भीरा ॥४॥

 

दोहा

पुरइनि सबन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म ।

मायाछन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म ॥ ३९(क) ॥

सुखि मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं ।

जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं ॥ ३९(ख) ॥

 

चौपाई

बिकसे सरसिज नाना रंगा । मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा ॥

बोलत जलकुक्कुट कलहंसा । प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥१॥

चक्रवाक बक खग समुदाई । देखत बनइ बरनि नहिं जाई ॥

सुन्दर खग गन गिरा सुहाई । जात पथिक जनु लेत बोलाई ॥२॥

ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए । चहु दिसि कानन बिटप सुहाए ॥

चंपक बकुल कदंब तमाला । पाटल पनस परास रसाला ॥३॥

नव पल्लव कुसुमित तरु नाना । चंचरीक पटली कर गाना ॥

सीतल मंद सुगंध सुभाऊ । संतत बहइ मनोहर बाऊ ॥४॥

कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं । सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं ॥५॥

 

दोहा

फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ ।

पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ ॥ ४० ॥

 

चौपाई

देखि राम अति रुचिर तलावा । मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा ॥

देखी सुंदर तरुबर छाया । बैठे अनुज सहित रघुराया ॥१॥

तहँ पुनि सकल देव मुनि आए । अस्तुति करि निज धाम सिधाए ॥

बैठे परम प्रसन्न कृपाला । कहत अनुज सन कथा रसाला ॥२॥

बिरहवंत भगवंतहि देखी । नारद मन भा सोच बिसेषी ॥

मोर साप करि अंगीकारा । सहत राम नाना दुख भारा ॥३॥

ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई । पुनि न बनिहि अस अवसरु आई ॥

यह बिचारि नारद कर बीना । गए जहाँ प्रभु सुख आसीना ॥४॥

गावत राम चरित मृदु बानी । प्रेम सहित बहु भाँति बखानी ॥

करत दंडवत लिए उठाई । राखे बहुत बार उर लाई ॥५॥

स्वागत पूँछि निकट बैठारे । लछिमन सादर चरन पखारे ॥६॥

 

दोहा

नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि ।

नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि ॥ ४१ ॥

 

चौपाई

सुनहु उदार सहज रघुनायक । सुंदर अगम सुगम बर दायक ॥

देहु एक बर मागउँ स्वामी । जद्यपि जानत अंतरजामी ॥१॥

जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ । जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ ॥

कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी । जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी ॥२॥

जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें । अस बिस्वास तजहु जनि भोरें ॥

तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई ॥३॥

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका । श्रुति कह अधिक एक तें एका ॥

राम सकल नामन्ह ते अधिका । होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥४॥

 

दोहा

राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम ।

अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम ॥ ४२(क) ॥

एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ ।

तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ ॥ ४२(ख) ॥

 

चौपाई

अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी । पुनि नारद बोले मृदु बानी ॥

राम जबहिं प्रेरेउ निज माया । मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥१॥

तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा । प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ॥

सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा । भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥२॥

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी । जिमि बालक राखइ महतारी ॥

गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई । तहँ राखइ जननी अरगाई ॥३॥

प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता । प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता ॥

मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी । बालक सुत सम दास अमानी ॥४॥

जनहि मोर बल निज बल ताही । दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥

यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं । पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं ॥५॥

 

दोहा

काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि ।

तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि ॥ ४३ ॥

 

चौपाई

सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता । मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता ॥

जप तप नेम जलाश्रय झारी । होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी ॥१॥

काम क्रोध मद मत्सर भेका । इन्हहि हरषप्रद बरषा एका ॥

दुर्बासना कुमुद समुदाई । तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ॥२॥

धर्म सकल सरसीरुह बृंदा । होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा ॥

पुनि ममता जवास बहुताई । पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई ॥३॥

पाप उलूक निकर सुखकारी । नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी ॥

बुधि बल सील सत्य सब मीना । बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ॥५॥

 

दोहा

अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि ।

ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ ४४ ॥

 

चौपाई

सुनि रघुपति के बचन सुहाए । मुनि तन पुलक नयन भरि आए ॥

कहहु कवन प्रभु कै असि रीती । सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥१॥

जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी । ग्यान रंक नर मंद अभागी ॥

पुनि सादर बोले मुनि नारद । सुनहु राम बिग्यान बिसारद ॥२॥

संतन्ह के लच्छन रघुबीरा । कहहु नाथ भव भंजन भीरा ॥

सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ । जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ ॥३॥

षट बिकार जित अनघ अकामा । अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ॥

अमितबोध अनीह मितभोगी । सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥४॥

सावधान मानद मदहीना । धीर धर्म गति परम प्रबीना ॥५॥

 

दोहा

गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह ॥

तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥ ४५ ॥

 

चौपाई

निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं । पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥

सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती । सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ॥१॥

जप तप ब्रत दम संजम नेमा । गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ॥

श्रद्धा छमा मयत्री दाया । मुदिता मम पद प्रीति अमाया ॥२॥

बिरति बिबेक बिनय बिग्याना । बोध जथारथ बेद पुराना ॥

दंभ मान मद करहिं न काऊ । भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥३॥

गावहिं सुनहिं सदा मम लीला । हेतु रहित परहित रत सीला ॥

मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते । कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥४॥

 

छंद

कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे ।

अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे ॥

सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए ॥

ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए ॥

 

दोहा

रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग ।

राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग ॥ ४६(क) ॥

दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग ।

भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥४६(ख) ॥

 

मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम

 

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः.

(अरण्यकाण्ड समाप्त)