अरण्यकाण्ड

श्री गणेशाय नमः

श्री रामचरितमानस तृतीय सोपान - अरण्यकाण्ड

 

श्लोक

मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं

वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम ।

मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं

वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम ॥ १ ॥

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं

पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम

राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं

सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ २ ॥

 

सोरठा

उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति ।

पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥१॥

 

चौपाई

पुर नर भरत प्रीति मैं गाई ।मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥

अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन ।करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥१॥

एक बार चुनि कुसुम सुहाए ।निज कर भूषन राम बनाए ॥

सीतहि पहिराए प्रभु सादर ।बैठे फटिक सिला पर सुंदर ॥२॥

सुरपति सुत धरि बायस बेषा ।सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥

जिमि पिपीलिका सागर थाहा ।महा मंदमति पावन चाहा ॥३॥

सीता चरन चौंच हति भागा ।मूढ़ मंदमति कारन कागा ॥

चला रुधिर रघुनायक जाना ।सींक धनुष सायक संधाना ॥४॥

 

दोहा

अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह ।

ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ १ ॥

 

चौपाई

प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा ।चला भाजि बायस भय पावा ॥

धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं ।राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥१॥

भा निरास उपजी मन त्रासा ।जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥

ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका ।फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥२॥

काहूँ बैठन कहा न ओही ।राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥

मातु मृत्यु पितु समन समाना ।सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥३॥

मित्र करइ सत रिपु कै करनी ।ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥

सब जगु ताहि अनलहु ते ताता ।जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥४॥

नारद देखा बिकल जयंता ।लागि दया कोमल चित संता ॥

पठवा तुरत राम पहिं ताही ।कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥५॥

आतुर सभय गहेसि पद जाई ।त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥

अतुलित बल अतुलित प्रभुताई ।मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥६॥

निज कृत कर्म जनित फल पायउँ ।अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥

सुनि कृपाल अति आरत बानी ।एकनयन करि तजा भवानी ॥७॥

 

सोरठा

कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित ।

प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ २ ॥

 

चौपाई

रघुपति चित्रकूट बसि नाना । चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥

बहुरि राम अस मन अनुमाना । होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥१॥

सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई । सीता सहित चले द्वौ भाई ॥

अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ । सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥२॥

पुलकित गात अत्रि उठि धाए । देखि रामु आतुर चलि आए ॥

करत दंडवत मुनि उर लाए । प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥३॥

देखि राम छबि नयन जुड़ाने । सादर निज आश्रम तब आने ॥

करि पूजा कहि बचन सुहाए । दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥४॥

 

सोरठा

प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि ।

मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ ३ ॥

 

छंद

नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥

भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥

निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥

प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥

प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥

निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥

दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥

मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥

मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥

विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥

नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥

भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥

त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥

पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥

विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥

निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥

तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥

जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥

भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥

स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥

अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥

प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥

पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥

व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥

 

दोहा

बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि ।

चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ ४ ॥

 

चौपाई

अनुसुइया के पद गहि सीता । मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥

रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई । आसिष देइ निकट बैठाई ॥१॥

दिब्य बसन भूषन पहिराए । जे नित नूतन अमल सुहाए ॥

कह रिषिबधू सरस मृदु बानी । नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥२॥

मातु पिता भ्राता हितकारी । मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥

अमित दानि भर्ता बयदेही । अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥३॥

धीरज धर्म मित्र अरु नारी । आपद काल परिखिअहिं चारी ॥

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना । अधं बधिर क्रोधी अति दीना ॥४॥

ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना । नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥

एकइ धर्म एक ब्रत नेमा । कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥५॥

जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं । बेद पुरान संत सब कहहिं ॥

उत्तम के अस बस मन माहीं । सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥६॥

मध्यम परपति देखइ कैसें । भ्राता पिता पुत्र निज जैंसें ॥

धर्म बिचारि समुझि कुल रहई । सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥७॥

बिनु अवसर भय तें रह जोई । जानेहु अधम नारि जग सोई ॥

पति बंचक परपति रति करई । रौरव नरक कल्प सत परई ॥८॥

छन सुख लागि जनम सत कोटि । दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥

बिनु श्रम नारि परम गति लहई । पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ॥९॥

पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई । बिधवा होई पाई तरुनाई ॥१०॥

 

सोरठा

सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ ।

जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय ॥ ५क ॥

सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि ।

तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥ ५ख ॥

 

चौपाई

सुनि जानकीं परम सुखु पावा । सादर तासु चरन सिरु नावा ॥

तब मुनि सन कह कृपानिधाना । आयसु होइ जाउँ बन आना ॥१॥

संतत मो पर कृपा करेहू । सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥

धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी । सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥२॥

जासु कृपा अज सिव सनकादी । चहत सकल परमारथ बादी ॥

ते तुम्ह राम अकाम पिआरे । दीन बंधु मृदु बचन उचारे ॥३॥

अब जानी मैं श्री चतुराई । भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥

जेहि समान अतिसय नहिं कोई । ता कर सील कस न अस होई ॥४॥

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी । कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी ॥

अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा । लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥५॥

 

छंद

तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पंकज दिए ।

मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥

जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई ।

रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥

 

दोहा

कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल ।

सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥ ६(क) ॥

 

सोरठा

कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप ।

परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥ ६(ख) ॥

 

चौपाई

मुनि पद कमल नाइ करि सीसा । चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥

आगे राम अनुज पुनि पाछें । मुनि बर बेष बने अति काछें ॥१॥

उमय बीच श्री सोहइ कैसी । ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥

सरिता बन गिरि अवघट घाटा । पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥२॥

जहँ जहँ जाहि देव रघुराया । करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥

मिला असुर बिराध मग जाता । आवतहीं रघुवीर निपाता ॥३॥

तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा । देखि दुखी निज धाम पठावा ॥

पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा । सुंदर अनुज जानकी संगा ॥४॥

 

दोहा

देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग ।

सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग ॥ ७ ॥

 

चौपाई

कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला । संकर मानस राजमराला ॥

जात रहेउँ बिरंचि के धामा । सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥१॥

चितवत पंथ रहेउँ दिन राती । अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती ॥

नाथ सकल साधन मैं हीना । कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥२॥

सो कछु देव न मोहि निहोरा । निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥

तब लगि रहहु दीन हित लागी । जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥३॥

जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा । प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥

एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा । बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा ॥४॥

 

दोहा

सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम ।

मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम ॥ ८ ॥

 

चौपाई

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा ॥

ताते मुनि हरि लीन न भयऊ । प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ ॥१॥

रिषि निकाय मुनिबर गति देखि । सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी ॥

अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा । जयति प्रनत हित करुना कंदा ॥२॥

पुनि रघुनाथ चले बन आगे । मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे ॥

अस्थि समूह देखि रघुराया । पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥३॥

जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी । सबदरसी तुम्ह अंतरजामी ॥

निसिचर निकर सकल मुनि खाए । सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥४॥

 

दोहा

निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह ।

सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ ९ ॥

 

चौपाई

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना । नाम सुतीछन रति भगवाना ॥

मन क्रम बचन राम पद सेवक । सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥१॥

प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा । करत मनोरथ आतुर धावा ॥

हे बिधि दीनबंधु रघुराया । मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥२॥

सहित अनुज मोहि राम गोसाई । मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥

मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं । भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥३॥

नहिं सतसंग जोग जप जागा । नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥

एक बानि करुनानिधान की । सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥४॥

होइहैं सुफल आजु मम लोचन । देखि बदन पंकज भव मोचन ॥

निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी । कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥५॥

दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा । को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥

कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई । कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥६॥

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई । प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥

अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा । प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥७॥

मुनि मग माझ अचल होइ बैसा । पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥

तब रघुनाथ निकट चलि आए । देखि दसा निज जन मन भाए ॥८॥

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा । जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥

भूप रूप तब राम दुरावा । हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥९॥

मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें । बिकल हीन मनि फनि बर जैसें ॥

आगें देखि राम तन स्यामा । सीता अनुज सहित सुख धामा ॥१०॥

परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी । प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥

भुज बिसाल गहि लिए उठाई । परम प्रीति राखे उर लाई ॥११॥

मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला । कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ॥

राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा । मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा ॥१२॥

 

दोहा

तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार ।

निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥ १० ॥

 

चौपाई

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी । अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥

महिमा अमित मोरि मति थोरी । रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥१॥

श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥

पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥२॥

मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ॥

निशिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥३॥

अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ॥

हर ह्रदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ॥४॥

संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥

भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥५॥

निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥

अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ॥६॥

भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥

अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥७॥

अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥

धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ॥८॥

जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी । सब के हृदयँ निरंतर बासी ॥

तदपि अनुज श्री सहित खरारी । बसतु मनसि मम काननचारी ॥९॥

जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी । सगुन अगुन उर अंतरजामी ॥

जो कोसल पति राजिव नयना । करउ सो राम हृदय मम अयना ।१०॥

अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥

सुनि मुनि बचन राम मन भाए । बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥११॥

परम प्रसन्न जानु मुनि मोही । जो बर मागहु देउ सो तोही ॥

मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा । समुझि न परइ झूठ का साचा ॥१२॥

तुम्हहि नीक लागै रघुराई । सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥

अबिरल भगति बिरति बिग्याना । होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥१३॥

प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा । अब सो देहु मोहि जो भावा ॥१४॥

 

दोहा

अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम ।

मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम ॥ ११ ॥

 

चौपाई

एवमस्तु करि रमानिवासा । हरषि चले कुभंज रिषि पासा ॥

बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ । भए मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥१॥

अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं । तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ॥

देखि कृपानिधि मुनि चतुराई । लिए संग बिहसै द्वौ भाई ॥२॥

पंथ कहत निज भगति अनूपा । मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥

तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ । करि दंडवत कहत अस भयऊ ॥३॥

नाथ कौसलाधीस कुमारा । आए मिलन जगत आधारा ॥

राम अनुज समेत बैदेही । निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥४॥

सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए । हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥

मुनि पद कमल परे द्वौ भाई । रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥५॥

सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी । आसन बर बैठारे आनी ॥

पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा । मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा ॥६॥

जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा । हरषे सब बिलोकि सुखकंदा ॥७॥

 

दोहा

मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर ।

सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥ १२ ॥

 

चौपाई

तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं । तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥

तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ । ताते तात न कहि समुझायउँ ॥१॥

अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही । जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥

मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी । पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥२॥

तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी । जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥

ऊमरि तरु बिसाल तव माया । फल ब्रह्मांड अनेक निकाया ॥३॥

जीव चराचर जंतु समाना । भीतर बसहि न जानहिं आना ॥

ते फल भच्छक कठिन कराला । तव भयँ डरत सदा सोउ काला ॥४॥

ते तुम्ह सकल लोकपति साईं । पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं ॥

यह बर मागउँ कृपानिकेता । बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥५॥

अबिरल भगति बिरति सतसंगा । चरन सरोरुह प्रीति अभंगा ॥

जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता । अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता ॥६॥

अस तव रूप बखानउँ जानउँ । फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ ॥

संतत दासन्ह देहु बड़ाई । तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥७॥

है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ । पावन पंचबटी तेहि नाऊँ ॥

दंडक बन पुनीत प्रभु करहू । उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥८॥

बास करहु तहँ रघुकुल राया । कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया ॥

चले राम मुनि आयसु पाई । तुरतहिं पंचबटी निअराई ॥९॥

 

दोहा

गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ ॥

गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥ १३ ॥

 

चौपाई

जब ते राम कीन्ह तहँ बासा । सुखी भए मुनि बीती त्रासा ॥

गिरि बन नदीं ताल छबि छाए । दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए ॥१॥

खग मृग बृंद अनंदित रहहीं । मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं ॥

सो बन बरनि न सक अहिराजा । जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥२॥

एक बार प्रभु सुख आसीना । लछिमन बचन कहे छलहीना ॥

सुर नर मुनि सचराचर साईं । मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई ॥३॥

मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा । सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥

कहहु ग्यान बिराग अरु माया । कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥४॥

 

दोहा

ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ॥

जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥ १४ ॥

 

चौपाई

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई । सुनहु तात मति मन चित लाई ॥

मैं अरु मोर तोर तैं माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥१॥

गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ॥

तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ । बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥२॥

एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा । जा बस जीव परा भवकूपा ॥

एक रचइ जग गुन बस जाकें । प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ॥३॥

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं । देख ब्रह्म समान सब माही ॥

कहिअ तात सो परम बिरागी । तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥४॥

 

दोहा

माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव ।

बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥ १५ ॥

 

चौपाई

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना । ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥

जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई । सो मम भगति भगत सुखदाई ॥१॥

सो सुतंत्र अवलंब न आना । तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥

भगति तात अनुपम सुखमूला । मिलइ जो संत होइँ अनुकूला ॥२॥

भगति कि साधन कहउँ बखानी । सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ॥

प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती । निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥३॥

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा । तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥

श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं । मम लीला रति अति मन माहीं ॥४॥

संत चरन पंकज अति प्रेमा । मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥

गुरु पितु मातु बंधु पति देवा । सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा ॥५॥

मम गुन गावत पुलक सरीरा । गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥

काम आदि मद दंभ न जाकें । तात निरंतर बस मैं ताकें ॥६॥

 

दोहा

बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ॥

तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ॥ १६ ॥

 

चौपाई

भगति जोग सुनि अति सुख पावा । लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥

एहि बिधि गए कछुक दिन बीती । कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥१॥

सूपनखा रावन कै बहिनी । दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥

पंचबटी सो गइ एक बारा । देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥२॥

भ्राता पिता पुत्र उरगारी । पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥

होइ बिकल सक मनहि न रोकी । जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥३॥

रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई । बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥

तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी । यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥४॥

मम अनुरूप पुरुष जग माहीं । देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं ॥

ताते अब लगि रहिउँ कुमारी । मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥५॥

सीतहि चितइ कही प्रभु बाता । अहइ कुआर मोर लघु भ्राता ॥

गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी । प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥६॥

सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा । पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥

प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा । जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥७॥

सेवक सुख चह मान भिखारी । ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥

लोभी जसु चह चार गुमानी । नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥८॥

पुनि फिरि राम निकट सो आई । प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥

लछिमन कहा तोहि सो बरई । जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥९॥

तब खिसिआनि राम पहिं गई । रूप भयंकर प्रगटत भई ॥

सीतहि सभय देखि रघुराई । कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥१०॥

 

दोहा

लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि ।

ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥ १७ ॥

 

चौपाई

नाक कान बिनु भइ बिकरारा । जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥

खर दूषन पहिं गइ बिलपाता । धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥१॥

तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई । जातुधान सुनि सेन बनाई ॥

धाए निसिचर निकर बरूथा । जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥२॥

नाना बाहन नानाकारा । नानायुध धर घोर अपारा ॥

सुपनखा आगें करि लीनी । असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥३॥

असगुन अमित होहिं भयकारी । गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥

गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं । देखि कटकु भट अति हरषाहीं ॥४॥

कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई । धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई ॥

धूरि पूरि नभ मंडल रहा । राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥५॥

लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर । आवा निसिचर कटकु भयंकर ॥

रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी । चले सहित श्री सर धनु पानी ॥६॥

देखि राम रिपुदल चलि आवा । बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥७॥

 

छंद

कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों ।

मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों ॥

कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥

चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥

 

सोरठा

आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट ।

जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥ १८ ॥

 

चौपाई

प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी । थकित भई रजनीचर धारी ॥

सचिव बोलि बोले खर दूषन । यह कोउ नृपबालक नर भूषन ॥१॥

नाग असुर सुर नर मुनि जेते । देखे जिते हते हम केते ॥

हम भरि जन्म सुनहु सब भाई । देखी नहिं असि सुंदरताई ॥२॥

जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा । बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥

देहु तुरत निज नारि दुराई । जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥३॥

मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु । तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥

दूतन्ह कहा राम सन जाई । सुनत राम बोले मुसकाई ॥४॥

हम छत्री मृगया बन करहीं । तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं ॥

रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं । एक बार कालहु सन लरहीं ॥५॥

जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक । मुनि पालक खल सालक बालक ॥

जौं न होइ बल घर फिरि जाहू । समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ॥६॥

रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई । रिपु पर कृपा परम कदराई ॥

दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ । सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥७॥

 

छंद

उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा ।

सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥

प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा ।

भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥

 

दोहा

सावधान होइ धाए जानि सबल आराति ।

लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥ १९(क) ॥

तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर ।

तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर ॥ १९(ख) ॥

 

छंद

तब चले जान बबान कराल । फुंकरत जनु बहु ब्याल ॥

कोपेउ समर श्रीराम । चले बिसिख निसित निकाम ॥

अवलोकि खरतर तीर । मुरि चले निसिचर बीर ॥

भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ । जो भागि रन ते जाइ ॥

तेहि बधब हम निज पानि । फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥

आयुध अनेक प्रकार । सनमुख ते करहिं प्रहार ॥

रिपु परम कोपे जानि । प्रभु धनुष सर संधानि ॥

छाँड़े बिपुल नाराच । लगे कटन बिकट पिसाच ॥

उर सीस भुज कर चरन । जहँ तहँ लगे महि परन ॥

चिक्करत लागत बान । धर परत कुधर समान ॥

भट कटत तन सत खंड । पुनि उठत करि पाषंड ॥

नभ उड़त बहु भुज मुंड । बिनु मौलि धावत रुंड ॥

खग कंक काक सृगाल । कटकटहिं कठिन कराल ॥

 

छंद

कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं ।

बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं ॥

रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा ।

जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥

अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं ॥

संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ॥

मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे ।

अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥

सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं ।

करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं ॥

प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका ।

दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥

महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी ।

सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥

सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर यो ।

देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर यो ॥

 

दोहा

राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान ।

करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥ २०(क) ॥

हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान ।

अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥ २०(ख) ॥

 

चौपाई

जब रघुनाथ समर रिपु जीते । सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥

तब लछिमन सीतहि लै आए । प्रभु पद परत हरषि उर लाए ॥१॥

सीता चितव स्याम मृदु गाता । परम प्रेम लोचन न अघाता ॥

पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक । करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥२॥

धुआँ देखि खरदूषन केरा । जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥

बोलि बचन क्रोध करि भारी । देस कोस कै सुरति बिसारी ॥३॥

करसि पान सोवसि दिनु राती । सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥

राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा । हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥४॥

बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ । श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ ॥

संग ते जती कुमंत्र ते राजा । मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥५॥

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी । नासहि बेगि नीति अस सुनी ॥६॥