पलटू साहब की कुण्डलिया

Jay Guru!


कुंडलिया (२५१)
जा के रथ पर राम हैं को करि सकै अकाज ॥
को करि सकै अकाज बार नहीं वा कौ बाँकै ।
चक्र सुदर्सन छुटै कोऊ कुनजर से ताकै ॥ 
लोहू ढारैं राम सन्त कौ ढरै पसीना ।
का बालक पहलाद भया हरिनाकुस पीना२
करि पंडौ की पैज भरथ को दिया जिताई ।
अम्बरीक के हेतु दुर्वासै नाच नचाई ॥
पलटू मार् यौ ग्राह कौ हाँक२ दियौ गजराज ।
जा के रथ पर राम हैं को करि सकै अकाज ॥

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(१) पांडवों के साथ अपना प्रण रख कर श्रीकृष्ण ने महाभारत की लडाई उन्हें जिता दी। (२) पुकार ।  (२) मोटा ।


कुंडलिया (२५२)
होनी रही सो ह्वै गई रोइ मरै संसार ॥
रोइ मरै संसार काज कुछ उन से नाहीं ।
गये हाथ से निबुकि३ तेही सब पछिताहीं ॥
भये काग से हंस काग सब निन्दा करते ।
लोहा से भये कनक सोच सब लोहा मरते ॥
ज्ञानी अब हम भये रोवैं सब मूरख संगी ।
तिल से भये फुलेल तेल सब मार तिलंगी ॥
पलटू उतरे पार हम भाड़ झोकि सब भार ।
होनी रही सो ह्वै गई रोइ मरै संसार ॥

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(३) निकल ।


कुंडलिया (२५३)
सिव सक्ती के मिलन में मो कौ भयौ अनन्द ॥
मो कौ भयौ अनन्द मिल्यौ पानी में पानी ।
होऊ से भा सूत नहीं मिलि कै अलगानी ॥
मुलुक भयौ सलतन्त मिल्यौ हाकिम कौ राजा ।
रैयत करै अराम खोलि कै दस दरवाजा ॥
छूटी सकल बियाधि मिटी इन्द्रिन की दुतिया ।
को अब करै उपाधि चोर से मिलि गइ कुतिया ॥
पलटू सतगुरु साहिब काटौ मेरौ बन्द ।
सिव सक्ती के मिलन में मो कौ भयौ अनन्द ॥

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कुंडलिया (२५४)
ऐसा ब्राह्मन मिलै जो ताके परछौं पाँय ॥ 
ता के परछौं पाँय ब्रह्म अपने को पावै ।
भर्म जनेऊ तोरि प्रेम तिरसूत बनावै ॥
सब कर्मन को करै कर्म से रहता न्यारा ।
दुतिया देइ बहाय ब्रह्म का करै बिचारा ॥
ज्ञान दिवस में सयन मोह रजनी में जागै ।
पारब्रह्म भगवान ताहि घर भिच्छा माँगै ॥
चेतन देइ जगाय ब्रह्म की गाँठि को खोलै ।
करै गायत्री गुप्त सब्द ब्रह्मांड में बोलै ॥
पलटू तजै अठारह सहस बरन ह्वै जाय ।
ऐसा ब्राह्मन मिलै जो ता के परछौं पाँय ॥

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कुंडलिया (२५५)
सब बैरागी बटुरि कै पलटुहि किया अजात ॥
पलटुहि किया अजात पर्भुता देखि न जाई ।
बनिया काल्हिक१ भक्त प्रगट भा सब दुतियाई२
हम सब बड़े महन्त ताहि को कोउ न जानै ।
बनिया करै पखंड ताहि को सब कोउ मानै ॥
ऐसी इर्षा जानि कोऊ ना आवै खाई ।
बनिया ढोल बजाय रसोई दिया लुटाई ॥
मालपुवा चारिउ बरन बाँधि लेत कल खात ।
सब बैरागी बटुरि कै पलटुहि किया अजात ॥

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(१) कल्ह का । (२) अलग कर दिया ।


कुंडलिया (२५६)
हींग लगाइस भात में भूल गई है नार ॥
भूल गई है नार आन कै आनै कीन्हा ।
कातिस मोटा सूत कातन को चाही झीना ॥
लहँगा पाछे जरै चूल्ह में पानी नावा । 
हँसिया को है ब्याह गीत खुरपा कै गावा ॥
देय महावर आँख गोड़ में काजर लावै ।
ऐसी भोली नारि ताहि कौ को समुझावै ॥
पलटू वाहि अबूझ है अंत खायगी मार ।
हींग लगाइस भात में भूल गई है नार ॥

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कुंडलिया (२५७)
घरिया औटै तत्व की परै नाम टकसार ॥
पड़ै नाम टकसार द्वादस सन१ बहुत करकरा ।
ज्ञान चोख से चोख रैनि दिन प ड़ै धरधरा ॥
चौकस करै बिबेक सरन जो जौ भरि आवै ।
ऐसा सिक्का होय कोई न बट्टा लावै ॥
देवै ठासा बेहद परै सनवाती सीका२
चारि खूँट में चलै जियत इक होय रती का ॥
पलटू बानी परा कँह लेहै सन्त विचार ।
घरिया ओटै तत्व की परै नाम टकसार ॥

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(१) सन १२ के सिक्के की चाँदी सोना बहुत खरा मशहूर है । (२) सिक्का ।



कुंडलिया (२५८)
सतगुरु के परताप से पकरा पाँचो चोर ॥
पकरा पाँचो चोर नगर में अदल चलाया ।
तिर्गुन दिया निकारि आनि कै भक्ति बसाया ॥
लोभ मोह को पकरि ताहि की गरदन मारी ।
तृस्ना औ हंकार पेट दियो इनको फारी ॥
दुर्मति दई निकारि सुमति का चाबुक दीन्हा ।
चढ़े सिपाही संत अमल कायागढ़ कीन्हा ॥ 
पलटू संजम मैं किया परा मुलुक में सोर ।
सतगुरु के परताप से पका पाँचो चोर ॥

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कुंडलिया (२५९)
दूसर जनमत मारिये की बरु रहिये बाँझ ॥
की बरु रहिये बाँझ कोख में दाग लगावै ।
जामै१ पेड़ मदार ताहि में क्या फल आवै ॥
जो जनमै हरि भक्त जगत में सोभा पावै ।
कुल में फूलै कमल पुत्रवंती कहवावै ॥
कौसिल्या देवकी बड़ी अब कहिये सोई ।
हरि जन में हरि रहै भार जिन लीन्हा दोई ॥
पलटू सोई पुत्रवती भक्त रहै जेहि माँझ२
दूसर जनमत मारिये की बरु रहिये बाँझ ॥

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(१) उगै । (२) उदर में । (३) दिन दहाड़े ।


कुंडलिया (२६०)
आगि लगो वहि देस में जहँवाँ राजा चोर ॥
जहँवाँ राजा चोर प्रजा कैसे सुख पावै ।
पाँच पचीस लगाइ रैनि दिन सदा मुसावै ॥
आठौ पहर उपाधि रहै नाना बिधि लागी ।
काम क्रोध हंकार सकै ना रैयत भागी ॥
लोभ मोह की दिनै गले बिच नावै फाँसी ।
लोक लाज मरजाद चलावै तिरगुन गाँसी ॥
पलटू रैयत क्या करै चलै न एकौ जोर ।
आगि लगो वहि देस में जहँवाँ राजा चोर ॥

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कुंडलिया (२६१)
यह अचरज हम देखिया कानी काजर देइ ॥
कानी काजर देइ खसम के मन ना मानै ।
निसि दिन करै सिंगार भेद या बिरला जानै ॥
नख सिख खोटी मोटि पहिरि कै बैठी गहना ।
मूरख देखन जाय देखि कै करै सरहना ॥
बोलै मीठी बोल सबन को बेगि रिझावै ।
नाहिं खसम से भेंट बैठि कै बात बनावै ॥
पलटू या संसार में झूठ कहै सो लेय ।
यह अचरज हम देखिया कानी काजर देय ॥

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कुंडलिया (२६२)
मुसलमान रब्बी मेरी हिन्दू भया खरीफ ॥
हिन्दू भया खरीफ दोऊ है फसिल हमारी ।
इनको चाहै लेइ काटि कै बारी बारी ॥
साल भरे में मिली यही हम को जागीरी ।
चाकर भये हजूरी कौन अब करै तगीरी१
दूनों को समुझाइ ज्ञान का दफतर खोलै ।
सब कायल होइ जाय अमल दै कोऊ न बोलै ॥
दोऊ दीन के बीच में पलटूदास हरीफ२
मुसलमान रब्बी मेरी हिन्दू भया खरीफ ॥

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(१) तंगी । (२) निपून ।


कुंडलिया (२६३)
नाचन को ढँग नाहिं है कहती आँगन टेढ़ ॥
कहती आँगन टेढ़ जक्त की लाज लजाई ।
लम्बा घूँघट काढ़ि डेरै३ फिर नाचन आई ॥
जाति बरन मरजाद छुटी ना लोक बड़ाई ।
करै खसम को चाह खसम का४ सहजै पाई ॥
अपनी बात उड़ाइ आपु से जैसे भूसा ।
झौंसै पेड़ बनाय पाछे से फड़िहै फरसा५
पलटू पावै खसम को रहै संत को खेढ़ ।
नाचन को ढँग नाहिं है कहती आँगन टेढ़ ॥ 

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 (३) लोक लाज के डर से लम्बा घूँघट काढ़ कर । (४) क्या । (५) लोक लाज और कूल कानि की पौद को झुलस डाले नहीं तो बढ़ जाने पर फरसा से काटने की जरूरत होगी ।


कुंडलिया (२६४)
पलटू खोजै पूरबे घर में है जगन्नाथ ॥ 
घर में है जगन्नाथ सकल घट ब्यापक सोई ।
पसु पंछी चर अचर और नहिं दूजा कोई ॥
पूरन प्रगटे ब्रह्म देह धरि सब में आये ।
दिया कर्म को आड़ भेद यह बिरलन पाये ॥
उपजै बिनसै देह जीव सो मरता नाहीं ।
कहन सुनन को जुदा रहत है सब घट माहीं ॥
चलते चलते पग थका एकौ लगा न हाथ ।
पलटू खोजै पूरबे घर में है जगन्नाथ ॥

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कुंडलिया (२६५)
आन को सेंदुर देखि कै तू का फोरै लिलार१
तू का फोरै लिलार नारि तू बड़ी अनारी ।
तू ना देवै जाय देखि क्या जरै हमारी ॥
तेरे करम में नाहिं देखि क्या सरबर२ करती ।
चलि जा अपनी राह सोच में नाहक परती ॥
जेकँहै चाहै पीव ताहि को करै सोहागिनि ।
समुझ आपनी चूक नारि तू बड़ी अभागिनि ॥
पलटू सेवै साधु को तब रीझ करतार ।
आन को सेंदुर देखि कै तू का फोरै लिलार ॥

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(१) माथा । (२) हिसका ।


कुंडलिया (२६६)
पलटू पारस नाम का मनै रसायन होय ॥
मनै रसायन होय करै या तन की सीसी ।
संपुट दै गुरु ज्ञान बिस्वास दवाई पीसी ॥
दसौ दिसा से मूँदि जोग की भाठी बारै ।
तेहि पर देहि चढ़ाय ब्रह्म की अग्नि से जरै ॥
ईं धन लावै ध्यान प्रेम रस करै तयारी । 
सबद सुरति के बीच तहाँ मन राखै मारी ॥
जड़ि बूटी के खोजते गई सिध्याई खोय ।
पलटू पारस नाम का मनै रसायन होय ॥

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कुंडलिया (२६७)
कहत फिरत हम जोगी, पक्का दुइ सेर खाय ॥
पक्का दुइ सेर खाय, कहै मैं बड़का जोगी ।
सोवै टाँग पसारि, देखत कै बड़ा बिरोगी ॥
हृष्ट पुष्ट होइ रहै लड़न को नाहीं माँदा१
काम क्रोध और मोह, करत हैं बाद बिबादा ॥
पलटू ऐसा देखि कै, मुँह ना राखी लाय ।
कहत फिरत हम जोगी, पक्का दुइ सेर खाय ॥

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(१) थका या निर्बल ।


कुंडलिया (२६८)
जल पषान को छोड़ि कै पूजौ आतम देव ॥
पूजौ आतम देव खाय औ बोलै भाई ।
छाती दैकै पाँव पथर की मुरत बनाई ॥
ताहि धोय अन्हवाय बिंजन लै भोग लगाई ।
साच्छात भगवान द्वार से भूखा जाई ॥
काह लिये बैराग झूँठ कै बाँधे बाना ।
भाव भक्ति की मरम है कोइ बिरले जाना ॥
पलटू दोउ कर जोरि कै गुरु संतन को सेव ।
जल पषान को छोड़ि कै पूजौ आतम देव ॥

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।। इति ।।
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श्री सद्गुरु महाराज की जय!
* गुरु आश्रित महाशय कैलाश प्रसाद चौधरी जी , कटिहार (बिहार) की सहायता एवं पूर्ण समर्पण से पुष्पित *