पलटू साहब की कुण्डलिया

Jay Guru!


कुंडलिया (२०१)
बस्तु धरी है पाछे आगे लिहिनि तकाय४
मागे लिहिनि तकाय पाछ की मरम न जानी । 
ज्यों ज्यों आगे जाय दिनों दिन अधिक दुरानी ॥
फिरि के ताकै नाहिं बस्तु कहवाँ से पावै ।
ज्यों मिरगा कै बास भरम कै जन्म गँवावै ॥
अरुझा बेद पुरान ज्ञान बिनु को सुरझावै ।
सतसंगत से बिमुख बस्तु कहवाँ से पावै ॥
पलटू छूटै कर्म ना कैसे सकै उठाय ।
बस्तु धरी है पाछे आगे लिहिन तकाय ॥

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(४) चल दिये ।


कुंडलिया (२०२)
झूठै में सब जग चला छिल छिल जाता अंग ॥
छिल छिल जाता अंग धसन भेड़ी की देखा ।
करम बड़ा परधान गड़ी पत्थर पर मेखा ॥
साच बात को मेटि झूठ कौ जाल पसारा ।
जल पषान के बीच बहै सब सूधी धारा ॥
परघट है भगवान सकल घट सूझत नाहीं ।
जीव से करते द्रोह भरमना पूजन जाहीं ॥
पलटू मैं का से कहौं कुवाँ पड़ी है भंग ।
झूठै में सब जग चला छिल छिल जाता अंग ॥
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कुंडलिया (२०३)
लड़िका चूल्हे में लुका ढूँढ़त फिरै पहार ॥
ढूँढ़त फिरै पहार नहीं घट की सुधि जानै ।
जप तप तीरथ बरत जाय के तिल तिल छानै ॥
गई आप को भूलि और की बात न मानै ।
चूल्है लड़िका रहै चतुरई अपनी ठानै ॥
भरमी फिरै भुलान जाइ के देस देसान्तर ।
लड़िका से नहिं भेट मिलत है पानी पाथर ॥
पलटू सतसंगति करै मूल में वाही सार१
लड़िका चूल्हे में लुका ढूँढ़त फिरै पहार ॥

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(१) भूल मिटाने को सतसंग ही सार जतन है।


कुंडलिया (२०४)
सूधी मारग मैं चलौं हँसै सकल संसार ॥
हँसे सकल ससार करम की राह बताई ।
लोक बेद की राह चला हम से नहिं जाई ॥
सूधी लिहा तकाय राह संतन की पाई । 
मन में भया अनन्द छूटि गइ सब दुचिताई ॥
उन कै इहवै हेतु१ राह यह हमरी आवै ।
इहै बूझि कै हँसै हाथ से निबुका२ जावै ॥
पलटू सब का एक मत को अब करै बिचार ।
सूधी मारग मैं चलौं हँसे सकल संसार ॥  

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(१) संसार का यही अभिप्राय है । (२) निकला ।


कुंडलिया (२०५)
भरमि भरमि सब जग मुवा झूठा देवा सेव ॥
झूठा देवा सेव नाम को दिया भुलाई ।
बाँधे जमपुर जाहि काल चोटी घिसियाई ॥
पानी से जिन पिंड गरभ के बीच सँवारा ।
ऐसा साहिब छोड़ि जन्म औरै से हारा ॥
ऐसे मूरख लोग खबर ना करैं अपानी ।
सिरजनहारा छोड़ि पूजते भूत भवानी ॥
पलटू इक गुरुदेव बिनु दूजा कोय न देव ।
भरमि भरमि सब जग मुवा झूठा देवा सेव ॥

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कुंडलिया (२०६)
संत चरन को छोड़ि कै पूजत भूत बैताल ॥
पूजत भूत बैताल मुए पर भूतै होई ।
जेकर जहवाँ जीव अन्त को होवै सोई ॥
देव पितर सब झूठ सकल यह मन की भ्रमना ।
यही भरम में पड़ा लगा है जीवन मरना ॥
देई देवा सेइ परम पद केहि ने पावा ।
भैरो दुर्गा सीव बाँधि कै नरक पठावा ॥
पलटू अंत घसीटिहै चोटी धरि धरि काल ।
संत चरन को छोड़ि कै पूजत भूत बैताल ॥

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कुंडलिया (२०७)
लिये कुल्हाड़ी हाथ में मारत अपने पाँय ॥
मारत अपने पाँय पूजत है देई देवा ।
सतगुरु संत बिसारि करै भूतन की सेवा ॥
चाहै कुसल गँवार आमीं दै माहुर खावै ।
मने किये से लड़ै नरक में दौड़ा जावै ॥
पौड़ै१ जल के बीच हाथ में बाँधे रसरी ।
परै भरम में जाइ ताहि को कैसे पकरी ॥
पलटू नर तन पाइ कै भजन मँहै अलसाय ।
लिये कुल्हाड़ी हाथ में मारत अपने पाँय ॥

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(१) तैरै ।


कुंडलिया (२०८)
सात पुरी हम देखिया देखे चारो धाम ॥
देखे चारो धाम सबन माँ पाथर पानी ।
करमन के बसि पड़े मुक्ति की राह भुलानी ॥
चलत चलत पग थके छीन भइ अपनी काया ।
काम क्रोध नहिं मिटे बैठ कर बहुत नहाया ॥
ऊपर डाला धोय मैल दिल बीच समाना ।
पाथर में गयो भूल संत का मरम न जाना ॥
पलटू नाहक पचि मुए सन्तन में है नाम ।
सात पुरी हम देखिया देखे चारो धाम ॥ 

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(१) भूल । 


कुंडलिया (२०९)
घर में मेवा छोड़ि के टेंटी बीनन जाय ॥
टेंटी बीनन जाय जानै यही है मेवा ।
तीरथ मँहै नहाय करै मूरति की सेवा ॥
छोड़ि बोलता ब्रह्म करै पथरे की पूजा ।
खसम न आवै पास नारि जब खोजै दूजा ॥
सूखा हाड़ चबाय स्वान मुख आवै लोहू ।
रहै हाड़ के भोर भेद ना जानै वोहू ॥
पलटू आगे धरा है आप से नाहीं खाय ।
घर में मेवा छोड़ि कै टेंटी बीनन जाय ॥ 

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कुंडलिया (२१०)
लम्बा घूँघट काढ़ि कै लगवारन से प्रीति ॥
लगवारन से प्रीति जीव से द्रोह बढ़ावै ।
पूजत फिरै पषान नहीं जो बोले खावै ॥
सम्मै पूरन ब्रह्म ताहि को तनिक न मानै । 
करै नटी२ को काम लोक पतबर्ता जानै ॥ 
उदर पालना करै नाम ठाकुर को लेई ।
सब जीव भगवान ताहि को तनिक न सेई ॥
पलटू सबै सराहिये जरै जगत की रीति ।
लम्बा घूँघट काढ़ि कै लगवारन से प्रीति ॥
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(२) हरजाई ।


कुंडलिया (२११)
बहुत पुरुष के भोग से बिस्वा होइ गई बाँझ ॥
बिस्वा होइ गइ बाँझ जाहि के पुरुष घनेरे ।
नाहिं एक की आस फिरै घर घर बहुतेरे ॥
एक केरि होइ रहै दुसर से होइ गलानी३ । 
तुरत गरभ रहि जाइ सिवाती४ चात्रिक पानी ॥
राम पुरुष को छोड़ि करै देवतन की पूजा ।
बिस्या की यह रीति खसम तजि खोजै दूजा ॥
पलटू बिना बिचार से मूरख डूबै माँझ५
बहुत पुरुष के भोग से बिस्वा होइ गइ बाँझ ॥

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 (३ घिन । (४) स्वाति । (५) मंझधार में ।


कुंडलिया (२१२)
पलटू तन करु देवहरा मन करु सालिगराम ॥
मन करु सालिगराम पूजते हाथ पिराने ।
धावत तीरथ बरत रैनि दिन गोड़ खियाने ॥
माला फेरि न जाय परे अंगुरिन में घट्ठा ।
राम बोलि ना जाय जीभ में लागै लट्ठा ॥
निति उठि चन्दन देत माथ कै लोहू सोखा ।
बालभोग के खात मिट्यो ना मन का धोखा ॥
जल पषान के पूजते सरान एकौ काम ।
पलटू तन करु देवहरा मन करु सालिगराम ॥

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(१) लासा बंध जाना ।


कुंडलिया (२१३)
सूधी मेरी चाल है सब को लागै टेढ़ ॥
सब को लागै टेढ़ बूझ बिनु कौन बतावै ।
आपु चलै सब टेढ़ टेढ़ हम को गोहरावै ॥
हम रहते निहकरम नाहिं करमन की आसा ।
तुम्हरे तीरथ बरत बहुरि मूरति बिस्वासा ॥
हमरे केवल राम आन को नाहीं जानौं ।
तुम्हरे देवता पित्र भूत की पूजा मानो ॥
पलटू उलटा लोग सब नाहक करते खेढ़२
सुधी मेरी चाल है सब को लागै टेढ़ ॥

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 (२) रार, झगड़ा ।


कुंडलिया (२१४)
मैं अपने रँग बावरी जरि जरि मरते लोग ॥
जरि जरि मरते लोग सोच नाहक को करते ।
पर संपति को देखि मूढ़ बिनु मारे मरते ॥
ना काहू की जाति पाँति हम बैठन जाई ।
लोग करै चौवाव३ एक को एक बुलाई ॥
चलिहौं सूधी चाल राम के मारग माहीं ।
देव पितर तजि करम मानौं काहू को नाहीं ॥
पलटू हमको देखि कै लोगन के भा रोग ।
मैं अपने रँग बावरी जरि जरि मरते लोग ॥

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 (३) निन्दा ।


॥ जीव-हिंसा ॥ 
कुंडलिया (२१५)
लहम कुल्लहुम जिसिम का नबी किया फर्मूद१
नबी किया फर्मूद हदीस की आयत माहीं ।
सब में एकै जान और कोउ दूजा नाहीं ॥
खून गोस्त है एक मौलवी जिबह न छाजै२
सब में रोसन हुआ नबी का नूर बिराजै ॥
क्यों खैंचै तू रूह३ गुनहगारी में पड़ता । 
बुजरुग के फर्मूद बमोजिब नाहीं डेरता ॥
पलटू जो बेदरदी सो काफिर मरदूद ।
लहम कुल्लहुम जिसिम का नबी किया फर्मूद ॥ 

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(१) नबी ने फर्माया है कि कुल मांस जानदार की देह से आता है। (२) शोभा नहीं देता । (३) जान ।


कुंडलिया (२१६)
गरदन मारै खसम की लगवारन के हेत ॥
लगवारन के हेत पसू औ मेंढ़ा मारै ।
पूजै दुरगा देव देवखरी सिर दै मारै ॥
माटी देवखरि बाँधि मुए की पूजा लावै ।
जीवत जिउ को मारि आनि कै ताहि चढ़ावै ॥
सब में है भगवान और ना दूजा कोई ।
तेकर यह गति करै भला कहवाँ से होई ॥
पलटू जिउ को मारि कै बल देवतन को देत । 
गरदन मारै खसम की लगवारन के हेत ॥

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॥ जाति भेद ॥
कुंडलिया (२१७)
हरि को भजै सो बड़ा है जाति न पूछै कोय ॥
जाति न पूछै कोय हरी को भक्ति पियारी ।
जो कोइ करै सो बड़ा जाति हरि नाहिं निहारी ॥ 
बधिक अजामिल रहे रहे फिर सदन कसाई ।
गनिका बिस्वा रही बिमान पै तुरत चढ़ाई ॥
नीच जाति रैदास आघु में लिया मिलाई ।
लिया गिद्ध को गोदि दिया बैकुंठ पठाई ॥
पलटू पारस के छुए लोहा कंचन होय ।
हरि को भजै सो बड़ा है जाति न पूछै कोय ॥

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कुंडलिया (२१८)
साहिब के दरबार में केवल भक्ति पियार ॥
केवल भक्ति पियार साहिब भक्ती में राजी ।
तजा सकल पकवान लिया दासीसुत भाजी१
जप तप नेम अचार करै बहुतेरा कोई ।
खाये सेवरी के बेर१ मुए सब ऋषि मुनि रोई ॥
किया युधिष्ठिर यज्ञ बटोरा सकल समाजा ।
मरदा सब का मान सुपच बिनु घंट न बाजा ॥
पलटू ऊँची जाति कौ जनि कोउ करै हंकार ।
साहिब के दरबार में केवल भक्ति पियार ।।

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(१) श्रीकृष्ण ने राजा दुर्योधन का छप्पन प्रकार का भोजन त्याग कर जिला भक्त का अलोना साग बड़ी रुचि से खाया था और सेवरी के कुतरे हुए बेर बड़े चाव से चख कर अहंकारी ऋषियों और मुनियों के दाँत खट्टे किये।


कुंडलिया (२१९)
गनिका गिद्ध अजामिल सदना औ रैदास ॥
सदना औ रैदास भली इनकी बनि आई ।
निसु दिन रहैं हजूर भक्ति कीन्ही अधिकाई ॥
जातिन उत्तम येह इन्हैं सम और न कोई । 
ब्रह्मा कोटि कुलीन नीच अब कहिये सोई ॥
उनसे बड़ा न कोय और सब उन के नीचे ।
उन्हैं बराबर नहीं कोऊ तिर्लोक के बीचे ॥
अविनासी की गोद में पलटू करै बिलास ।
गनिका गिद्ध अजामिल सदना औ रैदास ॥

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॥ निन्दक ॥
कुंडलिया (२२०)
निन्दक जीवै जुगन जुग काम हमारा होय ॥
काम हमारा होय बिना कौड़ी को चाकर ।
कमर बाँधि के फिरै करै तिहुँ लोक उजागर ॥
उसे हमारी सोच पलक भर नाहिं बिसारी ।
लगी रहै दिन रात प्रेम से देता गारी ॥
संत कँहै दृढ़ करै जगत का भरम छुड़ावै ।
निन्दक गुरू हमार नाम से वही मिलावै ॥
सुनि के निन्दक मरि गया पलटू दिया है रोय ।
निन्दक जीवै जुगन जुग काम हमारा होय ॥

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कुंडलिया (२२१)
निन्दक रहै जो कुसल से हम को जोखों नाहिं ॥
हम को जोखों नाहिं गाँठि कौ साबुन लावै ।
खरचै अपनो दाम हमारी मैल छुड़ावै ॥
तन मन धन सब देहि संत की निन्दा कारन ।
लेहि संत तेहि तार बड़े वे अधम-उधारन ॥
संत भरोसा बड़ा सदा निन्दक का करते ।
निन्दक की अति प्रीति भाव दूसर नहिं धरते ॥
पलटू वे परस्वारथी निन्दक नरक न जाहिं ।
निन्दक रहै जो कुसल से हम को जोखों नाहिं ॥

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कुंडलिया (२२२)
निन्दक है परस्वारथी करै भक्त का काम ॥
करै भक्त का काम जगत में निन्दा करते ।
जो वे होते नाहिं भक्त कहवाँ से तरते ॥
आप नरक में जाहिं भक्त का करैं निबेरा ।
फिर भक्तन के हेतु करैं चौरासी फेरा ॥
करैं भक्त की सोच उन्हैं कुछ और न भावै ।
देखो उनकी प्रीति लगन जब ऐसी लावै ॥
पलटू धोबी अस मिल्यौ धोक्त है बिनु दाम ।
निन्दक है परस्वास्थी करै भक्त का काम ॥

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॥ मिश्रित ॥
कुंडलिया (२२३)
बनिया पूरा सोई है जो तौलै सत नाम ॥
जो तौले सत नाम छिमा का टाट बिछावै ।
प्रेम तराजू करै बाट बिस्वास बनावै ॥
बिबेक की करै दुकान ज्ञान का लेना देना ।
गादी है संतोष नाम का मारै टेना ॥
लादै उलदै भजन बचन फिर मीठे बोलै ।
कुंजी लावै सुरत सबद का ताला खोलै ॥
पलटू जिसकी बन परी उसी से मेरा काम ।
बनिया पूरा सोई है जो तौलै सत नाम ॥

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कुंडलिया (२२४)
भीतर औं टै तत्व को उठै सबद की खानि ॥
उठै सबद की खानि रहै अंतर लौ लागी ।
सुरति देइ उदगारि१ जोगिनी आपुइ जागी ॥ 
सहज घाट हरि ध्यान ज्ञान से मन परमोधै ।
नहिं संग्रह नहिं त्याग अपनी काया सोधै ॥
प्रेम भभूत लगाइ धरै धीरज मृगछाला ।
तिलक उनमुनी भाल जपत है अजपा माला ॥
पलटू ऐसा होय जो सो जोगी परमान ।
भीतर औं टै तत्व को उठै सबद की खानि ॥

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(१) जगाय ।


कुंडलिया (२२५)
बार बार बिनती करै पलटूदास न लेइ ॥
पलटूदास न लेइ रहै कर जोरे ठाढ़ी ।
सरनागति मैं रहौं सरन बिनु लागै गाढ़ी१
गोड़ दाबि मैं देउँ चरन धै सेवा करिहौं ।
चौका देइहौं लीपि बहुरि मैं पानी भरिहौं ॥
पैंड़ा देउँ बुहारि सबन कै जूठ उठावौं ।
जनि दुरियावहु मोहिं रहै मैं इहवाँ पावौं ॥
मुक्ति रहै द्वारे खड़ी लट से झाड़ू देइ ।
बार बार बिनती करै पलटूदास न लेइ ॥

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(१) गाढ़ = दुख।


कुंडलिया (२२६)
सुरति सुहागिनि उलटि कै मिली सबद में जाय ॥
मिली सबद में जाय कन्त को बसि में कीन्हा ।
चलै न सिव कै जोर जाय जब सक्ती लीन्हा ॥
फिर सक्ती ना रही मिली जब सिव में जाई ।
सिव भी फिर ना रहे सक्ति से सीव कहाई ॥
अपने मन कै फेर और ना दूजा कोई ।
सक्ती सिव है एक नाम कहने को दोई ॥
पलटू सक्ती सीव का भेद गया अलगाय ।
सुरत सुहागिनि उलटि के मिली सबद में जाय ॥ 

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कुंडलिया (२२७)
कहँ खोजन को जाइये घरहीं लागा रंग ॥
घरहीं लागा रंग छुटे तीरथ ब्रत दाना ।
जल पषान सब छुटे आपु में उट्ठि समाना ॥
काम क्रोध को छोड़ि परम सुख मिला अनन्दा ।
लोभ मोह को जारि करम का काटा फंदा ॥
लगै न भूख पियास जगत की आसा त्यागा ।
सबद मँहै गलतान सुरति का पोहै धागा ॥
पलटू दिढ़ ह्वै लगि रहै छुटै नहीं सतसंग ।
कहँ खोजन को जाइये घरहीं लागा रंग ॥

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कुंडलिया (२२८)
मन माया में मिलि गया मारा गया बिबेक ॥
मारा गया बिबेक चोर का पहरू भेदी ।
दोऊ की मति एक सहर में करैं अहेदी१ ॥ 
आँधर नगर के बीच भया धमधूसर२ राजा ।
करै नीच सब काम चलै दस दिसि दरवाजा ॥
अधरम आठो गाँठि न्याव बिनु धीगम सूदा३
टकमि दमारि४ गुलाम आप को भयो असूदा५
जानि बूझि कूआँ परै पलटू चलै न देख ।
मन माया में मिलि गया मारा गया विबेक ॥ 

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(१) एक लिपि में “अलेदी” है । “आहदी” बादशाही वक्त में बहादुर सिपाही होते थे, जो घर बैठे तनखाह पाते थे और सिर्फ भारी मुहिम पर भेजे जाते थे । इनकी जबरदस्ती और जुल्म प्रसिद्ध है । (२) मोटे । (३) धींगम धींगा, मनमाना । (४) टका दमड़ी के लिये । (५) संतुष्ट ।


कुंडलिया (२२९)
देखो जिउ की खोय को फिर फिर गोता खाय ॥
फिर फिर गोता खाय तनिक ना लज्जा आवै ।
पड़िगा वही सुभाव छुटै ना लाख छुटावै ॥ 
निमिख भरे१ को खुसी जन्म कोटिन दुख पावै ।
चौरासी घर जाय आपु में आपु बँधावै ॥
स्वान लाख जो खाय दिया चाटै पै चाटै ।
छुटै न जिउ को खोय पकरि के पुरजे काटै ॥
पलटू भजै न नाम को मूरख नर तन पाय ।
देखो जिउ की खोय को फिर फिर गोता खाय ॥

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(१) छिन भर । 


कुंडलिया (२३०)
मुए पार की बात है फिरै न कोऊ एक ॥
फिरै न कोऊ एक मुक्ति धौं कैसी होती ।
स्याह जरद या सुरख रंग, हीरा या मोती ॥
मुक्ति के हाथ न पाँव मुक्ति को सब कोउ मानै ।
है परदे की बात ताहि से सब कोउ जानै ॥
सब कोउ होय खराब मुक्ति के पाछे जाई ।
जानी केहि बिधि जाय मुक्ति कहु किन ने पाई ॥
पलटू बातैं मुक्ति की खसर फसर२ करि देख ।
मुए पार की बात है फिरै न कोऊ एक ॥

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(२) सरपट ।


कुंडलिया (२३१)
चिन्ता रूपी अगिन में जरै सकल संसार ॥
जरै सकल संसार जरत निरपति को देखा ।
बादसाह उमराव जरत हैं सैयद सेखा ॥
सुर नर मुनि सब जरैं जोगी औ जती सन्यासी ।
पंडित ज्ञानी चतुर जरै कनफटा उदासी ॥
जंगम सिवरा जरै जरै नागा बैरागी ।
तपसी दूना जरै बचै नहिं कोऊ भागी ॥
पलटू बचते संत जन जेकरे नाम अधार ।
चिन्ता रूपी अगिन में जरै सकल संसार ॥

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कुंडलिया (२३२)
जा को निरगुन मिला है भूला सरगुन चाल ॥
भूला सरगुन चाल बचन ना मुख से आवै ।
तसबी१ और किताब नहीं काजी को भावै ॥
पंडित पढ़ै न बेद तीरथ बैरागी त्यागा ।
कायथ कलम न लेय राज तजि राजा भागा ॥
बेस्वा तजा सिंगार सिद्ध की गइ सिद्धाई ।
रागी भूला राग जननि सुत देइ बहाई ॥
पलटू भूली गीथिनी२ कहूँ भात कहुँ दाल ।
जा को निरगुन मिला है भूला सरगुन चाल ॥

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(१) माला । २) होशियार औरत ।


कुंडलिया (२३३)
अमृत को सागर भर् यो देखे प्यास न जाय ॥
देखे प्यास न जाय पिये बिनु कौन बतावै ।
कल्प बृच्छ को देखि खाये बिनु भूख न जावै ॥
और की दौलत देखि दरिद्दर नाहिं नसाई ।
अन्धा पावै आँखि साच वा की बैदाई ॥
लोहा कंचन होय पारस की करै सरहना ।
क्या मलया की सिफत काठ को काठै रहना ॥
सतगुरु तुम्हरे बचन को पलटू ना पतियाय ।
अमृत को सागर भर् यो देखे प्यास न जाय ॥ 

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कुंडलिया (२३४)
जैस नद्दी एक है बहुतेरे हैं घाट ॥
बहुतेरे हैं घाट भेद भक्तन में नाना ।
जो जेहि संगत परा ताहि के हाथ बिकाना ॥
चाहै जैसी करै भक्ति सब नामहिं केरी । 
जा की जैसी बूझ मारग सो तैसी हेरी ॥
फेर१ खाय इक गये एक ठौ गये सिताबी । 
आखिर पहुँचे राह दिना दस भई खराबी ॥
पलटू एकै टेक ना जेतिक२ भेष तै बाट ।
जैसे नद्दी एक है बहुतेरे हैं घाट ॥

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(१) चक्कर । (२) जितने ।


कुंडलिया (२३५)
साध बचन साचा सदा जो दिल साचा होय ॥
जो दिल साचा होय रहै ना दुबिधा भागै ।
जो चाहै सो मिलै बात में बिलंब न लागै ॥
मन बचन कर्म लगाय संत की सेवा लावै ।
उकठा काठ बियास३ साच जो दिल में आवै ॥
जिनको है बिस्वास तेही को बचन फुरानी४
ह्वैगा उन का काम सन्त की महिमा जानी ॥
पलटू गाँठि में बाँधिये खाली पड़ै न कोय ।
साध बचन साचा सदा जो दिल साचा होय ॥

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 (३) उगै । (४) सच्चा ।


कुंडलिया (२३६)
महीं भुलाना फिरत हौं कि जगतै गया भुलाय ॥
जगतै गया भुलाय देखि सब हँसते हैं हम कँह ।
उनकी करनी देखि हँसत हैं हमहूँ उन कँह ॥
बाय जोगी को जगत जगत को जोगी बाई ।
दोऊ को झौंसे आनि कहाँ अब तीसर पाई ॥
एक साहु सौ चोर चोर को साहु बनावै ।
जगत भगत से बैर आपनी दूनौ गावै ॥
पलटू तीसर है नहीं साखी भरै जो आय ।
महीं भुलाना फिरत हौं कि जगतै गया भुलाय ॥

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कुंडलिया (२३७)
जगत भगत से बैर है चारो जुग परमान ॥
चारो जुग परमान बैर ज्यों मूस बिलाई ।
नेवर भुवंगम बैर कँवल हिम१ कर अधिकाई ॥
हस्ती केहरि२ बैर बैर है दूध खटाई ॥
भैंस घोड़ से बैर चोर पहरू से भाई ॥
पाप पुन्य से बैर अगिन औ बैरी पानी ।
संतन यही बिचार जगत की बात न मानी ॥
पलटू नाहक भूँकता जोगी देखे स्वान ।
जगत भगत से बैर है चारो जुग परमान ॥

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(१) पाला । (२) बाघ ।


कुंडलिया (२३८)
लेहु परोसिनि झोपड़ा नित उठि बाढ़त रार ॥
नित उठि बाढ़त रार काहिको सरबरि कीजै ।
तजिये ऐसा संग देस चलि दूसर लीजै ॥
जीवन है दिन चार काहे को कीजै रोसा ।
तजिये सब जंजाल नाम कै करौ भरोसा ॥
भीख माँगि बरु खाय खटपटी नीक न लागै ।
भरी गोन गुड़ तजै तहाँ से साँझै भागै ॥
पलटू ऐसन बूझि कै डारि दिहा सिर भार ।
लेहु परोसिनि झोपड़ा नित उठि बादत रार ॥ 

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कुंडलिया (२३९)
सिध चौरासी नाथ नौ बीचै सभै भुलान ॥
बीचै सभै भुलान भक्ति की मारग छूटी ।
हीरा दिहिन है डारि लिहिन इक कौड़ी फूटी ॥
राँड़ माँड़ खुसी जक्त इतनै में राजी ।
लोक बड़ाई तुच्छ नरक में अटकी बाजी ॥ 
झूठ समाधि लगाय फिरै मन अंतै भटका ।
उहाँ न पहुँचा कोय बीच में सब कोइ अटका ॥
पलटू अठएँ लोक में पड़ा दुपट्टा तान ।
सिध चौरासी नाथ नौ बीचै सभै भुलान ॥ 

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कुंडलिया (२४०)
हंस चुगैं ना घोंघी सिंह चरै न घास ॥
सिंह चरैं ना घास मारि कुंजर को खाते ।
जो मुरदा ह्वै जाय ताहि कै निकट न जाते ॥
वे ना खाहिं असुद्ध रीत कुल की चलि आई ।
खाये बिनु मरि जाहिं दाग ना सकहिं लगाई ॥
सन्त भजन सिरताज धरन धारी सो धारी ।
नई बात जो करैं मिलत है उनको गारी ॥
भीख न माँगैं सन्त जन कहि गये पलटूदास ।
हंस चुगैं ना घोंघी सिंह चरै न घास ॥

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कुंडलिया (२४१)
कृस्न कन्हैया लाल है वह गोकुल के घाट ॥
वह गोकुल के घाट जाइ के गोता मारै ।
जीवन आसा त्यागि बूड़ि के ढूंढ़ निकारै ॥
मान बड़ाई छोड़ि चित्त हरि चरनन लावै ।
कुंजगली के बीच जाय तब पिय को पावै ॥
देखै पिय को रूप सुन्दर बहु स्याम सलोना ।
बरै तेल की टेम आगि में बरता सोना ॥
कहि पलटू परसाद यह पावै प्रेम की बाट ।
कृस्न कन्हैया लाल है वह गोकुल के घाट ॥

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कुंडलिया (२४२)
गिरहस्थी में जब रहे पेट को रहे हैरान ॥
पेट को रहे हैरान तसदिय१ से मिल्यौ अहारा ।
साग मिल्यौ बिनु लोन रही तब ऐसी धारा ॥
आये हरि की सरन बहुत सुख तब से पाई ।
लुचुई२ चारो जून खाँड ओ खोवा खाई ॥
लेड्डू पेड़ा बहुत सेंत३ कोउ खाता नाहीं ।
जलेबी चीनी कन्द भरा है घर के माहीं ॥
पलटू हरि की सरन में हाजिर सब पकवान ।
गिरहस्थी में जब रहे पेट को रहे हैरान ॥

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(१) कष्ट । (२) पूरी । (३) मुफ्त ।


कुंडलिया (२४३)
भरि भरि पेट खिलाइये तब रीझैगा भेष ॥
तब रीझैगा भेष जगत में करै बड़ाई ।
लाख भगत जो होय खाये बिनु निंदत जाई ॥
रहनि लखै नहिं कोय नाहिं टकसार बिचारै ।
भाव भक्ति ना लखै खोजत सब फिरै अहारै ॥
भेष में नाहिं बिबेक भये दस बीस विबेकी ।
कोटिन में दस बीस सन्त तिन रहनी देखी ॥
पलटू रहै अपान में आन में मारै मेख ।
भरि भरि पेट खिलाइये तब रोझैगा भेष ॥
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कुंडलिया (२४४)
कौड़ी गाँठिन राखई हमा-नियामत४ खाय ॥
हमा-नियामत खाय नहीं कुछ जग की आसा ।
छत्तिस ब्यंजन रहै सबर से हाजिर खासा ॥
जेकरे है सत नाम नाम की चेरी माया ।
जोरू कहवाँ जाय खसम जब कैद में आया ॥
माया आवै चली रैनि दिन में दुरियावों ।
सतगुरु दास कहाय नहीं मैं माँगन जावों ॥
राजा औ उमराव हाथ सब बाँधे आवैं ।
द्वारे से फिरि जायें नहीं फिर मुजरा पावैं ॥
जंगल में मंगल करै पलटू बेपरवाय ।
कौड़ी गाँठिन राखई हमा-नियामत खाय ॥

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 (४) छप्पन प्रकार का भोजन । 


कुंडलिया (२४५)
जब देखो तब सादी नौबत आठौ पहर ॥
नौबत आठौ पहर गैब की निसु दिन झरती ।
पचरँग जोड़ा खुसी दुरवेस को सादी चढ़ती ॥
आफताब१ भा सूर२ रोसनी दिल में आई ।
फिरै गैब का छत्र जिकर३ का मुस्क४ लगाई ॥
अन्दर झूलै फील५ खाब में खतरा नाहीं ।
सबर है पीठी पलँग सेहरा नाम इलाही ॥
पलटू जलवा नूर का ज्यों दरियाव में लहर ।
जब देखो तब सादी नौबत आठौ पहर ॥

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(१) सूरज । (२) अंधा । (३) सुमिरन । (४) कस्तूरी । (५) हाथी ।  


कुंडलिया (२४६)
रन का चढ़ना सहज है मुसकिल करना जोग ॥
मुसकिल करना जोग चित्त को उलटि लगावै ।
बिषय बासना तजै प्रान ब्रह्मण्ड चढ़ावै ॥ 
साधै वायू प्रान कुण्डली करै उथपना६
अष्ट कँवल दल उलटि कँवल दल द्वादस लखना ॥
इँगला पिंगला सोधि बंक के नाल चढ़ावै ।
चार कला को तोड़ि चक्र पट जाय बिधावै ॥
पलटू जो संजम करै करै रूप से भोग । 
रन का चहना सहज है मुसकिल करना जोग ॥

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(६) कुण्डलिन नाड़ी का मुंह ऊपर करै । 


कुंडलिया (२४७)
आगि लागि मसि जरि गई कागद जरै न कोय ॥
कागद जरै न कोय कागद है बहुत पुराना ।
अक्खर आवै जाय अखर को नाहिं ठिकाना ॥
वो भी जरै बनाय अखर का लिखनेहारा ।
बाँचै सो जरि जाय जरै जो करै बिचारा ॥
कोटिन अक्खर बाद अन्त कागद भी जरता ।
कागद जरे के बाद रहै कागद का करता ॥
पलटू जब कागद जरै वा दिन मेरा होय ।
आगि लागि मसि जरि गई कागद जरै न कोय ॥

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कुंडलिया (२४८)
तबक चारदह अन्दर है अस्थल बे दरियाव ॥
अस्थल बे दरियाव अर्श कुर्सी खुद दीदन । 
तूबा दरखत अज हद शीरीं शोरी मेवा खुर्दन ॥
नूर तजल्ली रूह लाहूत रसीदा नादिर ।
रौशन-जमीर बेचूँ सीना-साफ काजी कादिर ॥
हूहू गुफ्तन फ़ना रूह को सोई बातिन ।
पाक अल्लाह मकान तहाँ को भी वो साकिन ॥
पलटू आरिफ़ से कहै तू भी चाहो जाव ।
तबक चारदह अन्दर है अस्थल बे दरियाव ॥

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(१) अक्षर । (२) कुण्डलिया नं० २४८ चौदहवें भवन में बिना पानी के धरती है जहाँ खुदा का तख्त [अर्श व कुर्सी] दीख पड़ता है और कल्प बृक्ष [तुबा दरख्त] का अत्यन्त स्वादिष्ट फल खाने को मिलता है [खुर्दन] । उस शून्य लोक [लाहूत] में पहुंची हुई [रसीद] सूरत का प्रकाश विचित्र हो जाता है और वह अंतर-यामी, अद्वितीय [बेचूँ] निर्मल हृदय [रौशन जमीर] अधिष्ठाता [काजी] और सर्वशक्तिमान [कादिर] हो जाती है । वही पावन स्थान अल्लाह का है जहाँ ॐ ॐ का शब्द गाजता है [हूहू गुफ्तन] और सुरत बिदेह होने पर वहीं बासा पाती है [साकिन] ।


कुंडलिया (२४९)
बस्ती माहिं चमार की बाम्हन करत बेगार ॥
बाम्हन करत बेगार लोग सब गैर-बिचारी ।
मूरख है परधान देहि ज्ञानी को गारी ॥
अद्वैता को मेटि द्वैत कै करते थापन ।
दौलत के सम्बन्ध अमल वे करते आपन ॥
ज्ञानि महरसी१ सन्त ताहि की निन्दा करते ।
अज्ञानी के मध्य सिफत वे अपनी धरते ॥
पलटू पीतर कनक को कोउ न करै बिचार ।
बस्ती माहिं चमार की बाम्हन करत बेगार ॥ 

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(१) महर्षि = मह ऋषि ।


कुंडलिया (२५०)
कुत्ता हाँड़ी फँसि मुवा दोस परोसि क देय ॥
दोस परोसि क देय आपनौ हठ नहिं मानै ।
न्योत रही लगवार खसम से परदा तानै ॥
कपड़ा की सुधि नाहिं नंगी ह्वै पड़ी उतानी ।
कोऊ मने जो करै बोलती करकस बानी ॥
माया कै लग भूत खसम कौ नाहिं डेराती ।
घर की सम्पति छाड़ि और की जोगवै थाती ॥
पलटू कूसंगति पड़ी पिउ कै नाम न लेय ।
कुत्ता हाँड़ी फँसि मुवा दोस परोसि क देय ॥ 

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श्री सद्गुरु महाराज की जय!
* गुरु आश्रित महाशय कैलाश प्रसाद चौधरी जी , कटिहार (बिहार) की सहायता एवं पूर्ण समर्पण से पुष्पित *