पलटू साहब की कुण्डलिया

Jay Guru!


कुंडलिया (१५१)
समुझे को समुझावैं हीरा आगे पोत ॥
हीरा आगे पोत ज्ञानी को मूढ़ बुझावै ।
जहवाँ आँधी चलै बेना के बतास३ चलावै ॥
अटकर सेती अंध डिठियारे४ राह बतावै ।
जैसे पंडित चतुर संत से बाद५ न आवै ॥
सुधा क पीवनहार ताहि को छाछ दिखावै ।
जेकरे बाजै तूर तहाँ का डफ्फ बजावै ॥
पलटू दीपक का कर जह सूरज की जोत ।
समुझे को समुझावै हीरा आगे पोत ॥

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(३) पंखे की हवा । (४) आँख वाले को । (५) बाज न आवै, पीछे पड़ा रहै ।


कुंडलिया (१५२)
अपनी अपनी करनी अपने अपने साथ ॥ 
अपने अपने साथ करै सो आगे आवै ।
बाप कै करनी बाप पूत के पूतै पावै ॥
जोरू कै जोरुहिं फलै खसम कै खसम कौ फलता ।
अपनी करनी सेती जीव सब पार उतरता ॥
नेकी बदी है संग और ना संगी कोई ।
देखौ बूझि बिचारि संग ये जैहैं दोई ॥
पलटू करनी और की नहीं और के माथ ।
अपनी अपनी करनी अपने अपने साथ ॥ 

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कुंडलिया (१५३)
सरबंगी जो नाम कै रहनी सहित बिबेक ॥
रहनी सहित बिबेक एक करि सब कौ मानै ।
खान पियन में जुदा नहीं एक में सानै ॥
लिये रहै मर्जाद तजै ना नेम अचारा ।
धर्म सनातन सहित असुभ सुभ करै बिचारा ॥
बोलै सब्द अघोर भजन अद्वैता अंगी ।
कारज निर्मल करै सोई पूरा सरबंगी ।
पलटू बाहर कुल धरम भीतर राखै एक ।
सरबंगी जो नाम कै रहनी सहित बिबेक ॥

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॥ शरण और ब्रत (टेक) ॥
कुंडलिया (१५४)
करम धरम सब छाड़ि कै पड़े सरन में आय ॥
पड़े सरन में आय तजी बल बुधि चतुराई ।
जप तप नेम अचार नहीं जानौं कछु भाई ॥
पूजा ज्ञान न ध्यान तिलक नहिं देवै जानौं ।
जोग जुगत कछु नहीं नहीं तीरथ ब्रत मानौं ।
एक भरोसा पाय दिया सिर भार लराई१
पंछी को पछ२ गया रहा इक नाम सहाई ॥
पलटू मैं जियतै मुवा नाम भरोसा पाय ।
करम धरम सब छाडि कै पड़े सरन में आय ॥ 

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(१) गिरा दिया । (२) पंख ।


कुंडलिया (१५५)
पलटू सोवै मगन में साहिब चौकीदार ।।
साहिब चौकीदार मगन होइ सोवन लागे ।
दूनों पाँव पसार देखि कै दुस्मन भागे ॥
जागै सिर पर राम ताहि को बार न बाँकै ।
गाफिल में मैं रहौं आपनी आपुइ ताकै ॥
हम को नाहीं सोच सोच सब उन को भारी ।
छिन भरि परै न भोर२ लेत है खबर हमारी ॥
लाज तजा जिन राम पर डारि दिहा सिर भार ।
पलटू सोवै मगन में साहिब चौकीदार ॥

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(१) पंख । (२) भूल ।


कुंडलिया (१५६)
कोउ कितनौ चुगुली करै सुनै न बात३ हमार ॥
सुनै न बात हमार गये जब से सरनाई ।
सब ऐगुन करि माफ लिहिन मोकँह अपनाई ॥
करत फिरौं अन्याय काम ना क्रोध बिचारा ।
कैसेउ पूत कपूत पिता को आखिर प्यारा ।
लोभी लंपट चोर कुकरमी जातिन नीचा ।
अपने सरन की लाज जानि पद दीन्हेउ ऊँचा ॥
पलटू हम से राम से ऐसो भा ब्योहार ।
कोउ कितनौ चुगुली करै सुनै न बात हमार ॥ 

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 (३) शिकायत ।


कुंडलिया (१५७)
जौन काछ को काछिये नाच नाचिये सोय ॥
नाच साचिये सोय तबै तौ सोभा पावै ।
बिना काछ कै नाच भाँड़ कै स्वाँग बनावै ॥ 
आदि अंत मधि माहिं जो हरि कौ बर्त निबाहै ।
जीवन ता कौ सुफल निगम दिन राति सराहै ॥
बात जीव के संग नाहिं जो हारि ललकरी१
हरि भक्तन की रीति टेक पकरी सो पकरी ॥
पलटटूकाछ औ नाच से तनिक न तजविज२ होय ।
जौन काछ कौ काछिये नाच नाचिये सोय ॥ 

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(१) हौसला । (२) तजावज = फर्क ।


कुंडलिया (१५८)
साधु को ऐसा चाहिये ज्यों सिसु३ अड़नि अड़ै ॥
ज्यों सिसु अड़नि अड़ै टेक अपनी नहिं टारै ।
पुरजे पुरजे कटै कोऊ कितनौ जो मारै ॥
धरन धरी सो धरी वही हरि के ब्रत धारी ।
धोये तनिक न छुटै रंग जब चढ़ा करारी ॥
धरन नीबाहै और साँच में दाग न लागै ॥
ज्यों पतिबर्ता नारि डिगै ना लाख डिगावै ॥
पलटू लोह की मेख ज्यों पत्थर बीच गड़ै ।
साधु को ऐसा चाहिये ज्यों सिसु अड़नि अड़ै ॥

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 (३) बालक ।


॥ बिनय ॥
कुंडलिया (१५९)
पतितपावन बाना धर्यो तुमहिं परी है लाज ॥
तुमहिं परी है लाज बात यह हम ने बूझी ।
जब तुम बाना धर्यो नाहिं तब तुम कहँ सूझी ॥
अब तो तारे बनै नहीं तो बाना उतारौ ।
फिर काहे को बड़ा बाच जो कहिकै हारौ ।
आगहिं तुम गये चूक दोष नहिं दीजै मेरो ।
तुम यह जानत नाहिं पतित होइहैं बहुतेरो ॥
पलटू मैं तो पतित हौं किये असुभ सब काज ।
पतितपावन बाना धर्यो तुमहिं परी है लाज ॥ 

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कुंडलिया (१६०)
दीनन पर दाया करौ सुनिये दीनदयाल ॥
सुनिये दीनदयाल दीन को बहुत निवाजा ।
भया भभीषन दीन किया लंकापति राजा ॥
रिपु रावन की बधू दीन ह्वै बिनती कीन्हा ।
सिलोचना पति सीस मुक्ति सायुज्य सो दीन्हा ॥
ब्रह्मौ कीन्हौ द्रोह गयौ बछरा हरि आनी१
दीन भया जब आय मित्रता वा से मानी ॥
पलटू पावै भक्ति को लेहु जक्त जंजाल ।
दीनन पर दाया करौ सुनिये दीनदयाल ॥

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(१) कथा है कि ब्रह्मा श्रीकृष्ण की परीक्षा के लिये उन के सब बछड़े हर कर अपने लोक को ले गये जिस पर श्रीकृष्ण ने वैसे ही बछड़े तुर्त रच लिये। यह लीला देख कर ब्रह्मा बहुत लज्जित हुए ।


कुंडलिया (१६१)
पलटू पूछै हंस से बिनती कै कर जोर ॥
बिनती कै कर जोर साच तुम बात बतावौ ।
भई साहिबी तोर नर्क से जीव बचावौ ॥
अंधा पंगुल लूल सबन को मिलै ठिकाना ।
इक इक सब के हाथ नाम का द्यो परवाना ॥
संत रूप अवतार लियौ परस्वारथ काजा ।
चौरासी चौखान सबन के तुम हौ राजा ॥
जीव तरै जब जक्त कौ तब तुम बंदीछोर ।
पलटू पूछै हंस से बिनती कै कर जोर ॥

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॥ दीनता ॥
कुंडलिया (१६२)
मन मिहीन करि लीजिये जब पिउ लागै हाथ ॥ 
जब पिउ लागै हाथ नीच ह्वै सब से रहना ।
पच्छा पच्छी त्यागि ऊँच बानी नहिं कहना ॥
मान बड़ाई खोय खाक मैं जीते मिलना ।
गारी कोउ दै जाय छिमा करि चुपके रहना ॥
सब की करै तारीफ आप को छोटा जानै ।
पहिले हाथ उठाय सीस पर सब को आनै ॥
पलटू सोई सुहागिनी हीरा झलकै माथ ।
मन मिहीन करि लीजिये जब पिउ लागै हाथ ॥

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कुंडलिया (१६३)
जोग जुगत ना ज्ञान कछु गुरु दासन को दास ॥
गुरु दासन को दास सन्तन ने कीन्ही दाया ।
सहज बात कछु गहिनि छुड़ाइनि हरि की माया ॥
ताकिनि तनिक कटाच्छ भक्ति भूतल२ उर जागी ।
स्वस्ता३ मन में आई जगत की भ्रमना भागी ॥
भक्ति अभय पद दीन्ह सनातन मारग वा की ।
अबिरल ओकर नाम लगै ना कबहीं टाँकी ॥
पलटू ज्ञान न ध्यान तप महा पुरुष कै आस ।
जोग जुगत ना ज्ञान कछु गुरु दासन को दास ॥ 

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(१) प्रनाम करै । (२) पृथ्वी भर को । (३) शांति ।


कुंडलिया (१६४)
दूसर पलटू इक रहा भक्ति दई तेहि जान ॥
भक्ति दई तेहि जान नाम पर पकर्यो मोकहँ ।
गिरा परा धन पाय छिपायौं मैं ले ओकहँ ॥
लिखा रहा कुछ प्रान कर्म में दीन्हा आनै ।
जानौं महीं अकेल कोऊ दूसर नहिं जानै ॥
पाछे भा फिर चेत देय पर नाहीं लीन्हा ।
आखिर बड़े की चूक जोई निकसा सोइ कीन्हा ॥
पलटू मैं पापी बड़ा भूल गया भगवान ।
दूसर पलटू इक रहा भक्ति दई तेहि जान ॥

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॥ मान ॥
कुंडलिया (१६५)
मान बड़ाई कारने पचि मूआ संसार ।।
पचि मूआ संसार जती जोगी सन्यासी ।
उनहूँ को है चाह गुफा के भीतर बासी ॥
सिद्ध सिद्धई करै पर्भुता कारन जाई ।
गोड़ धरावन हेतु महंत उपदेस चलाई ॥
राजा रंक फकीर फिरै जो खाक लगाये ।
सब के मन में चाह है खुसी बड़ाई पाये ॥
पलटू हरि के भक्त से गई पर्भुता हार ।
मान बड़ाई कारने पचि मूआ संसार ॥ 

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कुंडलिया (१६६)
खुदी खोय१ को खोवै सोई है दुरवेस ॥
सोई है दुरवेस रूह की करै सफाई ।
दिल अंदर दीदार नबी का दरसन पाई ॥
बिन बादल बरसात अबर बिन बरसत पानी ।
गरमी आतस बिना जबाँ बिन बोलत बानी ॥
लामकान२ बेचून३ लाहुत४ को दिल दौड़ावै ।
फना को करै कबूल सोई वह काबा पावै ॥
पलटू जारै फिकर को रहै जिकर५ में पेस ।
खुदी खोय को खोवै सोई है दुरवेस ॥

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(१) आदत । (२) अनार पद । (३) अद्वितीय । (४) सून्य । (५) सुमिरन ।


कुंडलिया (१६७)
सब कोइ पीवै कूप जल खारी पड़ा समुन्द ॥
खारी पड़ा समुन्द बड़े सो काम के नाहीं ।
जैसे बड़ी खजूर पथिक को मिलै न छाँहीं ॥
भक्त कहावैं बड़े भेष ना खाय को पावैं ।
पूजैं नाहीं साध बड़े घर ही कहवावैं ॥
खान पियन को नाहिं बचन करकसे सुनावैं ।
पर्बत बड़े कठोर नजर दूरहि से आवैं ॥
पलटू संपति सूम की खरचै ना इक बुन्द ।
सब कोइ पीवै कूप जल खारी पड़ा समुन्द ॥

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कुंडलिया (१६८)
बढ़ते बढ़ते बढ़ि गये जैसे बढ़ी खजूर ॥
जैसे बढ़ी खजूर पथिक छाया नहिं पावै ।
ज्यों ज्यों कै जो फरै ताहि कैसे कोउ खावै ॥
पात में काँटा रहै छुवत कै लोहू आवै ।
पेड़ सोऊ बेकाम कुवा को धरन बनावै ॥
सम्पति में बढ़ि जाय दया बिन भला भिखारी ।
जातिहु में बढ़ि जाय भक्ति बिन भला चमारी ॥
पलटू सोभा दोऊ की दया भक्ति से पूर ।
बढ़ते बढ़ते बढ़ि गये जैसे बढ़ी खजूर ॥

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॥ भेद ॥
कुंडलिया (१६९)
उलटा कूवा गगन में तिस में जरै चिराग ॥
तिस में जरै चिराग बिना रोगन बिन बाती ।
छः रितु बारह मास रहत जरतै दिन राती ॥
सतगुरु मिला जो होय ताहि की नजर में आवै ।
बिन सतगुरु कोउ होय, नहीं वा को दरसावै ॥
निकसै एक अबाज चिराग की जोतिहिं माहीं ।
ज्ञान समाधी सुनै और कोउ सुनता नाहीं ॥
पलटू जो कोई सुनै ता के पूरे भाग ।
उलटा कूवा गगन में तिस में जरै चिराग ॥

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कुंडलिया (१७०)
बंसी बाजी गगन में मगन भया मन मोर ॥
मगन भया मन मोर महल अठवें पर बैठा ।
जहँ उठै सोहंगम सब्द सब्द के भीतर पैठा ।
नाना उठै तरंग रंग कुछ कहा न जाई ।
चाँद सुरज छिपि गये सुषमना सेज बिछाई ॥
छूटि गया तन येह नेह उनहीं से लागी ।
दसवाँ द्वारा फोड़ि जोति बाहर ह्वै जागी ॥
पलटू धारा तेल की मेलत ह्वै गया भोर ।
बंसी बाजी गगन में मगन भया मन मोर ॥ 

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कुंडलिया (१७१)
चढ़ै चौमहले महल पर कुंजी आवै हाथ ॥
कुंजी आवै हाथ सब्द का खोलै ताला ।
सात महल के बाद मिलै अठएँ उँजियाला ॥
बिनु कर बाजै तार नाद बिनु रसना गावै ।
महा दीप इक बरै दीप में जाय समावै ॥
दिन दिन लागै रंग सफाई दिल की अपने ।
रस रस मतलब करै सिताबी१ करै न सपने ॥
पलटू मालिक तुही है कोई न दूजा साथ ।
चढ़ै चौमहले महल पर कुंजी आवै हाथ ॥

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(१) जल्दी ।


कुंडलिया (१७२)
चाँद सुरज पानी पवन नहीं दिवस नहिं रात ॥ 
नहीं दिवस नहिं रात नाहिं उतपति संसारा ।
ब्रह्मा बिस्नु महेस नाहिं तब किया पसारा ॥ 
आदि जोति बैकुंठ सुन्य नाहीं कैलासा ।
सेस कमठ दिग्पाल नाहिं धरती आकासा ॥
लोक बेद पलटू नहीं कहौं मैं तब की बात ।
चाँद सुरज पानी पवन नहीं दिवस नहिं रात ॥

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कुंडलिया (१७३)
बिनु कागद बिनु अच्छरे बिनु मसि से लिखि देय ॥
बिनु मसि से लिखि देय सोई पंडित कहवाई ।
बिनु रसना कहै बेद अकथ की कथा सुनावै ॥
छुटी बात अस्थूल सूछम में मिला ठिकाना ।
फिर पोथी क्या पढ़ै अच्छर में आप समाना ॥
निःअच्छर अब मिला अच्छर को क्या ले करना ।
हीरा लागा हाथ पोत की कौन सरहना१
पलटू पंडित सोई है कलम हाथ नहिं लेय ।
बिनु कागद बिनु अच्छरे बिनु मसि से लिखि देय ॥

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(१) क़दर, तारीफ़ ।


कुंडलिया (१७४ )
झंडा गड़ा है जाय के हद बेहद के पार ॥
हद बेहद के पार तूर जहँ अनहद बाजै ॥
जगमग जोति जड़ाव सीस पर छत्र बिराजै ।
मन बुधि चित रहे हार नहीं कोउ वह घर पावै ॥
सुरत सब्द रहै पार बीच से सब फिरि आवै ।
बेद पुरान की गम्म सकै ना उहवाँ जाई ॥
तीन लोक के पार तहाँ रोसन रोसनाई ।
पलटू ज्ञान के परे है तकिया तहाँ हमार । 
झंडा गड़ा है जाय के हद बेहद के पार ॥

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कुंडलिया (१७५ )
जागत में एक सूपना मोहिं पड़ा है देख ॥
मोहिं पड़ा है देख नदी इक बड़ी है गहिरी ।
ता में धारा तीन बीच में सहर बिलौरी ॥
महल एक अँधियार बरै तहँ गैब की बाती ।
पुरुष एक तहँ रहै देखि छबि वा की माती ॥
पुरुष अलापै तान सुना मैं एक ठो जाई ।
वाहि तान के सुनत तान में गई समाई ॥
पलटू पुरुष पुरान वह रंग रूप नहिं रेख ।
जागत में एक सूपना मोहिं पड़ा है देख ॥

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॥ अद्वैत ॥
कुंडलिया (१७६)
जल से उठत तरंग है जल ही माहिं समाय ॥
जल ही माहिं समाय सोई हरि सोई माया ।
अरुझा बेद पुरान नहीं काहू सुरझाया ॥
फूल मँहै ज्यों बास काठ में आग छिपानी ।
दूध मँहै घिउ रहै नीर घट माहिं लुकानी ॥
जो निर्गुण सो सर्गुन और न दूजा कोई ।
दूजा जो कोई कहै ताहि को पातक होई ॥
पलटू जीव और ब्रह्म से भेद नहीं अलगाय ।
जल से उठत तरंग है जल ही माहिं समाय ॥ 

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कुंडलिया (१७७)
कोटिन जुग परलय गई हमहीं करनेहार ॥
हमहीं करनेहार हमहिं करता के करता ।
जेकर करता नाम आदि में हम हीं रहता ॥
मरिहैं ब्रह्मा बिस्नु मृत्यु ना होय हमारी ।
मरिहैं सिय१ के लाल मरैगी सिव की नारी ॥
धरती अगिन अकास मुवा है पवन और पानी । 
आदि जोति मरि गई रही देवतन की नानी ॥
पलटू हम मरते नहीं ज्ञानी लेहु बिचार ।
कोटिन जुग परलय गई हम हीं करनेहार ॥ 

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(१) सिया नाम सीताजी का है — एक पाठ में “सिव” हैं ।  


कुंडलिया (१७८)
आदि अंत हम हीं रहे सब में मेरो बास ॥
सब में मेरो बास और ना दूजा कोई ।
ब्रह्मा बिस्नु महेस रूप सब हमरै होई ।
हमहीं उतपति करैं करैं हमहीं संहारा ।
घट घट में हम रहैं रहैं हम सब से न्यारा ॥
पारब्रह्म भगवान अंस हमरै कहवाये ।
हमहीं सोहं सब्द जोति ह्वै सुन्न में आये ॥
पलटू देह के धरे से वे साहिब हम दास ।
आदि अंत हम हीं रहे सब में मेरो बास ॥

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॥ उलटावती ॥
कुंडलिया (१७९)
गंगा पाछे को बही मछरी चढ़ी पहार ॥
मछरी चढ़ी पहार चूल्ह में फन्दा लाया ।
पुखरा भीटे बाँधि नीर में आग छिपाया ॥
अहिरिनि फेकै जाल कुहारिन भैंसि चरावै ।
तेली कै मरिगा बैल बैठि के धुबइन गावै ॥
महुवा में लागा दाख२ भाँग में भया लुबाना३
साँप के बिल के बीच जाय के मूस लुकाना ॥
पलटू संत बिबेकी बुझिहैं सबद सम्हार ।
गंगा पाछे को बही मछरी चढ़ी पहार ॥

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(२) मुनक्का । (३) एक प्रकार की गोंद जो सुगन्धि के लिए जलाई जाती है ।


कुंडलिया (१८०)
खसम विचारा मरि गया जोरू गावै तान ॥
जोरू गावै तान फिरा अहिबात१ हमारा ।
झूठ सकल संसार माँग भरि सेंदुर धारा ॥
हम पतिबरता नारि खसम को जियतै मारी ।
वा को मूडौं मूड़ सरबर जो करै हमारी ॥
दुतिया गइ है भागि सुनौ अब राँध परोसिन ।
पिया मरे आराम मिला सुख मोकहँ दिन दिन ॥
पलटू ऐसे पद कँहै बूझै सोइ निरबान ।
खसम बिचारा मरि गया जोरू गावै तान ॥

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(१) सुहाग ।


कुंडलिया (१८१)
खसम मुवा तौ भल भया सिर की गई बलाय ॥
सिर की गई बलाय बहुत सुख हम ने माना ।
लागे मंगल होन बजन लागे सदियाना२
दीपक बरै अकास महल पर सेज बिछाया ।
सूतौं महीं अकेल खबर जब मुए की पाया ॥
सूतौं पाँव पसारि भरम की डोरी टूटी ।
मने कौन अब करै खसम बिनु दुबिधा छूटी ॥
पलटू सोई सुहागिनी जियतै पिय को खाय ।
खसम मुवा तौ भल भया सिर की गई बलाय ॥

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 (२) खुशी का बाजा ।


॥ मन ॥
कुंडलिया (१८२)
मन मारे मरता नहीं कीन्हे कोटि उपाय ॥
कीन्हे कोटि उपाय नहीं कोइ मन की जानै ।
मन के मन में और कोई जनि मन की मानै ॥
हाड़ चाम नहिं मास नहीं कछु रूप न रेखा ।
कैसे लागै हाथ नहीं कोउ मन को देखा ॥
छिन में कथै बैराग छिनै में होवै राजा ।
छिन में रोवै हँसै छिनै में आपु बिराजा ॥
पलटू पलकै भरे में लाख कोस पर जाय । 
मन मारे मरता नहीं कीन्हे कोटि उपाय ॥ 

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॥ माया ॥ 
कुंडलिया (१८३)
माया ठगनी जग ठगा इकहै१ ठगा न कोय ॥
इक है ठगा न कोय लिये है तिर्गुन गाँसी ।
सुर नर मुनि देय डिगाय करै यह सब की हाँसी ॥
इंद्रहु को यह ठगा ठगा दुर्बासै जाई ।
नारद मुनि को ठगा चली ना कछु चतुराई ॥
सिवसंकर को ठगा बड़े जो नेजाधारी ।
सिंगी ऋषी जवान२ बीछ कै बन में मारी ॥
पलटू इह को सो ठगा जो साचा भक्त होय ।
माया ठगनी जग ठगा इकहै ठगा न कोय ॥

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(१) इसको । (२) बहादुर ।


कुंडलिया (१८४)
माया बड़ी बहादुरी लूटि लिहा संसार ॥
लूटि लिहा संसार केहू को मानै नाहीं ।
तनिक उजुर जो करै ताहि को कच्चा खाही ॥
कहूँ कनक कहुँ कामिनि सुन्दर भेष बनावै ।
ताकै जेकरी ओर नजर से मारि गिरावै ॥
जोगी जती औ तपी गुफा से पकरि मगावै ।
बचै न कोऊ भागि दुपहरै लूटा जावै ॥
पलट डरपै संत से वे मारे पैजार ।
माया बड़ी बहादुरी लूटि लिहा संसार ॥  

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कुंडलिया (१८५)
माया की चक्की चलै पीसि गया संसार ॥
पीसि गया संसार बचै ना लाख बचावै ।
दोऊ पट के बीच कोऊ ना साबित जावै ॥
काम क्रोध मद लोभ चक्की के पीसनहारे ।
तिरगुन डारै झीक१ पकरि कै सबै निकारे ॥
दुरमति बड़ी सयानि सानि कै रोटी पोवै ।
करम तवा में धारि सेंकि कै साबित होवै ॥
तृस्ना बड़ी छिनारि जाइ उन सब घर घाला ।
काल बड़ा बरियार किया उन एक निवाला ॥ 
पलटू हरि के भजन बिनु कोऊ न उतरै पार ।
माया की चक्की चलै पीसि गया संसार ॥ 

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(१) मुट्ठी मुट्ठी अनाज जो चक्की में डालते हैं ।


कुंडलिया (१८६)
नागिनि पैदा करत है आपुइ नागिनि खाय ॥
आपुई नागिनि खाय नागिनि से कोउ न बाचे ।
नेजाधारी सम्भु नागिनि के आगे नाचे ॥
सिंगी ऋषि को जाय नागिनि ने बन में खाई ।
नारद आगे पड़े लहर उनहूँ को आई ॥
सुर नर मुनि गनदेव सभन को नागिनि लीलै ।
जोगी जती औ तपी नहीं काहू को ढीलै२
सन्त बिबेकी गरुड़ हैं पलटू देखि डेराय ।
नागिनि पैदा करत है आपुइ नागिनि खाय ॥  

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 (२) छोड़े ।


कुंडलिया (१८७)
कुसल कहाँ से पाइये नागिनि के परसंग ॥
नागिनि के परसंग जीव कै भच्छक सोई ।
पहरू कीजै चोर कुसल कहवाँ से होई ॥
रूई के घर बीच तहाँ पावक लै राखै ।
बालक आगे जहर राखि करिके वा चाखै ॥
कनक धार जो होय ताहि ना अंग लगावै ।
खाया चाहै खीर गाँव में सेर बसावै ॥
पलटू माया से डेरै करै भजन में भंग ।
कुसल कहाँ से पाइये नागिनि के परसँग ॥ 

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कुंडलिया (१८८)
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन देखा चारिउ खूँट ॥
देखा चारिउ खूँट माया से बचै न कोई ।
राजा रंक फकीर माया के बसि में होई ॥
सब को बसि में करै जगत को माया जीती ।
आपु न बसि में होय रहै वह सब से रीती ॥
हरि को देइ भुलाय अमल वह अपना करती ।
ऐसी है वह नारि खसम को नाहीं डेरती ॥
पलटू सब संसार को माया लीन्हो लूट ।
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन देखा चारिउ खूँट ॥ 

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कुंडलिया (१८९)
मन माया छोड़े नहीं बझै आपु से जाय ॥
बझै आपु से जाय गही ज्यों मरकट मूठी ।
ज्यों नलनी का सुआ बात सब ऐसी झूठी ॥
छोड़ै नहीं आपु भरम में पड़ा गँवारा ।
खैंचि लेय जो हाथ कोऊ ना पकड़नहारा ॥
जिव लै बचै तो भागु भूलि गइ सब चतुराई ।
रोवन लागे पूत काल ने पकरा आई ।।
पलटू आसा बधिक है लालच बुरी बलाय । 
मन माया छोड़ै नहीं बझै आपु से जाय ॥

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॥ अज्ञानता ॥
कुंडलिया (१९०)
घर में जिन्दा छोड़ि कै मुरदा पूजन जायँ ॥
मुरदा पूजन जायँ भीति को सिरदा१ नावैं । 
पान फूल और खाँड़ जाइ के तुरत चढ़ावैं ॥ 
ताल कि माटो आनि ऊँच कै बाँधिनि चौरी ।
लीपि पोति के धरिनि पूरी औ बरा कचौरी ॥
पीयर लूगा२ पहिरि जाइ कै बैठिनि बूढ़ा ।
भरमि भरमि अभुवाइँ माँगत हैं खसी३ कै मुँड़ा ॥
पलटू सब घर बाँटि कै लै लै बैठे खायँ ।
घर में जिन्दा छोड़ि कै मुरदा पूजन जायँ ॥

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(१) सिजदा = दंडवत । (२) कपड़ा । (३) बकरा ।


कुंडलिया (१९१)
जियतै देइ गिरास ना मुए परावै पिंड ॥
मुए परावै पिंड कौन है खावनहारो ।
राँध परोसिनि नेवति खवावै ससुरा सारो ॥
पितरन के मुँह छार धोख दै लेइ बहाई ।
मुए बैल को घास देहु कहु कैसे खाई ॥
अपने परुसा४ लेइ पित्र को छोड़ै पानी ।
करै पित्र से भूत बड़ो मूरख अज्ञानी ॥
पलटू पुरषा मुक्ति में करत भंड औ भिंड ।
जियतै देइ गिरास ना मुए पराव पिंड ॥

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 (४) परोसा, पत्तल ।


कुंडलिया (१९२)
पानी का को देइ प्यास से मुवा मसाफिर ॥
मुवा मुसाफिर प्यास डोर औ लुटिया पासै ।
बैठ कुवाँ की जगत जतन बिनु कौन निकासै ॥
आगे भोजन धरा थारि में खाता नाहीं ।
भूख भूख करै सोर कौन डारै मुख माहीं ॥
दीया बाती तेल आगि है नाहिं जरावै ।
खसम सोया है पास खसम को खोजन जावै ॥
पलटू डगरा१ सूध अटकि कै परता गिर गिर ।
पानी का को देइ प्यास से मुवा मुसाफिर ॥

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(१) रास्ता ।


कुंडलिया (१९३)
लहँगा परिगा दाग फूहरि साबुन से धोवै ॥
फूहरि धोवै दाग छुटै ना और बढ़ावै ।
ज्यों ज्यों मलै बनाय सारे लहँगा फैलावै ॥
गाफिल में गइ सोय खसम को दोष लगावै ।
ऐसी फूहरि नारि आप को नाहिं बचावे ॥
धोबी को नहिं देइ घरहिं में आपु छुड़ावै ।
इक बेर दिहिसि निखारि लाज से नाहिं दिखावै ॥
पलटू परदा खोलि आपनो घर घर रोवै ।
लहँगा परिगा दाग फूहरि साबुन से धोवै ॥

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कुंडलिया (१९४)
अँधरन केरि बजार में गया एक डिठियार ॥
गया एक डिठियार सबै अंधा उठि धाये ।
अहमक आये आजु सबै मिलि तारी लाये ॥
डारौ आँखी फोरि रहो तुम हमरी नाई ।
सब अँधरन मिलि अंध अंध वा को ठहराई ॥
जँहवाँ लाखन अंध एक क्या करै बिचारा ।
सुनै न वा की कोऊ तहाँ डिठियारै हारा ॥
पलटुदास यहि बात को कोऊ न करै विचार । 
अँधरन केरि बजार में गया एक डिठियार ॥ 

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कुंडलिया (१९५)
सब अँधरन के बीच एक है काना राजा ॥
काना राजा रहै ताहि कै रैयत आँधा ।
काना को अगुवाइ एक इक पकरिनि काँधा ॥
बीच मिला दरियाव अंध को ठाढ़ कराई ।
लेन गया वह थाह सूँसि लैगा घिसियाई ॥
साँझ आइ नियरानि अंध सब करैं बिचारा ।
लाग खान को करन बड़ा सरदार हमारा ॥
आधी रात के बीच सबै मिलि गौगा२ लाई ।
भेड़हा३ बोला प्राय चलो इक एक बुलाई ॥
एक एक तुम चलो नाहिं है बासन४ दूजा ।
गरदन धै लैजाय करै ताही की पूजा ॥
पलटू सब को खाय मगन ह्वै भेड़हा गाजा ।
सब अँधरन के बीच एक है काना राजा ॥

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(१) कर्म से भाव है (२) शोर । (३) काल से भाव है । (४)बरतन 


॥ दुष्ट ॥ 
कुंडलिया (१९६)
अपकारी जिव जाहिंगे पलटू अपने आप ॥
पलटू अपने आप संत का सरल सुभाऊ ।
सबको मानहिं भला नाहिं कछु करहिं दुराऊ ॥
लाख दुष्ट जो होइ भला तेहू का मानैं ।
आपन ऐसा जीव संत जन सब का जानैं ॥
अपनी करनी जाय होय जो निंदक कोई ।
आन का गड़हा खनै परैगा आपुहि सोई ॥
जब देखै वह संत को तब चढ़ि आवै ताप५ । 
अपकारी जिव जाहिंगे पलटू अपने आप ॥

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(५) बुखार ।


कुंडलिया (१९७)
बनियाँ बानि न छोड़ै पसँघा मारे जाय ॥
पसँघा मारे जाय पूर को मरम न जानी ।
निसु दिन तौलै घाटि खोय१ यह परी पुरानी ॥
केतिक कहा पुकारि कहा नहिं करै अनारी ।
लालच से भा पतित सहै नाना दुख भारी ॥
यह मन भा निरलज्ज लाज नहिं करै अपानी ।
जिन हरि पैदा किया ताहि का मरम न जानी ॥
चौरासी फिरि आइ कै पलटू जूती खाय ।
बनियाँ बानि न छोड़ै पसँघा मारे जाय ॥

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कुंडलिया (१९८)
संत रतन की कोठरी कुंजी दुष्टन हाथ ॥
कुंजी दुष्टन हाथ अटकि के खोलहिं जाई ।
संत भये परसिद्ध परभुता नाम दिखाई ॥
चकमक भये हैं दुष्ट संत जन जैसे पथरी ।
हरि की प्रभुता आगि प्रगट ह्वै वा से निकरी ॥
आगि देखि सब डेरे जगत में भय तब ब्यापी ।
दुष्टन के परताप बस्तु परगट भई ढाँपी ॥
पलटू परदा खुलि गया सबै नवावै माथ ।
संत रतन की कोठरी कुंजी दुष्टन हाथ ॥ 

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॥ कर्म भर्म्म-देई देवा ॥ 
कुंडलिया (१९९)
अंजन देय न ज्ञान का अंधा भया बनाय२
अंधा भया बनाय बैद की बात न मानै ।
विषय बयाला३ खाय, करे संजम ना जानै ॥
लालच रोगिया करै बैद को दोस लगावै ।
तनिक नहीं बिस्वास आँखि कहवाँ से पावै ॥
एक होय तो कहौं गाँव का गाँवै बिगरा ।
दिवसै दीपक बारि पाप का सेते डगरा१
पलटू सब संसार के माड़ा गया है छाय ।
अंजन देय न ज्ञानका अन्धा भया बनाय ॥

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(१) आदत । (२) पूरा । (३) हवा ।


कुंडलिया (२००)
जौं लगि परदा पड़ा है धोखा रहा समाय ॥
धोखा रहा समाय जानै दूजा है कोई ।
भीतर बाहर एक तसल्ली२ देखे होई ॥
जो देखा सो गया रहा जो देखा नाहीं ।
चोकर लड्डू खाँड़ खाय दोऊ पछिताहीं ॥
जोई पहुँचा जाय सोई उस घर का मालिक । 
रहे नाम में डूबि ठिकाने पहुंचे सालिक३
पलटू परदा टारि दे दिल का धोखा जाय ।
जौं लगि परदा पड़ा है धोखा रहा समाय ॥

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(१) पाप के मारग या भाँडे को रखवाली करते हैं । (२) शांति । (३) अभ्यासी 

श्री सद्गुरु महाराज की जय!
* गुरु आश्रित महाशय कैलाश प्रसाद चौधरी जी , कटिहार (बिहार) की सहायता एवं पूर्ण समर्पण से पुष्पित *