पलटू साहब की कुण्डलिया

Jay Guru!


कुंडलिया (१०१)
बाना बाँधै लड़ि मरै संत सिपाहि क पूत ॥
संत सिपाहि क पूत इसिम१ में दाग न लागै ।
महा मोह दल टारि बहुरि ना पानी माँगै ॥
मारै पाँच पचीस बचै ना तिरगुन पावै ।
लालच का सिर काटि मुलुक में अदल चलावै ।।
तृस्ना और हंकार माया की गर्दन मारै ।
मन को लेवै पकरि कैद करि बेरी डारै ॥
पलटू टरै न खेत से सोई है अवधूत२
बाना बाँधै लड़ि मरै संत सिपाही क पूत ॥

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(१) नाम । (२) मस्त फकीर ।


कुंडलिया (१०२)
काया कोट छुडावै सोई है रजपूत ॥
सोई है रजपूत देइ गढ़ आगि लगाई ।
मुरचा पाँच पचीस बात में लेइ छड़ाई ॥
काया गढ़ के.बीच जाय के थाना करना ।
मन है बड़ा मवास३ पकरि के ठौरे मरना ॥ 
काम क्रोध को मारि लोभ औ मोह हंकारा ।
लालच का सिर काटि बहै लोहू की धारा ॥
पलटू अठहँ लोक में अमल करै अवधूत ।
काया कोट छुडावै सोई है रजपूत ।। 

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 (३) ठग ।


कुंडलिया (१०३)
संत चढ़ै जो मोह१ पर काया नगर मँझार ॥
काया नगर मँझार ज्ञान का तरकस बाँधे ।
दम की गोली साधि विस्वास बन्दूक है काँधे ॥
घोड़ा है संतोष छिमा का जीन बँधाई ।
बखतर पहिरे प्रेम गगन में लै दौड़ाई ॥
मुरचा पाँच पचीस बात में लिहा छुड़ाई ।
मन के बेरी२ डारि नगर में अदल चलाई ।।
पलटू सुरति कमान करि नाम निसाना मार ।
संत चढ़े जो मोह पर काया नगर मँझार ॥ 

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(१) मोह दल पर चढ़ाई को । (२) बेड़ो 


कुंडलिया (१०४)
लागी गोली नाम की पलटू गया है लोट ।।
पलटू गया है लोट चोट सब्दन की लागी ।
रंजक दै कै ज्ञान दिया संतन ने दागी ।।
लोथ परी भहराय उठत हैं गिद्ध मसाना ।
भागे कादर३ देखि खेत सूरा ठहराना ।।
मारै भरि भरि भेद छेद भा तन में तिल तिल ।
कड़खा४ दै ललकार खाल गिरि परी है छिल छिल ।।
सतगुरु के मैदान में रही न तनिको ओट ।
लागी गोली नाम की पलटू गया है लोट ॥ 

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 (३) कायर । (४) शूरता की महिमा के शब्द ।  


कुंडलिया (१०५)
लागी गाँसी सबद की पलटू मुआ तुरन्त ॥
पलटू मुआ तुरंत खेत के ऊपर जाई ।
सिर पहिले उड़ि गया रुंडी१ से करै लड़ाई ।।
तन में तिल तिल घाव परदा खुलि लटकत जाई ।२
हैफ३ खाइ सब लोग लड़ै यह कठिन लड़ाई ॥
सतगुरु मारा तीर बीच छाती में मेरी ।
तीर चला होइ पवन निकरि गा तारू फोरी ॥
कहनेवाले बहुत हैं कथनी कथैं बेअंत ।
लागी गाँसी सबद की पलट मुआ तुरंत ॥ 

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(१) धड़ । (२) आँतें निकल कर लटक रही हैं ।


कुंडलिया (१०६)
जियते मरना भला है नाहिं भला बैराग ॥
नाहिं भला बैराग अस्त्र बिन करै लड़ाई ।
आठ पहर की मार चूके से ठौर न पाई ।।
रहै खेत पर ठाढ़ सीस को लेय उतारी ।
दिन दिन आगे चलै गया जो फिरै पछारी ॥
पानी माँगै नाहिं नाहिं काहू से बोलै ।
छकै पियाला प्रेम गगन की खिड़की खोलै ॥
पलटू खरी कसौटी चढ़ै दाग पर दाग ।
जियतै मरना भला है नाहिं भला बैराग ॥ 

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कुंडलिया (१०७)
पतिबरता को लच्छन सब से रहै अधीन ॥
सब से रहै अधीन टहल वह सब की करती ।
सास ससुर और भसुर ननद देवर से डेरती ॥ 
सब का पोषन करै सभन की सेज बिछावै ।
सब को लेय सुताय पास तब पिय के जावै ॥
सूतै पिय के पास सभन को राखै राजी ।
ऐसा भक्त जो होय ताहि की जीती बाजी ॥
पलटू बोलै मीठे बचन भजन में है लौलीन ।
पतिबरता को लच्छन सब से रहै अधीन ॥

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 (३) अफसोस या अचरज करै ।


कुंडलिया (१०८)
सोई सती सराहिये जरै पिया के साथ ॥
जरै पिया के साथ सोई है नारि सयानी ।
रहै चरन चित लाय एक से और न जानी ॥
जगत कर उपहास पिया का संग न छोड़ै ।
प्रेम की सेज बिछाय मेहर की चादर ओढ़ै ॥
ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग बिलासा ।
मारै भूख पियास याद सँग चलती स्वासा ॥
रैन दिवस बेहोस पिया के रँग में राती ।
तन की सुधि है नहीं पिया सँग बोलत जाती ॥
पलटू गुरु परसाद से किया पिया को हाथ१
सोई सती सराहिये जरै पिया के साथ ।।

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॥ उपदेश ॥
कुंडलिया (१०९)
हरि को दास कहाय के गुनह करै ना कोय ।।
गुनह करै ना कोय जेहि बिधि राखै रहिये ।
दुख सुख कैसउ पड़े केहू से तनिक न कहिये ।।
तेरे मन में और करनवाला है औ रै ।
तू ना करै खराब नाहक को निस दिन दौ रै ॥
वा को कीजै याद जाहि की मारी टूटै । 
आधी को तू जाय घरहि मैं सम्मै१ फूटै ॥
पलटू गुनह किये से भजन माहिं भँग होय ।
हरि को दास कहाय के गुनह करै ना कोय ॥

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(१) बस में।


कुंडलिया (११०)
अपनी ओर निभाइये हारि परै की जीति ॥
हारि परै की जीति ताहि की लाज न कीजै ।
कोटिन बहै बयारि कदम आगे को दीजै ॥
तिल तिल लागै घाव खेत से टरना नाहीं ।
गिरि गिरि उठे सम्हारि सोई है मरद सिपाही ॥
लरि लीजै भरि पेट कानि१ कुल अपनि न लावै ।
उन की उनके हाथ बड़न से सब बनि आवै ।।
पलटू सतगुरु नाम से साची कीजै प्रीति ।
अपनी ओर निभाइये हारि परै की जीति ॥ 

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(१) सबही । 


कुंडलिया (१११)
काजर दिहे से का भया ताकन को ढव नाहिं ।।
ताकन को ढब नाहिं ताकन की गति है न्यारी ।
इक टक लेवै ताकि सोई है पिय की प्यारी ।।
ताकै नैन मिरोरि नहीं चित अंतै टारै ।
बिन ताके केहि काम लाख कोउ नैन सँवारै ।।
ताके में है फेर फेर काजर में नाहीं ।
भंगि३ मिली जो नाहिं नफा क्या जोग के माहीं ॥
पलटू सनकारत४ रहा पिय को खिन खिन माहिं ।
काजर दिहे से का भया ताकन को ढब नाहिं ॥

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(२) लाज । (३) युक्ति । (४) इशारा करना ।


कुंडलिया (११२)
जाकी जैसी भावना तासे तस ब्यौहार ।। 
तासे तस ब्यौहार परसपर दूनौं तारी५
जो जेहि लाइक होय सोई तसा ज्ञान बिचारी ॥ 
जो कोइ डारै फूल ताहि को फूल तयारी ।
जो कोई गारी देत ताहि को हाजिर गारी ॥
जो कोई अस्तुति करै आपनी अस्तुति पावै ।
जो कोइ निन्दा करै ताहि के आगे अवै ॥
पलटू जस मैं पीव का वैसे पीव हमार ।
जाकी जैसी भावना तासे तस ब्योहार ॥

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 (५) दोनों ताली या हथेली साथ बजती हैं ।


कुंडलिया (११३)
टेढ़ सोझ मुँह प्रापना ऐना टेढ़ा नाहिं ॥
ऐना टेढ़ा नाहिं टेढ़ को टेढ़ै सूझै ।
जो कोइ देखै सोझ ताहि को सोझै बूझै ॥
जाको कुछ नहिं भेद भावना अपनी दरसै ।
जाको जैसी प्रीति मुरति सो तैसी परसै ॥
दुर्जन के दुर्बुद्धि पाप से अपने जरते ।
सज्जन के है सुमति सुमति से अपने तरते ॥
पलटू ऐना संत हैं सब देखे तेहि माहिं ।
टेढ़ सोझ मुँह आपना ऐना टेढ़ा नाहिं ॥

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कुंडलिया (११४)
फूली है यह केतकी भौंरा लीजै बास ॥
भौंरा लीजै बास जन्म मानुष को पाया ।
करी न गुरु की भक्ति जक्त में आइ भुलाया ॥
भौंरा कीजै चेत कहा तू फिरै भुलाना ।
हरि को नाम सुगन्ध छोड़ि पाड़र१ लिपटाना ।।
ऋतु बसंत की जात कली को रस लै लीजै ।
बहुरि न ऐसो दाँव चेत चित भौंरा कीजै ॥ 
पलटू कबहूँ ना मरै होय न जिव का नास ।
फूली है यह केतकी भौंरा लीजै बास ।। 

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(१) एक बेसुगंध का फूल


कुंडलिया (११५)
गुरु की भक्ति और माया ज्यों छूरी तरबूज ॥
ज्यों छूरी तरबूज कुसल दोऊ बिधि नाहीं ।
गिरे गिराये घाव लगे तरबूजै माहीं ॥
कनक कामिनी बड़ी दोऊ है तीछन१ धारा ।
तब बचिहै तरबूज रहै छूरी से न्यारा ॥
छोट बड़ा कतलाम नहीं छूरी को दाया२
बचै बिबेकी संत गये जिन अंग लगाया ॥
पलटू उन से बैर है पड़ै न मूरख बूझ ।
गुरु की भक्ति और माया ज्यों छूरी तरबूज ॥ 

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(१) तेज । (२) छूरी निर्दईपने से सब छोटू बड़े का कतल या खून करती है ।


कुंडलिया (११६)
पलटू जो सिर ना नवै बिहतर कद्दू होय ॥
बिहतर कद्दू होय संत से नइ३ कै चलिये ।
जुरै सो आगे धरै गोड़ धै सेवा करिये ॥ 
आपन जीवन जनम सुफल कै वह दिन जानै ।
देखत नैन जुड़ाय सीतलता मन में आनै ।।
अंतर नाहीं करै मन बच४ से लावै सेवा ।
ब्रह्मा विस्नु महेस संत हैं तीनों देवा ॥
सीस नवावै संत को सीस बखानौ सोइ ।
पलटू जो सिर ना नवै बिहतर कद्दू होय ॥

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 (३) झुक कर । (४) बचन ।


कुंडलिया (११७)
राम कृस्न परसराम ने मरना किया कबूल ॥
मरना किया कबूल मरै से बचै न कोई ।
दसचौदह१ औतार काल के बसि में होई ।।
सुर नर मुनि सब देव मुए सब मौत अपानी ।
देव पितर ससि भानु पवन नभ धरती पानी ॥
राजा रंक फकीर सूर और बीर करारी ।
साधु सती औ अगिन मुए जिन सब को जारी ।।
पलटू आगे मरि रहौ आखिर मरना मूल ।
राम कृस्न परसराम ने मरना किया कबूल ।। 

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(१) औतारों की संख्या चौबीस है।


कुंडलिया (११८)
समुझावै सो भी मरै पलटू को पछिताय ॥
पलटू को पछिताय दिना दस सबै मुसाफिर ।
हिलि मिलि रहैं सराय भोर भये पंथ पड़ा सिर ।
इक आवै इक जाय रहै ना पैंड़ा खाली ।
इक ओर काटी जाय दूसरा लावै माली ॥
बूढ़ा बारा ज्वान नहीं है कोई इस्थिर ।
सबै बटाऊ लोग काहे को पचिये मरि मरि ॥
मरने वाला मरि गया रोवै सो मरि जाय ।
समुझावै सो भी मरै पलट को पछिताय । 

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कुंडलिया (११९)
तुझे पराई क्या परी अपनी ओर निबेर ॥
अपनी ओर निबेर छोड़ि गुड़ विष को खावै ।
कूवाँ में तू परै और को राह बतावै ॥
औरन को ऊँजियार मसालची जाइ अँधेरे ।
त्यों ज्ञानी की बात मया से रहते घेरे२
बेचत फिर कपूर आप तो खारी खावै ।
घर में लागी आग दौरि के घूर बुतावै ॥ 
पलटू यह साची कहै अपने मन का फेर ।
तुझे पराई क्या परी अपनी ओर निबेर ।।

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 (२) माया में डूबा है और मुह से ज्ञान कथता है ।


कुंडलिया (१२०)
बहता पानी जात है धोउ सिताबी हाथ ।।
धोउ सिताबी हाथ करौ कछु नीकी करनी ।
बीस-सात२ है नरक मिली अठएँ२ बैतरनी ।।
तोहि से परिहि सो बयरा३ जम धिकवै भाथी । 
स्वारथ के सब लोग औसर के कोऊ न साथी ॥ 
आगे बूझि बिचारि करौ डेर वहि दिन केरी ।
संत सभा में बैठु परै नहिं जम की बेरी४
पलटू हरि जस गाइले येही तुम्हरे साथ ।
बहता पानी जात है धोउ सिताबी हाथ ॥

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(१)जल्द । (२)नों की संख्या सत्ताईस लिखी है और अदाईसवीं बैतरनो नदी है जिस को पित्र लोक में पहुँचने के लिए जोव को पार करना पड़ता है । (३) बैर, बिगाड़ । (४) बेड़ी ।


कुंडलिया (१२१)
जिन जिन पाया बस्तु को तिन तिन चले छिपाय ।।
तिन तिन चले छिपाय प्रगट में होय हरक्कत ।
भीड़ भाड़ से डेरै भीड़ में नहीं बरक्कत ।। 
धनी भयो जब आप मिली हीरा की खानी । 
ठग है सब संसार जुगत से चलै अपानी ॥ 
जो ह्वै रहते गुप्त सदा वह मुक्ति में रहते ।
उन पर आवै खेद प्रगट जो सब से कहते ॥
पलटू कहिये उसी से जो तन मन दे ले जाय ।
जिन जिन पाया बस्तु को तिन तिन चले छिपाय ॥

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कुंडलिया (१२२)
बीज बासना को जरै तब छूटै संसार ॥
तब छूटै संसार जगत से प्रीति न कीजै ।
लोभ मोह को जारि सत्य पद मारग लीजै ॥
मारै भूख पियास जगत की करै न आसा ।
काम क्रोध को जारि तजै सब भोग बिलासा ।।
सदा रहै निर्वृत्त चित्त ना अंतै जावै ।
मन को लेवै फेरि भजन में जाय लगावै ॥
पलटू हिरन के कारने जड़भर्त लिया अवतार२
बीज बासना को जरै तब छूटै संसार ॥
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(१) निष्काम । (२) जड भरत राजा भरत को कहते हैं जिन्होंने राज-पाट छोड़ कर बन में भगवत आराधना के लिये बास किया । एक हिरन से इनकी ऐसी गहरी प्रीत हो गई थी कि उसी के बियोग में प्रान त्याग किया और उस बासना के कारन हिरन का चोला पाया ।


कुंडलिया (१२३)
तो कहँ कोऊ कछु कहै कीजै अपनो काम ।।
कीजै अपनो काम जगत को भूकन दीजै ।
जाति बरन कुल खोय संतन को मारग लीजै ॥
लोक बेद दे छोड़ि करै कोउ कितनौ हाँसी ।
पाप पुन्न दोउ तजौ यही दोउ गर की फाँसी ॥
करम न करिहौ एक भरम कोउ लाख दिखावै ।
टरै न तेरी टेक कोटि ब्रह्मा समुझावै ॥
पलटू तनिक न छोड़िहौ जिउ के संगै नाम ।
तो कहँ कोऊ कछु कहै कीजै अपनो काम ।।

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 (३) अलग ।


कुंडलिया (१२४)
इहाँ उहाँ कुछ है नहीं अपने मन का फेर ।।
अपने मन का फेर सक्ति सिव दूसर नाहीं ।
माया से है अंत तेहि से बीचे माहीं ।।
जब में इहवाँ रहा सोच उहवाँ का भारी । 
उहवाँ देखा जाय कुदरत कुल रही हमारी ॥
जोग किये का होय भंगि१ जो आवै नाहीं ।
केतिक कोटिन जोग रहत हैं भंगै१ माहीं ॥
पलटू पावै सहज में सतगुरु की है देर ।
इहाँ उहाँ कुछ है नहीं अपने मन का फेर ॥

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(१) युक्ति । 


कुंडलिया (१२५)
मन की मौज से मौज है और मौज किहि काम ।। 
और मौज किहि काम मौज जौ ऐसी आवै ।
आठौ पहर अनन्द भजन में दिवस बितावै ॥
ज्ञान समुद्र के बीच उठत है लहर तरंगा ।
तिरबेनी के तीर सरसुती जमुना गंगा ॥
संत सभा के मध्य सब्द को फड़२ जब लागे ।
पुलकि पुलकि गलतान३ प्रेम में मन को पागै ।
पलटू रहै बिबेक से छूटै नहिं सतनाम ।
मन की मौज से मौज है और मौज किहि काम ।।

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(२) फड़ = बाजार - दूसरी लिपि में "झड़" है । (३) मतवाला। 


कुंडलिया (१२६)
जो साहिब का लाल है सो पावैगा लाल४
सो पावैगा लाल जाइ के गोता मारै ।
मरजीवा ह्वै जाय लाल को तुरत निकारै ।।
निसि दिन मारै मौज मिली अब बस्तु अपानी ।
ऋद्धि सिद्धि औ मुक्ति भरत हैं उन घर पानी ॥
वे साहन के साह उन्हें है आस न दूजा ।
ब्रह्मा बिस्नु महेस करें सब उनकी पूजा ॥
पलटू गुरु भक्ती बिना भेष भया कंगाल ।
जो साहिब का लाल है सो पावैगा लाल ॥

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(४) पहिले “लाल" के अर्थ बालक या पुत्र के हैं और दूसरे लाल के अर्थ जवाहिर ।


कुंडलिया (१२७)
जीव जाय तो जाय दे जन्म जाय बरु नष्ट ॥
जन्म जाय बरु नष्ट लोक की तजो बड़ाई ।
दुख नाना सहि रहो पड़ौ दरबार में जाई ॥
मात पिता निज बन्धु तजौ भगनी सुत नारी ।
तजि दो भोग बिलास सहत रहौ सब की गारी ॥
नाचौ घूँघट खोलि ज्ञान का ढोल बजाओ ।
देखै सब संसार कलाएँ उलटी खाओ ॥
पलटू नाम न छोड़िहो सहि लो इतना कष्ट ।
जीव जाय तो जाय दे जन्म जाय बरु नष्ट ॥ 

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कुंडलिया (१२८)
खोजत हीरा को फिरै नहीं पोत को दाम ॥
नहीं पोत को दाम जौहरि की गाँठ खुलावै ।
बातन की बकवाद जौहरी को बिलमावै ॥
लम्बी बोलत बात करै बातन की लदनी ।
कौड़ी गाँठी नाहिं करत है बातैं इतनी ॥
लिहा जौहरी ताड़१ फिरा है गाहक खाली ।
थैली लई समेटि दिहा गाहक को टाली ॥
लोक लाज छूटै नहीं पलट चाहै नाम ।
खोजत हीरा को फिरै नहीं पोत को दाम ॥

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(१) जान गया।


कुंडलिया (१२९)
मूरख को समुझाइये नाहक होइ अकाज ॥
नाहक होइ अकाज कहे से बात न बूझै ।
अंधा आठौ गाँठि इलाज न पन्थ न सूझै ॥
ब्रह्मा उतरै आय कहे से ज्ञान न आवै । 
अमृत दीजै ब्याल१ नहीं वा को बिष जावै ॥
लगै न भीतर ज्ञान ताहि से मन न मिलावै ।
मारै भाल पषान धसै नहिं उलटा आवै ॥
पलटू जो बूझै नहीं बोले से रहु बाज ।
मूरख को समुझाइये नाहक होइ अकाज ॥

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(१) साँप । 


कुंडलिया (१३०)
तीन लोक पेरा गया बिना बिचार बिबेक ।।
बिना बिचार बिबेक भये सब एकै घानी ।
पीना२ भा संसार जाठि ऊपर मर्रानी ॥
इतना दुख सब सहैं तूहू पर नाहिं डेराते ।
फिर फिर पेरे जाय कर्म में फिर लपटाते ॥
देखी देखा पड़ै आपु से आपु पेरावै ।
पेरे से जो बचै ताहि को हंसी३ लगावै ॥
पलटू मैं रोवन लगा चलता कोल्हू देख ।
तीन लोक पेरा गया बिना बिचार बिबेक ॥

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(२) मोटा । (३) उसको पाखंडी कह कर संसार हँसता है ।


कुंडलिया (१३१)
लोक लाज कुल छाड़ि कै करि लो अपना काम ॥
करि लो अपना काम सोच मोहिं वा दिन केरी ।
जेहि से कौल करार कौल से आपन हेरी ॥
कीन्हों भक्ति करार जन्म तब मानुष पायो ।
मोकहँ है सो चेत गर्भ के बिच करि आयो ।
औंधे बासन मँहै नीर जिन्ह लिया उबारी ।
तेकहँ तजि कै रहौं कुसल का होय तुम्हारी ॥
जगत हँसै तो हँसन दे पलटू हँसै न राम ।
लोक लाज कुल छाड़ि कै करि लो अपना काम ।।

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कुंडलिया (१३२)
तन मन लज्जा खोइ कै भक्ति करौ निर्धार । 
भक्ति करौ निर्धार लोक की लाज न मानौ ।
देव पितर मुख खाक डारि इक गुरु को जानौ ॥
तजि दो कुल की रीति खोलि घूँघट को नाचौ ।
बेद पुरान मत काच काछनी काछौ साचौ ॥
सुभ असुभ दोउ काटु पाँव की अपने बेरी ।
निसि दिन रहौ अनन्द कोऊ का करिहै तेरी ॥
पलटू सतगुरु चरन पर डारि दहु सिर भार ।
तन मन लज्जा खोइ के भक्ति करौ निर्धार ॥ 

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कुंडलिया (१३३)
लोक लाज नहिं मानिहौ तन मन लज्जा खोय ।।
तन मन लज्जा खोय छोड़ि कै मान बड़ाई ।
जाति बरन कुल खोय पड़ौगे सरन में जाई ।
लाख कोऊ जो हँसै जगत की लाज न मानौ ।
ज्यों हिन्दू त्यों तुरुक सकल घट साहिब जानौ ॥
नाचौ घूँघट खोलि ज्ञान को ढोल बजाओ ।
काटौ जम की फाँस भरम को दूर बहाओ ।
पलटू बरिहौ१ नाम को होनी होय सो होय ।
लोक लाज नहिं मानिहौ तन मन लज्जा खोय ॥

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(१) ब्याहो ।


कुंडलिया (१३४)
जेहि सुमिरे गनिका तरी ता को सुमिरु गँवार ।।
ता को सुमिरु गँवार भला अपना जो चाहो ।
झूठा है संसार रैन सपने सा जानो ।
माता पिता सुत बन्धु झूठ इनको सब जानो ।
सतसंगति हरि भजन सत्त दुइ इनको मानो ॥
और देव सब बृथा पास इन की ना कीजै ।
सब देवन के देव हरी अन्तर भजि लीजै ॥
पलटू हरि के भजन बिन कोउ न उतरै पार ।
जेहि सुमिरे गनिका तरी ता को सुमिरु गँवार ॥ 

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कुंडलिया (१३५)
ज्यों ज्यों भीजै कामरी त्यों त्यों गरुई होय ॥
त्यों त्यों गरुई होय सुने संतन की बानी ।
ठोपै ठोप अघाय ज्ञान के सागर पानी ॥
रस रस बाढ़ै प्रीति दिनों दिन लागन१ लागी ।
लगत लगत लगि जाय भरम आपुइ से भागी ॥
रस रस चलै सो जाय गिरै जो आतुर२ धावै ।
तिल तिल लागै रंग भंगि३ तब सहजै आवै ॥
भक्ति पोढ़ पलटू करै धीरज धरै जो कोय । 
ज्यों ज्यों भीजै कामरी त्यों त्यों गरुई होय ॥

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(१) लगन । (२) जल्दी । (३) युक्ति ।


कुंडलिया (१३६)
वे बोलैं मैं चुप रहौं आपुइ जाते हारि ॥
आपुइ जाते हारि कथनियाँ बाद१ न आवैं ।
घरे मसलहत करैं बटुरि के सौ सौ धावैं ॥
आवैं हमरे पास बैठि के गाल बजावैं ।
उलटा पुलटा कहैं बचन बिपरीत सुनावैं ॥
बोली ठोली करैं छिमा करि चुप मैं मारौं ।
भूँकि भूँकि फिरि जायँ जुगत से उनको टारौं ॥
पलटू हम से लड़न को आवै सब संसार ।
वे बोलैं मैं चुप रहौं आपुइ जाते हारि ॥

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(१) बाज ।


कुंडलिया (१३७)
जौं लगि लाग हाथ ना करम न कीजै त्याग ।
करम न कीजै त्याग जक्त की बूझ बड़ाई ।
ओहु ओर डारै तोरि एहर कुछ एक न पाई ॥
उत कुल से वे गये नाहि इत मिला ठिकाना ।
केहू ओर में माहि बीच के बीच भुलाना ॥
जेहुँ जेहुँ पावै बस्तु तेहूँ तेहुँ करम को छोड़ै ।
खातिर जमा को लेइ जगत से मुहड़ा मोड़े ॥
पलटू पग धरु निरख करि ता तें लगै न दाग ।
जौं लगि लागै हाथ ना करम न कीजै त्याग ॥ 

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कुंडलिया (१३८)
दुइ पासाही फकर१ की इक दुनियाँ इक दीन ।
इक दुनियाँ इक दीन दोऊ को राखै राजी ।
सब की मिलै मुराद गैन की नौबति बाजी ॥
हाथ जोरि मुहताज सिकन्दर रहते ठाढ़े ।
हुकुम बजावहिं भूप जबाँ२ से जो कछु काढ़े ॥
चलै फहम३ की फौज दरोग४ की कोट ढहाई ।
बेदावा तहसील सबुर कै तलब लगाई ॥
पलटू ऐसी साहिबी साहिब रहै तबीन५
दुइ पासाही फकर की इक दुनियाँ इक दीन ।। 

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(१) फकोरी । (२) जुबान, जोस । (३) बिचार । (४) झूठ। (५) ताबेदार ।


कुंडलिया (१३९)
चोर मूँसि घर पहुँचा मूरख पहरा दे ॥
मूरख पहरा देइ भोर भये आपुइ रोवै ।
राँध परोसी चोर माल धरि गाफिल सोवै ॥
सुनहु साहु धनवंत सबै सम्पति के घाती ।
नहि कीजै बिस्वास जागत रहिये दिन राती ॥
दिन दिन बढ़ती होइ भान को चित्त न दीजै ।
सब से रहिये दूर केहू को मित्र न कीजै ॥
पलटू जो ऐसे रहै द्रव्य कोऊ नहिं लेइ ।
चोर मूँसि घर पहुँचा मूरख पहरा देइ ॥ 

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कुंडलिया (१४०)
पलटू ऐसे दास को भरम करै संसार ॥
भरम करै संसार होई आसन से पक्का ।
भली बुरी कोउ कहै रहै सहि सब का धक्का ॥
धीरज धै संतोष रहै दृढ़ ह्वै ठहराई ।
जो कछु आवै खाइ बचै सो देइ लुटाई ॥
लगै न माया मोह जगत की छोड़ै आसा ।
बल तजि निरबल होय सबुर से करै दिलासा ॥
काम क्रोध को मारि कै मारै नींद अहार ।
पलटू ऐसे दास को भरम करै संसार ॥ 

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कुंडलिया (१४१)
बूझि समझि ले बालके पाछे तौ सिर खोलु ॥
पाछे तौ सिर खोलु बचा तुम सुनौ फकीरी ।
हेलुआ जूती एक नाहिं आवै दिलगीरी१
रूखा सूखा खाउ मिलै जो गम का टुकड़ा ।
फीका कड़ुआ नाहिं स्वाद सब छोड़ौ झगड़ा ।
हक हलाल वह जानु सबर से बैठे आवै ।
खाना वही हराम किसी से माँगन जावै ॥ 
पलटू वह घर राम का बच्चा तू जनि बोल ।
बूझि समझि ले बालके पाछे तौ सिर खोलु ॥

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(१) नापसंद होना, दुख मानना ।


कुंडलिया (१४२)
पलटू नीच से ऊँच भा नीच कहै ना कोय ॥
नीच कहै ना कोय गये जब से सरनाई ।
नारा बहि कै मिल्यो गंग में गंग कहाई ॥
पारस के परसंग लोह से कनक कहावै ।
आगि मँहै जो परै जरै आगै होइ जावै ॥
राम का घर है बड़ा सकल ऐगुन छिपि जाई ।
जैसे तिल को तेल फूल सँग बास बसाई ॥
भजन केरे परताप तें तन मन निरमल होय । 
पलटू नीच से ऊँच भा नीच कहै ना कोय ॥ 

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कुंडलिया (१४३)
हस्ती बिनु मारे मरै करै सिंह को संग ।।
करै सिंह को संग सिंह की रहनी रहना ।
अपनो मारा खाय नहीं मुरदा को गहना ॥
नहिं भोजन नहिं आस नहीं इन्द्री की तिष्टा१ । 
आठ सिद्धि नौ निद्धि ताहि को देखत बिष्टा२
दुष्ट मित्र सब एक लगै ना गरमी पाला ।
अस्तुति निंदा त्यागि चलत है अपनी चाला ॥
पलटू झूठा ना टिकै जब लगि लगै न रंग ।
हस्ती बिनु मारे मरै करै सिंह को संग ॥ 

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(१) चाह । (२) गलोज । 


कुंडलिया (१४४)
उपजै बस्तु सुभाव तें अपनी अपनी खानि ॥
अपनी अपनी खानि सीप से मोती कहियै ।
हीरा होइ हिरंज सीस गज मुक्त लहियै ।।
केरा परै कपूर बेन३ तें लोचन४ ब्याला५
अहि मुख जहर समान उपल६ तें लोह कराला ॥
गौ लोचन गौ सीस मिरग मद नाभि तें जानौ । 
भिन्न भिन्न गुन होय नीर एकहि पहिचानौ ॥ 
पलटू खामिंद एक है निसचे प्रेम प्रधान ।
उपजै बस्तु सुभाव तें अपनी अपनी खानि ॥ 

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(३) बाँस । (४) बंसलोचन । (५) दुष्ट-यह अहि = साँप का विशेषण है । (६) पत्थर ।


कुंडलिया (१४५)
भक्ति बीज जब बोवै निसि दिन करै बिबेक ॥
निसि दिन करै बिवेक लागि तब निकरन साखा ।
डार पात बहु फूल जतन से जिन ने राखा ॥
हरि चरचा से सींचि ज्ञान कै बाँधै बेड़ा ।
पहुँचै सोर पताल खात संतन कै खेड़ा१ ।।
सोभित बृच्छ बिसाल मीठ फल लटकन लागे ।
बिस्वास सोई रखवार बैठि कै पहरा जागै ॥
पलटू यहि बिधि जोगवै उपजै ज्ञान बिसेख ॥
भक्ति बीज जब बोवै निसि दिन करै बिबेक ॥ 

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(१) गाँव । 


कुंडलिया (१४६)
पलटू सरबस दीजिये मित्र न कीजै कोय ॥
मित्र न कीजै कोय चित्त दै बैर बिसाहै२
निस दिन होय बिनास ओर वह नाहिं निबाहै ॥
चिन्ता बाढ़ै रोग लगा छिन छिन तन छीजै ।
कम्मर३ गरुआ होय ज्यों ज्यों पानी से भीजै ॥
जोग जुगत की हानि जहाँ चित अंतै जावै । 
भक्ति आपनी जाय एक मन कहूँ लगावै ॥ 
राम मिताई ना चलै और मित्र जो होय ।
पलटू सरबस दीजिये मित्र न कीजै कोय ।। 

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(२) मोल ले। (३) कम्मल ।


कुंडलिया (१४७)
ख्वा१ टूटै ख्वा फाटै कहिये परदा खोल ॥
कहिये परदा खोल रखा ना बाकी कीजै२
बात कहै दुइ टूक मैल३ ना पानी पीजै ।।
उन से रहिये दूरि बड़े वे लोग अधरमी ।
तुरतहि देइँ जवाब बचै ना सरमा सरमी ।।
कहैं मित्र की बात करें दुस्मन की करनी ।
ना कीजै बिस्वास करैं कैसौ ब्योहरनी ।।
पलटू छूरी कपट की बोलैं मीठे बोल ।
ख्वा टटै ख्वा फाटै कहिये परदा खोल ।।

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(१) चाहै । (२) जर्रा (रवा) भर न उठाय रक्खो । (३) मैला ।


।। ज्ञान ।।
कुंडलिया (१४८)
परदा अंदर का टरै देखि परै तब रूप ॥
देखि परै तब रूप मिटै सब मन का धोखा ।
परै सबद टकसार बहुत चोखे से चोखा ॥
जोग-जीत जब होय भूमिका ज्ञान की पावै ।
लागै सहज समाधि सक्ति से सीव बनावै ॥
महल करै ऊँजियार तेल बिनु दीपक बाती ।
परमानन्द अनन्द भजन में दिन औ राती ।।
पलटू सूझै है नहीं जहाँ अधोमुख कूप ।
परदा अंदर का टरै देखि परै तब रूप ॥ 

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कुंडलिया (१४९)
समुझाये से क्या भया जब ज्ञान आपु से होय ॥
ज्ञान आपु से होय हंस को कौन सिखावै ।
छीर करत है पान नीर को वह अलगावै ॥
अललपच्छ इक रहै गगन में अंडा देवै ।
बच्चा सुरति सम्हार उलटि कै फिर घर लेवै ॥
केहरि के सिसु कँहै१ कौन उपदेस बतावै ।
कुंजर२ देहि गिराइ बात में बिलम्ब न लावै ॥
पलटू सतगुरु रहनि को परखि लेय जो कोय ।
समुझाये से क्या भया जब ज्ञान आपु से होय ॥ 

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(१) शेर के बच्चे को । (२) हाथी ।


कुंडलिया (१५०)
ज्ञान समाधि जा को मिली सो क्या लावै ध्यान ॥
सो क्या लावै ध्यान ध्यान दुतिया कहवावै ।
आप भया पासाह कौन के मुजरे जावै ॥
भजनी१ से भा भजत२ कौन अब आवै जावै ।
लिहा निसाना मारि कोन अब तीर चलावै ॥
मन के संकल्प भजन रूप अपनो दरसावै ।
जो इहवाँ सो उहाँ सँकल्प को दूरि बहावै ॥
पलट लगी सो लगि गई कौन होय हैरान ।
ज्ञान समाधि जा को मिली सो क्या लावै ध्यान ॥  

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(१) भजन करने वाला । (२) जिसका भजन किया जाता है ।

श्री सद्गुरु महाराज की जय!
* गुरु आश्रित महाशय कैलाश प्रसाद चौधरी जी , कटिहार (बिहार) की सहायता एवं पूर्ण समर्पण से पुष्पित *