पलटू साहब की कुण्डलिया

Jay Guru!


कुंडलिया (५१)
यही समय गुरु पाँय में गोता लीजै खाय ॥
गोता लीजै खाय नाम के सरवर२ माहीं ।
अवधि आइ नगिचान दाँव फिर ऐसा नाहीं ॥
मानुष तन सकराँत महोदधि३ जात सिरानी ।
ऐसी परबी पाइ नहीं तुम महिमा जानी ॥
सतसंगत के घाट पैठि के कर असनाना ।
तन मन दीजै दान बहुरि नहिं औना जाना ॥
पलटू बिलम न कीजिये ऐसा औसर पाय ।
यही समय गुरु पाँय में गोता लीजै खाय ।।

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 । ( २ ) तालाब । ( ३) नदी, समुद्र ।


कुंडलिया ( ५२ )
भया तगादा साहु का गया बहाना भूल ॥
गया बहाना भूल नफा में मूर गँवाया ।
भया साहु से झूठ बैठि के पूँजी खाया ।।
नहीं लिहा हरि नाम करी नहिं संतन सेवा ।
तीनों पन गये बीत पूजते देवी देवा ॥
सारी सरहज सास धाइ के लूटि मजारी ।
तुम्हरे सीस बिसान कोऊ ना संग तुम्हारी ।।
पलटू मानै काल ना कठिन चलावै सूल ।
भया तगादा साहु का गया बहाना भूल ॥ 

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कुंडलिया ( ५३ )
काल महासिल१ साहु का सिर पर पहुँचा आय ॥
सिर पर पहुँचा आय उजुर कछु एकौ नाहीं ।
पहुँचा धै अगुआय२ लिहे धरि मारत जाहीं ॥
मार परे भा चेत लगा तब करन बिचारा ।
मूरख के परसंग बैठि कै बात बिगारा ॥
चलै न एकौ जोर बहाना का को लेवै ।
नहीं ब्याज नहिं मूर साहु को का लै देवै ।।
पलटू वादा३ टरि गया पूँजी गई वराय४
काल महासिल साहु का सिर पर पहुँचा आय ॥

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(१) तहसील करने वाला सिपाही । (२) पहुँचा पकड़ कर आगे कर लिया, जिसमें भाग न सकें। (३) इकरार । (४) चुक गई ।


कुंडलिया ( ५४ )
ज्यों ज्यो सूखै ताल है त्यों-त्यों मीन मलीन ।।
त्यो त्यों मीन मलीन जेठ में सूख्यो पानी ।
तीनों पन गये बीति भजन का मरम न जानी ॥
कँवल गये कुम्हिलाय हंस ने किया पयाना ।
मीन लिया कोउ मारि ठाँव ढेला चिहराना१ 
ऐसी मानुष देह वृथा में जात अनारी ।
भूला कौल करार आप से काम बिगारी ।।
पलटू बरस औ मास दिन पहर घड़ी पल छीन ।
ज्यों ज्यों सूखै ताल है त्यों त्यों मीन मलीन ।।

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(१ ) पानी के सूख जाने पर तलैया की तली फट कर मिट्टी के थक्के बन जाते हैं । 


कुंडलिया (५५)
बूड़ी जात जहाज है नाम निवर्तिक२ बोल ॥
नाम निवर्तिक बोल हाथ से तेरे जाती ।
माँझ धार में फटी सूम की जोगवै थाती ।।
ऐसे मूरख लोग लालच में जनम गँवावैं । 
गई हाथ से चीज तेहू पर लेखा लावैं ।।
कंठा रूँधन भये मोह में लागा अजहूँ ।
कीन्हे प्रान पयान नाम ना सुमिरे तबहूँ ।।
पलटू नर तन रतन सम भा कौड़ी के मोल ।
बूड़ी जात जहाज है नाम निवर्तिक बोल ॥ 

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 (२) बचाने वाला । 


कुंडलिया (५६ )
एक भक्ति मैं जानों और झूठ सब बात ॥
और झूठ सब बात करै हठजोग अनारी ।
ब्रह्म दोष वो लेय काया को राखै जारी ॥
प्रान करै आयाम कोई फिर मुद्रा साधै ।
धोती नेती करै कोई लै स्वासा बाँधै ।।
उनमुनि लावै ध्यान करै चौरासी आसन ।
कोई साखी सबद कोइ तप कुस के डासन ।।
पलटू सब परपंच है करै सो फिर पछितात ।
एक भक्ति मैं जानौं और झूठ सब बात ॥

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कुंडलिया (५७) 
संत न चाहैं मुक्ति को नहीं पदारथ चार ॥
नहीं पदारथ चार मुक्ति संतन की चेरी ।
ऋद्धि सिद्धि पर थुकैं स्वर्ग की आस न हेरी ॥
तीरथ करहिं न बर्त नहीं कछु मन में इच्छा ।
पुन्य तेज परताप संत को लगै अनिच्छा ॥
ना चाहैं बैकुंठ न आवागवन निवारा ।
सात स्वर्ग अपबर्ग तुच्छ सम ताहि बिचारा ।।
पलटू चाहै हरि भगति ऐसा मता हमार ।
संत न चाहैं मुक्ति को नहीं पदारथ चार ।।

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कुंडलिया (५८)
ऐसी भक्ति चलावै मची नाम की कीच ॥
मची नाम की कीच बूढ़ा औ बाला गावै ।
परदे में जो रहै सब्द सुनि रोवत आवै ॥
भक्ति कर निरधार रहै तिर्गून से न्यारा ।
आवै देय लुटाय आपु ना करे अहारा ॥
मन सब को हरि लेय सभन को राखै राजी ।
तीन देख ना सकै बैरागी पंडित काजी ॥
पलटूदास इक बानिया रहै अवध के बीच ।
ऐसी भक्ति चलावै मची नाम की कीच ॥

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कुंडलिया (५९) 
मेरे तन तन लग गई पिय की मीठी बोल ॥
पिय की मीठी बोल सुनत मैं भई दिवानी। 
भंवरगुफा के बीच उठत है सोहं बानी ॥
देखा पिय का रूप रूप में जाय समानी। 
जब से भया मिलाप मिले पर ना अलगानी ॥
प्रीत पुरानी रही लिया हम ने पहिचानी ।
मिली जोत में जोत सुहागिन सुरत समानी ।।
पलटू सब्द के सुनत ही घूँघट डारा खोल ।
मेरे तन तन लग गई पिय की मीठी बोल ॥

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कुंडलिया (६०)
पिय को खोजन मैं चली आपुइ गई हिराय ॥
आपुई गई हिराय कवन अब कहै सँदेसा ।
जेकर पिय में ध्यान भई वह पिय के भेसा ॥
आगि माहिं जो परै सोऊ अग्नी ह्वै जावै ।
भृङ्गी कीट को भेंट आपु सम लेइ बनावै ॥
सरिता बहि के गई सिन्धु में रही समाई ।
सिव सक्ती के मिले नहीं फिर सक्ती आई ॥
पलटू दिवाल कहकहा१ मत कोउ झाँकन जाय ।
पिय को खोजन मैं चली आपुइ गई हिराय ।।

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कुंडलिया (६१)
मगन भई मेरी माइजी जब से पाया कंथ ।।
जब से पाया कंथ पंथ सतगुरु बतलाया ।
सतगुरु बड़े दयाल करी उन मो पर दाया ।।
स्वस्ता२ मन में आइ छुटी मेरी दुचिताई ।
सोऊँ कंथ के साथ अंग से अंग लगाई ।।
अभ्यन्तर३ जागी प्रीत निरन्तर कंथ से लागी ।
दरस परस के करत जगत की भ्रमना भागी ॥
पलटू सतगुरु सब्द सुनि हृदय खुला है ग्रंथ ।
मगन भई मेरी माइजी जब से पाया कंथ ॥

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(१) एक दीवार कहानी की जिसका होना चीन देश में मशहर है जिस पर चढ़ कर दूसरी ओर झाँकने से परिस्तान दीख पड़ता है और ऐसा हर्ष होता है कि हँसी के मारे देखने वाला बेइख्तियार होकर उधर कूद कर गायब हो जाता है। (२) शांति । (३) अंतर में।। 


कुंडलिया ( ६२ )
आठ पहर निरखत रहै जैसे चन्द चकोर ॥
जैसे चन्द चकोर पलक से टारत नाहीं ।
चुगै बिरह से आग रहै मन चन्दै माहीं ॥
फिरै जेही दिस चंद तेही दिसि को मुख फेरे ।
चन्दा जाय छिपाय आग के भीतर हेरै ॥
मधुकर तजै न पदम जान से जाइ बँधावै ।
दीपक में ज्यों पतँग प्रेम से प्रान गँवावै ॥
पलटू ऐसी प्रीत कर परधन चाहै चोर ।
आठ पहर निरखत रहै जैसे चन्द चकोर ।। 

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कुंडलिया (६३ )
अम्मा मेरा दिल लगा मुझ से रहा न जाय ।।
मुझ से रहा न जाय बिना साहिब को देखे ।
जान तसद्दुक२ करौं लगै साहिब के लेखे ॥
मुझ को भया है रोग जायगा जीव हमारा ।
एकर दारू यही मिले जो प्रीतम प्यारा ॥
पड़ा प्रेम जंजाल जिकिर३ सीने में लागी ।
मैं गिरि परी बेहोस लोक की लज्जा भागी ।।
पलटू सतगुरु बैद बिन कौन सके समझाय ।
अम्मा मेरा दिल लगा मझ से रहा न जाय ॥ 

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(१) रात को जब कमल सम्पुट अर्थात् बन्द होने लगता है तो भंवरा जो उस पर आशक्त है उड़ कर भागता नहीं बरन उसी के भीतर बन्द हो जाता है। (२) न्यौछावर । (३) सुमिरन । 


कुंडलिया (६४)
सीस उतारै हाथ से सहज आसिकी नाहिं ॥
सहज आसिकी नाहिं खाँड़ खाने को नाहीं । 
झूठ आसिकी करै मुलुक में जूती खाहीं ॥
जीते जी मरि जाय करै ना तन की आसा ।
आसिक को दिन रात रहै सूली पर बासा ॥
मान बड़ाई खोय नींद भर नाहीं सोना ।
तिल भर रक्त न माँस नहीं आसिक को रोना ॥
पलटू बड़े बेकूफ वे आसिक होने जाहिं ।
सीस उतारै हाथ से सहज आसिकी नाहिं ॥

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कुंडलिया (६५)
भूली जग को चाल सब भई जोगिनि अलमस्त ॥
भई जोगिनि अलमस्त खबर कछु तन की नाहीं ।
खाय पियै अब कौन रहै मन भजनै माहीं ॥
ऐसी लागी नेह तुरिया से भई अतीता ।
आठ पहर गलतान जोति के घर को जीता ॥
ह्वै गइ दसा अरूढ़ ज्ञान तजि भई बिज्ञानी ।
धरती नभ जरि गई जरा है पवन औ पानी ॥
पलटू दिनकर उदय भा रजनी भै गई अस्त ।
भूली जग की चाल सब भई जोगिनि अलमस्त ॥ 

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कुंडलिया (६६)
फनि से मनि ज्यों बीछुरै जल से बिछुरै मीन ।।
जल से बिछुरै मीन प्रान को तुरत गँवावै ।
रहै न कोटि उपाय दूध के भीतर नावै ॥
ऐसी करै जो प्रीति ताहि की प्रीति सराहीं ।
बिछुरे पर नर जियै प्रीति वाहू की नाहीं ॥
पटकि पटकि तन रहै बिछोहा सहा न जाई ।
नैन ओट जब भये प्रान को संग पठाई ॥
पलटू हरि से बीछुरे ये ना जीवैं तीन ।
फनि से मनि जो बीछुरे जल से बिछुरै मीन ॥

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कुंडलिया (६७)
प्रेम बान जा के लगा सो जानैगा पीर ॥
सो जानैगा पीर काह मूरख से कहिये ।
तिल भरि लगै न ज्ञान ताहि से चुप भै रहिये ॥
लाख कहै समुझाय बचन मूरख नहिं मानै ।
तासे कहा बसाय ठान जो अपनी ठानै ॥
जोहि के जगत पियार ताहि से भक्ति न आवै ।
सतसंगति से बिमुख और के सन्मुख धावै ॥
जिन कर हिया कठोर है पलटू धसै न तीर ।
प्रेम बान जा के लगा सो जानैगा पीर ॥ 

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कुंडलिया ( ६८ )
अपने पिया की सुन्दरी लोग कहैं बौरान ॥
लोग कहैं बौरान काहि की पकरौं बानी ।
घर घर घोर मथान फिरौं मैं नाम दिवानी ॥
घूँघट डारेउ खोलि ज्ञान कै ढोल बजाई ।
चढ़िऊँ बाँस पर धाइ सहर के बिचै गड़ाई ॥
देखि देखि सब चिढ़ै लोग मैं अधिक चिढ़ावौं ।
लगी गुरु से डोरि मगन ह्वै ताहि रिझावौं ॥
पलटू हमरे देस की जानैं संत सुजान ।।
अपने पिय को सुन्दरी लोग कहैं बौरान ॥ 

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कुंडलिया (६९)
सतगुरु सब्द के सुनत ही तन की सुधि रहि जात ॥
तन की सुधि रहि जात जाय मन अंतै अटका ।
बिसरि भूख पियास किया सतगुरु ने टोटका१ ।।
दतुइन करी न जाय नहीं अब जाय नहाई ।
बैग उठा न जाय फिरी अब नाम दुहाई ॥ 
कौन बनावै भेष कौन अब टोपी देवै ।
बिसरा माला तिलक कौन अब दर्पन लेवै ।।
पलटू झुका है आपु को मुख से भूली बात ।
सतगुरु सब्द के सुनत ही तन की सुधि रहि जात ॥

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 (१) जादू ।


कुंडलिया (७० )
की तौ इक ठौरै रहै की दुइ में इक मरि जाय ।
दुइ में इक मरि जाय रहत है दुविधा लागी ।
सुचित नहीं दिन रात उठत बिरहा की आगी ।
तुम जीवो भगवान मरन है मेरो नीका ।
तुम बिन जीवन धिक्क लगै कारिख को टीका ॥
की तुम आवो इहाँ लेव की प्रान अपाना ।
दोऊ को दुख होय हँस जोड़ी अलगाना ॥
कह पलटू स्वामी सुनो चिन्ता सही न जाय ।
की तो इक ठौरै रहै की दुइ में इक मरि जाय । 

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कुंडलिया (७१)
यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं ॥
खाला का घर नाहिं सीस जब धरै उतारी ।
हाथ पाँव कटि जाय करीना संत करारी१ ॥
ज्यों ज्यों लागै घाव तेहूँ तेहुँ कदम चलावै ।
सूरा रन पर जाय बहुरि ना जियता आवै ॥
पलटू ऐसे घर मँहै बड़े मरद जे जाहिं ।
यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं ॥ 

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कुंडलिया (७२)
आसिक का घर दूर है पहुँचै बिरला कोय ।।
पहुँचै बिरला कोय होय जो पूरा जोगी ।
बिंद२ करै जो छार नाद के घर में भोगी। 
जीते जी मरि जाय मुए पर फिर उठि जागै ।
ऐसा जो कोइ होइ सोई इन बातन लागै ॥
पुरजे पुरजे उड़ै अन्न बिनु बस्तर पानी ।
ऐसे पर ठहराय सोई महबूब१ बखानी ॥
पलटू आपु लुटावही काला मुँह जब होय ।
आसिक का घर दूर है पहुँचै बिरला कोय ॥

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(१) ठहराव, रोक । (२) काम को जला कर खाक कर डालै ।


कुंडलिया (७३)
जहाँ तनिक जल बीछुड़ै छोड़ि देतु है प्रान ॥
छोड़ि देतु है प्रान जहाँ जल से बिलगावै ।
देइ दूध में डारि रहै ना प्रान गँवावै ॥
जा को वही अहार ताहि को का लै दीजै ।
रहै ना कोटि उपाय और सुख नाना कीजै ॥
यह लीजै दृष्टान्त सकै सो लेइ बिचारी ।
ऐसी करै सनेह ताहि की मैं बलिहारी ॥
पलटू ऐसी प्रीति करु जल और मीन समान ।
जहाँ तनिक जल बीछुड़ै छोड़ि देतु है प्रान ।।

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कुंडलिया (७४)
जो मैं हारौं राम की जो जीतौं तौ राम ॥
जो जीतौं तौ राम राम से तन मन लावौं ।
खेलौं ऐसो खेल लोक की लाज बहावौं ।
पासा फेंकौं ज्ञान नरद बिस्वास चलावौं ।
चौरासी घर फिरै अड़ी पौबारह नावौं ।
पौबारह सिवाय एक घर भीतर राखौं ।
कच्ची मारौं पाँच रैनि दिन सत्रह भाखौं ।
पलटू बाजी लाइहौं दोऊ बिधि से राम ।
जो मैं हारौं राम की जो जीतौं तो राम ।।

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(१) प्रीतम ।


कुंडलिया ( ७५ )
लगन महूरत झूठ सब और बिगाड़ै काम ।। 
और बिगाड़ै काम साइत जनि सोधै कोई ।
एक भरोसा नाहिं कुसल कहवाँ से होई ॥
जेकरे हाथै कुसल ताहि को दिया बिसारी ।
आपन इक चतुराई बीच में करै अनारी ॥
तिनका टूटै नाहिं बिना सतगुरु की दाया ।
अजहूँ चेत गँवार जगत है झूठी काया ॥
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी याद पड़ै जब नाम । 
लगन महूरत झूठ सब और बिगाड़ै काम ॥ 

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कुंडलिया ( ७६ )
मोर राम मैं राम का ता से रहौं निसंक ॥
ता से रहौं निसंक तनिक मोर बार ना बाँकै ।
जो कोइ मान बैर हारि के आपुइ थाकै ॥
दोऊ विधि से राम भार उनके सिर दीन्हा ।
मो पर परै जो गाढ़ राम आपुइ पर लीन्हा ।
राम भरोसा पाय डेरौं काहू से नाहीं । 
फूल में है ज्यों बास राम हैं हमही माहीं ॥
पलटू सब में राम है क्या राजा क्या रंक ।
मोर राम मैं राम का ता से रहौं निसंक ॥ 

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(१) परमार्थ और स्वार्थ दोनों में । (२) दुनिया की बूझ और बड़ाई की हैसियत ।


कुंडलिया ( ७७ )
मगन आपने ख्याल में भाड़ परै संसार ॥
भाड़ परै संसार नाहिं काहू से कामा ।
मन बच करम लगाय जानिहौ केवल रामा ।।
लोक लाज कुल त्यागि जगत की बूझ बड़ाई ।
निंदा कोउ कै जाय रहौ संतन सरनाई ।।
छोड़ौ दिन दिन संग सुनौ ना बेद पुराना ।
ठान आपनी ठानि आन ना करिहौ काना ॥
पलटू संसै छूटि गई मिलिया पूरा यार ।
मगन आपने ख्याल में भाड़ परै संसार ।। 

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कुंडलिया (७८ )
 जो कोउ चाहै अभय पद जाइ करै सतसंग ।।
जाइ करै सतसंग प्रान बैराग उठावै ।
स्रवन करै बेदान्त मनन करि मन समुझावै ॥
तब साधै हठ जोग बिपर्जय१ को घर पावै ।
प्रान करै आयाम पुरुष तब नजरि में आवै ॥
देखै अपनो रूप होय तब ज्ञान समाधी ।
तब दे साधन छोड़ि लेइ जब पहिले साधी ॥ 
पलटू खोवै आपु को तब लागैगा रंग ।
जो कोउ चाहै अभय पद जाइ करै सतसंग ।।

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(१) आपे को भूल जाना।


कुंडलिया (७९)
बैरागिनि भूली आप में जल में खोजै राम ।।
जल में खोजै राम जाय के तीरथ छानै ।
भरमै चारिउ खूँट नहीं सुधि अपनी आनै ।।
फूल माहिं ज्यों बास काठ में अगिन छिपानी ।
खोदे बिनु नहिं मिलै अहै धरती में पानी ।।
जैसे दूध घृत छिपा छिपी मिहँदी में लाली ।
ऐसे पूरन ब्रह्म कहूँ तिल भरि नहिं खाली ॥
पलटू सतसंग बीच में करि ले अपना काम ।
बैरागिनि भूली आप में जल में खोजै राम ॥ 

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कुंडलिया (८०)
मलया के परसंग से सीतल होवत साँप ॥
सीतल होवत साँप ताप को तुरत बुझाई ।
संगत के परभाव सीतलता वा में आई ॥
मूरख ज्ञानी होय जाय ज्ञानी में बैठै ।
फूल अलग का अलग बासना तिल में पैठै ॥
कंचन लोहा होय जहाँ पारस छुइ जाई ।
पनपै उकठा१ काठ जहाँ उन सरदी पाई ॥
पलटू संगत किये से मिटते तीनिउँ ताप ।
मलया के परसंग से सीतल होवत साँप ॥

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(१) कटा हुआ ।


कुंडलिया (८१)
पारस के परसंग से लोहा महँग बिकान ॥ 
लोहा महँग बिकान छुए से कीमत निकरी ।
चंदन के परसंग चंदन भई बन की लकरी ॥ 
जैसे तिल का तेल फूल सँग महँग बिकाई ।
सतसंगति में पड़ा संत भा सदन कसाई ॥
गंग में है सुभगंग मिली जो नारा सोती ।
सीप बीच जो पड़ै बूँद सो हो मोती ॥
पलटू हरि के नाम से गनिका चढ़ी बिमान ।
पारस के परसंग से लोहा महँग बिकान ॥ 

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कुंडलिया (८२)
फिर फिर नहीं दिवारी दियना लीजै बार ॥
दियना लीजै बार महल में ह्वै उजियारा ।
उदय होय ससि भान अमावस मिटै अँधियारा ॥
ज्ञान होय परगास कुमति जूआ में हारै ।
दुयिया खंडन करै एक को बैठि बिचारै ।।
रचि रचि तोसौ सखी अभूषन प्रेम बनाई ।
गोबरधन मन पूजि बहुरि सब घर को आई ।।
पलटू सतसंगत मिला खेलि लेहु दिन चार ।
फिर फिर नहीं दिवारी दियना लोजै बार ।।

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(२) द्वैत भाव ।


कुंडलिया (८३)
जंगल जंगल मैं फिरौं घर में रहै सिकार ।।
घर में रहै सिकार भेद ना कोउ बतावै ।
गया अहेरी भूलि कहाँ से सावज१ पावै ।।
खोजा चारिउ खूँट कहीं कुछ नजर न आवै ।
कतहूँ ना सुधि आइ नहीं कोउ भेद बतावै ।।
जप तप तीरथ बरत किया बहु नेम अचारा ।
खोजा बेद पुरान सबै सतसंग पुकारा ।।
सतगुरु किया इसारा पलटू लीन्हा मार ।
जंगल जंगल मैं फिरौं घर में रहै सिकार ॥ 

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(१) शिकार । 


कुंडलिया (८४)
बिन खाये चित चैन नहिं खाये आलस होय ।।
खाये आलस होय कहो कैसी बिधि कीजै ।
दोऊ बिधि से बिपति दोस का को हम दीजै ।।
मन बैरी है बड़ा कहे में अपने नाहीं ।
पुन्न में करता पाप पाप में पुन्न कराहीं ॥
सुभ आसुभ के बीच पड़ा है जीव बिचारा ।
दोऊ में वह मिला बात सब वही बिगारा ।।
पलटू सतसंगत दोऊ छुटै करै जो कोय ।
बिन खाये चित चैन नहिं खाये आलस होय ॥ 

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कुंडलिया (८५)
जो जो गा सतसंग में सो सो बिगरा२ जाय ।। 
सो सो बिगरा जाय फूल सँग तेल बसाना । 
ज्ञानी के संग परा ज्ञान मूरख ने जाना ॥
पारस के परसंग बिगरि गा लोहा जाई ।
लोहा से भा कनक आपनी जाति गँवाई ॥
सलिता गइ है बिगरि मिली गंगा में जाई ।
मलया के परसंग काठ चन्दन कहवाई ॥
पलटू काग से हंस भा और काग पछिताई ।
जो जो गा सतसंग में सो सो बिगरा जाइ ॥

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(२) इस कुंडलिया में बिगड़ने का शब्द व्यंग से सुधरने के अर्थ में कहा है ।


कुंडलिया (८६)
पलटू मेरी बनि परी मुद्दा१ हुआ तमाम ॥
मुद्दा हुआ तमाम परे सतसंगति माहीं ।
निस दिन तौलै पूर घाट२ अब सुपनेहु नाहीं ।।
पूँजी पाई साच दिनों दिन होती बढ़ती ।
सतगुरु के परताप भई है दौलत चढ़ती ॥
कोठी दसवें द्वार३ सहज की खेप चलावो ।
कोई न टोकनहार नफा घर बैठे पावो ॥
दूनों पाँव पसारि के निस दिन करो अराम ।
पलटू मेरी बनि परी मुद्दा हुआ तमाम ॥ 

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(१) मतलब या काम । (२) कमी । (३) सून्य ।


कुंडलिया (८७ )
सतगुरु सब को देत हैं लेता नाहीं कोय ॥
लेता नाहीं कोय सीस को धरै उतारी । 
वही सकस४ को मिलै मरै की करै तयारी ॥
कड़ बहुत सतनाम देखत के डेरै सरीरा ।
रोटी खावनहार खायगा क्योंकर हीरा ॥
अंधा होवै नीक बैद का पथ जो खावै ।
मलयागिर की बास बाँस में नहीं समावै ।।
पलटू पारस क्या करै जो लोहा खोटा होय ।
सतगुरु सब को देत हैं लेता नाहीं कोय ।।

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(४) आदमी ।


कुंडलिया (८८)
सबद छुड़ावै राज को सबदै करै फकीर ।।
सबदै करै फकीर सबद फिर राम मिलावै ।
जिन के लागा सबद तिन्हैं कछु और न भावै ॥
मरे सबद की घाव उन्हें को सकै जियाई ।
होइ गा उनका काम परी रोवैं दुनियाई ।।
घायल भा वह फिर सबद कै चोट है भारी ।
जियतै मिरतक होय झुकै फिर उठै सँभारी ।।
पलटू जिन के सबद का लगा कलेजे तीर ।
सबद छुड़ावै राज को सबदै करै फकीर ॥ 

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कुंडलिया (८९)
सुरत सब्द के मिलन में मुझ को भया अनंद ॥
मुझ को भया अनंद मिला पानी में पानी ।
दोऊ से भा सूत नहीं मिलि कै अलगानी ॥
मुलुक भया सलतन्त१ मिला हाकिम को राजा ।
रैयत करै अराम खोलि के दस दरवाजा२ ।।
छूटी सकल बियाधि मिटी इंद्रिन की दुतिया ।
को अब करै उपाधि चोर से मिलि गइ कुतिया ॥
पलटू सतगुरु साहिब काटौ मेरी बंद ।
सुरत सब्द के मिलन में मुझ को भया अनंद ॥

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(१) अमन । (२) दसवाँ द्वार सन्तों का जो ओंकार पद के परे है ।


कुंडलिया (९०)
जोग जुगत आसन नहीं साधन नहीं बिबेक ।।
साधन नहीं बिबेक साधन सब कै कै छूटा ।
लागी सहज समाधि सब्द ब्रह्मांड में फूटा ।।
खंडन तनिक न होय तेलवत१ लागी धारा ।
जोति निरन्तर बरै दसो दिसि भा उजियारा ॥ 
ज्ञान ध्यान सब छूटि छूटि संजम चतुराई । 
तन की सुधि गइ बिसरि अरूढ़२ अवस्था आई ।।
पलटू मैं भजनै भया रही न दूजी रेख ।
जोग जुगत आसन नहीं साधन नहीं बिबेक ।। 

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कुंडलिया (९१)
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान ॥ 
सो ध्यानी परमान सुरति से अंडा सेवै ।
आप रहै जल माहिं सूखे में अंडा देवै ॥ 
जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै ।
कर छोड़े मुख बचन चित्त कलसा में लावै ॥
फनि मनि धरै उतारि आपु चरने को जावै ।
वह गाफिल ना परै सुरति मनि माहिं रहावै ॥
पलटू सब कारज करै सुरति रहै अलगान ।
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान ॥

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कुंडलिया (९२)
जैसे कामिनि के बिषय कामी लावै ध्यान ॥
कामी लावै ध्यान रैन दिन चित्त न टारै ।
तन मन धन मर्जाद कामिनि के ऊपर वारै ॥
लाख कोऊ जो कहै कहा ना तनिकौ मानै ।
बिन देखे ना रहै वाहि को सर्बस जानै ॥
लेय वाहि को नाम वाहि की करै बड़ाई ।
तनिक बिसारै नाहिं कनक ज्यों किरपिन१ पाई ॥
ऐसी प्रीति अब दीजिये पलटू को भगवान ।
जैसे कामिनि के बिषय कामी लावै ध्यान ॥

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(१) तेल के समान । (२) ऊँची ।


कुंडलिया (९३)
साहिब साहिब क्या करै साहिब तेरे पास ॥
साहिब तेरे पास याद करु होवै हाजिर ।
अंदर धसि कै देखु मिलेगा साहिब नादिर ॥
मान मनी हो फना२ नूर तब नजर में आवै ।
बुरका३ डारै टारि खुदा बाखुद४ दिखरावै ॥
रूह करै मेराज५ कुफर का खोलि कुलाबा६ ।
तीसौ रोजा रहै अंदर में सात रिकाबा७ ॥
लामकान में रब्ब को पावै पलटूदास ।
साहिब साहिब क्या कर साहिब तेरे पास ॥

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कुंडलिया (९४)
दिल में आवै है नजर उस मालिक का नूर ॥
उस मालिक का नूर कहाँ को ढूँढ़न जावै ।
सब में पूर समान दरस घर बैठे पावै ॥
धरती नभ जल पवन तेही का सकल पसारा ।
छुटै भरम की गाँठि सकल घट ठाकुरद्वारा ॥
तिल भरि नाहिं कहीं जहाँ नहिं सिरजनहारा ।
वोही आवै नजर फुरा८ बिस्वास हमारा ॥
पलटू नेरे साच के झूठे से है दूर ।
दिल में आवै है नजर उस मालिक का नूर ।।

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(१) कंजूस । (२) नष्ट । (३) घट । (४) अपने में। (५) चढ़ाई । (६) जंजीर, सिकरो। (७) पद, स्थान । (८) सच्चा ।


कुंडलिया (९५)
खोजत खोजत मरि गये घर ही लागा रंग ॥ 
घर ही लागा रंग कीन्ह जब संतन दाया ।
मन में भा बिस्वास छूटि गइ सहजै माया ॥
बस्तु जो रही हिरान ताहि का लगा ठिकाना ।
अब चित चलै न इत उत आपु में आपु समाना ॥
उठती लहर तरंग हृदय में सीतल लागे ।
भरम गई है सोय बैठि के चेतन जागे ॥
पलटू खातिर जमा भई सतगुरु के परसंग ।
खोजत खोजत मरि गये घर ही लागा रंग ॥

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कुंडलिया (९६)
नजर मँहै सब की पड़ै कोऊ देखै नाहिं ॥
कोऊ देखै नाहिं सीस पै सब के छाजै ।
पूरन ब्रह्म अखंड सकल घट आपु बिराजै ॥
दिवसै फिरै भुलान रहै तिरगुन महँ माता ।
देखि देखि दै छाड़ि पंडित पहँ१ पूजन जाता ॥
भूला सब संसार भेद नहिं जानै वा की ।
देखत है इक संत ज्ञान की दीठी२ जा की ॥
पलटू खाली कहूँ नहिं परगट है जग माहिं ।
नजर में है सब की पड़ै कोऊ देखै नाहिं ।।

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कुंडलिया (९७)
पहिले दासातन करै सो बैराग प्रमान३ ।।
सो बैराग प्रमान सेवा साधुन की कीजै ।
तब छोड़ै संसार बूझ घरही में लीजै ।।
काढ़ै रस रस गोड़४ कछुक दिन फिरै उदासी ।
सतगुरु उहवाँ बसैं जहाँ काया की कासी ॥ 
आसन से दृढ़ होय घटावै नींद अहारा ।
काम क्रोध को मारि तत्व का करै बिचारा ॥
भक्ति जोग के पीछे पलटू उपजै ज्ञान ।
पहिले दासातन करै सो बैराग प्रमान ॥ 

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कुंडलिया (९८)
का जानी केहि औसर साहिब ताकै मोर ।
साहिब ताकै मोर मिहर की नजरि निहारै ।।
तुरत पदम-पद देई औगुन को नाहिं बिचारै ।।
राम गरीबनिवाज गरीबन सदा निवाजा ।
भक्त-बछल१ भगवान करत भक्तन के काजा ॥
गाफिल नाहीं परै साच ह्वै लौ जब लावै ।
परा रहै वहि द्वार धनी के धक्का खावै ॥ 
आठ पहर चौंसठ घरी पलटू परै न भोर२
का जानी केहि औसर साहिब ताकै मोर ।। 

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(१) भक्त वत्सल भक्त को प्यार करने वाला । (२) भूल । 


कुंडलिया (९९)
खामिन्द कब गोहरावै चाकर रहै हजूर ।।
चाकर रहै हजूर होई ना निमक-हरामी ।
डेरत रहै दिन राति लगै ना कबहीं खामी३ ॥
आठ पहर रहै ठाढ़ सोई है चाकर पूरा ।
का जानी केहि घरी हरी दै देइ अजूरा४ ॥
निवाले रोह बरोह सलाम में रहता चोटा५ ।
वह काफिर बेपीर खायगा आखिर सोटा ।।
पलटू पलक न भूलिये इतना काम जरूर ।
खामिन्द कब गोहरावै चाकर रहै हजूर ॥ 

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(३) कचाई, चूक । (8) मिहमताना, इनाम । (५) खाना ( निवाला) मिलने के वक्त तो हाजिर ( रोहब रोह-रूबरू) और सलाम यानी काम के वक्त गायब ( चोटा=चोर)


कुंडलिया (१००)
संत चढ़े मैदान पर तरकस बाँधे ज्ञान ॥
तरकस बाँधे ज्ञान मोह दल मारि हटाई ।
मारि पाँच पच्चीस दिहा गढ़ आगि लगाई ।।
काम क्रोध को मारि कैद में मन को कीन्हा ।
नव दरवाजे छोड़ि सुरेत दसएँ पर दीन्हा ॥
अनहद बाजै तूर अटल सिंहासन पाया ।
जीव भया संतोष आय गुरु नाम लखाया ।।
पलटू कफ्फन बाँधि के खेंचो सुरति कमान ।
संत चढ़े मैदान पर तरकस बाँधे ज्ञान ॥ 

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श्री सद्गुरु महाराज की जय!
* गुरु आश्रित महाशय कैलाश प्रसाद चौधरी जी , कटिहार (बिहार) की सहायता एवं पूर्ण समर्पण से पुष्पित *