कुंडलिया (३३)
हरि अपनो अपमान सह जन की सही न जाय ॥
जन की सही न जाय दुर्बासा की क्या गत कीन्हा१ ।
भुवन चतुर्दस फिरे सभै दुरियाय जो दीन्हा ॥
पाहि पाहि करि परै जबै हरि चरनन जाई ।
तब हरि दोन्ह जवाब मोर बस नाहिं गुसाँई ।।
मोर द्रोह करि बचै करौं जन द्रोहक नासा ।
माफ करै अंबरीक बचौगे तब दुर्बासा ॥
पलटू द्रोही संत कर तिन्हैं सुदर्सन खाय ।
हरि अपनो अपमान सह जन की सही न जाय ॥
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(१) दुर्बासा ऋषि ने भक्त शिरोमणि राजा अंबरोक का प्रण तोड़ने को एकादशी व्रत के पारन के लिए द्वादशी का न्योता राजा का माना। जब द्वादशी बीतने लगी और ऋषि जी न आये तो राजा ने व्रत का धर्मा निबाहने को शालिगराम का चरणाम लिया कि तुर्त ऋषि जी पहुँचे और सराप देना चाहा । यह अनर्थ देख कर विष्णु ने सुदर्शन चक्र को उन पर छोड़ा, जिससे बचने को वह आप विष्णु तक की शरण में लेकिन कोई उन्हें न बचा सका; जब तक कि वह राजा अंबरीक की शरण में न आये।