पलटू साहब की कुण्डलिया

Jay Guru!


कुंडलिया - (१)
पूरा सतगुरु मिले जो पूजै मन की प्रास ॥
पूजै मन की आस पिया को देय मिलाई ।
छूटा सब जंजाल बहुत सुख हम ने पाई ।।
देखा पिय का रूप फिरा अहिबात१ हमारा ।
बहुत दिनन की रॉड माँग भर सेंदुर धारा ॥
सासु ननद२ को मारि अदल मैं दिहा चलाई ।
उन कै चलै न जोर पिया को मैंहि सुहाई ॥
पिय जो बस में भये पिया को जादू कीन्हा ।
ऐसी लागी नेह पिया तब मोको चीन्हा ।
प्रसाद पिया को पाय के मिले गुरु पलटूदास ।
पूरा सतगुरु मिले जो पूजै मन की आस ॥

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(१) सुहाग (२) माया और बासना 


कुंडलिया - (२)
सतगुरु सिकलीगर मिलैं तब छुटै पुराना दाग ॥ 
छुटै पुराना दाग गड़ा मन मुरचा माहीं। 
सतगुरु पूरे बिना दाग यह छूटै नाहीं॥ 
झाँवाँ लेवै जोग तेग को मलै बनाई। 
जौहर देय निकार सुरत को रंद चलाई ॥ 
सब्द मस्कला करै ज्ञान का कुरँड३ लगावै । 
जोग जुगत से मलै दाग तब मन का जावै॥ 
पलटू सैफ४ को साफ करि बाढ़ धरै बैराग । 
सतगुरु सिकलीगर मिलैं तब छुटै पुराना दाग ।। 

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(३) एक तरह का पत्थर जो सिकल करने के काम में आता है। (४) तलवार ।


कुंडलिया - (३)
सरबंगी कोउ एक है राखै सब की लाज ॥ 
राखैं सब की लाज काज वो सब के आवैं। 
अंधा पंगुल लूल सबन को डगर बतावैं॥ 
मारि पीटि संसार सभन को राह चलावैं। 
उनकी मारी खाइ भेष सब रोटी पावैं॥ 
बड़े बहादुर मर्द भेष का परदा राखैं। 
सुनि कै बचन कठोर संत जन जनि कोऊ भाखैं।
पलटू जो कोउ संत है सब हमरे सिरताज।
सरबंगी कोउ एक है राखै सब की लाज॥ 

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कुंडलिया – (४)
पर स्वारथ के कारने संत लिया औतार ।
संत लिया औतार जगत को राह चलावैं। 
भक्ति करैं उपदेस ज्ञान दे नाम सुनावैं॥
प्रीत बढ़ावैं जक्त में धरनी पर डोलैं । 
कितनौ कहै कठोर बचन वे अमृत बोलैं ॥
उनको क्या है चाह सहत हैं दुःख घनेरा । 
जिव तारन के हेतु मुलुक फिरते बहुतेरा ॥
पलटू सतगुरु पाय के दास भया निरवार ।
पर स्वास्थ के कारने संत लिया औतार ॥ 

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कुंडलिया – (५)
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ॥
सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वा की ।
सब्द में है गलतान१ अवस्था ऐसी जाकी ॥ 
निस दिन दसा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा ।
ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा ॥
तुरिया सेती अतीत सोधि फिर सहज समाधी ।
भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ॥ 
पलटू तन मन वारिये मिलै जो ऐसा कोउ ।
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
(१) लोटपोट, मस्त। 

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कुंडलिया – (६)
नाव मिली केवट नहीं कैसे उतरै पार ॥
कैसे उतरै पार पथिक बिस्वास न आवै। 
लगै नहीं बैराग यार कैसे कै पावै॥ 
मन में धरै न ज्ञान नहीं सतसंगति रहनी । 
बात करै नहिं कान प्रीति बिन जैसे कहनी ॥ 
छूटि डगमगी नाहिं संत को बचन न मानै । 
मूरख तजै बिबेक चतुरई अपनी आनै । 
पलटू सतगुरु सब्द का तनिक न करै बिचार । 
नाव मिली केवट नहीं कैसे उतरै पार ॥ 

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कुंडलिया – (७)
धुबिया फिर मर जायगा चादर लीजै धोय ॥ 
चादर लीजै धोय मैल है बहुत समानी । 
चल सतगुरु के घाट भरा जहँ निर्मल पानी ॥ 
चादर भई पुरानि दिनों दिन बार न कीजै।
सतसंगत में सौंद ज्ञान का साबुन दीजै ॥ 
छूटै कलमल दाग नाम का कलप लगावै। 
चलिये चादर ओढ़ि बहर नहिं भवजल आवै॥ 
पलटू ऐसा कीजिये मन नहिं मैला होय । 
धुबिया फिर मर जायगा चादर लीजै धोय ॥ 
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कुंडलिया – (८)
साहिब वही फकीर है जो कोइ पहुँचा होय ।। 
जो कोइ पहुँचा होय नूर का छत्र बिराजै । 
सबर तखत पर बैठि तूर अठपहरा बाजै ॥ 
तम्बू है असमान जमीं का फरस बिछाया । 
छिमा किया छिड़काव खुसी का मुस्क लगाया ॥ 
नाम खजाना भरा जिकिर का नेजा चलता । 
साहिब चौकीदार देखि इबलीसहुँ१ डरता ॥ 
पलटू दुनिया दीन में उनसे बड़ा न कोय । 
साहिब वही फकीर है जो कोइ पहुँचा होय ॥ 
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(१) शैतान भी । 


कुंडलिया – (९)
रैयत कौन कहावै घर घर हाकिम होय ॥ 
घर घर हाकिम होय अदल फिर कौन चलावै ।
सब नायक होइ जाय बैल फिर कौन लदावै ॥
गदहा चलै हर बैल कौन फिर बेसहै तुरकी२
मिले कूप में मुक्ति गंग को देवै बुड़की ॥ 
काँच छुए होइ कनक पारस की रहै न इच्छा । 
घर घर सम्पति होइ कौन फिरि माँगै भिच्छा ।। 
पलटू तैसे संत हैं भेष बनावै कोय ।
रैयत कौन कहावै घर घर हाकिम होय ॥ 
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(२) घोड़ा मोल ले । 


कुंडलिया – (१०)
जग खीझै तो का भया रीझै सतगुरु संत ।। 
रोझै सतगुरु संत आस कुछ जग की नाहीं ।
एक द्वार को छोड़ और ना माँगन जाही ।।
जिउ मेरो बरु जाय जन्म बरु जाय नसाई । 
करों न दूसर आस संत की करों दुहाई ॥ 
तीन लोक रिसियाय३ सकल सुर नर और नारी । 
मोर न बाँकै बार पठंगा पाया भारी ॥ 
पलटू सब रोवै पड़ा मोर भया सलतंत । 
जग खीझै तो का भया रीझै सतगुरु संत । 

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(३) रुष्ट हो।


कुंडलिया – (११ )
नाम नाम सब कहत है नाम न पाया कोय ।। 
नाम न पाया कोय नाम की गति है न्यारी । 
वही सकस१ को मिले जिन्होंने आसा मारी ॥ 
हौं को करै खमोस होस ना तन को राखै ।
गगन गुफा के बीच पियाला प्रेम का चाखै ।।
बिसरै भूख पियास जाय मन रँग में लागै ।
पाँच पचीस रहे वार संग में सोऊ भागै ।।
आपुइ रहै अकेल बोलै बहु मीठी बानी । 
सुनतै अब वह बनै कहा मैं कहौं बखानी ।। 
पलटू गुरु परताप तें रहै जगत में सोय । 
नाम नाम सब कहत है नाम न पाया कोय ॥ 

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(१) आदमी ।


कुंडलिया – ( १२ )
लहना है सतनाम का जो चाहै सो लेय ॥ 
जो चाहै सो लेय जायगी लूट ओराई२ । 
तुम का लुटिहौ यार गाँव जब दहिहै३ लाई ॥ 
ताकै कहा गँवार मोट भर बाँध सिताबी ।
लूट में देरी करै ताहि की होय खराबी ॥
बहुरि न ऐसा दाँव नहीं फिर मानुष होना ।
क्या ताकै तू ठाढ़ हाथ से जाता सोना ॥ 
पलटू मैं उतृन भया मोर दोस जिन देय । 
लहना है सतनाम का जो चाहै सो लेय ।।

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 (२) खतम । (३) जलावैगा ।


कुंडलिया – (१३)
मीठ बहुत सतनाम है पियत निकारै जान ।।
पियत निकारै जान मरै की करै तयारी ।
सो वह प्याला पियै सीस को धरै उतारी ॥
आँख मूँदि कै पियै जियन की आसा त्यागै ।
फिरि वह होवै अमर मुए पर उठि कै जागै ॥ 
हरि से वे हैं बड़े पियो जिन हरि रस जाई ।
ब्रह्मा बिस्नु महेस पियत कै रहे डेराई ॥
पलटू मेरे बचन को ले जिज्ञासू मान ।
मीठ बहुत सतनाम है पियत निकारै जान ॥

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कुंडलिया – (१४ )
संत सनेही नाम है नाम सनेही संत ॥
नाम सनेही संत नाम को वही मिलावैं ।
वे हैं वाकिफकार मिलन की राह बतावैं ॥
जप तप तीरथ बरत करै बहुतेरा कोई ।
बिना वसीला संत नाम से भेंट न होई ॥
कोटिन करै उपाय भटक सगरौ१ से आवै । 
संत दुवारे जाय नाम को घर तब पावै ॥
पलटू यह है प्रान पर२ आदि सेती औ अंत ।
संत सनेही नाम है नाम सनेही संत ॥
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(१) सब । (२) परे । 


कुंडलिया –(१५)
दीपक बारा नाम का महल भया उजियार ।।
महल भया उजियार नाम का तेज बिराजा ।
सब्द किया परकास मानसर३ ऊपर छाजा ॥
दसो दिसा भई सुद्ध बुद्ध भई निर्मल साची ।
छुटी कुमति की गाँठि सुमति परगट होय नाची ।।
होत छतीसो राग दाग तिर्गुन का छूटा ।
पूरन प्रगटे भाग करम का कलसा फूटा ।।
पलटू अंधियारी मिटी बाती दीन्ही टार ।
दीपक बारा नाम का महल भया उजियार ॥

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(३) नाम पारब्रह्मांड के तालाब का।



कुंडलिया – (१६ )
नाम केरे परताप से भये आन कै आन ॥
भये आन के आन बड़े के पाँव पड़ूँगा ।
का बपुरा तिल तेल फूल संग बिकता महँगा ॥
संत हैं बड़े दयाल आप सम मो को कीन्हा ।
जैसे भृङ्गी कीट सिच्छा कुछ ऐसी दीन्हा ॥
राई किहा सुमेर अजया गजराज चढ़ाई ।
तुलसी होइगा रेंड़ सरन की पैज बड़ाई ॥
पलटू जातिन नीच मैं सब औगुन की खान ।
नाम के रे परताप से भये कै के आन ॥
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कुंडलिया – ( १७ ) 
देखौ नाम प्रताप से सिला तिरै१ जल बीच ॥ 
सिला तिरै जल बीच सेत२ में कटक३ उतारी ।
नामहिं के परताप बानरन४ लंका जारी ॥
नामहिं के परताप जहर मीरा ने खाई ।
नामहिं के परताप बालक पहलाद बचाई ॥ 
पलट हरि जस ना सुनै ता को कहिये नीच । 
देखौ नाम प्रताप से सिला तिरै जल बीच ॥ 
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(१) तैरता है । (२) पुल । (३) फौज, सेना । (४) बन्दरों ने ।


कुंडलिया ( १८ )
हाथी घोड़ा खाक है कहै सुनै सो खाक ॥ 
कहै सुनै सो खाक खाक है मुलुक खजाना । 
जोरू बेटा खाक खाक जो साचै माना ।।
महल अटारी खाक खाक है बाग बगैचा ।
सेत सपेदी खाक खाक है हुक्का नैचा ।। 
साल दुसाला खाक खाक मोतिन कै माला ।
नौबतखाना खाक खाक है ससुरा साला ॥
पलटू नाम खुदाय का यही सदा है पाक । 
हाथी घोड़ा खाक है कहै सुनै सो खाक ॥ 
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कुंडलिया (१९)
हाथ जोरि आगे मिलै लै लै भेट अमीर ।। 
लै लै भेट अमीर नाम का तेज बिराजा । 
सब कोउ रगरै नाक आइ कै परजा राजा ॥ 
सकलदार१ मैं नहीं नीच फिर जाति हमारी ।
गोड़ धोय षट करम बरन पीवै लै चारी२ ॥ 
बिन लसकर बिन फौज मुलुक में फिरी दुहाई ।
जन महिमा सतनाम आयु में सरस बड़ाई ।।
सत्तनाम के लिहे से पलटू भया गँभीर ।
हाथ जोरि आगे मिलै लै लै भेट अमीर ।।
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(१) खूबसूरत। (२) छहो कम्म वाले और चारो बरन के लोग चरनामृत लेकर पीते हैं । 


कुंडलिया ( २० ) 
अदल होइ बैकुण्ठ में सब कोई पावै सुक्ख ॥ 
सब कोइ पावै सुक्ख अमल है तेज३ तुम्हारा । 
भौसागर के बीच लगै ना उतरत बारा ॥ 
लेइ तुम्हारो नाम ताहि को बार न बाँकै । 
खुले-बंद४ वह जाइ तनिक जमदूत न ताकै ॥
ब्रह्मा बिस्नु महेस नाम सुनि उठै डेराई ।
तीनि लोक के बीच फिर ना पान दुहाई ॥ 
पलट तेरी साहिबी जीव न पावै दुक्ख । 
अदल होइ बैकुण्ठ में सब कोइ पावै सुक्ख ॥ 
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( ३ ) प्रचंड । ( ४ ) बिना रोक टोक के ।


कुंडलिया ( २१ ) 
देत लेत हैं आपुहीं पलटू पलटू सोर ।।
पलटू पलटू सोर राम की ऐसी इच्छा ।
कौड़ी घर में नाहिं आपु में माँगौं भिच्छा ॥
राई परबत करें करें परबत को राई ।
अदना के सिर छत्र पैज की करैं बड़ाई ।। 
लीला अगम अपार सकल घट अंतरजामी । 
खाँहिं खिलावहिं राम देहिं हम को बदनामी ॥
हम सों भया न होयगा साहिब करता मोर ।
देत लेत हैं आपुहीं पलटू पलटू सोर ॥

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कुंडलिया (२२) 
बड़ा होय तेहि पूजिये संतन किया बिचार ॥
संतन किया बिचार ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तैंतिस कोट नजर में सब को चीन्हा ।।
सब का खंडन किया खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही मुक्ति का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि बहुर तिन मंत्र बिचारा ।
हरि हैं गुन के बीच संत हैं गुन से न्यारा ॥
पलटू प्रथमै संत जन दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये संतन किया बिचार ॥ 

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कुंडलिया (२३ ) 
सीतल चन्दन चन्द्रमा तैसे सीतल संत ।।
तैसे सीतल संत जगत की ताप बुझावैं ।
जो कोई आवै जरत मधुर मुख बचन सुनावैं ।।
धीरज सील सुभाव छिमा ना जात बखानी ।
कोमल अति मृदु बैन बज्र को करते पानी ॥
रहन चलन मुसकान ज्ञान को सुगंध लगावैं ।
तीन ताप मिट जाय संत के दर्सन पावैं ॥
पलटू ज्वाला उदर की रहै न मिटै तुरंत ।
सीतल चन्दन चन्द्रमा तैसे सीतल संत ॥ 

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कुंडलिया (२४ ) 
संत बराबर कोमल दूसर को चित नाहिं ॥
दूसर को चित नाहिं करैं सब ही पर दाया ।
हित अनहित सब एक असुभ सुभ हाथ बनाया ॥
कोमल कुसुमी चाह१ नहीं सुपने में दूषन ।
देखैं परहित लागि प्रेम रस चूखें ऊखन२
मिलनसार मुसकान बचन मृदु बोली मीठी ।
पुलकित सीतल गात सुभग रतनारी दीठी३
पलटू कौनो कछु कहै तनिको ना अकुताहिं ।
संत बराबर कोमल दूसर को चित नाहिं ॥

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(१) कुसुम फूल के समान वृत्ति जो बड़ा नाजुक होता है । ( २ ) गन्ने चूसें । (३) दृष्टि । 


कुंडलिया (२५)
राम समीपी संत हैं वे जो करैं सो होय ॥
वे जो करैं सो होय हुकुम में उन के साहिब ।
संत कहैं सोइ करैं राम ना करते बायब४
राम के घर के बीच काम सब संतै करते ।
देवता तेंतिसकोट संत से सबही डरते ॥
राई पर्वत करैं करैं परबत को राई ।
राम के घर के बीच फिरत है संत दुहाई ।।
पलटू घर में राम के और न करता कोय ।
राम समीपी संत हैं वे जो करैं सो होय ॥ 

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(४) खिलाफ।


कुंडलिया (२६ )
संत सासना सहत हैं जैसे सहत कपास ॥
जैसे सहत कपास नाय चरखा में ओटै ।
रूई धर जब तुमै हाथ से दोऊ निभोटै ॥ 
रोम रोम अलगाय पकरि कै धुनिया धूनी ।
पिउनी१ नँह२ दै कात सूत ले जुलहा बूनी ॥
धोबी भट्ठी पर धरी कुन्दीगर मुंगरी मारी ।
दरजी टुक टुक फारि जोरि के किया तयारी ॥
पर-स्वास्थ के कारने दुख सहै पलटूदास ।
संत सासना सहत हैं जैसे सहत कपास ॥ 

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(१) रुई की मोटी बत्ती जिससे सूत निकालते हैं । (२) नाखून । 


कुंडलिया (२७)
संतन के सिर ताज है सोई संत होइ जाय ॥
सोई संत होइ जाय रहै जो ऐसी रहनी ।
मुख से बोलै साच करै कछु उज्जल करनी ॥
एक भरोसा करै नहीं काहू से माँगै ।
मन में करै संतोष तनिक ना कबहूँ लागै ॥
भली बुरी कोउ कहै ताहि सुन नहिं मन माखै ।
आठ पहर दिन रात नाम की चरचा राखै ॥
पलटू रहै गरीब होय भूखे को दे खाय ।
संतन के सिर ताज है सोई संत होइ जाय ॥
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कुंडलिया (२८)
तीन लोक से जुदा है उन संतन की चाल ॥
उन संतन की चाल करम से रहते न्यारे ।
लोभ मोह हंकार ताहि की गरदन मारे ॥
काम क्रोध कछु नाहिं लगै ना भूख पियासा ।
जियतै मिर्तक रहैं करैं ना जग की आसा ।।
ऋद्धि सिद्धि को देख देत हैं खाक चलाई ।
माया से निर्विर्त भजन की करैं बड़ाई ।।
सभै चबैना काल का पलट उन्हैं न काल ।
तीन लोक से जुदा है उन संतन की चाल ॥

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(३) रोस करै ।


कुंडलिया (२९)
फाका जिकर किनात१ ये तीनों बात जगीर ।।
तीनों बात जगीर खुसी की कफनी डारै ।
दिल को करै कुसाद२ आई भी रोजी टारै ॥
इबादत३ दिन रात याद में अपनी रहना ।
खुदी खूब को खोइ जनाजा४ जियतै करना ।।
सीकन्दर और गदा५ दोऊ को एकै जानै ।
तब पावै टुक नसा फना६ का प्याला छानै ।
पलटू मस्त जो हाल में तिसका नाम फकीर ।
फाका जिकर किनात ये तीनों बात जगीर ॥ 

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(१) उपासना, समिरन और संतोष । (२) उदार । (३) आराधना । (४) रथी या टिकठी मुरदे के ले जाने को । (५) सिकन्दर बादशाह और भिखारी। (६) मौत 


कुंडलिया (30)
कबही फाका फकर है कबही लाख करोर ॥
कबही लाख करोर गमी सादी कछ नाहीं ।
ज्यों खाली त्यों भरा सबुर है मन के माहीं॥
कबही फूलन सेज हाथी की है असवारी ।
कबही सोवै भुईं पियादे मंजिल गुजारी ॥
कबहो मलमल जरी ओढ़ते साल दुसाला ।
कबही तापै आग ओढ़ि रहते मृगछाला ।।
पलटू वह यह एक है परालब्ध नहिं जोर ।
कबही फाका फकर है कबही लाख करोर ॥ 

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कुंडलिया (३१)
साध महातम बड़ा है जैसो हरि यस होय ॥
जैसो हरि यस होय ताहि को गरहन कीजै ।
तन मन धन सब वारि चरन पर तेकरे दीजै ॥
नाम से उत्पति राम संत आनाम७ समाने ।
सब से बड़ा अनाम नाम की महिमा जाने ॥
संत बोलते ब्रह्म चरन के पियै पखारन ।
बड़ा महापरसाद सीत संतन कर छाड़न ॥
पलटू संत न होवते नाम न जानत कोय ।
साध महातम बड़ा है जैसो हरि यस होय ॥

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(७) अनामी पद में ।


कुंडलिया (३२)
हरि हरिजन को दुइ कहै. सो नर नरकै जाय ॥
सो नर नरकै जाय हरिजन हरि अंतर नाहीं ।
फूलन में ज्यों बास रहैं हरि हरिजन माहीं ॥ 
संत रूप अवतार आप हरि धरि कै आये ।
भक्ति करे उपदेस जगत को राह चलाये ॥
और धरै अवतार रहै निर्गुन संजुक्ता ।
संत रूप जब धरै रहै निर्गन से मुक्ता ॥ 
पलटू हरि नारद सेती बहुत कहा समुझाय ।
हरि हरिजन को दुइ कहै सो नर नरकै जाय ॥ 

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कुंडलिया (३३)
हरि अपनो अपमान सह जन की सही न जाय ॥
जन की सही न जाय दुर्बासा की क्या गत कीन्हा१
भुवन चतुर्दस फिरे सभै दुरियाय जो दीन्हा ॥
पाहि पाहि करि परै जबै हरि चरनन जाई ।
तब हरि दोन्ह जवाब मोर बस नाहिं गुसाँई ।।
मोर द्रोह करि बचै करौं जन द्रोहक नासा ।
माफ करै अंबरीक बचौगे तब दुर्बासा ॥
पलटू द्रोही संत कर तिन्हैं सुदर्सन खाय ।
हरि अपनो अपमान सह जन की सही न जाय ॥


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(१) दुर्बासा ऋषि ने भक्त शिरोमणि राजा अंबरोक का प्रण तोड़ने को एकादशी व्रत के पारन के लिए द्वादशी का न्योता राजा का माना। जब द्वादशी बीतने लगी और ऋषि जी न आये तो राजा ने व्रत का धर्मा निबाहने को शालिगराम का चरणाम लिया कि तुर्त ऋषि जी पहुँचे और सराप देना चाहा । यह अनर्थ देख कर विष्णु ने सुदर्शन चक्र को उन पर छोड़ा, जिससे बचने को वह आप विष्णु तक की शरण में लेकिन कोई उन्हें न बचा सका; जब तक कि वह राजा अंबरीक की शरण में न आये।  


कुंडलिया (३४)
काम क्रोध जिनके नहीं लगै न भूख पियास ॥
लगै न भूख पियास रहै तिरगुन से न्यारा ।
लोभ मोह हंकार नींद की गर्दन मारा ॥
सत्रु मित्र सब एक एक है राजा रंका ।
दुख सुख जीवन मरन तनिक ना ब्यापै संका ।
कंचन लोहा एक एक है गरमी पाला ।
अस्तुति निन्दा एक एक है नगन दुसाला ॥
पलटू उनके दरस से होत पाप को नास ।
काम क्रोध जिनके नहीं लगै न भूख पियास ॥ 

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कुंडलिया ( ३५ )
ना काहू से दुष्टता ना काहू से रोच१ ।।
ना काहू से रोच दोऊ को इक-रस जाना ।
बैर भाव सब तजा रूप अपना पहिचाना ॥
जो कंचन सो काँच दोऊ की आसा त्यागी ।
हारि जोत कछु नाहिं प्रीति इक हरि से लागी ॥
दुख सुख संपति बिपति भाव ना यहु से दूजा ॥
जो बाम्हन सो सुपच२ दृष्टि सम३ की पूजा ॥
ना जियने की खुसी है पलटू मुए न सोच ।
ना काहू से दष्टता ना काहू से रोच ॥

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(१) रुचि, प्यार । (२) डोम । ( ३ ) बराबर ।


कुंडलिया ( ३६ )
पिसना पीसै राँड़ री पिउ पिउ करै पुकार ॥ 
पिउ पिउ करै पुकार जगत को प्रेम दिखावै ।
कहवै कथा पुरान पिया को तनिक न भावै ॥
खिन रोवै खिन हँसै ज्ञान की बात बतावै । 
आप न रीझै भाँड़ और को बैठि रिझावै ॥
सुनै न वा की बात तनिक जो अंतर जानी ।
चाहै भेटा पीव चलै ना सुपथ रहानी ॥
पलटू ऊपर से कहै भीतर भरा बिकार ।
पिसना पीसै राँड़ री पिव पिव करै पुकार ।। 

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कुंडलिया ( ३७ )
पर दुख कारन दुख सहै सन असंत है एक ॥
सन असंत है एक काट के जल में सारै ।
कूँचै खैंचै खाल उपर से मुंगरा मारै ॥
तेकर बटि के भाँजि भाँजि के बरतै रसरा ।
नर की बाँधै मुसुक बाँधते गउ और बछरा ।।
अमरजाल फिर होय बझावै जलचर१ जाई ।
खग मृग जीवा जंतु तेही में बहुत बझाई ।
जिव दे जिव संतावते पलट उन की टेक ।
पर दुख कारन दुख सहै सन असंत है एक ॥ 

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कुंडलिया ( ३८)
बिस्वा किये सिंगार है बैठी बीच बजार ॥
बैठी बीच बजार नजारा सब से मारै ।
बातैं मीठी करै सभन की गाँठि निहारै ।।
चोवा चंदन लाइ पहिरि के मलमल खासा ।
पंचभतारी भई करै औरन की आसा ॥
लेइ खसम को नाँव खसम से परिचै नाहीं । 
बेचि बड़न को नाँव सभन को उगि ठगि खाहीं ।।
पलटू तेकर बात है जेकरे एक भतार ।
बिस्वा किये सिंगार है बैठी बीच बजार ।।

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कुंडलिया (३९)
हवा हिरिस पलटू लगी नाहक भये फकीर ।।
नाहक भये फकीर पीर की सेवा नाहीं ।
अपने मुँह से बड़े कहावैं सब से जाहीं ॥
धमधूसर होइ रहे बात में सब से लड़ते ।
लाम काफ१ वो कहैं इमान को नाहीं डरते ॥
हमहीं हैं दुरवेस और ना दूसर कोई ।
सब को देहिं मुराद यकीन से ओकरे होई ।।
मन मुरीद होवै नहीं आप कहावै पीर ।।
हवा हिरिस पलटू लगी नाहक भये फकीर ॥

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कुंडलिया (४०)
जौं लगि फाटै फिकिर ना गई फकीरी खोय ॥
गई फकीरी खोय लगी है मान बड़ाई ।
मोर तोर में परा नाहिं छूटी दुचिताई ॥
दुख सुख संपति विपति सोच दोऊ की लागी ।
जीवन की है चाह मरन की डेर नहिं त्यागी ।
कौड़ी जिव के संग रैन दिन करै कलपना ।
दुष्ट कहै दुख देइ मित्र को जानै अपना ॥
पलटू चिन्ता लगी है जनम गँवाये रोय ।
जौं लगि फाटै फिकिर ना गई फकीरी खोय ॥

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(१) गाली देना । (२) सच्चे फकीर । (३) शत्रु । 


कुंडलिया ( ४१ )
क्या सोवै तू बावरी चाला जात बसंत ॥
चाला जात बसंत कंत ना घर में आये ।
धृग जीवन है तोर कंत बिन दिवस गँवाये ।।
गर्व गुमानी नारि फिरै जोवन की माती ।
खसम रहा है रूठि नहीं तू पठवै पाती ।।
लगै न तेरो चित्त कंत को नाहिं मनावै ।
का पर करै सिंगार फूल की सेज बिछावै ॥
पलटू ऋतु भरि खेलि ले फिर पछितैहै अंत ।
क्या सोवै तू बावरी चाला जाता बसंत ।।

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कुंडलिया (४२) 
खेलु सिताबी फाग तू बीती जात बहार ।।
बीती जात बहार सम्बत लगने पर आया ।
लीजै डफ्फ बजाय सुभग मानुष तन पाया ।।
खेलो घूँघट खोलि लाज फागुन में नाहीं ।
जे कोउ करिहै लाज काज ना सपनेहुँ माहीं ॥
प्रेम की माट भराय सुरति की करु पिचुकारी ।
ज्ञान अबीर बनाय नाम की दीजै गारी ॥
पलटू रहना है नहीं सुपना यह संसार ।
खेलु सिताबी फाग तू बीती जात बहार ॥

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कुंडलिया (४३)
तू क्यों गफलत में फिरै सिर पर बैठा काल ॥
सिर पर बैठा काल दिनो दिन वादा पूजै ।
आज काल में कूच मुरख नहिं तोकँह सूझै ॥
कौड़ी कौड़ी जोरि ब्याज दे करते बट्टा ।
सुखी रहै परिवार मुक्ति में होवत ठट्ठा ।।
तू जाने मैं ठग्यो आप को तुही ठगावै ।
नाम सजीवन मूर छोरि के माहुर खावै ।।
पलटू सेखी ना रही चेत करो अब लाल ।
तू क्यों गफलत में फिरै सिर पर बैठा काल ।। 

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कुंडलिया (४४)
गरमै गरमै हेलुवा गंफा लीजै मारि ॥
गंफा लीजै मारि मनुष तन जात सिराना ।
भजि लीजै भगवान काल सिर पर नियराना ॥
मीठा है हरि नाम जियन का नाहिं भरोसा ।
खाय लेहु भरि पेट आगे से जात परोसा ॥
लीजै लाहा लूटि दिना दुइ संतन पासा ।
अज हूँ चेत गँवार जात है खाली स्वासा ।।
पलटू अटक न कीजिये कूच है साँझ सकारि ।
गरमै गरमै हेलुवा गंफा लीजै मारि ॥ 

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कुंडलिया (४५)
सुर नर मुनि जोगी जती सभै काल बसि होय ॥
सभै काल बसि होय मौत कालौ की होती ।
पारब्रह्म भगवान मरै ना अबिगत जोती ।।
जा को काल डेराय ओट ताही की लीजै ।
काल की कहा बसाय भक्ति जो गुरु की कीजै ॥
जरामरन मिटि जाय सहज में औना जाना ।
जपि के नाम अनाम संत जन तत्व समाना ।।
बेद धनंतर मरि गया पलटू अमर न कोय ।
सुर नर मुनि जोगी जती सभै काल बसि होय ॥

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कुंडलिया (४६ )
चोला भया पुराना आज फटै की काल ॥
आज फटै की काल तेहू पै है ललचाना ।
तीनों पन गे बीत भजन का मरम ना जाना ॥
नख सिख भये सपेद तेहू पै नाहीं चेतै ।
जोरि जोरि धन धरै गला औरन का रेतै ॥
अब का करिहौ यार काल ने किहा तगादा । 
चलै न एकौ जोर प्राय जब पहुँचा वादा ।।
पलटू तेहु पै लेत है माया मोह जँजाल ।
चोला भया पुराना आज फटै की काल ।। 

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कुंडलिया (४७)
धूआँ का धौरेहरा ज्यों बालू की भीत ॥
ज्यों बालू की भीत ताहि को कौन भरोसा ।
ज्यों पक्का फल डारि गिरत से लगै न दोसा ॥
कच्चे घड़े ज्यों नीर पानी के बीच बतासा ।
दारू१ भीतर अगिनि जिवन की ऐसी आसा ॥
पलटू नर तन जात है घास के ऊपर सीत ।
धूआँ का धौरेहरा ज्यों बालू की भीत ॥

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(१) लकड़ी ।


कुंडलिया (४८)
यही दिदारी दार२ है सुनहु मुसाफिर लोग ।।
सुनहु मुसाफिर लोग भेट फिर बहुरि न होना ।
को तुम को हम आय मिले सपने में सोना ।।
हिल मिल दिन दस रहे ताहि को सोच न कीजै ।
कोऊ है थिर नाहिं दोस ना हम को दीजै ॥
अहिर बाँधि के गाय एक लेहड़े में आनी ।
कूवाँ की पनिहारि गई ले घर घर पानी ॥
पलटू मछरी आम ज्यों नदी नाव संजोग ।
यही दिदारी दार है सुनहु मुसाफिर लोग ॥

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 ( २) सराय ।


कुंडलिया (४९)
आग लगी लंका दहै उन्चासौ बही बयार ।।
उन्चासौ बही बयार ताहि को कौन बचावै ।
घर के प्रानी रहे सोऊ आगी गुहरावै ॥
पाटी घर की नारि सगा भाई अलगाना ।
बड़े मित्र जो रहे भये सब सत्रु समाना ॥
कंचन कौ सब नगर रती कौ रावन तरसै ।
दिया सिन्धु ने थाह ऊपर से पर्बत बरसै ।।
पलटू जेहि ओर राम हैं तेहि ओर सब संसार ।
आग लगी लंका दहै उन्चासौ वही बयार ॥ 

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कुंडलिया (५०)
 भजन आतुरी१ कीजिये और बात में देर ॥ 
और बात में देर जगत में जीवन थोरा ।
मानुष तन धन जात गोड़ धरि करौ निहोरा ॥
काँचे महल के बीच पवन इक पंछी रहता ।
दस दरवाजा खुला उड़न को नित उठि चहता ॥
भजि लीजै भगवान एही में भल है अपना ।
आवागौन छुटि जाय जनम की मिटै कलपना ॥
पलटू अटक न कीजिये चौरासी घर फेर ।
भजन आतुरी कीजिये और बात में देर ॥

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(१) जल्दी, बिना टाल टूल के

श्री सद्गुरु महाराज की जय!
* गुरु आश्रित महाशय कैलाश प्रसाद चौधरी जी , कटिहार (बिहार) की सहायता एवं पूर्ण समर्पण से पुष्पित *