श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1295 कानड़ा महला ४ ॥ जपि मन राम नाम परगास ॥ हरि के संत मिलि प्रीति लगानी विचे गिरह उदास ॥१॥ रहाउ ॥ हम हरि हिरदै जपिओ नामु नरहरि प्रभि क्रिपा करी किरपास ॥ अनदिनु अनदु भइआ मनु बिगसिआ उदम भए मिलन की आस ॥१॥ हम हरि सुआमी प्रीति लगाई जितने सास लीए हम ग्रास ॥ किलबिख दहन भए खिन अंतरि तूटि गए माइआ के फास ॥२॥ किआ हम किरम किआ करम कमावहि मूरख मुगध रखे प्रभ तास ॥ अवगनीआरे पाथर भारे सतसंगति मिलि तरे तरास ॥३॥ जेती स्रिसटि करी जगदीसरि ते सभि ऊच हम नीच बिखिआस ॥ हमरे अवगुन संगि गुर मेटे जन नानक मेलि लीए प्रभ पास ॥४॥३॥ {पन्ना 1295} शब्दार्थ: जपि = जपा कर। मन = हे मन! परगास = (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश। मिलि = मिल के। गिरह = गृहस्त।1। रहाउ। हम = हम जीव, जो प्राणी। हिरदै = हृदय में। नरहरि = परमात्मा। प्रभि = प्रभू ने। किरपास = (कृपाशय) कृपाल। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बिगसिआ = खिल उठा।1। सास = सांस। ग्रास = ग्रास। किलबिख = पाप। दहन भऐ = जल गए। फास = फंदे।2। किरम = कीड़े। मुगध = मूर्खं। प्रभ तास = उस प्रभू ने। तरास = उसने तार लिया।3। जगदीसरि = जगत के ईसर ने। ते सभि = वे सारे। बिखिआसु = विषियों में फसे हुए। संगि = साथ। संगि गुर = गुरू की संगति में।4। सरलार्थ: हे मन! परमात्मा का नाम जपा कर, (नाम की बरकति से आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश (हो जाता है)। परमात्मा के संत जनों को मिल के (जिनके अंदर परमात्मा का) प्यार बन जाता है, वे गृहस्थ में ही (माया के मोह से) निर्लिप रहते हैं।1। रहाउ। हे भाई! कृपालु प्रभू ने (जब हम जीवों पर) मेहर की, हमने हृदय में उसका नाम जपा। (नाम की बरकति से) हर वक्त (हमारे अंदर) आनंद बन गया, (हमारा) मन खिल उठा, (सिमरन का और भी ज्यादा) उद्यम हो गया, (प्रभू को) मिलने की आस बनती गई।1। हे भाई! हम जिन जीवों के अंदर परमात्मा का प्यार बना (और) जिन्होंने हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ (नाम जपा, उनके) एक छिन में ही सारे पाप जल गए, माया के फंदे टूट गए।2। पर, हे भाई! हम जीवों की क्या बिसात है? हम तो कीड़े हैं। हम क्या कर्म कर सकते हैं? हम मूर्खों की तो वह प्रभू (स्वयं ही) रक्षा करता है। हम अवगुणों से भरे रहते हैं, (अवगुणों के भार से) पत्थर के समान भारे हैं (हम कैसे इस संसार-समुंद्र में से तैर सकते हैं?) साध-संगति में मिल के ही पार लांघ सकते हैं, (वह मालिक) पार लंघाता है।3। हे भाई! जगत के मालिक प्रभू ने जितनी भी सृष्टि रची है (इसके) सारे जीव-जंतु (हम मनुष्य कहलवाने वालों से) ऊँचे हैं, हम विषौ-विकारों में पड़ कर नीच हैं। हे दास नानक! प्रभू हमारे अवगुण गुरू की संगति में मिटाता है। गुरू हमें प्रभू के साथ मिलाता है।4।3। कानड़ा महला ४ ॥ मेरै मनि राम नामु जपिओ गुर वाक ॥ हरि हरि क्रिपा करी जगदीसरि दुरमति दूजा भाउ गइओ सभ झाक ॥१॥ रहाउ ॥ नाना रूप रंग हरि केरे घटि घटि रामु रविओ गुपलाक ॥ हरि के संत मिले हरि प्रगटे उघरि गए बिखिआ के ताक ॥१॥ संत जना की बहुतु बहु सोभा जिन उरि धारिओ हरि रसिक रसाक ॥ हरि के संत मिले हरि मिलिआ जैसे गऊ देखि बछराक ॥२॥ हरि के संत जना महि हरि हरि ते जन ऊतम जनक जनाक ॥ तिन हरि हिरदै बासु बसानी छूटि गई मुसकी मुसकाक ॥३॥ तुमरे जन तुम्ह ही प्रभ कीए हरि राखि लेहु आपन अपनाक ॥ जन नानक के सखा हरि भाई मात पिता बंधप हरि साक ॥४॥४॥ {पन्ना 1295} शब्दार्थ: मेरै मनि = मेरे मन ने। गुर वाक = गुरू के बचनों के अनुसार। जगदीसरि = जगत के ईश्वर (मालिक) ने। दुरमति = खोटी अकल। दूजा भाउ = (प्रभू के बिना) और का प्यार। झाक = ताक, लालसा। सभ = सारी।1। रहाउ। नाना = कई किस्मों के। केरे = के। घटि घटि = हरेक शरीर में। रविओ = व्यापक है। गुपलाक = गुप्त। प्रगटे = प्रकट हो गए, दिख पड़े। ताक = भिक्ति, कपाट। बिखिआ = माया।1। उरि = हृदय में। रसिक रसाक = रसिए, प्रेमी। देखि = देख के। बछराक = बछरा।2। महि = में। ते जन = वे मनुष्य (बहुवचन)। जनक जनाक = जन, संत जन। हिरदै = हृदय में। बासु = सुगंधि। छूटि गई = खत्म हो गई। मुसक मुसकाक = बदबू, दुर्गंध।3। प्रभ = हे प्रभू! आपन अपनाक = अपने अपना के, अपने बना के। सखा = मित्र। साक = सन्बंधी।4। सरलार्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर) जगत के मालिक हरी ने मेहर की (उसने गुरू के बचनों पर चल के प्रभू का नाम जपा, और उसके अंदर से) खोटी बुद्धि दूर हो गई, माया का मोह समाप्त हो गया, (माया वाली) सारी झाक खत्म हो गई। हे भाई! मेरे मन ने भी गुरू के बचनों पर चल कर परमात्मा का नाम जपा है।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा के कई किस्मों के रूप हैं, कई किस्मों के रंग हैं। हरेक शरीर में परमात्मा गुप्त बस रहा है। जिन मनुष्यों को परमात्मा के संत-जन मिल जाते हें, उनके अंदर परमात्मा प्रकट हो जाता है। उन मनुष्यों के माया के (मोह वाले बँद) कपाट खुल जाते हैं।1। हे भाई! जिन रसिए संतजनों ने अपने हृदय में परमात्मा को बसा लिया, उनकी (जगत में) बहुत शोभा होती है। जिन मनुष्यों को प्रभू के इस तरह के संतजन मिल जाते हैं, उनको परमात्मा मिल जाता है (वे इस तरह प्रसन्न-चिक्त रहते हैं) जैसे गाय को देख के उसका बछड़ा।2। हे भाई! परमात्मा अपने संतजनों के अंदर (प्रत्यक्ष बसता है), वे संत-जन और सब मनुष्यों के मुकाबले ऊँचे जीवन वाले होते हैं। उन्होंने अपने दिल में हरी-नाम की सुगन्धि बसा ली होती है (इसलिए उनके अंदर से विकारों की) बदबू समाप्त हो जाती है।3। हे प्रभू! अपने सेवकों को तू स्वयं ही (अच्छे) बनाता है; उनको तू खुद ही अपने बना के उनकी रक्षा करता है। हे नानक! प्रभू जी अपने सेवकों के मित्र हैं, भाई हैं, माँ हैं, पिता हैं, और साक-सन्बन्धी हें।4।4। कानड़ा महला ४ ॥ मेरे मन हरि हरि राम नामु जपि चीति ॥ हरि हरि वसतु माइआ गड़्हि वेड़्ही गुर कै सबदि लीओ गड़ु जीति ॥१॥ रहाउ ॥ मिथिआ भरमि भरमि बहु भ्रमिआ लुबधो पुत्र कलत्र मोह प्रीति ॥ जैसे तरवर की तुछ छाइआ खिन महि बिनसि जाइ देह भीति ॥१॥ हमरे प्रान प्रीतम जन ऊतम जिन मिलिआ मनि होइ प्रतीति ॥ परचै रामु रविआ घट अंतरि असथिरु रामु रविआ रंगि प्रीति ॥२॥ हरि के संत संत जन नीके जिन मिलिआं मनु रंगि रंगीति ॥ हरि रंगु लहै न उतरै कबहू हरि हरि जाइ मिलै हरि प्रीति ॥३॥ हम बहु पाप कीए अपराधी गुरि काटे कटित कटीति ॥ हरि हरि नामु दीओ मुखि अउखधु जन नानक पतित पुनीति ॥४॥५॥ {पन्ना 1295-1296} शब्दार्थ: मन = हे मन! जपि = जपा कर। चीति = चित में, अपने अंदर। वसतु = कीमती चीज़। गढ़ि = किले में। वेढ़ी = घिरी हुई। कै सबदि = शबद से। गढ़ = किला।1। रहाउ। मिथिआ = नाशवंत (पदार्थों की खातिर)। भरमि = भटक के। भरमि भरमि भ्रमिआ = सदा ही भटकता फिरता है। लुबधो = फसा हुआ। कलत्र = स्त्री। तरवर = वृक्ष। छाइआ = छाया। तुछ = थोड़े समय के लिए ही। देह = शरीर। भीति = दीवार।1। प्रान प्रीतम = प्राणों से प्यारे। मनि = मन में। प्रतीति = श्रद्धा। परचै = प्रसन्न होता है। रविआ = व्यापक। घट अंतरि = शरीर में। असथिरु = सदा कायम रहने वाला। रंगि = प्रेम से।2। नीके = अच्छे। रंगि रंगीति = प्रेम रंग में रंगा जाता है। रंगु = प्रेम रंग। जाइ = जा के।3। गुरि = गुरू ने। कटित कटीति = काट काट के। काटे कटित कटीति = पूरी तौर पे काट दिए। मुखि = मुँह में। अउखधु = दवाई। पतित = विकारी। पुनीति = पवित्र।4। सरलार्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा अपने अंदर जपा कर। (हे भाई! तेरे अंदर) परमात्मा का नाम एक कीमती चीज़ (है, पर वह) माया के (मोह के) किले में घिरा पड़ा है (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह उस) किले को गुरू के शबद के द्वारा जीत लेता है।1। रहाउ। हे भाई! (जीव) नाशवंत पदार्थों की खातिर सदा ही भटकता फिरता है, पुत्र स्त्री के मोह-प्यार में फसा रहता है। पर, जैसे वृक्ष की छाया थोड़े ही समय के लिए होती है, वैसे ही मनुष्य का अपना ही शरीर एक छिन में ढह जाता है (जैसे कि कच्ची) दीवार।1। हे भाई! परमात्मा के सेवक ऊँचे जीवन वाले होते हैं, वे हमें प्राणों से भी प्यारे लगते हैं, क्योंकि उनको मिल के मन में (परमात्मा के लिए) श्रद्धा पैदा होती है, परमात्मा प्रसन्न होता है, सब शरीरों में बसता दिखता है, उस सदा कायम रहने वाले प्रभू को प्रेम-रंग में सिमरा जा सकता है।2। हे भाई! परमात्मा के भगत अच्छे जीवन वाले होते हैं, क्योंकि उनको मिल के मन प्रेम-रंग में रंगा जाता है। प्रभू-प्रेम का वह रंग कभी उतरता नहीं, कभी फीका नहीं पड़ता। उस प्रेम की बरकति से मनुष्य परमात्मा के चरणों में आ पहुँचता है।3। हे भाई! हम जीव बड़े पाप करते रहते हैं, हम बड़े दुष्कर्मी हें (जो भी मनुष्य गुरू की शरण आ पड़े) गुरू ने (उनके सारे पाप) पूरी तौर पर काट दिए। हे दास नानक! (कह- गुरू ने जिन्हों के) मॅुंह में परमात्मा का नाम-दारू दिया, उनको विकारियों से पवित्र जीवन वाला बना दिया।4।5। |
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