श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1135

भैरउ महला ४ ॥ ते साधू हरि मेलहु सुआमी जिन जपिआ गति होइ हमारी ॥ तिन का दरसु देखि मनु बिगसै खिनु खिनु तिन कउ हउ बलिहारी ॥१॥ हरि हिरदै जपि नामु मुरारी ॥ क्रिपा क्रिपा करि जगत पित सुआमी हम दासनि दास कीजै पनिहारी ॥१॥ रहाउ ॥ तिन मति ऊतम तिन पति ऊतम जिन हिरदै वसिआ बनवारी ॥ तिन की सेवा लाइ हरि सुआमी तिन सिमरत गति होइ हमारी ॥२॥ जिन ऐसा सतिगुरु साधु न पाइआ ते हरि दरगह काढे मारी ॥ ते नर निंदक सोभ न पावहि तिन नक काटे सिरजनहारी ॥३॥ हरि आपि बुलावै आपे बोलै हरि आपि निरंजनु निरंकारु निराहारी ॥ हरि जिसु तू मेलहि सो तुधु मिलसी जन नानक किआ एहि जंत विचारी ॥४॥२॥६॥ {पन्ना 1135}

शब्दार्थ: ते = वह (बहुवचन)। हरि = हे हरी! सुआमी = हे स्वामी! जिन जपिआ = जिन को याद करने से ('जिन' बहुवचन)। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। तिन = (बहुवचन)। देखि = देख के। बिगसै = खिल उठता है। तिन कउ = (बहुवचन) उन पर। हउ = मैं। बलिहारी = कुर्बान।1।

हिरदै = हृदय में। जपि = मैं जपूँ। मुरारी नामु = (मुर+अरि। अरि = वैरी) परमात्मा का नाम। जगत पित = हे जगत के पिता! सुआमी = हे स्वामी! दासनि दास कीजै = दासों का दास बना ले। पनिहारी = पानी ढोने वाला सेवक।1। रहाउ।

पति = इज्जत। जिन हिरदै = जिन के हृदय में। बनवारी = (सारी बनस्पति है माला जिसकी) परमात्मा। हरि सुआमी = हे हरी! हे स्वामी! लाइ = जोड़े रख। तिन सिमरत = उनको याद करने से।2।

जिन = जिन (मनुष्यों) ने। ते = वह लोग। काढे मारी = मार के निकाले जाते हैं। सोभ = शोभा। सिरजनहारी = सृजनहार ने।3।

निरंजनु = निर+अंजनु, माया के मोह की कालिख से रहित (अंजन = कालख)। निरंकारु = आकार रहित; जिसका कोई खास स्वरूप बताया नहीं जा सकता। निराहारी = निर+आहारी (आहर = खुराक) जिसको किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं पड़ती। हरि = हे हरी! तुधु = तुझे। ऐहि = ('एह' का बहुवचन)। विचारी = बेचारे, निमाणे।4।

सरलार्थ: हे हरी! हे जगत के पिता! हे स्वामी! (मेरे पर मेहर कर) मैं (सदा) तेरा नाम जपता रहूँ। (मेरे पर) मेहर कर, मेहर कर, मुझे अपने दासों का दास बना ले, मुझे अपने दासों का पानी ढोने वाला सेवक बना ले।1। रहाउ।

हे हरी! हे स्वामी! मुझे उन गुरमुखों से मिलाप करा दे, जिनको याद करने से मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बन जाए, उनका दर्शन करके मेरा मन खिला रहे। हे हरी! मैं एक-एक छिन उनसे सदके जाता हूँ।1।

हे भाई! जिन (गुरमुखों) के दिल में परमात्मा का नाम (सदा) बसता है, उनकी मति श्रेष्ठ होती है, उनको (लोक-परलोक में) उक्तम आदर मिलता है। हे हरी! हे स्वामी! मुझे उन (गुरमुखों की) सेवा में लगाए रख, उनको याद करने से मुझे उच्च आत्मिक अवस्था मिल सकती है।2।

हे भाई! (जिस गुरू की शरण पड़ने से ऊँची आत्मिक अवस्था मिल जाती है) जिन मनुष्यों को ऐसा साधू गुरू नहीं मिला, वह मनुष्य परमात्मा की हजूरी में से धक्के मार के बाहर निकाल दिए जाते हैं। वह निंदक मनुष्य (कहीं भी) शोभा नहीं पाते। सृजनहार ने (स्वयं) उनका नाक-कान काट दिया हुआ है।3।

(पर जीवों के भी क्या वश?) जो परमात्मा माया के प्रभाव से परे रहता है, जिस परमात्मा का कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता, जिस परमात्मा को (जीवों की तरह) किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं, वह परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों को) बोलने की प्रेरणा देता है, वह परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों में बैठा) बोलता है।

हे नानक! (कह-) हे हरी! जिस मनुष्य को तू (अपने साथ) मिलाता है, वही तुझे मिल सकता है। इन निमाणे जीवों के वश में कुछ नहीं है।4।2।6।

भैरउ महला ४ ॥ सतसंगति साई हरि तेरी जितु हरि कीरति हरि सुनणे ॥ जिन हरि नामु सुणिआ मनु भीना तिन हम स्रेवह नित चरणे ॥१॥ जगजीवनु हरि धिआइ तरणे ॥ अनेक असंख नाम हरि तेरे न जाही जिहवा इतु गनणे ॥१॥ रहाउ ॥ गुरसिख हरि बोलहु हरि गावहु ले गुरमति हरि जपणे ॥ जो उपदेसु सुणे गुर केरा सो जनु पावै हरि सुख घणे ॥२॥ धंनु सु वंसु धंनु सु पिता धंनु सु माता जिनि जन जणे ॥ जिन सासि गिरासि धिआइआ मेरा हरि हरि से साची दरगह हरि जन बणे ॥३॥ हरि हरि अगम नाम हरि तेरे विचि भगता हरि धरणे ॥ नानक जनि पाइआ मति गुरमति जपि हरि हरि पारि पवणे ॥४॥३॥७॥ {पन्ना 1135}

शब्दार्थ: साई = वही (स्त्री लिंग)। जितु = जिस में। कीरति = सिफत सालाह। सुनणे = सुनी जाए। भीना = भीग गया। तिन चरणे = उनके चरण। हम से्रवह = हम सेवहि, हम सेवा करें।1।

जग जीवनु = जगत का आसरा प्रभू। धिआइ = सिमर के। तरणे = (संसार समुंद्र से) पार लांघते हैं। असंख = अनगिनत (संख्या = गिनती)। हरि = हे हरी! जिहवा = जीभ। इतु = इससे। जिहवा इतु = इस जीभ से।1। रहाउ।

गुरसिख = हे गुरू के सिखो! ले = ले कर। केरा = का। घणो = बहुत।2।

धंनु = शोभा वाला। वंसु = कुल, खानदान। जिनि = जिस ने। जन = भगत। जणे = पैदा हुए, जनम दिया। जिन = जिन्होंने (बहुवचन)। 'जिनि' (एकवचन)। सासि = (हरेक) सांस के साथ। गिरासि = (हरेक) ग्रास के साथ। से = वह (बहुवचन)। साची = सदा कायम रहने वाली। बणे = शोभा वाले हुए।3।

अगम = अपहुँच। धरणे = रखे हुए हैं। जनि = जन ने, (जिस) सेवक ने। पारि पवणे = पार लांघ जाते हैं।4।

सरलार्थ: हे भाई! जगत के जीवन प्रभू को हरी को सिमर के संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है। हे हरी! (तेरी उस्तति से बने हुए) तेरे नाम अनेकों हैं अनगिनत हैं, इस जीभ से गिने नहीं जा सकते।1। रहाउ।

हे हरी! (वही एकत्रता) तेरी साध-संगति (कहलवा सकती) है, जिसमें, हे हरी! तेरी सिफतसालाह (तेरी उस्तति) सुनी जाती है। हे भाई! (साध-संगति में रह के) जिन मनुष्यों ने परमात्मा का नाम सुना है (साध-संगति में टिक के) जिनका मन (हरी-नाम-अमृत में) भीग गया है, मैं उनके चरणों की सेवा करनी (अपना) सौभाग्य समझता हूँ।1।

हे गुरू के सिखो! गुरू की शिक्षा ले के परमात्मा का नाम उचारा करो, परमात्मा की सिफतसालाह गाया करो, हरी का नाम जपा करो। हे गुरसिखो! जो मनुष्य गुरू का उपदेश (श्रद्धा से) सुनता है, वही हरी के दर से बहुत सुख प्राप्त करता है।2।

हे भाई! भाग्यशाली है वह कुल, धन्य है वह पिता धन्य है वह माँ जिसने भगत-जनों को जन्म दिया। हे भाई! जिन मनुष्यों ने अपने हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ परमात्मा का नाम सिमरा है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा की दरगाह में शोभा वाले बन जाते हैं।3।

हे हरी! (तेरे बेअंत गुणों के कारण) तेरे बेअंत ही नाम हैं, तूने अपने वह नाम अपने भगतों के हृदय में टिकाए हुए हैं। हे नानक! जिस-जिस सेवक ने गुरू की मति पर चल के परमात्मा का नाम प्राप्त किया है, वह सदा नाम जप के संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।4।3।7।

ऊपर जाएँ!

धन्यवाद!