श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1103 बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार ॥ जिह घरु बनु समसरि कीआ ते पूरे संसार ॥१॥ सार सुखु पाईऐ रामा ॥ रंगि रवहु आतमै राम ॥१॥ रहाउ ॥ जटा भसम लेपन कीआ कहा गुफा महि बासु ॥ मनु जीते जगु जीतिआ जां ते बिखिआ ते होइ उदासु ॥२॥ अंजनु देइ सभै कोई टुकु चाहन माहि बिडानु ॥ गिआन अंजनु जिह पाइआ ते लोइन परवानु ॥३॥ कहि कबीर अब जानिआ गुरि गिआनु दीआ समझाइ ॥ अंतरगति हरि भेटिआ अब मेरा मनु कतहू न जाइ ॥४॥२॥ {पन्ना 1103} शब्दार्थ: बनहि = बन में, जंगल में। जउ लउ = जब तक। मनहु = मन से। न तजहि = तू नहीं त्यागता। जिह = जिन्होंने। समसरि = बराबर, एक समान। पूरे = पूरन मनुष्य।1। सार = श्रेष्ठ। रामा = प्रभू का नाम सिमरने से, प्रभू से। रंगि = प्रेम से। आतमै = आत्मा में, अपने अंदर। रवहु = सिमरो।1। रहाउ। कीह = क्या हुआ? कोई लाभ नहीं। बिखिआ ते = माया से।2। अंजनु = सुरमा। देइ = देता है, पाता है। टुकु = थोड़ा सा, रक्ती भर। चाहन = चाहत, भावना, नीयत। बिडानु = भेद, फर्क। जिह = जिन्होंने। लोइन = आँखें।3। गुरि = गुरू ने। अंतरगति = अंदर हृदय में बैठा हुआ। भेटिआ = मिला। कतहू = और किस तरफ।4। सरलार्थ: असल श्रेष्ठ सुख प्रभू का नाम सिमरने से ही मिलता है; (इस वास्ते हे भाई!) अपने हृदय में ही प्रेम से राम का नाम सिमरो।1। रहाउ। जब तक, (हे भाई!) तू अपने मन में से विकार नहीं छोड़ता, जंगल में जा बसने से परमात्मा कैसे मिल सकता है? जगत में संपूर्ण पुरख वही हैं जिन्होंने घर और जंगल को एक जैसा जान लिया है (भाव, गृहस्त में रहते हुए भी त्यागी हैं)।1। अगर तुम जटा (धार के उन पर) राख लगा ली, या किसी गुफा में जा कर डेरा लगा लिया, तो भी क्या हुआ? (माया का मोह इस तरह नहीं छोड़ता)। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया है उन्होंने (मानो) सारे जगत को जीत लिया, क्योंकि मन जीतने से ही माया से उपराम हुआ जाता है।2। हर कोई (आँख में) सुरमा डाल लेता है, पर (सुरमा डालने वाले की) नीयत में फर्क हुआ करता है (कोई सुरमा डालता है विकारों के लिए, और कोई आँखों की नजर अच्छी रखने के लिए। वैसे ही, माया के बँधनों से निकलने के लिए उद्यम करने की आवश्यक्ता है, पर उद्यम उद्यम में फर्क है) वहीं आँखें (प्रभू की नज़र में) कबूल हैं जिन्होंने (गुरू के) ज्ञान का सुरमा डाला है।3। कबीर कहता है-मुझे मेरे गुरू ने (जीवन के सही रास्ते का) ज्ञान बख्श दिया है। मुझे अब समझ आ गई है। (गुरू की कृपा से) मेरे अंदर बैठा हुआ परमात्मा मुझे मिल गया है, मेरा मन (जंगल गुफा आदि) किसी और तरफ नहीं जाता।4।2। शबद का भावार्थ: गृहस्त को त्यागने से असल सुख की प्राप्ति नहीं होती। विकार तो अंदर ही टिके रहते हैं। गुरू के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का सिमरन करो, इस तरह गृहस्त में रहते हुए ही त्यागी रहोगे। रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज ॥ तेरे कहने की गति किआ कहउ मै बोलत ही बड लाज ॥१॥ रामु जिह पाइआ राम ॥ ते भवहि न बारै बार ॥१॥ रहाउ ॥ झूठा जगु डहकै घना दिन दुइ बरतन की आस ॥ राम उदकु जिह जन पीआ तिहि बहुरि न भई पिआस ॥२॥ गुर प्रसादि जिह बूझिआ आसा ते भइआ निरासु ॥ सभु सचु नदरी आइआ जउ आतम भइआ उदासु ॥३॥ राम नाम रसु चाखिआ हरि नामा हर तारि ॥ कहु कबीर कंचनु भइआ भ्रमु गइआ समुद्रै पारि ॥४॥३॥ {पन्ना 1103} शब्दार्थ: जा कउ = जिस मनुष्य को। रिधि सिधि फुरी = रिद्धियां सिद्धियां जाग उठती हैं, सोचने से ही रिद्धियां सिद्धियां हो जाती हैं। काहू सिउ = किसी और से। काज = काम, मुथाजी। कहने की = (सिर्फ मुँह से कही) बातों की। किआ कहउ = मैं क्या कहूँ? लाज = शर्म।1। जिह = जिन मनुष्यों ने। ते = वह लोग। बारै बार = दर दर पर।1। रहाउ। डहकै = भटकता है। घना = बहुत। दिन दुइ = दो दिनों के लिए। उदकु = जल, अमृत। तिहि = उनको। बहुरि = दोबारा।2। जिह = जिस मनुष्य ने। निरासु = आशा रहित। सभु = हर जगह। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू। उदासु = उपराम।3। हर तारि = हर तालि, हरेक ताल में, हरेक करिश्मे में। कंचनु = सोना। भ्रमु = भुलेखा, भटकना।4। सरलार्थ: (हे जोगी!) जिन लोगों को सचमुच परमात्मा मिल जाता है, वह (भिक्षा माँगने के लिए) दर-दर पर नहीं भटकते।1। रहाउ। (हे जोगी! तू कहता है, 'मुझे रिद्धियां-सिद्धियां आ गई हैं', पर) तेरे निरी (ये बात) कहने की हालत मैं क्या बताऊँ? मुझे तो बात करते हुए शर्म आती है। (भला, हे जोगी!) जिस मनुष्य के सिर्फ सोचने से ही रिद्धियां-सिद्धियां हो जाएं, उसको किसी और की मुथाजी कहाँ रह जाती है? (और तू अभी भी मुथाज हो के लोगों के दर पर भटकता फिरता है)।1। दो-चार दिन (माया) बरतने की आस में ही यह झूठा जगत कितना भटकता फिरता है। (हे जोगी!) जिन लोगों ने प्रभू का नाम-अमृत पीया है, उनको फिर माया की प्यास नहीं लगती।2। गुरू की कृपा से जिस ने (सही जीवन) समझ लिया है, वह आशाएं त्याग के आशाओं से ऊँचा हो जाता है, क्योंकि जब मनुष्य अंदर से माया से उपराम हो जाए तो उसको हर जगह प्रभू दिखाई देता है (माया की तरफ उसकी निगाह नहीं पड़ती)।3। हे कबीर! कह- जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम का स्वाद चख लिया है, उसको हरेक करिश्में में प्रभू का नाम ही दिखता और सुनता है, वह शुद्ध सोना बन जाता है, उसकी भटकना समुंद्र के पार चली जाती है (सदा के लिए मिट जाती है)।4।3। शबद का भावार्थ: जिस मनुष्य को परमात्मा मिल जाता है, वह मंगतों की तरह दर-व-दर भटकता नहीं फिरता। वह शुद्ध सोना बन जाता है। उसको हर जगह परमात्मा ही दिखता है। उसको किसी की मुथाजी नहीं रहती। उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे ॥ सुंनहि सुंनु मिलिआ समदरसी पवन रूप होइ जावहिगे ॥१॥ बहुरि हम काहे आवहिगे ॥ आवन जाना हुकमु तिसै का हुकमै बुझि समावहिगे ॥१॥ रहाउ ॥ जब चूकै पंच धातु की रचना ऐसे भरमु चुकावहिगे ॥ दरसनु छोडि भए समदरसी एको नामु धिआवहिगे ॥२॥ जित हम लाए तित ही लागे तैसे करम कमावहिगे ॥ हरि जी क्रिपा करे जउ अपनी तौ गुर के सबदि समावहिगे ॥३॥ जीवत मरहु मरहु फुनि जीवहु पुनरपि जनमु न होई ॥ कहु कबीर जो नामि समाने सुंन रहिआ लिव सोई ॥४॥४॥ {पन्ना 1103} नोट: हरेक तुक के आखिर में अक्षर 'गे' को छंदबंदी के रूप में ही समझना, किसी भविष्य काल की बात नहीं कर रहे। नाम सिमरन से जो हालत बँदगी वाले की बनती है, उसका वर्णन है। सिमरन ने अभी ही, इसी वक्त, इसी जीवन में ही तब्दीली लानी है। शब्दार्थ: उदक = पानी। सलल = पानी। साखिआ = (की) तरह। तरंग = लहरें। समावहिगे = हम समा गए हैं, मैं लीन हो गया हॅूँ। सुंनहि = शून्य में, अफुर प्रभू में। सुंनु = अफुर हुई आत्मा। मिलिआ = मिल गया है। सम = समान, बराबर। पवन रूप = हवा की तरह। पवन रूप होइ जावहिगे = हम हवा की तरह हो गए हैं, जैसे हवा हवा में मिल जाती है वैसे ही मैं भी।1। बहुरि = दोबारा, फिर। हम = मैं। बुझि = समझ के।1। रहाउ। जब = अब जब। चूकै = समाप्त हो गई है। पंच धातु की रचना = पाँच तत्वी शरीर की खेल, पांच तत्वी शरीर का मोह, देह अभ्यास, शरीर के दुख सुख की सुरति। अैसे = इस तरह। चुकावहिगे = मैंने खत्म कर दिए हैं। दरसनु = भेखु, किसी भेष की उच्चता का ख्याल। धिआवहिगे = मैं सिमरता हूँ।2। जितु = जिस तरफ। हम = हमें, मुझे। लागे = मैं लगा हुआ हूँ। कमावहिगे = मैं कमा रहा हूँ। समावहिगे = मैं समा रहा हूँ।3। जीवत = जीते हुए ही, दुनिया में रहते हुए ही। मरहु = विषय विकारों से मर जाओ। फुनि = दोबारा, आत्मिक जीवन की ओर। पुनरपि = (पुनः+अपि) फिर भी, फिर कभी। नामि = नाम में। सुंन = अफुर प्रभू। सोई = वही मनुष्य।4। सरलार्थ: मैं फिर कभी (जनम मरण के चक्कर में) नहीं आऊँगा। ये जनम-मरण का चक्कर प्रभू की रज़ा (के अनुसार) ही है, मैं उस रज़ा को समझ के (रज़ा में) लीन हो गया हूँ।1। रहाउ। जैसे पानी समुंद्र के पानी में मिल के एक-रूप हो जाता है, जैसे नदी के पानी की लहरें नदी के पानी में लीन हो जाती हैं, जैसे हवा हवा में मिल जाती है, वैसे ही वासना-रहित हुआ मेरा मन अफुर-प्रभू में मिल गया है, और अब मुझे हर जगह प्रभू ही दिखाई दे रहा है।1। अब जब (प्रभू में लीन होने के कारण) मेरा पाँच-तत्वी शरीर का मोह समाप्त हो गया है, मैंने अपना भुलेखा भी ऐसें समाप्त कर लिया है कि किसी खास भेष (की महत्वता का विचार) छोड़ के मुझे सबमें ही परमात्मा दिखता है, मैं एक प्रभू का नाम ही सिमर रहा हूँ।2। (पर, ये प्रभू की अपनी ही मेहर है) जिस तरफ उसने मुझे लगाया है मैं उधर ही लग पड़ा हूँ (जिस प्रकार के काम वह मुझसे करवाता है) वैसे ही काम मैं कर रहा हॅूँ। जब भी (जिन पर) प्रभू जी अपनी मेहर करते हैं, वह गुरू के शबद में लीन हो जाते हैं।3। (हे भाई!) गृहस्त में रहते हुए ही (पहले) विकारों से मरो। जब इस तरह मरोगे, तो फिर आत्मिक जीवन की तरफ जी उठोगे। फिर कभी जनम (मरण का चक्कर) नहीं होगा। हे कबीर! कह- जो जो मनुष्य प्रभू के नाम में लीन होता है वह अफुर-प्रभू में सुरति जोड़े रखता है।4।4। शबद का भावार्थ: प्रभू के नाम में जुड़ने से प्रभू की समझ पड़ती है। रज़ा में चलने से प्रभू के साथ इस तरह एक-मेक हुआ जाता है, जैसे नदी की लहरें नदी के पानी के साथ, जैसे हवा हवा के साथ। फिर जनम-मरण के चक्कर की कोई संभावना नहीं रह जाती। |
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