श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः ३ ॥ इसु जग महि संती धनु खटिआ जिना सतिगुरु मिलिआ प्रभु आइ ॥ सतिगुरि सचु द्रिड़ाइआ इसु धन की कीमति कही न जाइ ॥ इतु धनि पाइऐ भुख लथी सुखु वसिआ मनि आइ ॥ जिंन्हा कउ धुरि लिखिआ तिनी पाइआ आइ ॥ मनमुखु जगतु निरधनु है माइआ नो बिललाइ ॥ अनदिनु फिरदा सदा रहै भुख न कदे जाइ ॥ सांति न कदे आवई नह सुखु वसै मनि आइ ॥ सदा चिंत चितवदा रहै सहसा कदे न जाइ ॥ नानक विणु सतिगुर मति भवी सतिगुर नो मिलै ता सबदु कमाइ ॥ सदा सदा सुख महि रहै सचे माहि समाइ ॥१॥ {पन्ना 1092}

शब्दार्थ: संती = संतों ने। सतिगुरि = सतिगुरू ने। द्रिढ़ाइआ = दृढ़ किया, मन में पक्का कर दिया। इतु = ('इसु' का अधिकरण कारक, एकवचन)। धनि = ('धन' का अधिकरणकारक, एकवचन)। पाइअै = ('पाइआ' व 'पाया' का अधिकरणकारक, एकवचन)। इतु धनि पाइअै = (इस सारे वाक्यांश व phrase का हरेक शब्द अधिकरणकारक में है, ये वाक्थ्यांश अपने आप में संपूर्ण है, भाव व्याकरण के अनुसार इसे किसी और शब्द की आवश्यक्ता नहीं, सो, अंग्रेजी में इसको Locative Absolute कहते हैं, पंजाबी व्याकरण में हम इसको 'पूर्व पूर्ण कारदंतक' कहेंगे) इस धन के हासिल करने से। चिंत चितवदा = सोचें सोचते हुए। सहसा = तौख़ला।

सरलार्थ: इस जगत में संतों ने ही नाम-धन कमाया है जिनको गुरू मिला है (और गुरू के माध्यम से) प्रभू मिला है, (क्योंकि) गुरू ने उनके मन में सिमरन पक्का कर दिया है (भाव, सिमरन की गाँठ पक्की तरह बाँध दी है)। यह नाम-धन इतना अमूल्य है कि इसका मोल नहीं डाला जा सकता। अगर यह नाम-धन मिल जाए तो (माया की) भूख उतर जाती है, मन में सुख आ बसता है, पर मिलता उनको है जिनके भाग्यों में धुर-दरगाह से लिखा हो (भाव, जिन पर मेहर हो)।

मन के पीछे चलने वाला जगत सदा कंगाल है माया के लिए बिलकता है, हर रोज सदा भटकता फिरता है, इसकी (मायावी) भूख मिटती नहीं, कभी इसके अंदर शीतलता नहीं आती, कभी इसके मन को सुख नहीं मिलता, हमेशा सोचें सोचता रहता है; हे नानक! गुरू से वंचित रहने के कारण इसकी बुद्धि चक्करों में पड़ी रहती है।

अगर मनमुख भी गुरू को मिल जाए तो शबद की कमाई करता है, (शबद की बरकति से) फिर सदा ही सुख में टिका रहता है, प्रभू में जुड़ा रहता है।1।

मः ३ ॥ जिनि उपाई मेदनी सोई सार करेइ ॥ एको सिमरहु भाइरहु तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ खाणा सबदु चंगिआईआ जितु खाधै सदा त्रिपति होइ ॥ पैनणु सिफति सनाइ है सदा सदा ओहु ऊजला मैला कदे न होइ ॥ सहजे सचु धनु खटिआ थोड़ा कदे न होइ ॥ देही नो सबदु सीगारु है जितु सदा सदा सुखु होइ ॥ नानक गुरमुखि बुझीऐ जिस नो आपि विखाले सोइ ॥२॥ {पन्ना 1092}

शब्दार्थ: मेदनी = धरती, सृष्टि। सार = संभाल। भाइरहु = हे भाईयो! जितु = जिस द्वारा। जितु खाधै = जिसके खाने से। त्रिपति = संतोष। सनाइ = (अरबी = स्ना) वडिआई। देही = शरीर।

सरलार्थ: जिस परमात्मा ने सृष्टि पैदा की है वही इसकी संभाल करता है, हे भाईयो! उस एक को सिमरो, उसके बिना और कोई (संभाल करने वाला) नहीं है। (हे भाईयो!) प्रभू के गुणों को गुरू के शबद को भोजन बनाओ (भाव, जीवन का आसरा बनाओ), ये भोजन खाते हुए सदा तृप्त रहना है (मन में सदा संतोख रहता है); प्रभू की सिफतसालाह को वडिआईयों को (अपना) पोशाका बनाओ, वह पोशाक सदा साफ़ रहती है और कभी मैली नहीं होती।

आत्मिक अडोलता में (रह के) कमाया हुआ नाम-धन कभी कम नहीं होता। मनुष्य के शरीर के लिए गुरू का शबद (मानो) गहना है, इस (गहने की बरकति) से सदा ही सुख मिलता है। हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभू स्वयं समझ बख्शे वह गुरू के माध्यम से यह (जीवन का भेद) समझ लेता है।2।

पउड़ी ॥ अंतरि जपु तपु संजमो गुर सबदी जापै ॥ हरि हरि नामु धिआईऐ हउमै अगिआनु गवापै ॥ अंदरु अम्रिति भरपूरु है चाखिआ सादु जापै ॥ जिन चाखिआ से निरभउ भए से हरि रसि ध्रापै ॥ हरि किरपा धारि पीआइआ फिरि कालु न विआपै ॥१७॥ {पन्ना 1092}

शब्दार्थ: अंतरि = अंदर की ओर पलटना, मन के अंदर ही टिकना। संजमो = इन्द्रियों और मन को रोकने का उद्यम। अंदरु = अंदर का, हृदय। अंम्रिति = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से। ध्रापै = अघा जाते हैं। विआपै = दबाव डालता है।

सरलार्थ: ('दूजे भरम' से हट के) मन के अंदर ही टिकना - यही है जप यही है तप यही है इन्द्रियों को विकारों से रोकने का साधन; पर यह समझ सतिगुरू के शबद द्वारा ही आती है; अगर ('दूसरे भ्रम' को छोड़ के) प्रभू का नाम सिमरें तो अहंकार और आत्मिक जीवन की तरफ से बनी हुई बेसमझी दूर हो जाती है।

(वैसे तो सदा ही) हृदय नाम-अमृत से नाको-नाक भरा हुआ है (भाव, परमात्मा अंदर ही रोम-रोम में बसता है), (गुरू के शबद द्वारा नाम-रस) चखने से स्वाद आता है। जिन्होंनें ये नाम-रस चखा है वह निर्भय (प्रभू का रूप) हो जाते हैं, वे नाम के रस से तृप्त हो जाते हैं। जिनको प्रभू ने मेहर करके यह रस पिलाया है उनको दोबारा मौत का डर सता नहीं सकता (आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं आती)।17।

सलोकु मः ३ ॥ लोकु अवगणा की बंन्है गंठड़ी गुण न विहाझै कोइ ॥ गुण का गाहकु नानका विरला कोई होइ ॥ गुर परसादी गुण पाईअन्हि जिस नो नदरि करेइ ॥१॥ {पन्ना 1092}

सरलार्थ: जगत अवगुणों की पोटली बाँधता जा रहा है, कोई व्यक्ति गुणों का सौदा नहीं करता। हे नानक! गुण खरीदने वाला कोई विरला ही होता है। गुरू की कृपा से ही गुण मिलते हैं, (पर मिलते उसको हैं) जिस पर प्रभू मेहर की नज़र करता है।1।

मः ३ ॥ गुण अवगुण समानि हहि जि आपि कीते करतारि ॥ नानक हुकमि मंनिऐ सुखु पाईऐ गुर सबदी वीचारि ॥२॥ {पन्ना 1092}

सरलार्थ: हे नानक! गुरू के शबद द्वारा विचारवान हो के प्रभू का हुकम मानने से सुख मिलता है, (जिसने हुकम माना है उसको लोगों की ओर से किए गए) गुण और अवगुण (भाव, नेकी और बदी के सलूक) एक समान ही प्रतीत होते हैं (क्योंकि, 'हुकम' में चलने के कारण समझ लेता है कि) ये (गुण और अवगुण) करतार ने खुद ही पैदा किए हैं।2।

पउड़ी ॥ अंदरि राजा तखतु है आपे करे निआउ ॥ गुर सबदी दरु जाणीऐ अंदरि महलु असराउ ॥ खरे परखि खजानै पाईअनि खोटिआ नाही थाउ ॥ सभु सचो सचु वरतदा सदा सचु निआउ ॥ अम्रित का रसु आइआ मनि वसिआ नाउ ॥१८॥ {पन्ना 1092}

सरलार्थ: (जीव के) अंदर ही (जीवों का) मालिक (बैठा) है, (जीव के) अंदर ही (उसका) तख़्त है, वह स्वयं ही (अंदर बैठा हुआ, जीव के किए कर्मों का) न्याय किए जाता है; (जीव के) अंदर ही (उसका) महल है, (जीव के) अंदर ही (बैठा जीव को) आसरा (दिए जा रहा) है, पर उसके महल का दरवाजा गुरू के शबद द्वारा ही मिलता है।

(जीव के अंदर ही बैठे हुए की हजूरी में) खरे जीव परख के खजाने में रखे जाते हैं (भाव, अंदर बैठा हुआ ही खरे जीवों की आप संभाल किए जाता है), खोटों को जगह नहीं मिलती। वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू हर जगह मौजूद है, उसका न्याय सदा अटल है; उनको उसके नाम-अमृत का स्वाद आता है जिनके मन में नाम बसता है।18।

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