श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1028

मारू महला १ ॥ असुर सघारण रामु हमारा ॥ घटि घटि रमईआ रामु पिआरा ॥ नाले अलखु न लखीऐ मूले गुरमुखि लिखु वीचारा हे ॥१॥ गुरमुखि साधू सरणि तुमारी ॥ करि किरपा प्रभि पारि उतारी ॥ अगनि पाणी सागरु अति गहरा गुरु सतिगुरु पारि उतारा हे ॥२॥ मनमुख अंधुले सोझी नाही ॥ आवहि जाहि मरहि मरि जाही ॥ पूरबि लिखिआ लेखु न मिटई जम दरि अंधु खुआरा हे ॥३॥ इकि आवहि जावहि घरि वासु न पावहि ॥ किरत के बाधे पाप कमावहि ॥ अंधुले सोझी बूझ न काई लोभु बुरा अहंकारा हे ॥४॥ पिर बिनु किआ तिसु धन सीगारा ॥ पर पिर राती खसमु विसारा ॥ जिउ बेसुआ पूत बापु को कहीऐ तिउ फोकट कार विकारा हे ॥५॥ प्रेत पिंजर महि दूख घनेरे ॥ नरकि पचहि अगिआन अंधेरे ॥ धरम राइ की बाकी लीजै जिनि हरि का नामु विसारा हे ॥६॥ सूरजु तपै अगनि बिखु झाला ॥ अपतु पसू मनमुखु बेताला ॥ आसा मनसा कूड़ु कमावहि रोगु बुरा बुरिआरा हे ॥७॥ मसतकि भारु कलर सिरि भारा ॥ किउ करि भवजलु लंघसि पारा ॥ सतिगुरु बोहिथु आदि जुगादी राम नामि निसतारा हे ॥८॥ {पन्ना 1028-1029}

शब्दार्थ: असुर = दैत्य, कामादिक (असुर)। सघारण = संघारण, मारने (वाला)। घटि घटि = हरेक घट में। रमईआ = सुंदर राम। नाले = साथ ही, हरेक जीव के अंदर ही। अलखु = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। मूलो = बिल्कुल ही। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। लिखु = (अपने हृदय में) परो के। वीचारा = गुणों की विचार।1।

साधू = वह मनुष्य जिसने अपने मन को साध लिया है। प्रभि = प्रभू ने। अति = बहुत।2।

मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। मरहि = आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। दरि = दर पे। अंधु = माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य।3।

इकि = अनेकों जीव। घरि = घर में, हृदय में, अंतरात्मे, आत्मिक अडोलता में। अंधुले = माया के मोह में अंधे हुए जीवों को।4।

धन = जीव स्त्री। किआ = क्या लाभ? पिर = पति। को = कौन? फोकट = फोके, व्यर्थ।5।

पिंजर = शरीर। प्रेत = विकारी जीवात्मा। पचहि = दुखी होते हैं। लीजै = वसूल की जाती है। जिनि = जिस मनुष्य ने।6।

तपै = तपता है। झाला = आग की लपटें। अपतु = पत+हीन। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। बेताला = भूतना।7।

सरलार्थ: हमारा परमात्मा (हमारे मनों में से कामादिक) दैत्यों का नाश करने में समर्थ है। वह प्यारा सुंदर राम हरेक शरीर में बसता है। हर वक्त हमारे अंदर मौजूद है, फिर भी वह अलख है, उसका स्वरूप बिल्कुल ही बयान नहीं किया जा सकता। (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ कर उसके गुणों की विचार (अपने हृदय में) परो लो।1।

हे प्रभू! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के तेरी शरण पड़ते हैं वे अपने मन को साध लेते हैं (विकारों से रोक लेते हैं)। (जिस भी मनुष्य ने गुरू की ओर मुँह किया उसको) प्रभू ने मेहर करके संसार-समुंद्र से पार लंघा लिया। यह संसार एक बड़ा ही गहरा समुंद्र है इसमें पानी (की जगह विकारों की) आग (भड़क रही) है। इसमें से सतिगुरू ही पार लंघा सकता है।2।

अपने मन के पीछे चलने वाले और माया के मोह में अंधे हुए लोगों को (इस तृष्णा-अग्नि के समुंद्र की) समझ नहीं आती। वे जनम-मरण के चक्कर में पड़ते हैं और बार-बार आत्मिक मौत मरते हैं। (पर वे बिचारे भी क्या करें?) पिछले जन्मों-जन्मांतरों के किए कर्मों के संस्कारों के लिखे लेख (जो उनके मन में उकरे हुए हैं) मिटते नहीं। माया के मोह में अंधा हुआ जीव जम के दर पर दुखी हेता है।3।

(इसी तरह माया के मोह में फस के) अनेकों ही जीव पैदा होते हैं मरते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं, पर अपने अंतरात्मे अडोलता नहीं प्राप्त कर सकते। वे पिछले किए कर्मों के संस्कारों में बँधे हुए (और और) पाप किए जाते हैं। माया का लोभ और अहंकार बड़ी बुरी बला है, इसमें अँधे हुए जीव को कोई सूझ-बूझ नहीं आ सकती (कि किस राह पर पड़ा हुआ है)।4।

जो स्त्री, पति से विछुड़ी हुई हो उसका हार-श्रृंगार किस अर्थ का? उसने तो अपना पति बिसार रखा है और वह पराए मर्द से रंग-रलियाँ मनाती है। (ये हार-श्रृंगार उसको और भी ज्यादा नर्क में डालता है)। जैसे किसी वैश्या के पुत्र के पिता का नाम नहीं बताया जा सकता (वह जगत में हास्यास्पद ही होता है, इसी तरह पति-प्रभू से विछुड़ी हुई जीव-स्त्री के) और-और किये हुए कर्म फोके और विकार ही हैं (इनमें से उसे मायूसी ही मिलती है)।5।

(जो जीव प्रभू का नाम नहीं सिमरते वे, मानो, प्रेत-जून में हैं। उनके ये मानस शरीर भी प्रेत के रहने का पिंजर ही है) इन प्रेत-पिंजरों में वह बेअंत दुख सहते हैं। अज्ञानता के अंधकार में पड़ कर वह (आत्मिक मौत के) नर्क में दुखी होते हैं।

जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम भुला दिया है (उसके सिर पर विकारों का कर्जा चढ़ जाता है, वह मनुष्य धर्मराज का करजाई हो जाता है) उससे धर्मराज के इस कर्जे की वसूली की जाती है (भाव, विकारों के कारण उसको दुख ही सहने पड़ते हैं)।6।

अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य, मानो, भूत है (मनुष्य-शरीर होते हुए भी अंतरात्मे) पशु है, उसे कहीं आदर नहीं मिलता। (मनमुख के अंदर, मानो, माया के मोह का) सूरज तपता रहता है, उसके अंदर विषौली तृष्णा-अग्नि की लपटें निकलती रहती हैं।

जो लोग दुनियां की आशाओं और मन के मायावी फुरनों में फस के माया के मोह की कमाई ही करते रहते हैं, उनको (मोह का यह) अत्यंत बुरा रोग चिपका रहता है।7।

ऊपर जाएँ!

धन्यवाद!