श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1017 मारू महला ५ घरु ३ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ लख चउरासीह भ्रमते भ्रमते दुलभ जनमु अब पाइओ ॥१॥ रे मूड़े तू होछै रसि लपटाइओ ॥ अम्रितु संगि बसतु है तेरै बिखिआ सिउ उरझाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ रतन जवेहर बनजनि आइओ कालरु लादि चलाइओ ॥२॥ जिह घर महि तुधु रहना बसना सो घरु चीति न आइओ ॥३॥ अटल अखंड प्राण सुखदाई इक निमख नही तुझु गाइओ ॥४॥ जहा जाणा सो थानु विसारिओ इक निमख नही मनु लाइओ ॥५॥ पुत्र कलत्र ग्रिह देखि समग्री इस ही महि उरझाइओ ॥६॥ जितु को लाइओ तित ही लागा तैसे करम कमाइओ ॥७॥ जउ भइओ क्रिपालु ता साधसंगु पाइआ जन नानक ब्रहमु धिआइओ ॥८॥१॥ {पन्ना 1017} शब्दार्थ: भ्रमते भ्रमते = भटकते हुए। दुलभ = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाला। अब = अब।1। रे मूढ़े = हे मूर्ख! होछै रसि = होछे रस में, नाशवंत (पदार्थों के) स्वाद में। लपटाइओ = फसा हुआ है। अंम्रितु = अटल जीवन वाला नाम जल। तेरै संगि = तेरे साथ, तेरे अंदर। बिखिआ = माया। सिउ = साथ। उरझाइओ = उलझा हुआ, व्यस्त।1। रहाउ। बनजनि आइओ = विहाजने आया, सौदा करने आया। कालरु = कल्लॅर। लादि = लाद के।2। जिह = जिस। महि = में। चीति = चिक्त में। घरु = घर में (शब्द 'घरु' और 'घर' के व्याकर्णिक रूप का ध्यान रखें)।3। अटल = कभी ना टलने वाला। अखंड = अविनाशी। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय।4। जहा = जहाँ। विसारिओ = (तूने) भुला दिया है। लाइओ = जोड़ा।5। कलत्र = स्त्री। ग्रिह समग्री = घर का सामान। देखि = देख के। तैसे = वैसे ही।7। इस ही: क्रिया विशेषण 'ही' के कारण 'तितु' की 'ु' मात्रा हटा दी गई है। जउ = जब। क्रिपालु = कृपालु, दयावान। ता = तब।8। सरलार्थ: हे मूर्ख! तू नाशवंत (पदार्थों के) स्वाद में फसा रहता है। अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल तेरे अंदर बसता है (तू उसको छोड़ के आत्मिक मौत लाने वाली) माया के साथ चिपका हुआ है।1। रहाउ। हे मूर्ख! चौरासी लाख जूनियों में भटकते-भटकते तुझे ये मानस जनम मिला है।1। हे मूर्ख! तू आया था रतन और जवाहर खरीदने के लिए, पर तू यहाँ से कलॅर लाद के ही चल पड़ा है।2। हे मूर्ख! जिस घर में तूने सदा रहना-बसना है, वह घर तेरे कभी चिक्त-चेते में नहीं आया।3। हे मूर्ख! तूने आँख झपकने जितने समय के लिए भी कभी उस परमात्मा की सिफत सालाह नहीं की, जो सदा कायम रहने वाला है, जो अविनाशी है, जो प्राण देने वाला है और जो सारे सुख देने वाला है।4। हे मूर्ख! जिस जगह आखिर में अवश्य जाना है उस तरफ तूने कभी आँख झपकने जितने समय के लिए भी ध्यान नहीं दिया।5। हे मूर्ख! पुत्र, स्त्री और घर का सामान देख के इसके मोह में ही तू फसा हुआ है।6। (पर, जीव के भी क्या वश?) जिस (काम) में कोई जीव (परमात्मा की ओर से) लाया जाता है उसमें वह लगा रहता है, वैसे ही काम वह करता रहता है।7। हे दास नानक! (कह-) जब परमात्मा किसी जीव पर दयावान होता है, तब उसको गुरू का साथ प्राप्त होता है, और, वह परमात्मा में सुरति जोड़ता है।8।1। मारू महला ५ ॥ करि अनुग्रहु राखि लीनो भइओ साधू संगु ॥ हरि नाम रसु रसना उचारै मिसट गूड़ा रंगु ॥१॥ मेरे मान को असथानु ॥ मीत साजन सखा बंधपु अंतरजामी जानु ॥१॥ रहाउ ॥ संसार सागरु जिनि उपाइओ सरणि प्रभ की गही ॥ गुर प्रसादी प्रभु अराधे जमकंकरु किछु न कही ॥२॥ मोख मुकति दुआरि जा कै संत रिदा भंडारु ॥ जीअ जुगति सुजाणु सुआमी सदा राखणहारु ॥३॥ दूख दरद कलेस बिनसहि जिसु बसै मन माहि ॥ मिरतु नरकु असथान बिखड़े बिखु न पोहै ताहि ॥४॥ रिधि सिधि नव निधि जा कै अम्रिता परवाह ॥ आदि अंते मधि पूरन ऊच अगम अगाह ॥५॥ {पन्ना 1017} शब्दार्थ: करि = कर के। अनुग्रहु = कृपा, दया। साधू संगि = गुरू का मिलाप। रसु = स्वाद। रसना = जीभ (से)। मिसट = मीठा।1। मान को असथानु = मन का सहारा। सखा = साथी। बंधपु = रिश्तेदार। जानु = सुजान, सब कुछ जानने वाला।1। रहाउ। सागरु = समुंद्र। जिनि = जिस (प्रभू) ने। गही = पकड़ी। प्रसादी = प्रसादि, कृपा से। अराधे = आराधना करता है। कंकरु = किंकर, दास। जम कंकरु = जमदूत।2। मोख = मुक्ति। दुआरि जा कै = जिस के दर पर। भंडारु = खजाना। जीअ जुगति = आत्मिक जीवन जीने की जाच।3। बिनसहि = नाश हो जाते हैं। माहि = में। मिरतु = मौत। असथान बिखड़े = मुश्किल जगह। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। न पोहै = असर नहीं कर सकती। ताहि = उसको।4। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। नवनिधि = जगत के सारे ही नौ खजाने। जा कै = जिस के घर में। अंम्रिता परवाह = अमृत का प्रवाह, आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का झरना। आदि = जगत के आरम्भ में। पूरन = व्यापक। अगम = अपहुँच। अगाह = अथाह।5। सरलार्थ: हे भाई! सबके दिल की जानने वाला सुजान परमात्मा ही सदा मेरे मन का सहारा है। वही मेरा मित्र है, वही मेरा सज्जन है, वही मेरा साथी है, वही मेरा रिश्तेदार है।1। रहाउ। हे भाई! दया करके जिस मनुष्य की रक्षा परमात्मा करता है, उसको गुरू का मिलाप प्राप्त होता है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम का आनंद पाता है, वह अपनी जीभ से प्रभू का नाम जपता है, (उसके मन पर परमात्मा के प्यार का) मीठा गाढ़ा रंग चढ़ा रहता है।1। हे भाई! (जिस मनुष्य ने) उस प्रभू का आसरा लिया है जिसने यह संसार-समुंद्र पैदा किया है, वह मनुष्य गुरू की कृपा से परमात्मा की आराधना करता रहता है, उसको जमदूत भी कुछ नहीं कहते।2। हे भाई! मालिक-प्रभू सदा रक्षा करने की समर्था वाला है, वह सुजान प्रभू ही आत्मिक जीवन जीने की जाच सिखाता है जिसके दर पर मुकित टिकी रहती है, जिसका खजाना संतजनों का हृदय है (जो संतजनों के हृदय में सदा बसता है)।3। हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में आ बसता है उसके सारे दुख-दर्द-कलेश मिट जाते हैं। आत्मिक मौत, नर्क, हर मुश्किल जगह, आत्मिक मौत लाने वाली माया - इन में से कोई भी उस पर असर नहीं डाल सकती।4। हे भाई! जिस परमात्मा के घर में सारी ही करामाती ताकतें हैं, और सारे ही खजाने हैं, जिसके घर में आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल के झरने बल रहे हैं, वही परमात्मा जगत के शुरू में, अंत में, मध्य में हर समय मौजूद है। वह परमात्मा ही सबसे ऊँचा है, अपहुँच है, और अथाह है।5। सिध साधिक देव मुनि जन बेद करहि उचारु ॥ सिमरि सुआमी सुख सहजि भुंचहि नही अंतु पारावारु ॥६॥ अनिक प्राछत मिटहि खिन महि रिदै जपि भगवान ॥ पावना ते महा पावन कोटि दान इसनान ॥७॥ बल बुधि सुधि पराण सरबसु संतना की रासि ॥ बिसरु नाही निमख मन ते नानक की अरदासि ॥८॥२॥ {पन्ना 1017} शब्दार्थ: सिध = सिद्ध, जोग साधना में पुगे हुए योगी। साधिक = योग साधना करने वाले साधक। देव = देवते। मुनिजन = मौन धारी साधू। बेद करहि उचारु = (वह पंडित जो) वेदों का उच्चारण करते हैं। सिमरि = सिमर के (ही)। सुआमी = मालिक। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। सुख भुंचहि = आत्मिक आनंद भोगते हैं। पारावारु = पार आवार, इस पार उस पार का किनारा।6। प्राछत = पाप। मिटहि = मिट जाते हैं। रिदै = हृदय में। जपि = जप के। पावन = पवित्र करने वाला। कोटि = करोड़ों।7। सुधि = सूझ। पराण = प्राण, जिंद। सरबसु = सर्व+स्व, सारा धन, सब कुछ। रासि = राशि, सरमाया। बिसरु नाही = ना भूल। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ते = से। अरदासि = विनती।8। सरलार्थ: हे भाई! जोग साधना में सिद्धहस्त योगी, योग-साधना करने वाले साधक योगी, देवता गण, मौनधारी साधु, (वह पण्डित जो) वेदों का पाठ करते रहते हैं - (कोई भी हों) मालिक-प्रभू (का नाम) सिमर के (ही) आत्मिक अडोलता का आनंद पा सकते हैं, (ऐसा आनंद जिसका) अंत नहीं (जो कभी समाप्त नहीं होता) जिसका इस पार का उस पार का छोर पाया नहीं जा सकता।6। हे भाई! हृदय में भगवान (का नाम) जप के एक छिन में ही अनेकों पाप मिट जाते हैं। भगवान (का नाम ही) सबसे ज्यादा पवित्र है, नाम-सिमरन ही करोड़ों दान हैं और करोड़ों तीर्थों के स्नान हैं।7। हे भाई! परमात्मा का नाम ही संतजनों की राशि पूँजी है, बल है, बुद्धि है, सूझ-बूझ है, प्राण हैं, यही उनका सब कुछ है। नानक की भी यही विनती है- हे प्रभू! मेरे मन से तू आँख झपकने जितनें समय के लिए भी ना भूल।8।2। मारू महला ५ ॥ ससत्रि तीखणि काटि डारिओ मनि न कीनो रोसु ॥ काजु उआ को ले सवारिओ तिलु न दीनो दोसु ॥१॥ मन मेरे राम रउ नित नीति ॥ दइआल देव क्रिपाल गोबिंद सुनि संतना की रीति ॥१॥ रहाउ ॥ चरण तलै उगाहि बैसिओ स्रमु न रहिओ सरीरि ॥ महा सागरु नह विआपै खिनहि उतरिओ तीरि ॥२॥ चंदन अगर कपूर लेपन तिसु संगे नही प्रीति ॥ बिसटा मूत्र खोदि तिलु तिलु मनि न मनी बिपरीति ॥३॥ ऊच नीच बिकार सुक्रित संलगन सभ सुख छत्र ॥ मित्र सत्रु न कछू जानै सरब जीअ समत ॥४॥ {पन्ना 1017-1018} शब्दार्थ: ससत्रि = शस्त्र से। तीखण ससत्रि = तेज शस्त्र से। काटि = काट के। काटि डारिओ = काट डाला। मनि = मन में। रोसु = गुस्सा। उआ को = उस (मनुष्य) का। तिलु = रक्ती भर भी। दोसु = गिला।1। मन = हे मन! रउ = रम, सिमर। नित नीति = सदा ही, नित्य। सुनि = (हे मन!) सुन। रीति = जीवन मर्यादा।1। रहाउ। चरण तलै = पैरों के नीचे। उगाहि = दबा के। बैसिओ = बैठ गया। स्रमु = श्रम, थकावट। सरीरि = शरीर में। सागरु = समुंद्र। नह विआपै = अपना दबाव नहीं डाल सकता। खिनहि = एक छिन में ही। तीरि = (उस पार के) किनारे पर।2। अगर = ऊद की लकड़ी। संगे = साथ। खोदि = खोद के। तिलु तिलु = रक्ती रक्ती। मनि = मन में। मनी = मानी। बिपरीति = उल्टी बात, विरोधता।3। सुक्रित = भलाई। संलगन = एक जैसा ही लगा हुआ। सुख छत्र = सुखों का छत्र। सत्र = वैरी। न जानै = नहीं जानता (एक वचन)। समत = एक समान। सरब जीआ = सारे जीवों को।4। सरलार्थ: हे मेरे मन! दयालु, प्रकाश रूप, कृपालु गोबिंद के (संतजनों की संगति में रह के) सदा ही परमात्मा का सिमरन करता रह (वह संत जन कैसे होते हैं? उन) संत जनों की जीवन मर्यादा सुन।1। रहाउ। (हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने वृक्ष को किसी) तेज़ धार हथियार से काट दिया (वृक्ष ने अपने) मन में (उस पर) गुस्सा ना किया, (बल्कि वृक्ष ने) उसके काम सवार दिए, और (उसको) रक्ती भर भी कोई दोश ना दिया।1। (हे मेरे मन! जो मनुष्य बेड़ी को) पैरों तले दबा के (उसमें) बैठ गया, (उस मनुष्य के) शरीर में (रास्ते की) थकावट ना रही, भयानक समुंद्र (दरिया भी) उस पर अपना असर नहीं डाल सके, (बेड़ी में बैठ के वह) एक छिन में ही (उस दरिया से) उस पार किनारे पर जा उतरा।2। (हे मेरे मन! जो मनुष्य धरती पर) चंदन अगर कपूर का लेपन (करता है, धरती) उस (मनुष्य) के साथ (कोई विशेष) प्यार नहीं करती; और (जो मनुष्य धरती पर) गूह-मूत्र (फेंकता है, धरती को) खोद के रक्ती रक्ती (करता है, उस मनुष्य के विरुद्ध अपने) मन में (धरती) बुरा नहीं मनाती।3। (हे मेरे मन!) कोई ऊँचा हो अथवा नीचा हो, कोई बुराई करे या कोई भलाई करे (आकाश सबके साथ) एक समान ही लगा रहता है, सबके लिए सुखों का छत्र (बना रहता) है। (आकाश) ना किसी को मित्र समझता है ना किसी को वैरी, (आकाश) सारे जीवों के लिए एक-समान है।4। |
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