श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 899 रामकली महला ५ ॥ पंच सिंघ राखे प्रभि मारि ॥ दस बिघिआड़ी लई निवारि ॥ तीनि आवरत की चूकी घेर ॥ साधसंगि चूके भै फेर ॥१॥ सिमरि सिमरि जीवा गोविंद ॥ करि किरपा राखिओ दासु अपना सदा सदा साचा बखसिंद ॥१॥ रहाउ ॥ दाझि गए त्रिण पाप सुमेर ॥ जपि जपि नामु पूजे प्रभ पैर ॥ अनद रूप प्रगटिओ सभ थानि ॥ प्रेम भगति जोरी सुख मानि ॥२॥ सागरु तरिओ बाछर खोज ॥ खेदु न पाइओ नह फुनि रोज ॥ सिंधु समाइओ घटुके माहि ॥ करणहार कउ किछु अचरजु नाहि ॥३॥ जउ छूटउ तउ जाइ पइआल ॥ जउ काढिओ तउ नदरि निहाल ॥ पाप पुंन हमरै वसि नाहि ॥ रसकि रसकि नानक गुण गाहि ॥४॥४०॥५१॥ {पन्ना 899} शब्दार्थ: पंच सिंघ = पाँच (कामादिक) शेर। प्रभि = प्रभू ने। मारि राखे = खत्म कर दिए। बिघिआड़ी = बघिआड़नि, इन्द्रियाँ। निवारि लई = दूर कर दी। तीनि = माया के तीन गुण। आवरत = घुम्मन घेरी, चक्कर। चूकी = खत्म हो गई। घेर = चक्कर। साधसंगि = गुरू की संगति में। भै = ('भउ' का बहुवचन) सारे डर। फेर = (जनम मरण का) चक्कर।1। जीवा = जीऊँ, मैं जीता हॅूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। करि = कर के। साचा = सदा कायम रहने वाला। बखसिंद = बख्शिश करने वाला।1। रहाउ। दाझि गए = जल गए। त्रिण = घास के तीले। पाप सुमेर = सुमेर पर्वत जैसे बड़े पाप। प्रभ पैर = प्रभू के पैर। अनद रूप = आनंद स्वरूप प्रभू। सभ थानि = हरेक जगह में (बसता)। सुख मानि = सुख भोग। प्रेम भगति सुख मानि = सुखों की मणि प्रेमा भक्ति में। जोरि = (सुरति) जोड़ी।2। सागरु = (संसार) समुंद्र। बाछर = बछड़ा। खोज = खुर के निशान। खेदु = दुख। फुनि = दोबारा। रोज = रुज़ताप, ग़म। सिंधु = समुंदर। घटुका = छोटा सा घड़ा। घटुके माहि = छोटे से घड़े में । (नोट: 'घटु के माहि' पद-विच्छेद करना गलत है। अगर ये होता, तो संबंधक 'के' के कारण 'घटु' की 'ु' मात्रा हटनी चाहिए थी)। अ चरजु = अनोखी बात।3। जउ = जब। छूटउ = पल्ला छूट जाता है। तउ = तब। जाइ = (जीव) जा पड़ता है। पइआल = पाताल (में)। काढिओ = (पाताल में से) निकाल लिया। निहाल = प्रसन्न, पूरी तौर पर खुश। हमरै वसि = हमारे वश में। रसकि = रस से, रस ले ले के। गाहि = (बहुवचन) गाते हैं (जीव)।4। सरलार्थ: हे भाई! मैं परमात्मा (का नाम) बार-बार सिमर के आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। मुझ दास को परमात्मा ने कृपा करके (खुद ही कामादिक विकारों से) बचा रखा है। सदा कायम रहने वाला मालिक सदा ही बख्शिशें करने वाला है।1। रहाउ। (हे भाई! ज्यों-ज्यों मैंने प्रभू को सिमरा है) प्रभू ने (मेरे अंदर से) पाँच कामादिक शेर समाप्त कर दिए हैं, दस इन्द्रियों का दबाव भी मेरे ऊपर से दूर कर दिया है। माया के तीन गुणों की घुम्मन घेरी का चक्कर भी खत्म हो गया है। गुरू की संगति में (रहने के कारण) जनम-मरण के चक्कर के सारे डर भी खत्म हो गए हैं।1। हे भाई! जब कोई जीव परमात्मा का नाम जप-जप के उसके चरण पूजने शुरू करता है, तो उसके सुमेर पर्वत जितने हो चुके पाप घास के तीलों की तरह जल जाते हैं। जब किसी ने सुखों की मणि प्रभू की प्रेमा-भक्ति में अपनी सुरति जोड़ी, तो उसको आनंद-स्वरूप हरेक जगह पर बसता दिखाई दे गया।2। (हे भाई! जिसने भी नाम जपा, उसने) संसार-समुंदर ऐसे पार कर लिया जैसे (पानी से भरा हुआ) बछड़े के खुर का निशान है, ना उसे कोई दुख होता है ना ही कोई चिंता-फिक्र। प्रभू उसके अंदर यूं आ टिकता है जैसे समुंदर (मानो) एक छोटे से घड़े में आ टिके। हे भाई! सृजनहार प्रभू के लिए ये कोई अनोखी बात नहीं है।3। (हे भाई!) जब (किसी जीव के हाथ से प्रभू का पल्ला) छूट जाता है, तब वह (मानो) पाताल में जा पड़ता है। जब प्रभू स्वयं उसको पाताल में से निकाल लेता है तो उसकी मेहर की निगाह से वह तन-मन से खिल उठता है। हे नानक! (कह- हे भाई!) अच्छे-बुरे काम करने हम जीवों के वश में नहीं है, (जिन पर वह मेहर करता है, वह लोग) बड़े प्रेम से उसके गुण गाते हैं।4।40।51। रामकली महला ५ ॥ ना तनु तेरा ना मनु तोहि ॥ माइआ मोहि बिआपिआ धोहि ॥ कुदम करै गाडर जिउ छेल ॥ अचिंतु जालु कालु चक्रु पेल ॥१॥ हरि चरन कमल सरनाइ मना ॥ राम नामु जपि संगि सहाई गुरमुखि पावहि साचु धना ॥१॥ रहाउ ॥ ऊने काज न होवत पूरे ॥ कामि क्रोधि मदि सद ही झूरे ॥ करै बिकार जीअरे कै ताई ॥ गाफल संगि न तसूआ जाई ॥२॥ धरत धोह अनिक छल जानै ॥ कउडी कउडी कउ खाकु सिरि छानै ॥ जिनि दीआ तिसै न चेतै मूलि ॥ मिथिआ लोभु न उतरै सूलु ॥३॥ पारब्रहम जब भए दइआल ॥ इहु मनु होआ साध रवाल ॥ हसत कमल लड़ि लीनो लाइ ॥ नानक साचै साचि समाइ ॥४॥४१॥५२॥ {पन्ना 899} शब्दार्थ: तनु = शरीर। तोहि = तेरा। मोहि = मोह में। बिआपिआ = फसा हुआ। धोहि = ठगी में। कुदम = कलोल। गाडर = भेड। छेल = छेला, लेला। अचिंतु = अचनचेत। कालु = मौत। पेल = धकेल देता है, चला देता है।1। चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरन। मना = हे मन! जपि = जपा कर। संगि = (तेरे) साथ। सहाई = मददगार। गुरमुखि = गुरू की ओर मुँह करके, गुरू की शरण पड़ के। पावहि = तू लेगा। साचु = सदा स्थिर रहने वाला।1। रहाउ। ऊने = अधूरे, कभी पूरा ना हो सकने वाले। कामि = काम में। मदि = नशे में। सद ही = सदा ही। करै = करता है। जीअरा = जिंद। कै ताई = की खातिर, के वास्ते। गाफल संगि = गाफ़ल के साथ। तसूआ = रक्ती भी।2। धरत धोह = ठगी करता है। छल = फरेब। सिरि = सिर पर। जिनि = जिस (प्रभू) ने। न मूलि = बिल्कुल नहीं। मिथिआ लोभु = नाशवंत पदार्थों का लोभ। सूलु = शूल, चोभु।3। साध रवाल = गुरू की चरण धूल। हसत = हाथ। लड़ि = पल्ले से। साचै = सदा स्थिर प्रभू में ही। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। समाइ = लीन रहता है।4। सरलार्थ: हे (मेरे) मन! प्रभू के सुंदर चरणों की शरण पड़ा रह। परमात्मा का नाम जपता रहा कर, यही तेरा असल मददगार है। पर ये सदा कायम रहने वाला नाम-धन तू गुरू की शरण पड़ कर ही पा सकेगा।1। रहाउ। (हे भाई! इस शरीर की खातिर) तू माया के मोह की ठॅगी में फसा रहता है, ना वह शरीर तेरा है, और, ना ही (उस शरीर में बसता) मन तेरा है। (देख!) जैसे भेड़ का बच्चा भेड़ के साथ कलोल (लाड कर करके खेलता) है (उस बिचारे पर) अचानक (मौत का) जाल आ पड़ता है, (उस पर) मौत अपना चक्कर चला देती है (यही हाल हरेक जीव का होता है)।1। जीव के ये कभी ना खत्म हो सकने वाले काम कभी पूरे नहीं होते; काम-वासना में, क्रोध में, माया के नशे में जीव सदा ही गिले-शिकवे करता रहता है। अपनी इस जीवात्मा (को सुख देने) की खातिर जीव विकार करता रहता है, पर (ईश्वर की याद से) बेखबर हो चुके जीव के साथ (दुनिया के पदार्थों में से) रक्ती भर भी नहीं जाता।2। मूर्ख जीव अनेकों प्रकार की ठगी करता है, अनेकों फरेब करने जानता है। कौड़ी-कौड़ी कमाने की खातिर अपने सिर पर (दग़ा-फरेब के कारण बदनामी की) राख डालता फिरता है। जिस (प्रभू) ने (इसको ये सब कुछ) दिया है उसको ये बिल्कुल याद नहीं करता। (इसके अंदर) नाशवंत पदार्थों का लोभ टिका रहता है (इनकी) चुभन (इसके अंदर से) कभी दूर नहीं होती।3। हे नानक! परमात्मा जब किसी जीव पर दयावान होता है, उस जीव का ये मन गुरू के चरणों की धूल बनता है। गुरू उसको अपने सुंदर हाथों से अपने पल्ले से लगा लेता है, और, (वह भाग्यशाली) सदा ही सदा-स्थिर प्रभू में लीन हुआ रहता है।4।41।52। रामकली महला ५ ॥ राजा राम की सरणाइ ॥ निरभउ भए गोबिंद गुन गावत साधसंगि दुखु जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जा कै रामु बसै मन माही ॥ सो जनु दुतरु पेखत नाही ॥ सगले काज सवारे अपने ॥ हरि हरि नामु रसन नित जपने ॥१॥ जिस कै मसतकि हाथु गुरु धरै ॥ सो दासु अदेसा काहे करै ॥ जनम मरण की चूकी काणि ॥ पूरे गुर ऊपरि कुरबाण ॥२॥ गुरु परमेसरु भेटि निहाल ॥ सो दरसनु पाए जिसु होइ दइआलु ॥ पारब्रहमु जिसु किरपा करै ॥ साधसंगि सो भवजलु तरै ॥३॥ अम्रितु पीवहु साध पिआरे ॥ मुख ऊजल साचै दरबारे ॥ अनद करहु तजि सगल बिकार ॥ नानक हरि जपि उतरहु पारि ॥४॥४२॥५३॥ {पन्ना 899} शब्दार्थ: राजा राम = प्रकाश रूप प्रभू, सब जीवों को अपनी ज्योति का प्रकाश देने वाला हरी। गावत = गाते हुए। साध संगि = गुरू की संगति में।1। रहाउ। जा कै मन माही = जिस (मनुष्य) के मन में। दुतरु = बड़ी मुश्किल से तैरा जा सकने वाला संसार समुंदर। सगले = सारे। रसन = जीभ (से)।1। जिस कै = ('जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'कै' के कारण हटा दी गई है; देखें गुरबाणी व्याकरण)। कै मसतकि = के माथे पर। अदेसा = अंदेशा, चिंता-फिक्र। काहे = क्यों? काणि = मुथाजी, तौख़ला। कुरबाण = सदके, बलिहार।2। भेटि = मिल के। निहाल = चढ़दीकला वाला। सो = वह बंदा। भवजलु = संसार समुंद्र।3। साध = हे संत जनो! अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। ऊजल = उज्जवल, बेदाग। दरबारे = दरबार में। तजि = त्याग के। बिकार = बुरे काम। अनद = आत्मिक आनंद। जपि = जप के।4। सरलार्थ: हे भाई! जो मनुष्य प्रकाश-स्वरूप परमात्मा का आसरा लेते हैं, परमात्मा के गुण गाते-गाते वे दुनिया के डरों से मुक्त हो जाते हैं; गुरू की संगति में रह के उनका (हरेक) दुख दूर हो जाता है।1। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा (का नाम) आ बसता है, वह मनुष्य मुश्किल से तैरे जाने वाले इस संसार-समुंद्र की तरफ़ देखता भी नहीं (उसके रास्ते में) यह कोई रुकावट नहीं डालता। परमात्मा का नाम (अपनी) जीभ से नित्य जप-जप के वह मनुष्य अपने सारे काम सफल कर लेता है।1। हे भाई! इस मनुष्य के माथे पर गुरू (अपना) हाथ रखता है, (प्रभू का वह) सेवक किसी तरह की भी कोई चिंता-फिक्र नहीं करता। वह मनुष्य पूरे गुरू पर से सदा सदके जाता है (अपना स्वै कुर्बान करता रहता है, इस तरह) उसके जनम-मरण के चक्कर का डर समाप्त हो जाता है।2। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू मिल जाता है, परमेश्वर मिल जाता है, वह सदा खिला रहता है। (पर गुरू का परमेश्वर के) दर्शन वही मनुष्य प्राप्त करता है, जिस पर प्रभू स्वयं दयावान होता है। जिस व्यक्ति पर परमात्मा मेहर करता है, वह मनुष्य गुरू की संगति में (रह के) संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।3। हे प्यारे संतजनो! (तुम भी) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते रहो, सदा-स्थिर प्रभू के दरबार में तुम्हारे मुँह उज्जवल होंगे (वहाँ तुम्हें आदर-सत्कार मिलेगा)। हे नानक! (कह- हे संत जनो!) सारे विचार छोड़ के आत्मिक आनंद भोगते रहो, परमात्मा का नाम जप के तुम संसार-समुंदर से पार लांघ जाओगे।4।42।53। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
धन्यवाद! |