श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 712 टोडी महला ५ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ धाइओ रे मन दह दिस धाइओ ॥ माइआ मगन सुआदि लोभि मोहिओ तिनि प्रभि आपि भुलाइओ ॥ रहाउ ॥ हरि कथा हरि जस साधसंगति सिउ इकु मुहतु न इहु मनु लाइओ ॥ बिगसिओ पेखि रंगु कसु्मभ को पर ग्रिह जोहनि जाइओ ॥१॥ चरन कमल सिउ भाउ न कीनो नह सत पुरखु मनाइओ ॥ धावत कउ धावहि बहु भाती जिउ तेली बलदु भ्रमाइओ ॥२॥ नाम दानु इसनानु न कीओ इक निमख न कीरति गाइओ ॥ नाना झूठि लाइ मनु तोखिओ नह बूझिओ अपनाइओ ॥३॥ परउपकार न कबहू कीए नही सतिगुरु सेवि धिआइओ ॥ पंच दूत रचि संगति गोसटि मतवारो मद माइओ ॥४॥ करउ बेनती साधसंगति हरि भगति वछल सुणि आइओ ॥ नानक भागि परिओ हरि पाछै राखु लाज अपुनाइओ ॥५॥१॥३॥ {पन्ना 712} शब्दार्थ: रे मन = हे मन! दह दिस = दसों दिशाओं में। सुआदि = स्वाद में। लोभि = लोभ में। तिनि = उस ने। तिनि प्रभि = उस प्रभू ने। भुलाइओ = गलत रास्ते पर डाल दिया है। रहाउ। जस सिउ = सिफत सालाह से। मुहतु = महूरत, आधी घड़ी। बिगसिओ = खुश होता है। पेखि = देख कें। को = का। पर ग्रिह = पराए घर। जोहनि = देखने के लिए।1। भाउ = प्यार। सत पुरखु = महापुरख, गुरू। मनाइओ = प्रसन्न किया। धावत कउ = नाशवंत (पदार्थों) की खातिर। धावहि = तू दौड़ता है। बहु भाती = कई तरीकों से।2। इसनान = पवित्र जीवन। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। कीरति = सिफत सालाह। नाना = कई प्रकार के। झूठि = झूठ में। तोखिओ = खुश किया। अपनाइओ = अपनी असल चीज को।3। सेवि = सेवा करके, शरण पड़ कर। गोसटि = मेल मिलाप। मतवारो = मस्त। मद = नशा।4। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। भगति वछल = भगती से प्यार करने वाला। भागि = भाग के। लाज = इज्जत।5। सरलार्थ: हे मन! जीव दसों दिशाओं में दौड़ता-फिरता है, माया के स्वाद में मस्त रहता है, लोभ में मोहा रहता है, (पर जीव के भी क्या वश?) उस प्रभू ने खुद ही उसे गलत रास्ते पर डाल रखा है। रहाउ। मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह की बातों से, साध-संगति से, एक पल के लिए भी अपना ये मन नहीं जोड़ता। कुसंभ के फूल के रंग देख के खुश होता है, पराया घर देखने को चल पड़ता है।1। हे मन! तूने प्रभू के सोहणें चरनों से प्यार नहीं डाला, तूने गुरू को प्रसन्न नहीं किया। नाशवंत पदार्थों की खातिर तू दौड़ता फिरता है (ये तेरी भटकना कभी समाप्त नहीं होती) जैसे तेली का बैल (कोल्हू के आगे जुत के) चलता रहता है (उस कोल्हू के इर्द-गिर्द ही उसका रास्ता समाप्त नहीं होता, बारंबार उसके ही चक्कर लगाता रहता है)।2। हे मन! (माया के स्वाद में मस्त मनुष्य) प्रभू का नाम नहीं जपता, सेवा नहीं करता, जीवन पवित्र नहीं बनाता, एक पल भी प्रभू की सिफत सालाह नहीं करता। कई किस्म के नाशवंत (जगत) में अपने मन को जोड़ के संतुष्ट रहता है, अपने असल पदार्थ को नहीं पहचानता।3। हे मन! (माया-मगन मनुष्य) कभी औरों की सेवा-भलाई नहीं करता, गुरू की शरण पड़ कर प्रभू का नाम नहीं सिमरता, (कामादिक) पाँचों वैरियों का साथ बनाए रखता है, मेल-मिलाप रखता है, माया के नशे में मस्त रहता है।4। हे नानक! (कह–) मैं (तो) साध-संगति में जा के विनती करता हूँ- हे हरी! मैं ये सुन के तेरी शरण आया हूँ कि तू भगती से प्यार करने वाला है। मैं दौड़ के प्रभू के दर पर आ पड़ा हूँ (और विनती करता हूँ- हे प्रभू!) मुझे अपना बना के मेरी इज्जत रख।5।1।3। टोडी महला ५ ॥ मानुखु बिनु बूझे बिरथा आइआ ॥ अनिक साज सीगार बहु करता जिउ मिरतकु ओढाइआ ॥ रहाउ ॥ धाइ धाइ क्रिपन स्रमु कीनो इकत्र करी है माइआ ॥ दानु पुंनु नही संतन सेवा कित ही काजि न आइआ ॥१॥ करि आभरण सवारी सेजा कामनि थाटु बनाइआ ॥ संगु न पाइओ अपुने भरते पेखि पेखि दुखु पाइआ ॥२॥ सारो दिनसु मजूरी करता तुहु मूसलहि छराइआ ॥ खेदु भइओ बेगारी निआई घर कै कामि न आइआ ॥३॥ भइओ अनुग्रहु जा कउ प्रभ को तिसु हिरदै नामु वसाइआ ॥ साधसंगति कै पाछै परिअउ जन नानक हरि रसु पाइआ ॥४॥२॥४॥ {पन्ना 712} शब्दार्थ: साज सीगार = श्रृंगारों की बनावटें। मिरतकु = मुर्दा। रहाउ। धाइ = दौड़ के। क्रिपन = कंजूस। स्रमु = मेहनत। कित ही काजि = किसी भी काम।1। आभरण = आभूषण, गहने। कामिनी = स्त्री। थाटु = बनतर। संगु = मिलाप। पेखि = देख के।2। मूसलहि = मूसल से। खेदु = दुख। निआई = जैसे। घर कै कामि = अपने घर के काम में।3। अनुग्रहु = कृपा। जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। को = की। हिरदै = हृदय में। कै पाछै = की शरण।4। सरलार्थ: हे भाई! (जनम मनोरथ को) समझे बिना मनुष्य (जगत में) आया व्यर्थ ही जानो। (जनम-मनोरथ की सूझ के बिना मनुष्य अपने शरीर के लिए) अनेकों श्रृंगार की बनावटें करता है (तो ये ऐसे ही है) जैसे मुर्दे को कपड़े डाले जा रहे हैं। रहाउ। (हे भाई! जीवन-उद्देश्य की समझ के बिना मनुष्य ऐसे ही है, जैसे) कोई कंजूस दौड़-भाग कर-कर के मेहनत करता है, माया जोड़ता है, (पर उस माया से) वह दान-पुंन नहीं करता, संत जनों की सेवा भी नहीं करता। वह धन उसके किसी भी काम नहीं आता।1। (हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ के बिना मनुष्य यूँ ही है, जैसे) कोई स्त्री गहने पहन के सेज सवाँरती है, (सुंदरता का) आडंबर करती है, पर उसे अपने पति का मिलाप हासिल नहीं होता। (उन गहने आदि को) देख-देख के उसे बल्कि अफसोस ही होता है।2। (ठीक ऐसे ही है नाम-हीन मनुष्य, जैसे) कोई मनुष्य सारा दिन (ये) मजदूरी करता है (कि) मूसली से तूह ही छोड़ता रहता है (अथवा) किसी वेगारी को (वेगार में निरा) कष्ट ही मिलता है। (मजदूर की मजदूरी या वेगारी की वेगार में से) उनके अपने काम कुछ भी नहीं आता।3। हे दास नानक! (कह– हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा की कृपा होती है, उसके हृदय में (परमात्मा अपना) नाम बसाता है, वह मनुष्य साध-संगति की शरण पड़ता है, वह परमात्मा के नाम का आनंद लेता है।4।2।4। टोडी महला ५ ॥ क्रिपा निधि बसहु रिदै हरि नीत ॥ तैसी बुधि करहु परगासा लागै प्रभ संगि प्रीति ॥ रहाउ ॥ दास तुमारे की पावउ धूरा मसतकि ले ले लावउ ॥ महा पतित ते होत पुनीता हरि कीरतन गुन गावउ ॥१॥ आगिआ तुमरी मीठी लागउ कीओ तुहारो भावउ ॥ जो तू देहि तही इहु त्रिपतै आन न कतहू धावउ ॥२॥ सद ही निकटि जानउ प्रभ सुआमी सगल रेण होइ रहीऐ ॥ साधू संगति होइ परापति ता प्रभु अपुना लहीऐ ॥३॥ सदा सदा हम छोहरे तुमरे तू प्रभ हमरो मीरा ॥ नानक बारिक तुम मात पिता मुखि नामु तुमारो खीरा ॥४॥३॥५॥ {पन्ना 712-713} शब्दार्थ: क्रिपा निधि = हे कृपा के खजाने! रिदै = हृदय में। नीत = नित्य। करहु परगासा = प्रगट करो। संगि = साथ। रहाउ। पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करूँ। धूरा = चरण धूल। मसतकि = माथे पर। लावउ = लगाऊँ। पतित = विकारी। ते = से। होत = हो जाते हैं। पुनीता = पवित्र। गावउ = मैं गाऊँ।1। आगिआ = हुकम, रजा। लागउ = (हुकमी भविष्यत, अन पुरख, एक वचन) लगे। भावउ = ( हुकमी भविष्यत, अन पुरख, एक वचन) अच्छा लगे, पसन्द आ जाए। तही = उसी में। त्रिपतै = तृप्त रहे। आन = अन्य, और तरफ। आन कत हू = किसी और तरफ। धावउ = मैं दौड़ूँ।2। सद = सदा। निकटि = नजदीक। जानउ = मैं जानूँ। रेण = चरण धूल। होइ = हो के। लहीअै = ढूँढ सकते हैं।3। सरलार्थ: हे कृपा के खजाने प्रभू! मेरे हृदय में बसता रह। हे प्रभू! मेरे अंदर ऐसी बुद्धि का प्रकाश कर, कि तेरे साथ मेरी प्रीति बनी रहे। रहाउ। हे प्रभू! मैं तेरे सेवक की चरण-धूल प्राप्त करूँ, (वह चरण-धूल) ले ले के मैं (अपने) माथे पर लगाता रहूँ। (जिसकी बरकति से) बड़े-बड़े विकारी भी पवित्र हो जाते हैं।1। (हे प्रभू! मेहर कर) मुझे तेरी रजा मीठी लगती रहे, मुझे तेरा किया अच्छा लगता रहे। जो कुछ तू मुझे देता है, उसी में ही (मेरा) ये मन संतुष्ट रहे, मैं किसी भी ओर दिशा में भटकता ना फिरूँ।2। हे मेरे मालिक-प्रभू! मैं तुझे सदा अपने नजदीक (बसता) जानता रहूँ। हे भाई! सभी की चरणों की धूल बन के रहना चाहिए। जब गुरू की संगति हासिल होती है, तब अपने प्रभू को पा लिया जाता है।3। हे नानक! (कह–) हे प्रभू! हम जीव सदा ही तेरे अंजान बच्चे हैं, तू हमारी माँ है हमारा पिता है (मेहर कर) तेरा नाम हमारे मुँह पर रहे (जैसे) माता-पिता अपने बच्चे के मुँह में दूध (डालते रहते हैं)।4।3।5। |
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धन्यवाद! |