श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला ५ छंत    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सतिगुर दीन दइआल जिसु संगि हरि गावीऐ जीउ ॥ अम्रितु हरि का नामु साधसंगि रावीऐ जीउ ॥ भजु संगि साधू इकु अराधू जनम मरन दुख नासए ॥ धुरि करमु लिखिआ साचु सिखिआ कटी जम की फासए ॥ भै भरम नाठे छुटी गाठे जम पंथि मूलि न आवीऐ ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा सदा हरि गुण गावीऐ ॥१॥ {पन्ना 691}

शब्दार्थ: दीन दइआल = दीनों पर दया करने वाला। जिसु संगि = जिस (गुरू) की संगति में। गावीअै = गाया जा सकता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। साध संगि = गुरू की संगति में। रावीअै = सिमरा जा सकता है। भजु = जा, भाग। अराधू = आराध, सिमर। नासऐ = नाश हो जाता है। धुरि = धुर दरगाह से। करमु = बख्शिश। साचु = सदा स्थिर हरी नाम (का सिमरन)। सिखिआ = शिक्षा ले ली। फासऐ = फाही, फंदा। भै = (‘भउ’ का बहुवचन)। गाठे = गाँठ। पंथि = रास्ते पर। मूलि = बिल्कुल। बिनवंति = विनती करता है। धारि = कर।1।

सरलार्थ: हे भाई! वह गुरू दीनों पर दया करने वाला है जिसकी संगति में (रह कर) परमात्मा की सिफत सालाह की जा सकती है। गुरू की संगति में आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम सिमरा जा सकता है। हे भाई! गुरू की संगति में जा, (वहाँ) एक प्रभू का सिमरन कर, (सिमरन की बरकति से) जनम-मरण के दुख दूर हो जाते हैं। (जिस मनुष्य के माथे पर) धुर-दरगाह से (सिमरन करने के लिए) बख्शिश (का लेख) लिखा होता है, वही सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन की शिक्षा ग्रहण करता है, उसका आत्मिक मौत का फंदा काटा जाता है। हे भाई! सिमरन की बरकति से सारे डर सारे भरम नाश हो जाते, (मन मे बँधी हुई) गाँठ खुल जाती है, (फिर वह) आत्मिक मौत सहेड़ने वाले रास्ते पर बिल्कुल नहीं चलता। नानक विनती करता है– हे प्रभू! मेहर कर कि हम जीव सदा तेरी सिफत सालाह करते रहें।1।

निधरिआ धर एकु नामु निरंजनो जीउ ॥ तू दाता दातारु सरब दुख भंजनो जीउ ॥ दुख हरत करता सुखह सुआमी सरणि साधू आइआ ॥ संसारु सागरु महा बिखड़ा पल एक माहि तराइआ ॥ पूरि रहिआ सरब थाई गुर गिआनु नेत्री अंजनो ॥ बिनवंति नानक सदा सिमरी सरब दुख भै भंजनो ॥२॥ {पन्ना 691}

शब्दार्थ: धर = आसरा। निधरिआ धर = निआसरों का आसरा। ऐकु नामु = सिर्फ हरी नाम ही। निरंजनो = निरंजन, माया की कालिख से रहित (अंजन = कालख)। भंजनो = नाश करने वाला। हरत = दूर करने वाला। करता = करतार, पैदा करने वाला। सुखहु सुआमी = हे सुखों के स्वामी! साधू = गुरू। सागरु = समुंद्र। बिखड़ा = मुश्किलों से भरा हुआ। गिआनु = ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। नेत्री = आँखों में। अंजनो = सुरमा। सिमरी = सिमरूँ।2।

सरलार्थ: हे प्रभू! तू माया की कालिख से रहित है, तेरा नाम ही निआसरों का आसरा है। तू सब जीवों को दातें देने वाला है, तू सबके दुख नाश करने वाला है। हे (सब जीवों के) दुख नाश करने वाले! सबको पैदा करने वाले!, सारे सुखों के मालिक प्रभू! जो मनुष्य गुरू की शरण आता है, उसको तू इस बड़े मुश्किल संसार-समुंद्र से एक छिन में पार लंघा देता है। हे प्रभू! गुरू का दिया हुआ ज्ञान-अंजन जिस मनुष्य की आँखों में पड़ता है, उसको तू सब जगहों में दिखता है। नानक विनती करता है– हे सारे दुखों का नाश करने वाले! (मेहर कर) मैं सदा तेरा नाम सिमरता रहूँ।2।

आपि लीए लड़ि लाइ किरपा धारीआ जीउ ॥ मोहि निरगुणु नीचु अनाथु प्रभ अगम अपारीआ जीउ ॥ दइआल सदा क्रिपाल सुआमी नीच थापणहारिआ ॥ जीअ जंत सभि वसि तेरै सगल तेरी सारिआ ॥ आपि करता आपि भुगता आपि सगल बीचारीआ ॥ बिनवंत नानक गुण गाइ जीवा हरि जपु जपउ बनवारीआ ॥३॥ {पन्ना 691}

शब्दार्थ: लड़ि = पल्ले से। मोहि = मैं। नीचु = नीच जीवन वाला। अनाथु = निआसरा। प्रभ = हे प्रभू! अगम = हे अपहुँच! अपारीआ = हे बेअंत! सुआमी = हे स्वामी! थापणहारिआ = हे (ऊँची जगह पर) स्थापित करने वाले! जीअ = (‘जीव’ का बहुवचन)। सभि = सारे। वसि = वश में। सारिआ = संभाल में। भुगता = (पदार्थों को) भोगने वाला। बीचारीआ = विचार करने वाला। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन हासिल करूँ। जपउ = जपूँ। बनवारीआ = हे प्रभू!।3।

सरलार्थ: हे अपहुँच! हे बेअंत! जिन पर तू मेहर (की निगाह) करता है, उनको अपने लड़ लगा लेता है। मैं गुणहीन, नीच और अनाथ (भी तेरी शरण आया हूँ, मेरे पर भी मेहर कर)। हे दया के घर! हे कृपा के घर मालिक! हे नीचों को ऊँचे बनाने वाले प्रभू! सारे जीव तेरे वश में हैं, सारे तेरी संभाल में हैं। तू स्वयं (सब जीवों को) पैदा करने वाला है, (सब में व्यापक हो के) तू खुद (सारे पदार्थ) भोगने वाला है, तू आप सारे जीवों के लिए विचारें करने वाला है। नानक (तेरे दर पर) विनती करता है– हे प्रभू! (मेहर कर) मैं तेरे गुण गा के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ।3।

तेरा दरसु अपारु नामु अमोलई जीउ ॥ निति जपहि तेरे दास पुरख अतोलई जीउ ॥ संत रसन वूठा आपि तूठा हरि रसहि सेई मातिआ ॥ गुर चरन लागे महा भागे सदा अनदिनु जागिआ ॥ सद सदा सिम्रतब्य सुआमी सासि सासि गुण बोलई ॥ बिनवंति नानक धूरि साधू नामु प्रभू अमोलई ॥४॥१॥ {पन्ना 691}

शब्दार्थ: अपारु = बेअंत। अमोलई = अमूल्य, जो किसी दुनियावी मूल्य से ना मिल सके। निति = सदा। जपहि = जपते हैं। पुरख = हे सर्व व्यापक! अतोलई = जो तोला ना जा सके। रसन = जीभ। वूठा = आ बसा। तूठा = प्रसन्न हुआ। रसहि = रस में। सेई = वही संत जन। मातिआ = मस्त। महा भागे = बड़े भाग्यों वाले। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागिआ = सचेत रहते हैं। सिंम्रतब्य = स्मृतव्य, जिसका सिमरन करना चाहिए। सिंम्रतब्य स्वामी = हे सिमरन योग्य मालिक! सासि सासि = हरेक सांस के साथ। बोलई = बोलता है। साधू = गुरू। प्रभू = हे प्रभू!।4।

सरलार्थ: हे प्रभू! तू बेअंत है! तेरा नाम किसी (दुनियावी) कीमत से नहीं मिल सकता। हे ना तोले जा सकने वाले सर्व-व्यापक प्रभू! तेरे दास सदा तेरा नाम जपते रहते हैं। हे प्रभू! संतों पर तू प्रसन्न होता है, और उनकी जीभ पर आ बसता है, वे तेरे नाम के रस में मस्त रहते हैं। जो मनुष्य गुरू के चरणों में आ लगते हैं, वे भाग्यशाली हो जाते हैं, वे सदा हर वक्त (सिमरन की बरकति से माया के हमलों से) सचेत रहते हैं।

नानक विनती करता है– हे सिमरनयोग्य मालिक! हे प्रभू! मुझे उस गुरू की चरण-धूड़ दे, जो तेरा अमूल्य नाम (सदा जपता है), जो सदा ही हरेक सांस के साथ तेरे गुण उचारता रहता है।4।1।

रागु धनासरी बाणी भगत कबीर जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सनक सनंद महेस समानां ॥ सेखनागि तेरो मरमु न जानां ॥१॥ संतसंगति रामु रिदै बसाई ॥१॥ रहाउ ॥ हनूमान सरि गरुड़ समानां ॥ सुरपति नरपति नही गुन जानां ॥२॥ चारि बेद अरु सिम्रिति पुरानां ॥ कमलापति कवला नही जानां ॥३॥ कहि कबीर सो भरमै नाही ॥ पग लगि राम रहै सरनांही ॥४॥१॥ {पन्ना 691}

शब्दार्थ: सनक सनंद = ब्रहमा के पुत्र (सनक, सनंद, सनातन, सनत कुमार)। महेस = शिव। समानां = जैसों ने। सेख नागि = शेश नाग ने (शेश नाग, सांपों का राजा, इसके एक हजार फन माने गए हैं; इनसे ये अपने ईष्ट विष्णु भगवान पर छाया करता है, हरेक जीभ से नित्य नया नाम भगवान के उचारता है)। मरमु = भेद।1।

रिदै = हृदय में। बसाई = मैं बसाता हूँ।1। रहाउ।

सरि = जैसे ने। गरुड़ = विष्णु भगवान की सवारी, सारे पक्षियों का राजा। सुर पति = देवताओं का राजा इन्द्र। नरपति = मनुष्यों का राजा।2।

कमलापति = लक्ष्मी का पति, विष्णु। कवला = लक्ष्मी।3।

कहि = कहे, कहता है। भरमै नाही = भटकता नहीं। पग लगि = चरणों में लग के। सरनांही = शरण में।4।

सरलार्थ: मैं संतों की संगति में रह के परमात्मा को अपने हृदय में बसाता हूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू! (ब्रहमा के पुत्रों) सनक, सनंद और शिव जी जैसों ने तेरा भेद नहीं पाया; (विष्णु के भक्त) शेशनाग ने तेरे (दिल का) राज़ नहीं समझा।1।

(श्री राम चंद्र जी के सेवक) हनूमान जैसों ने, (विष्णु के सेवक और पक्षियों के राजे) गरुड़ जैसों ने, देवाताओं के राजे इन्द्र ने, बड़े-बड़े राजाओं ने भी तेरे गुणों का अंत नहीं पाया।2।

चार वेद, (अठारह) स्मृतियों, (अठारह) पुराणों- (इनके कर्ता ब्रहमा, मनू और ऋषियों) ने तुझे नहीं समझा, विष्णु और लक्ष्मी ने भी तेरा अंत नहीं पाया।3।

कबीर कहता है– (बाकी सारी सृष्टि के लोग प्रभू को छोड़ के और ही तरफ भटकते रहे) एक वह मनुष्य नहीं भटकता, जो (संतों की) चरणों में लग के परमात्मा की शरण में टिका रहता है।4।1।

शबद का भावार्थ: अन्य-पूजा छोड़ के एक परमात्मा का भजन करो। ब्रहमा, शिव, विष्णु, इन्द्र आदि और उनके सेवक परमात्मा का अंत नहीं पा सके।1।

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