श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला ५ ॥ त्रिपति भई सचु भोजनु खाइआ ॥ मनि तनि रसना नामु धिआइआ ॥१॥ जीवना हरि जीवना ॥ जीवनु हरि जपि साधसंगि ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक प्रकारी बसत्र ओढाए ॥ अनदिनु कीरतनु हरि गुन गाए ॥२॥ हसती रथ असु असवारी ॥ हरि का मारगु रिदै निहारी ॥३॥ मन तन अंतरि चरन धिआइआ ॥ हरि सुख निधान नानक दासि पाइआ ॥४॥२॥५६॥ {पन्ना 684}

शब्दार्थ: त्रिपति = शांति। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। मनि = मन में। तनि = हृदय में। रसना = जीभ (से)।1।

जपि = जपा करो। साध संगि = गुरू की संगति में।1। रहाउ।

अनिक प्रकारी = कई किसमों के। बसत्र = वस्त्र, कपड़े। ओढाऐ = पहन लिए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।2।

हसती = हाथी। असु = अश्व, घोड़े। मारगु = रास्ता। रिदै = हृदय में। निहारी = देखता है।3।

अंतरि = अंदर। सुख निधान = सुखों का खजाना। दासि = (उस) दास ने।4।

सरलार्थ: हे भाई! साध-संगति में (बैठ के) परमात्मा का नाम जपा करो- यही है असल जीवन, यही है असल जिंदगी।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य ने अपने मन में, हृदय में, जीभ से परमात्मा का नाम सिमरना शुरू कर दिया, जिसने सदा-स्थिर हरी नाम (की) खुराक खानी शुरू कर दी उसको (माया की तृष्णा की ओर से) शांति आ जाती है।1।

जो मनुष्य हर वक्त परमात्मा की सिफत सालाह करता है, प्रभू के गुण गाता है, उसने (मानो) कई किस्मों के (रंग-बिरंगे) कपड़े पहन लिए हैं (और वह इन सुंदर पोशाकों का आनंद ले रहा है)।2।

हे भाई! जो मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा के मिलाप का राह ताकता रहता है, वह (जैसे) हाथी, रथों, घोड़ों की सवारी (के सुख मजे ले रहा है)।3।

हे नानक! जिस मनुष्य ने अपने मन में हृदय में परमात्मा के चरणों का ध्यान धरना शुरू कर दिया है, उस दास ने सुखों के खजाने प्रभू को पा लिया है।4।2।56।

धनासरी महला ५ ॥ गुर के चरन जीअ का निसतारा ॥ समुंदु सागरु जिनि खिन महि तारा ॥१॥ रहाउ ॥ कोई होआ क्रम रतु कोई तीरथ नाइआ ॥ दासीं हरि का नामु धिआइआ ॥१॥ बंधन काटनहारु सुआमी ॥ जन नानकु सिमरै अंतरजामी ॥२॥३॥५७॥ {पन्ना 684}

शब्दार्थ: जीअ का = जिंद का। निसतारा = पार उतारा। सागरु = समुंद्र। जिनि = जिस (गुरू) ने। तारा = पार लंघा लेता है।1। रहाउ।

क्रम = कर्म काण्ड, धार्मिक रस्में। रतु = मस्त, प्रेमी। तीरथ = तीर्थों पर। दासीं = दासों ने।1।

काटनहारु = काट सकने वाला। सुआमी = मालिक। नानकु सिमरै = नानक सिमरता है।2।

सरलार्थ: हे भाई! जिस (गुरू) ने (शरण आए मनुष्य को सदा) एक छिन में संसार समुंद्र से पार लंघा दिया; उस गुरू के चरणों का ध्यान जिंद के वास्ते संसार-समुंद्र से पार लंघाने के लिए वसीला हैं।1। रहाउ।

हे भाई1 कोई मनुष्य धार्मिक रस्मों का प्रेमी बन जाता है; कोई मनुष्य तीर्थों पर स्नान करता फिरता है। परमात्मा के दासों ने (सदा) परमात्मा का नाम ही सिमरा है।1।

हे भाई! दास नानक (भी उस परमात्मा का नाम) सिमरता है जो सबके दिल की जानने वाला है, जो सबका मालिक है, जो (जीवों के माया के) बंधन काटने की समर्था रखता है।2।3।57।

धनासरी महला ५ ॥ कितै प्रकारि न तूटउ प्रीति ॥ दास तेरे की निरमल रीति ॥१॥ रहाउ ॥ जीअ प्रान मन धन ते पिआरा ॥ हउमै बंधु हरि देवणहारा ॥१॥ चरन कमल सिउ लागउ नेहु ॥ नानक की बेनंती एह ॥२॥४॥५८॥ {पन्ना 684}

शब्दार्थ: कितै प्रकारि = किसी भी तरह से। न तूटउ = टूट ना जाए। निरमल = पवित्र। रीति = जीवन जुगति, जीवन मर्यादा, रहणी बहिणी।1। रहाउ।

जीअ ते = जिंद से। बंधु = रोक, बाँध। देवणहारा = देने योग्य।1।

सिउ = साथ। लागउ = लगी रहे। नेहु = प्यार, प्रीति।2।

सरलार्थ: हे प्रभू! तेरे दासों का रहन-सहन पवित्र रहता है, ता कि किसी भी तरह से (उनकी तेरे से) प्रीति टूट ना जाए।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा के दासों को अपनी जिंद से, प्राणों से, मन से, धन से, वह परमात्मा ज्यादा प्यारा है जो अहंकार के रास्ते में बाँध लगाने की समर्था रखता है।1।

हे भाई! नानक की (भी परमात्मा के दर पर सदा) यही अरदास है कि उसके सुंदर चरणों के साथ (नानक का) प्यार बना रहे।2।4।58।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ धनासरी महला ९ ॥ काहे रे बन खोजन जाई ॥ सरब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई ॥१॥ रहाउ ॥ पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई ॥ तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई ॥१॥ बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई ॥ जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ॥२॥१॥ {पन्ना 684}

शब्दार्थ: काहे = किस लिए? रे = हे भाई! बन = जंगलों में। बनि = जंगल में। निवासी = बसने वाला। अलेपा = निर्लिप, माया के प्रभाव से स्वतंत्र। तोही संगि = तेरे संग ही, तेरे साथ ही।1। रहाउ।

पुहप = फूल। मधि = में। बासु = सुगंधि। मुकर = शीशा। छाई = छाया, अक्स। निरंतरि = निर+अंतर, बिना दूरी के, सब जगह, सबमें। घट ही = हृदय में ही (‘घटि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। भाई = हे भाई!1।

भीतरि = (अपने शरीर के अंदर)। गुर गिआनु = गुरू का ज्ञान। गुरि = गुरू ने। आपा = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। बिनु चीने = परखे बिना। भ्रम = भटकना। काई = हरे रंग का जाला जो उस जगह लग जाता है जहाँ पानी काफी समय तक खड़ा रहे। इस जाले के कारण पानी जमीन में रच नहीं सकता। इसी तरह भटकना के जाले के कारण पानी जमीन के अंदर असर नहीं करता।2।

सरलार्थ: हे भाई! (परमात्मा को) ढूँढने के लिए जंगलों में क्यों जाता है? परमात्मा सबमें बसने वाला है, (फिर भी) सदा (माया के प्रभाव से) निर्लिप रहता है। वह परमात्मा तेरे साथ बसता है।1। रहाउ।

हे भाई! जैसे फूल में सुगंधि बसती है, जैसे शीशे में (शीशा देखने वाले का) अक्स बसता है, वैसे ही परमात्मा एक-रस सबके अंदर बसता है। (इस वास्ते उसको) अपने हृदय में ही तलाश।1।

हे भाई! गुरू का (आत्मिक जीवन का) उपदेश ये बताता है कि (अपने शरीर के) अंदर (और अपने शरीर से) बाहर (हर जगह) एक परमात्मा को (बसता) समझो। हे दास नानक! अपना आत्मिक जीवन परखे बिना (मन पर पड़ा हुआ) भटकना का जाला दूर नहीं हो सकता (और, तब तक सर्व-व्यापक परमात्मा की सूझ नहीं आ सकती)।2।1।

धनासरी महला ९ ॥ साधो इहु जगु भरम भुलाना ॥ राम नाम का सिमरनु छोडिआ माइआ हाथि बिकाना ॥१॥ रहाउ ॥ मात पिता भाई सुत बनिता ता कै रसि लपटाना ॥ जोबनु धनु प्रभता कै मद मै अहिनिसि रहै दिवाना ॥१॥ दीन दइआल सदा दुख भंजन ता सिउ मनु न लगाना ॥ जन नानक कोटन मै किनहू गुरमुखि होइ पछाना ॥२॥२॥ {पन्ना 684}

शब्दार्थ: साधो = हे संतजनो! भरमि = (माया की) भटकना में (पड़ के)। भुलाना = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है। हाथि = हाथ में। बिकाना = बिका हुआ है।1। रहाउ।

सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री । ता कै रसि = उनके मोह में। लपटाना = फसा रहता है। जोबनु = जवानी। प्रभता = प्रभुता, ताकत, हकूमत। मद = नशा। मै = में। अहि = दिन। निसि = रात। दिवाना = पागल, झल्ला।1।

दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाला। सिउ = साथ। नानक = हे नानक! कोटन मै = करोड़ों में। किनहू = किसी विरले ने। गुरमुखि होइ = गुरू की शरण पड़ कर।2।

सरलार्थ: हे संत जनो! ये जगत (माया की) भटकना में (पड़ कर) गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। प्रभू के नाम का सिमरन छोड़े रहता है, और, माया के हाथ में बिका रहता है (माया के बदले आत्मिक जीवन गवा देता है)।1। रहाउ।

हे संत जनो! माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री- (भूला हुआ जगत) इनके मोह में फसा रहता है। जवानी, धन, ताकत के नशे में जगत दिन-रात पागल हुआ रहता है।1।

जो परमात्मा दीनों पर दया करने वाला है, जो सारे दुखों का नाश करने वाला है, जगत उससे अपना मन नहीं जोड़ता। हे दास नानक! (कह–) करोड़ों में से किसी विरले (दुर्लभ) मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा के साथ सांझ डाली है।2।2।

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धन्यवाद!