श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 657 रागु सोरठि बाणी भगत नामदे जी की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जब देखा तब गावा ॥ तउ जन धीरजु पावा ॥१॥ नादि समाइलो रे सतिगुरु भेटिले देवा ॥१॥ रहाउ ॥ जह झिलि मिलि कारु दिसंता ॥ तह अनहद सबद बजंता ॥ जोती जोति समानी ॥ मै गुर परसादी जानी ॥२॥ रतन कमल कोठरी ॥ चमकार बीजुल तही ॥ नेरै नाही दूरि ॥ निज आतमै रहिआ भरपूरि ॥३॥ जह अनहत सूर उज्यारा ॥ तह दीपक जलै छंछारा ॥ गुर परसादी जानिआ ॥ जनु नामा सहज समानिआ ॥४॥१॥ {पन्ना 656-657} शब्दार्थ: देखा = देखूँ, देखता हूँ; प्रभू का दीदार करता हूं। गावा = गाऊँ, मैं (उसके गुण) गाता हूँ। तउ = तब। जन = हे भाई! पावा = मैं हासिल करता हूँ। धीरज = शांति, अडोलता, टिकाव।1। नादि = नाद में, (गुरू के) शबद में। समाइलो = समा गया है, लीन हो गया है। रे = हे भाई! भेटिले = मिला दिया है। देवा = हरी ने।1। रहाउ। जह = जहाँ, जिस (मन) में। झिलिमिलिकारु = एक रस चंचलता, सदा चंचलता चंचलता। दिसंता = दिखाई देती है। तह = वहाँ, उस (मन) में। अनहद = एक रस। सबद बजंता = शबद बज रहा है, सतिगुरू के शबद का पूरा प्रभाव है। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति = मेरी जिंद, मेरी आत्मा। समानी = (अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है)। गुर परसादी = गुरू की कृपा से। जानी = जानी है, सांझ डाली है।2। कमल कोठरी = (हृदय-) कमल कोठड़ी में। रतन = (ईश्वरीय गुणों के) रत्न (पड़े हुए थे, पर मुझे पता नहीं था)। तही = उसी (हृदय) में। चमकार = चमक, लिश्कारा, प्रकाश। निज आतमै = मेरे अपने अंदर।3। छंछारा = मध्यम। दीपक = दीया। तह = उस (मन) में (पहले)। जह = जहाँ (अब)। अनहत = लगातार, एक रस।4। जरूरी नोट: इस शबद का सही अर्थ समझने के लिए सतिगुरू नानक देव जी का शबद, जो सोरठि राग में ही है और इस शबद के साथ हर तरह से मेल खाता है, इस शबद के साथ पढ़ना जरूरी है; सोरठि महला १ घरु ३ (पन्ना ५९९) जा तिसु भावा तद ही गावा॥ ता गावे का फलु पावा॥ गावे का फलु होई॥ जा आपे देवै सोई॥१॥ मन मेरे गुर बचनी निधि पाई॥ ता ते सच महि रहिआ समाई॥ रहाउ॥ गुर साखी अंतरि जागी॥ ता चंचल मति तिआगी॥ गुर साखी का उजीआरा॥ ता मिटिआ सगल अंध्यारा॥२॥ गुर चरनी मनु लागा॥ ता जम का मारगु भागा॥ भै विचि निरभउ पाइआ॥ ता सहजै कै घरि आइआ॥३॥ भणति नानकु बूझै को बीचारी॥ इसु जग महि करणी सारी॥ करणी कीरति होई॥ जा आपे मिलिआ सोई॥४॥१॥१२॥ दोनों शबदों को मिला के ध्यान से पढ़ें, इनमें कई मजेदार सांझी बातें मिलती हैं। दोनों शबदों की चाल एक सी ही है; बहुत सारे शब्द सांझे हैं; ख्याल भी दोनों शबदों के एक ही हैं। हाँ जिन ख्यालों को भगत नामदेव जी ने गहरे गूढ़ शब्दों में बयान किया था, उन्हें सतिगुरू नानक देव जी ने सादे व सरल शब्दों में प्रगट कर दिया है। जैसे, झिमिलकारु–चंचल मति; अनहत सबद–गुर साखी का उजिआरा आदि। इन शबदों में एक अंदर भी दिखाई देता है। जैसे, फरीद जी ने कहा; पहिलै पहरे फुलड़ा फलु भी पछा राति॥ इसमें फरीद जी ने ज्यादा जोर इस बात पर दिया था कि मनुष्य अमृत वेले जरूर उठ के बँदगी करे, तभी सांई के दर से दाति मिलती है; फरीद जी ‘नाम’ की प्राप्ति को प्रभू की बख्शश मानते हैं, पर यहाँ ज्यादा जोर अमृत वेले उठने को है। गलती से कोई सिख फरीद जी के इस इशारे को समझे ही ना और अपने अमृत वेले उठने के उद्यम पर गुमान करने लग जाए, सतिगुरू नानक देव जी ने शब्द ‘दाति’ के द्वारा इस इशारे मात्र बताए ख्याल को अच्छी तरह प्रकट कर दिया है अपना एक श्लोक इस श्लोक के साथ लिख के: दाती साहिब संदीआ, किआ चलै तिसु नालि॥ इकि जागंदे न लहंनि, इकना सुतिआ देइ उठालि॥११३॥ महला १॥ इसी तरह, इस शबद में नामदेव जी ने ये बताया है कि सतिगुरू के मिलने से मेरे दिल में एक सुंदर तब्दीली पैदा हो गई है। ज्यादा जोर गुरू की मेहर पर है और फिर मन की तब्दीली पर। गुरू कैसे मिला? ये बात उन्होंने इशारे मात्र ही ‘रहाउ’ की तुक में बताई है। सतिगुरू नानक देव जी ने उस इशारे को अच्छी तरह खुले शब्दों में बयान कर दिया है कि ये सारी मेहर परमात्मा की होती है, तो ही गुरू मिलता है। पाठक सज्जन फिर इन दोनों शबदों को आमने–सामने रख कर ध्यान से पढ़ें। क्या बात यकीन से नहीं कही जा सकती कि सतिगुरू नानक देव जी ने ये शबद भगत नामदेव जी के शबद को अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिए लिखा है? गुरू नानक देव जी ने सारे भारत का चक्कर लगाया था जिसे हम उनकी ‘पहली उदासी’ कहते हैं; दक्षिण में भी गए। नामदेव जी सूबा बम्बई के जिला सतारा के नगर पंडरपुर में ही बहुत समय तक रहे, वहीं पर उनका देहांत हुआ। सारा भारत मूर्ति–पूजा में मस्त था, कहीं को विरला ही ईश्वर का प्यारा था, जो एक अकाल की बँदगी का मध्यम सा दीपक जगा रहे थे। क्या ये बात कुदरती नहीं थी कि दक्षिण में जा के एक अपने ही हम–ख्याल ईश्वरी–आशिक का इलाका देखने की चाहत गुरू नानक देव जी के मन में पैदा हो? क्या ये बात प्राकृतिक नहीं थी कि उस नगर में जा के सतिगुरू जी ने वहाँ भगत नामदेव जी की बाणी भी लिख के संभाल ली? इस बात के प्रत्यक्ष सबूत ये दोनों शबद हैं, जो ऊपर लिखे गए हैं। ये दोनों शबद सबॅब से ही सोरठि राग में दर्ज नहीं हो गए, सबॅब से ही दोनों के शब्द और ख़्याल आपस में नहीं मिल गए। ये सब कुछ सतिगुरू नानक देव जी ने खुद ही किया। भगत नामदेव जी की बाणी जो गुरू ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, सतिगुरू नानक देव जी खुद ही उनके वतन से ले कर आए और सिख कौम के लिए अपनी बाणी के साथ संभाल के रख ली। सारा भारत मूर्ति पूजकों से भरा पड़ा था, अगर भगत नामदेव जी मूर्ति–पूजक होते, तो इनके लिए भी सतिगुरू नानक देव जी में कोई खास कसक नहीं थी होनी। सरलार्थ: हे भाई! मुझे प्रभू-देव ने सतिगुरू मिला दिया है, (उसकी बरकति से, मेरा मन) उसके शबद में लीन हो गया है।1। रहाउ। (अब शबद की बरकति के सदका) ज्यों-ज्यों मैं परमात्मा का (हर जगह) दीदार करता हूँ मैं (आप आगे हो के) उसकी सिफत सालाह करता हूँ और हे भाई! मेरे अंदर ठंड पड़ती जा रही है।1। (हे भाई!) जिस मन में पहले चंचलता दिखाई दे रही थी वहाँ अब सहज (एक रस) गुरू-शबद का प्रभाव पड़ रहा है, अब मेरी आत्मा परमात्मा में मिल गई है, सतिगुरू की कृपा से मैंने उस ज्योति को पहचान लिया है।2। मेरे हृदय-कमल की कोठड़ी में रत्न थे (पर छुपे हुए थे); अब वहाँ (गुरू की मेहर सदका, जैसे) बिजली की चमक (जैसा प्रकाश) है (और वे रत्न दिखने लगे हैं); अब प्रभू कहीं दूर प्रतीत नहीं होता, नजदीक ही दिखता है, मुझे अपने अंदर ही भरपूर दिखता है।3। जिस मन में अब एक-रस सूर्य के निरंतर प्रकाश जैसी रौशनी है, यहाँ पहले (जैसे) मद्यम सा दीया जल रहा था; अब गुरू की कृपा से मेरी उस प्रभू के साथ जान-पहचान हो गई है और मैं दास नामदेव अडोल अवस्था में टिक गया हूँ।4।1। नोट: भगत–बाणी के विरोधी सज्जन इस शबद के शब्द ‘अनहद शबद’ का हवाला दे के कहते हैं कि भगत नामदेव जी योगाभ्यास अंदर भी विचरते थे क्योंकि आप जी की रचना में योगाभ्यास की झलक पड़ती है। पर सिर्फ शब्द ‘अनहद सबद’ से ये बात साबित नहीं हो जाती। गुरू नानक देव जी का आरती वाला शबद पढ़ के देखें, “अनहता सबद वाजंत भेरी”। क्या सतिगुरू नानक देव जी को भी योगाभ्यासी कह दोगे? भगत जी ने तीन बार साफ शब्दों में कहा है कि मैंने ये लीनता सतिगुरू की मेहर से पाई है। ‘रहाउ’ में ही कहते हैं कि मुझे प्रभू ने गुरू मिलाया है। फिर दो बार और कहते हैं; जेती जोत समानी॥ मैं गुर परसादी जानी॥ और गुर परसादी जानिआ॥ जन नामा सहजि समानिआ॥ घरु ४ सोरठि ॥ पाड़ पड़ोसणि पूछि ले नामा का पहि छानि छवाई हो ॥ तो पहि दुगणी मजूरी दैहउ मो कउ बेढी देहु बताई हो ॥१॥ री बाई बेढी देनु न जाई ॥ देखु बेढी रहिओ समाई ॥ हमारै बेढी प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ ॥ बेढी प्रीति मजूरी मांगै जउ कोऊ छानि छवावै हो ॥ लोग कुट्मब सभहु ते तोरै तउ आपन बेढी आवै हो ॥२॥ ऐसो बेढी बरनि न साकउ सभ अंतर सभ ठांई हो ॥ गूंगै महा अम्रित रसु चाखिआ पूछे कहनु न जाई हो ॥३॥ बेढी के गुण सुनि री बाई जलधि बांधि ध्रू थापिओ हो ॥ नामे के सुआमी सीअ बहोरी लंक भभीखण आपिओ हो ॥४॥२॥ {पन्ना 657} शब्दार्थ: पाड़ = पार की, साथ की। पड़ोसणि = पड़ोसन ने। पूछि ले = पूछा। नामा = हे नामदेव! का पहि = किस से? छानि = छुत, छपरी, कुल्ली। छवाई = बनवाई है। तो पहि = तेरे से। दै हउ = मैं दे दूँगी। बेढी = बढ़ई, तरखान, लकड़ी की वस्तुएं बनाने वाला मिस्तरी। देहु बताई = बता दे।1। रे बाई = हे बहन! (शब्द ‘री’ स्त्री लिंग है और ‘रे’ पुलिंग; जहाँ ‘रे लोई’ आया है, वह ‘लोई’ शब्द पुलिंग है)। देनु न जाई = दिया नहीं जा सकता। प्राण आधरा = प्राणों का आसरा। रहाउ। सभहु ते = सबसे। तोरै = तोड़ दे। तउ = तो। आपन = अपने आप।2। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। अंतर = अंदर। ठांई = जगह। गूंगै = गूंगे ने। पूछे = पूछा।3। जलधि = समुंद्र। बांधि = (पुल) बाँध के। थापिओ = अटल कर दिया। सीअ = सीया। बहोरी = (रावण से) वापस ले आए। आपिओ = अपना दिया, मालिक बना दिया।4। सरलार्थ: साथ की पड़ोसन ने पूछा - हे नामे! तूने अपनी छपरी किस से डलवाई है? मुझे बढ़ई के बारे में बता, मैं तेरे से दोगुनी मजदूरी दे दूँगी।1। हे बहन! उस बढ़ई के बारे में (इस तरह) नहीं बताया जा सकता; देख, वह बढ़ई हर जगह मौजूद है और वह मेरे प्राणों का आसरा है।1। रहाउ। (हे बहन!) अगर कोई मनुष्य (उस तरखान से) कुल्ली बनवाए तो वह बढ़ई प्रीति की मजदूरी मांगता है; (प्रीति भी ऐसी हो कि लोगों से, परिवार से, सबसे, मोह तोड़ ले; तो वह बढ़ई अपने आप आ जाता है)।2। (जैसे) अगर कोई गूँगा बड़े स्वादिष्ट पदार्थ खाए तो पूछने पर (उससे उसका स्वाद) बताया नहीं जा सकता; वैसे ही मैं (उस) ऐसे तरखाण का स्वरूप बयान नहीं कर सकता, (वैसे) वह सबमें है, वह सब जगह है।3। हे बहन! उस तरखाण के (कुछ थोड़े से) गुण सुन ले- उसने ध्रुव को अटल पदवी दी, उसने समंद्र (पर पुल) बाँधा, नामदेव के (उस तरखाण) ने (लंका से) सीता वापस ला दी और विभीषण को लंका का मालिक बना दिया।4।2। नोट: ये बात जगत में आम देखने को मिलती है कि सिर्फ पैसे के लिए काम करने वालों के मुकाबले वह मनुष्य ज्यादा तेजी से और शौक से काम करते हैं जो प्यार की लगन से करते हैं। सन 1922–23 में श्री दरबार साहिब के सरोवर की जो कार–सेवा प्रेम–आसरे सोने के चूड़े वाली बीबियों ने दिनों में कर डाली थी, वह मजदूरी ले के काम करने वाले मोटे–तगड़े मनुष्य महीनों में भी नहीं पूरा करते। नामदेव जी माया के पक्ष से तो गरीब थे, पर प्रभू–प्यार में रंगे हुए थे। एक बार उनका घर गिर गया, भगत जी के साथ रॅबी प्यार की सांझ रखने वाले किसी प्यारे हृदय वाले ने आ के बड़ी रीझ से वह घर दुबारा बनवा दिया। जहाँ प्रेम है वहाँ रॅब खुद है। सत्संगी जो एक–दूसरे का काम करते हैं, प्रेम में खिंचे हुए करते हैं, प्रेम के श्रोत प्रभू के परोए हुए करते हैं, उन प्रेमी जीवों में प्रभू स्वयं मौजूद हो के वह काम करता है। सो, ये कुदरती बात है कि वह काम और लोगों के काम की तुलना में बढ़िया व सुंदर होगा। नामदेव जी की पड़ोसन के मन में भी रीझ आई उस मिस्तरी का पता लेने की, जिसने नामदेव जी का कोठा बनवाया था। नोट: भगत–वाणी के विरोधी सज्ज्न ने इस शबद की आखिरी तुक का हवाला दे के लिखा है कि भगत नामदेव जी किसी समय श्री राम चंद्र जी के उपासक थे। पर इससे पहले वाली तुक इन विरोधी सज्जन ने नहीं पढ़ी ऐसा लगता है, जिसमें ‘धू थापिओ हो’ लिखा हुआ है। धूव भक्त श्री राम चंद्र जी से पहले युग में हो चुका था। जिस ‘बेढी’ के गुण नामदेव जी पड़ोसन को ‘रहाउ की तुकों में बता रहे हैं, उस बारे में कहते हैं ‘बेढी रहिओ समाई’। सो नामदेव जी सर्व–व्यापक के उपासक थे ना कि किसी व्यक्ति के। सोरठि घरु ३ ॥ अणमड़िआ मंदलु बाजै ॥ बिनु सावण घनहरु गाजै ॥ बादल बिनु बरखा होई ॥ जउ ततु बिचारै कोई ॥१॥ मो कउ मिलिओ रामु सनेही ॥ जिह मिलिऐ देह सुदेही ॥१॥ रहाउ ॥ मिलि पारस कंचनु होइआ ॥ मुख मनसा रतनु परोइआ ॥ निज भाउ भइआ भ्रमु भागा ॥ गुर पूछे मनु पतीआगा ॥२॥ जल भीतरि कु्मभ समानिआ ॥ सभ रामु एकु करि जानिआ ॥ गुर चेले है मनु मानिआ ॥ जन नामै ततु पछानिआ ॥३॥३॥ {पन्ना 657} शब्दार्थ: मंदलु = ढोल। बाजै = बजता है। बिनु सावण = सावन का महीना आए बिना ही, हर वक्त। घनहरु = बादल। गाजै = गरजता है। जउ = जब। कोई = कोई मनुष्य।1। मो कउ = मुझे। सनेही = प्यारा। जिह मिलिअै = जिस (राम) के मिलने से। देह = शरीर। सुदेही = संदर देही।1। रहाउ। मिलि = मिल के, छू के। कंचनु = सोना। मनसा = मुँह में और ख्यालों में (भाव, वचनों में और विचारों में)। निज भाउ = अपनों वाला प्यार। भ्रमु = भुलेखा (के कहीं कोई बेगाना भी है)। गुर पूछे = गुरू की शिक्षा ले के। पतीआगा = पतीज गया, तसल्ली हो गई।2। भीतरि = अंदर, में। कुंभ = पानी का घड़ा, जीवात्मा। सभ = हर जगह। गुर मेले मनु = गुरू का और चेले का मन। नामै = नामदेव ने।3। सरलार्थ: मुझे प्यारा राम मिल गया है, जिससे मिलने की बरकति से मेरा शरीर भी चमक पड़ा है।1। रहाउ। जो भी कोई मनुष्य इस सच्चाई को विचारता है (अर्थात, जिसके भी अंदर ये मेल-अवस्था घटित होती है, उसके अंदर) ढोल बजने लग जाते हैं। (पर वह ढोल खाल से) मढ़े हुए नहीं होते, (उसके मन में) बादल गरजने लग जाते हैं, पर वह बादल सावन महीने का इन्तजार नहीं करते (भाव, हर वक्त गरजते हैं), उसके अंदर बगैर बादलों के ही बरसात होने लग जाती है (बादल तो कभी आए और कभी चले गए, वहाँ हर वक्त ही नाम की बरखा होती रहती है।)।1। नोट: जैसे कहीं ढोल बजने से छोटी–मोटी और आवाजें सुनाई नहीं देती, वैसे ही जिस मनुष्य के अंदर राम–नाम का ढोल बजता है नाम का प्रभाव पड़ता है, वहाँ मायावी विकारों का शोर सुनाई नहीं देता, वहाँ हर वक्त नाम के बादल गरजते हैं, और मन–मोर नृत्य करता है; वहाँ हर वक्त नाम की बरखा से ठंढ पड़ी रहती है। सतिगुरू की शिक्षा ले कर मेरा मन इस तरह पतीज गया है (और स्वच्छ हो गया है) जैसे पारस को छू के (लोहा) सोना बन जाता है, अब मेरे बचनों में और ख़्यालों में नाम-रत्न ही परोया गया है, (प्रभू से अब) मेरा अपनों जैसा प्यार बन गया है, (ये) भरम रह ही नहीं गया (कि कहीं कोई बेगाना भी है)।2। (जैसे समुंद्र के) पानी में घड़े का पानी मिल जाता है (और अपनी अलग हस्ती को मिटा देता है), मुझे भी अब हर जगह राम ही राम दिखता है (मेरा अपना वजूद रहा ही नहीं); अपने सतिगुरू के साथ मेरा मन एक-मेक हो गया है और मैंने दास नामे ने (जगत की) असलियत परमात्मा से (पक्की) सांझ डाल ली है।3।3। रागु सोरठि बाणी भगत रविदास जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जब हम होते तब तू नाही अब तूही मै नाही ॥ अनल अगम जैसे लहरि मइ ओदधि जल केवल जल मांही ॥१॥ माधवे किआ कहीऐ भ्रमु ऐसा ॥ जैसा मानीऐ होइ न तैसा ॥१॥ रहाउ ॥ नरपति एकु सिंघासनि सोइआ सुपने भइआ भिखारी ॥ अछत राज बिछुरत दुखु पाइआ सो गति भई हमारी ॥२॥ राज भुइअंग प्रसंग जैसे हहि अब कछु मरमु जनाइआ ॥ अनिक कटक जैसे भूलि परे अब कहते कहनु न आइआ ॥३॥ सरबे एकु अनेकै सुआमी सभ घट भुोगवै सोई ॥ कहि रविदास हाथ पै नेरै सहजे होइ सु होई ॥४॥१॥ {पन्ना 657-658} शब्दार्थ: जब = जब तक। हम = हम, अहंकार, स्वै भाव। मै = मेरी, अपनत्व, अहंकार। अनल = (सं: अनिल) हवा। अनल अगम = भारी अंधेरी (के कारण)। लहरि मइ = लहरमय, लहरों से भरपूर। (संस्कृत: मय = जिस शब्द के आखिर में ‘मय’ बरता जाए उसके अर्थ में ‘बहुलता’ का ख्याल बढ़ाया जाता है, जैसे दया मय = दया से भरपूर)[ ओदधि = (सं: उदधि) समुंद्र।1। माधवे = हे माधो! (नोट: शब्द ‘माधो’ भगत रविदास जी का विशेष प्यारा शब्द है, बहुत बार परमात्मा के लिए वे इसी शब्द को बरतते हैं, संस्कृत धार्मिक पुस्तकों में ये नाम कृष्ण जी का है। अगर रविदास जी श्री रामचंद्र के उपासक होते, तो ये शब्द ना प्रयोग करते)। किआ कहीअै = क्या कहें?कहा नहीं जा सकता। भ्रमु = भुलेखा। मानीअै = माना जा रहा है, विचार बनाया हुआ है।1। रहाउ। नरपति = राजा। सिंघासनि = तख़्त पर। भिखारी = मंगता। अछत = होते हुए। गति = हालत।2। राज = रज्जु, रस्सी। भुइअंग = सांप। प्रसंग = वार्ता, बात। मरमु = भेद, राज। कटक = कड़े। कहते = कहते हुए।3। सरबे = सभी में। अनेकै = अनेक रूप हो के। भुोगवै = भोग रहा है, मौजूद है। पै = से। सहजे = सोते ही, उसकी रजा में।4। भुोगवै– (नोट: अक्षर ‘भ’ के साथ दो मात्राएं है ‘ु’ की और ‘ो’। असल शब्द है भोगवे पर यहाँ पढ़ना है ‘भुगवै’) भ सरलार्थ: (हे माधो!) जब तक हम जीवों में अहंकार रहता है, तब तक तू (हमारे अंदर) प्रकट नहीं होता, पर जब तू प्रत्यक्ष होता है तब हमारी ‘मैं’ दूर हो जाती है; (इस ‘मैं’ के हटने से ही हमें ये समझ आ जाती है कि) जैसे बड़ा तूफ़ान आने से समुंद्र लहरों से नाको-नाक भर जाता है, पर असल में वह (लहरें समुंद्र के) पानी में पानी ही हैं (वैसे ही ये सारे जीव-जंतु तेरा अपना ही विकास हैं)।1। हे माधो! हम जीवों को कुछ ऐसा भुलेखा पड़ा हुआ है कि ये बयान नहीं किया जा सकता। हम जो मानें बैठे हैं (कि जगत तेरे से कोई अलग हस्ती है), वह ठीक नहीं है।1। रहाउ। (जैसे) कोई राजा अपने तख़्त पर बैठा सो जाए, और सपने में भिखारी बन जाए, राज होते हुए भी वह (सपने में राज से) विछुड़ के दुखी होता है, वैसे ही (हे माधो! तुझसे विछुड़ के) हम जीवों का हाल हो रहा है।2। जैसे रस्सी और साँप का दृष्टांत है, जैसे (सोने से बने हुए) अनेकों कड़े देख के भुलेखा पड़ जाए (कि सोना ही कई किस्म का होता है, वैसे ही हमें भुलेखा पड़ा हुआ है कि ये जगत तुझसे अलग है), पर तूने अब मुझे कुछ-कुछ भेद जता दिया है। अब वह पुरानी भेद-भाव वाली बात मुझसे कहीं नहीं जाती (भाव, अब मैं ये नहीं कहता कि जगत तुझसे अलग हस्ती है)।3। (अब तो) रविदास कहता है कि वह प्रभू-पति अनेकों रूप बना के सभी में एक स्वयं ही है, सभी घटों में खुद ही बैठा जगत के रंग माण रहा है। (दूर नहीं) मेरे हाथ से भी नजदीक है, जो कुछ (जगत में) हो रहा है, उसी की रजा में हो रहा है।4।1। शबद का भावार्थ: परमात्मा सर्व-व्यापक है। पर जीव अपनी ‘हउ’ (मैं) के घेरे में रह के जगत को उससे अलग हस्ती समझता है। जब तक ‘मैं’ है, तब तक भेदभाव है। |
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