श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ हरि हरि अपणी दइआ करि हरि बोली बैणी ॥ हरि नामु धिआई हरि उचरा हरि लाहा लैणी ॥ {पन्ना 652}

सरलार्थ: हे हरी! अपनी मेहर कर, मैं तेरी बाणी (भाव, तेरा यश) उचारूँ, हरी का नाम सिमरूँ, हरी का नाम उच्चारण करूँ और यही लाभ कमाऊँ।

जो जपदे हरि हरि दिनसु राति तिन हउ कुरबैणी ॥ जिना सतिगुरु मेरा पिआरा अराधिआ तिन जन देखा नैणी ॥ {पन्ना 652}

सरलार्थ: मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ, जो दिन रात हरी का नाम जपते हैं, उनको मैं अपनी आँखों से देखूँ जो प्यारे सतिगुरू की सेवा करते हैं।

हउ वारिआ अपणे गुरू कउ जिनि मेरा हरि सजणु मेलिआ सैणी ॥२४॥ {पन्ना 652}

शब्दार्थ: सैणी = रिश्तेदार।

सरलार्थ: मैं अपने सतिगुरू से सदके हूँ, जिसने मुझे प्यारा सज्जन प्रभू साथी मिला दिया है।24।

सलोकु मः ४ ॥ हरि दासन सिउ प्रीति है हरि दासन को मितु ॥ हरि दासन कै वसि है जिउ जंती कै वसि जंतु ॥ {पन्ना 652}

शब्दार्थ: जंतु = यंत्र, बाजा। जंती = बजाने वाला।

सरलार्थ: प्रभू की अपने सेवकों के साथ प्रीति होती है, प्रभू अपने सेवकों का मित्र है, जैसे बाजा बजाने वाले (वैजंत्री) के वश में होता है (जैसे चाहे बजाए) वैसे ही प्रभू अपने सेवकों के अधीन होता है।

हरि के दास हरि धिआइदे करि प्रीतम सिउ नेहु ॥ किरपा करि कै सुनहु प्रभ सभ जग महि वरसै मेहु ॥ {पन्ना 652}

सरलार्थ: प्रभू के सेवक अपने प्रीतम प्रभू से प्रेम जोड़ के प्रभू को सिमरते हैं, (और विनती करते हैं कि) हे प्रभू मेहर करके सुन, सारे संसार में (नाम की) बरखा हो (इस प्यार के कारण ही प्रभू अपने सेवकों को प्यार करता है)।

जो हरि दासन की उसतति है सा हरि की वडिआई ॥ हरि आपणी वडिआई भावदी जन का जैकारु कराई ॥ {पन्ना 652}

शब्दार्थ: उस्तति = उपमा, वडिआई। जैकारु = शोभा।

सरलार्थ: हरी के सेवकों की शोभा हरी की ही महिमा (उस्तति) है; हरी को अपनी ये वडिआई (जो उसके सेवकों की होती है) अच्छी लगती है। (सो) वह अपने सेवक की जै-जैकार करवा देता है।

सो हरि जनु नामु धिआइदा हरि हरि जनु इक समानि ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि पैज रखहु भगवान ॥१॥ {पन्ना 652}

शब्दार्थ: इक समानि = एक जैसे। पैज = लाज।

सरलार्थ: हरी का दास वह है जो हरी का नाम सिमरता है, हरी और हरी का सेवक एक-रूप हैं। हे हरी! हे भगवान! दास नानक तेरा सेवक है, (इस सेवक की भी) लाज रख (अपने नाम की दाति दे)।1।

मः ४ ॥ नानक प्रीति लाई तिनि साचै तिसु बिनु रहणु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ हरि रसि रसन रसाई ॥२॥ {पन्ना 652}

शब्दार्थ: रसि = रस में, स्वाद में। रसन = जीभ।

सरलार्थ: उस सच्चे हरी ने नानक के (हृदय में) प्रेम पैदा किया है, (अब) उस के बिना जीया नहीं जाता; (कैसे मिले?) सतिगुरू मिल जाए तो पूरा हरी प्राप्त हो जाता है और जीभ हरी के नाम के स्वाद में रस जाती है।2।

पउड़ी ॥ रैणि दिनसु परभाति तूहै ही गावणा ॥ जीअ जंत सरबत नाउ तेरा धिआवणा ॥ तू दाता दातारु तेरा दिता खावणा ॥ भगत जना कै संगि पाप गवावणा ॥ जन नानक सद बलिहारै बलि बलि जावणा ॥२५॥ {पन्ना 652}

सरलार्थ: हे हरी! रात दिन, अमृत के वक्त (सुबह) (भाव हर वक्त) तू ही गाने के योग्य है, सारे जीव-जंतु तेरा नाम सिमरते हैं, तू दातें देने वाला दातार है तेरा ही दिया हुआ खाते हैं, और भक्तों की संगति में अपने पाप दूर करते हैं। हे दास नानक! (उन भक्तजनों से) सदा सदके हो, कुर्बान हो।25।

सलोकु मः ४ ॥ अंतरि अगिआनु भई मति मधिम सतिगुर की परतीति नाही ॥ अंदरि कपटु सभु कपटो करि जाणै कपटे खपहि खपाही ॥ सतिगुर का भाणा चिति न आवै आपणै सुआइ फिराही ॥ किरपा करे जे आपणी ता नानक सबदि समाही ॥१॥ {पन्ना 652}

शब्दार्थ: मधिम = हल्का, मध्यम, बुरी। कपटु = धोखा। सुआइ = स्वार्थ के लिए।

सरलार्थ: (मनमुख के) हृदय में अज्ञान है, (उसकी) अक्ल होछी होती है और सतिगुरू पर उसे सिदक नहीं होता; मन में धोखा (होने के कारण संसार में भी) वह सारा धोखा ही धोखा बरतता समझता है। (मनमुख बंदे खुद) दुखी होते हैं (तथा औरों को) दुखी करते रहते हैं; सतिगुरू का हुकम उनके चिक्त में नहीं आता (भाव, भाणा नहीं मानते) और अपनी गरज़ के पीछे भटकते फिरते हैं; हे नानक! अगर हरी अपनी मेहर करे, तो ही वह गुरू के शबद में लीन होते हैं।1।

मः ४ ॥ मनमुख माइआ मोहि विआपे दूजै भाइ मनूआ थिरु नाहि ॥ अनदिनु जलत रहहि दिनु राती हउमै खपहि खपाहि ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा तिन कै निकटि न कोई जाहि ॥ ओइ आपि दुखी सुखु कबहू न पावहि जनमि मरहि मरि जाहि ॥ नानक बखसि लए प्रभु साचा जि गुर चरनी चितु लाहि ॥२॥ {पन्ना 652}

शब्दार्थ: विआपे = ग्रसे हुए। गुबारा = अंधेरा। निकटि = नजदीक।

सरलार्थ: माया के मोह में ग्रसित मनमुखों का मन माया के प्यार में एक जगह नहीं टिकता; हर वक्त दिन रात (माया में) जलते रहते हैं, अहंकार में आप दुखी होते हैं, औरों को दुखी करते हैं, उनके अंदर लोभ-रूपी बड़ा अंधेरा होता है, कोई मनुष्य उनके नजदीक नहीं फटकता, वह अपने आप ही दुखी रहते हैं, कभी सुखी नहीं होते, सदा पैदा होने मरने के चक्कर में पड़े रहते हैं। हे नानक! अगर वे गुरू के चरणों में चिक्त जोड़ें, तो सच्चा हरी उनको बख्श ले।2।

पउड़ी ॥ संत भगत परवाणु जो प्रभि भाइआ ॥ {पन्ना 652}

सरलार्थ: जो मनुष्य प्रभू को प्यारे हैं, वे संत जन हैं, भक्त हैं, वही कबूल हैं।

सेई बिचखण जंत जिनी हरि धिआइआ ॥ अम्रितु नामु निधानु भोजनु खाइआ ॥ संत जना की धूरि मसतकि लाइआ ॥ नानक भए पुनीत हरि तीरथि नाइआ ॥२६॥ {पन्ना 652}

शब्दार्थ: बिचखण = विलक्ष्ण, विशिष्ट, समझदार। धिआइआ = सिमरा है। भोजन खाया = भाव, आत्मा का आसरा बनाया है (जैसे भोजन शरीर का आसरा है)। मसतकि = माथे पर। भऐ पुनीत = पवित्र हो गए है। नाइआ = नहाए हैं।

सरलार्थ: वही मनुष्य विलक्ष्ण हैं जो हरी का नाम सिमरते हैं, आत्मिक जीवन देने वाला नाम खाजाना रूपी भोजन करते हैं, और संतों की चरण-धूड़ अपने माथे पर लगाते हैं। हे नानक! (ऐसे मनुष्य) हरी (के भजन रूप) तीर्थ में नहाते हैं और पवित्र हो जाते हैं।26।

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