श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः ३ ॥ सतिगुरि मिलिऐ भुख गई भेखी भुख न जाइ ॥ दुखि लगै घरि घरि फिरै अगै दूणी मिलै सजाइ ॥ अंदरि सहजु न आइओ सहजे ही लै खाइ ॥ मनहठि जिस ते मंगणा लैणा दुखु मनाइ ॥ इसु भेखै थावहु गिरहो भला जिथहु को वरसाइ ॥ सबदि रते तिना सोझी पई दूजै भरमि भुलाइ ॥ पइऐ किरति कमावणा कहणा कछू न जाइ ॥ नानक जो तिसु भावहि से भले जिन की पति पावहि थाइ ॥१॥ {पन्ना 587}

शब्दार्थ: भेखी = भेख धारण करने से। अगै = परलोक में। सहज = अडोलता, संतोख। दुखु मनाइ = दुख पैदा करके। थावहु = से तो। वरसाइ = काम सँवारता है। पावहि = तू पाता है।

सरलार्थ: गुरू को मिलने से ही (मनुष्य के मन की) भूख दूर हो सकती है, भेष (धारने से) तृष्णा नहीं जाती; (भेखी साधु तृष्णा के) दुख में कलपता है, घर घर भटकता फिरता है, और परलोक में इससे भी ज्यादा सजा भुगतता है।

भेखी साधू के मन में शांति नहीं आती, (चाहिए तो ये कि) जिस शांति की बरकति से उसे जो कुछ किसी से मिले वह उसे ले के खा ले (भाव, तृप्त हो जाए); पर मन के हठ के आसरे (भिक्षा) माँगने से (दरअसल, दोनों धड़ों में) कलेश पैदा करके ही भिक्षा ली जाती है। ऐसे भेष से तो गृहस्त बेहतर है, क्योंकि यहाँ पे मनुष्य अपनी आस (तो) पूरी कर सकता है।

जो मनुष्य गुरू के शबद में रंगे जाते हैं, उन्हें ऊँची सूझ प्राप्त होती है, पर, जो मनुष्य माया में फंसे रहते हैं, वे भटकते हैं। (इस बारे में कि कोई ठीक राह पड़ा है और कोई बुरी राह) कुछ कहा नहीं जा सकता, (पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार ही) कार कमानी पड़ती है।

हे नानक! जो जीव उस प्रभू को प्यारे लगते हैं, वही अच्छे हैं, क्योकि, हे प्रभू! तू उनकी इज्जत रखता है (लाज रखता है)।1।

मः ३ ॥ सतिगुरि सेविऐ सदा सुखु जनम मरण दुखु जाइ ॥ चिंता मूलि न होवई अचिंतु वसै मनि आइ ॥ अंतरि तीरथु गिआनु है सतिगुरि दीआ बुझाइ ॥ मैलु गई मनु निरमलु होआ अम्रित सरि तीरथि नाइ ॥ सजण मिले सजणा सचै सबदि सुभाइ ॥ घर ही परचा पाइआ जोती जोति मिलाइ ॥ पाखंडि जमकालु न छोडई लै जासी पति गवाइ ॥ नानक नामि रते से उबरे सचे सिउ लिव लाइ ॥२॥ {पन्ना 587}

शब्दार्थ: जनम मरण दुखु = पैदा होने से ले के मरने तक का दुख, सारी उम्र का दुख, मौत का सहम जो सारी उम्र पड़ा रहता है।

सरलार्थ: गुरू के बताए हुए राह में चलने से सदा सुख मिलता है, सारी उम्र का दुख दूर हो जाता है; बिल्कुल ही चिंता नहीं रहती (क्योंकि) चिंता से रहित प्रभू मन में आ बसता है। मनुष्य के अंदर ही ज्ञान (-रूपी) तीर्थ है, (जिस मनुष्य को) सतिगुरू ने (इस तीर्थ की) समझ बख्शी है वह मनुष्य नाम-अमृत के सरोवर में, अमृत के तीर्थ पर नहाता है, और उसका मन पवित्र हो जाता है (मन के विकारों की) मैल दूर हो जाती है। सतिगुरू के सच्चे शबद की बरकति से सहज ही सत्संगी सत्संगियों को मिलते हैं, (सत्संग से) प्रभू में बिरती जोड़ के, हृदय-रूप घर में उनको (प्रभू-सिमरन रूप) आहर मिल जाता है।

पर, पाखण्ड करने से मौत का सहम नहीं छोड़ता, (पाखण्ड की) लाज गवा के मौत इसे ले के चली जाती है। हे नानक! जो मनुष्य नाम में रंगे हुए हैं वे सदा-स्थिर प्रभू (के चरणों) में सुरति जोड़ के (इस सहम से) बच जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ तितु जाइ बहहु सतसंगती जिथै हरि का हरि नामु बिलोईऐ ॥ सहजे ही हरि नामु लेहु हरि ततु न खोईऐ ॥ नित जपिअहु हरि हरि दिनसु राति हरि दरगह ढोईऐ ॥ सो पाए पूरा सतगुरू जिसु धुरि मसतकि लिलाटि लिखोईऐ ॥ तिसु गुर कंउ सभि नमसकारु करहु जिनि हरि की हरि गाल गलोईऐ ॥४॥ {पन्ना 587}

शब्दार्थ: बिलोईअै = मथा जाता है, विचार किया जाता है। सहजे = अडोलता में, टिके हुए मन से। ततु = असली चीज। लिलाटि = माथे पर। गलोईअै = कहता है।

सरलार्थ: (हे भाई!) उस सत्संग में जा के बैठो, जहाँ प्रभू के नाम की विचार होती है, (वहाँ जा के) मन टिका के हरी का नाम जपो, ताकि नाम-तत्व छूट ना जाए। (सत्संग में) सदा दिन रात हरी का नाम जपो, ये नाम-रूप (पोटली का) ढोआ ले के प्रभू की हजूरी में पहुँचना है।

(पर, सत्संगति में भी) उसी मनुष्य को पूरा गुरू मिलता है, जिसके माथे पर धुर से (भले कर्मों के संस्कारों का लेख) लिखा हुआ है।

(हे भाई!) सारे उस गुरू को सिर झुकाओ, जो सदा प्रभू के सिफत सालाह की बातें करता है।4।

सलोक मः ३ ॥ सजण मिले सजणा जिन सतगुर नालि पिआरु ॥ मिलि प्रीतम तिनी धिआइआ सचै प्रेमि पिआरु ॥ मन ही ते मनु मानिआ गुर कै सबदि अपारि ॥ एहि सजण मिले न विछुड़हि जि आपि मेले करतारि ॥ इकना दरसन की परतीति न आईआ सबदि न करहि वीचारु ॥ विछुड़िआ का किआ विछुड़ै जिना दूजै भाइ पिआरु ॥ मनमुख सेती दोसती थोड़ड़िआ दिन चारि ॥ इसु परीती तुटदी विलमु न होवई इतु दोसती चलनि विकार ॥ जिना अंदरि सचे का भउ नाही नामि न करहि पिआरु ॥ नानक तिन सिउ किआ कीचै दोसती जि आपि भुलाए करतारि ॥१॥ {पन्ना 587}

शब्दार्थ: करतारि = करतार ने। दूजै भाइ = (प्रभू के बिना) अन्य के प्यार में। विलमु = देर, ढील, विलम्ब। चलनि = पैदा होते हैं।

सरलार्थ: जिन (सत्संगियों) का गुरू से प्रेम होता है, वह सत्संगियों को मिलते हैं; सत्संगियों को मिल के वही मनुष्य प्रभू प्रीतम को सिमरते हैं क्योंकि सच्चे प्यार में उनकी बिरती जुड़ी रहती है; सतिगुरू के अपार शबद की बरकति से उनका मन खुद-ब-खुद ही प्रभू में पतीज जाता है; ऐसे सत्संगी मनुष्य (एक बार) मिले हुए फिर विछुड़ते नहीं हैं, क्योंकि करतार ने खुद इनको मिला दिया है।

एक ( विछुड़े हुओं) को प्रभू के दीदार का यकीन ही नहीं होता, क्योंकि वे गुरू के शबद का कभी विचार ही नहीं करते। पर, जिन मनुष्यों की सुरति सदा माया के मोह में जुड़ी रहती है, उन (प्रभू से) विछुड़े हुओं का और विछोड़ा भी क्या होना हुआ? (भाव, माया में फंसे रहने के कारण वे परमात्मा से विछोड़ा महसूस ही नहीं करते)।

जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है उससे मित्रता थोड़े ही दो-चार दिन के लिए ही रह सकती है, इस मित्रता के टूटते हुए देरी नहीं लगती, (वैसे भी) इस मित्रता में से बुराईयां ही जन्म लेती हैं। हे नानक! जिन मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का डर नहीं, जो परमात्मा के नाम से कभी प्यार नहीं करते उनके साथ कभी अपनत्व डालना ही नहीं चाहिए।1।

मः ३ ॥ इकि सदा इकतै रंगि रहहि तिन कै हउ सद बलिहारै जाउ ॥ तनु मनु धनु अरपी तिन कउ निवि निवि लागउ पाइ ॥ तिन मिलिआ मनु संतोखीऐ त्रिसना भुख सभ जाइ ॥ नानक नामि रते सुखीए सदा सचे सिउ लिव लाइ ॥२॥ {पन्ना 587}

शब्दार्थ: इकि = कई मनुष्य। इकतै रंगि = एक रंग में ही। अरपी = मैं हवाले कर दूँ। पाइ = पैरों पर।

सरलार्थ: कई (भाग्यशाली) मनुष्य एक (प्रभू के) रंग में ही (मस्त) रहते हैं, मैं उनसे कुर्बान हूँ; (मेरा चिक्त करता है) उपना तन-मन-धन उनकी भेटा कर दूँ और झुक-झुक के उनके पैरों पर लगूँ। उनको मिल के मन को ठंडक पड़ती है, सारी तृष्णा और भूख दूर हो जाती है।

हे नानक! नाम में भीगे हुए मनुष्य सच्चे प्रभू के साथ चिक्त जोड़ के सदा सुखी रहते हैं।2।

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धन्यवाद!