श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिनी आपणा कंतु पछाणिआ हउ तिन पूछउ संता जाए ॥ आपु छोडि सेवा करी पिरु सचड़ा मिलै सहजि सुभाए ॥ पिरु सचा मिलै आए साचु कमाए साचि सबदि धन राती ॥ कदे न रांड सदा सोहागणि अंतरि सहज समाधी ॥ पिरु रहिआ भरपूरे वेखु हदूरे रंगु माणे सहजि सुभाए ॥ जिनी आपणा कंतु पछाणिआ हउ तिन पूछउ संता जाए ॥३॥ {पन्ना 583}

शब्दार्थ: जिनी = जिन्होंने। कंतु = पति, पति प्रभू। हउ = मैं। पूछउ = पूछूँ, मैं पूछता हूँ। जाऐ = जा के। आपु = स्वै भाव। करी = मैं करता हूँ। सचड़ा = सदा कायम रहने वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता से। सुभाऐ = प्यार से। आऐ = आ के। साचु = सदा स्थिर हरी नाम। साचि = सदा स्थिर हरी नाम में। सबदि = शबद में। धन = जीव स्त्री। भरपूरे = हर जगह व्यापक। हदूरे = अंग संग। माणे = माणि।3।

सरलार्थ: हे सखी! जिन संत जनों ने अपने पति-प्रभू के साथ सांझ डाल ली है, मैं जा के उनको पूछती हूँ। स्वै भाव त्याग के मैं उनकी सेवा करती हूँ। हे सखी! सदा कायम रहने वाला प्रभू-पति आत्मिक अडोलता में टिकने से प्रेम में जुड़ने से ही मिलता है। सदा-स्थिर प्रभू आ के उस जीव-स्त्री को मिल जाता है, जो सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन की कमाई करती है, जो सदा स्थिर हरी-नाम सिमरन में जुड़ी रहती है, जो गुरू के शबद में रंगी रहती है। वह जीव-स्त्री सदा सुहाग वाली रहती है, वह कभी पति-विहीन नहीं होती, उसके अंदर आत्मिक अडोलता की समाधि लगी रहती है।

हे सखी! प्रभू-पति हर जगह मौजूद है, उसे तू अपने अंग-संग बसता देख, आत्मिक अडोलता में टिक के, प्रेम में जुड़ के उसके मिलाप का आनंद ले।

हे सखी! जिन संत-जनों ने अपने प्रभू-पति के साथ सांझ डाल ली है, मैं जा के उनसे पूछती हूँ (कि उसका मिलाप किस तरह हो सकता है?)।3।

पिरहु विछुंनीआ भी मिलह जे सतिगुर लागह साचे पाए ॥ सतिगुरु सदा दइआलु है अवगुण सबदि जलाए ॥ अउगुण सबदि जलाए दूजा भाउ गवाए सचे ही सचि राती ॥ सचै सबदि सदा सुखु पाइआ हउमै गई भराती ॥ पिरु निरमाइलु सदा सुखदाता नानक सबदि मिलाए ॥ पिरहु विछुंनीआ भी मिलह जे सतिगुर लागह साचे पाए ॥४॥१॥ {पन्ना 583}

शब्दार्थ: पिरहु = प्रभू पति से। भी = दुबारा भी। मिलह = हम मिल सकती हैं। जे लागह = अगर हम लगें। साचे सतिगुर पाऐ = सच्चे सतिगुरू के चरणों में। सबदि = शबद में (जोड़ के)। दूजा भाउ = माया का प्यार। सचे ही सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभू में ही। राती = मस्त। भराती = भटकना। निरमाइलु = पवित्र।4।

सरलार्थ: हे सखी! हम जीव-सि्त्रयां प्रभू-पति से विछुड़ी हुई फिर भी उसको मिल सकती हैं अगर हम सच्चे सतिगुरू के चरणों में लगें। हे सखी! गुरू सदा दयावान है, वह (शरण पड़े के) अवगुण (अपने) शबद में (जोड़ के) जला देता है। (हे सखी! गुरू की शरण पड़ने वाले के अवगुण शबद द्वारा जला देता है, माया का प्यार दूर कर देता है)। (गुरू के चरणों में लगी हुई जीव-स्त्री) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में ही रंगी रहती है। सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में जुड़ के वह सदा आनंद लेती है, उसका अहंकार उसकी भटकना दूर हो जाती है।

हे नानक! प्रभू-पति पवित्र करने वाला है, सदा सुख देने वाला है, (अपने गुरू) शबद के माध्यम से उससे मिला देता है।

हे सखी! हम जीव-सि्त्रयां प्रभू-पति से विछुड़ी हुई फिर भी उसको मिल सकती हैं, यदि हम सच्चे सतिगुरू के चरण लगें।4।1।

वडहंसु महला ३ ॥ सुणिअहु कंत महेलीहो पिरु सेविहु सबदि वीचारि ॥ अवगणवंती पिरु न जाणई मुठी रोवै कंत विसारि ॥ रोवै कंत समालि सदा गुण सारि ना पिरु मरै न जाए ॥ गुरमुखि जाता सबदि पछाता साचै प्रेमि समाए ॥ जिनि अपणा पिरु नही जाता करम बिधाता कूड़ि मुठी कूड़िआरे ॥ सुणिअहु कंत महेलीहो पिरु सेविहु सबदि वीचारे ॥१॥ {पन्ना 583}

शब्दार्थ: महेली = महिला, स्त्री। कंत महेलिहो = हे प्रभू पति की जीव सि्त्रयो! सबदि = शबद से। जाणई = जाने, जानती। मुठी = ठॅगी हुई, जिसने आत्मिक जीवन लुटा लिया है। रोवै = दुखी होती है। संमालि = सम्भाल के, दिल में बसा के। सारि = संभाल के। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाली जीव स्त्री। प्रेमि = प्रेम में। जिनि = जिस ने। करम बिधाता = जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा होने वाला। कूड़ि = झूठ में, माया के पसारे में।

सरलार्थ: हे प्रभू-पति की जीव सि्त्रयो! (मेरी बात) सुन लेनी (वह ये है कि) गुरू शबद के द्वारा प्रभू के गुणों पर विचार करके प्रभू-पति की सेवा-भक्ति किया करो। जो जीव-स्त्री प्रभू-पति के साथ गहरी सांझ नहीं डालती, वह अवगुणों से भरी रहती है, प्रभू-पति को भुला के वह आत्मिक जीवन लुटा बैठती है, और, दुखी होती है। पर, जो जीव-स्त्री पति को हृदय में बसा के प्रभू के गुण सदा याद कर कर के (प्रभू के दर पर सदा) आरजू करती रहती है, उसका पति (-प्रभू) कभी मरता नहीं, उसे कभी छोड़ के नहीं जाता।

जो जीव-स्त्री गुरू की शरण पड़ कर प्रभू के साथ गहरी सांझ बना लेती है, गुरू के शबद के माध्यम से प्रभू के साथ जान-पहचान बनाती है, वह सदा कायम रहने वाले प्रभू के प्रेम में लीन रहती है। जिस जीव-स्त्री ने अपने उस प्रभू-पति के साथ सांझ नहीं बनाई जो सब जीवों को उनके कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला है, उस झूठ की बंजारन को माया का मोह ठॅगे रखता है (इस वास्ते) हे प्रभू-पति की जीव-सि्त्रयो! (मेरी विनती) सुन लेनी- गुरू शबद के द्वारा प्रभू के गुणों की विचार करके प्रभू की सेवा-भक्ति किया करो।1।

सभु जगु आपि उपाइओनु आवणु जाणु संसारा ॥ माइआ मोहु खुआइअनु मरि जमै वारो वारा ॥ मरि जमै वारो वारा वधहि बिकारा गिआन विहूणी मूठी ॥ बिनु सबदै पिरु न पाइओ जनमु गवाइओ रोवै अवगुणिआरी झूठी ॥ पिरु जगजीवनु किस नो रोईऐ रोवै कंतु विसारे ॥ सभु जगु आपि उपाइओनु आवणु जाणु संसारे ॥२॥ {पन्ना 583}

शब्दार्थ: उपाइओनु = उसने पैदा किया है। आवण जाणु = पैदा होना मरना। खुआइअनु = उसने गलत रास्ते पर डाल दिए हैं। वारो वारा = बार बार। मरि जंमै = मर के पैदा होना है। वधहि = बढ़ते हैं। विहूणी = विहीन। गिआन = आत्मिक जीवन की समझ। मूठी = लूटी जाती है। रोवै = दुखी होती है। अवगुणिआरी = अवगुणों से भरी हुई। झूठी = झूठे मोह में फंसी हुई। जग जीवनु = जगत का जीवन। किस नो रोईअै = किस पर रोएं, किसी के मरने पर रोने की आवश्यक्ता नहीं। विसारे = भूल के।

सरलार्थ: हे भाई! सारा जगत और जगत का जनम मरण परमात्मा ने खुद बनाया है। माया का मोह (पैदा करके इस मोह में जगत को परमात्मा ने) आप ही भुलाया हुआ है (तभी तो) बार बार पैदा होता मरता रहता है। (माया के मोह में फस के जीव) बार बार पैदा होता मरता रहता है, (इसमें) विकार बढ़ते रहते हैं। आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित दुनिया आत्मिक जीवन की राशि-पूँजी लुटा बैठती है। गुरू के शबद के बिना जीव-स्त्री प्रभू-पति का मिलाप हासिल नहीं कर सकती। अपना जन्म व्यर्थ गवा लेती है; अवगुणों से भरी हुई, और झूठे मोह में फसी हुई दुखी होती रहती है।

पर, हे भाई! प्रभू खुद ही जगत का जीवन (-आधार) है, किसी की आत्मिक मौत मरने पर रोना भी क्या हुआ? (जीव-स्त्री) प्रभू-पति को भुला के दुखी होती रहती है। हे भाई! सारे जगत को प्रभू ने खुद ही पैदा किया है, जगत का जनम-मरण भी प्रभू ने खुद ही बनाया है।2।

सो पिरु सचा सद ही साचा है ना ओहु मरै न जाए ॥ भूली फिरै धन इआणीआ रंड बैठी दूजै भाए ॥ रंड बैठी दूजै भाए माइआ मोहि दुखु पाए आव घटै तनु छीजै ॥ जो किछु आइआ सभु किछु जासी दुखु लागा भाइ दूजै ॥ जमकालु न सूझै माइआ जगु लूझै लबि लोभि चितु लाए ॥ सो पिरु साचा सद ही साचा ना ओहु मरै न जाए ॥३॥ {पन्ना 583}

शब्दार्थ: सचा = सदा जीवित। सद ही = हमेशा ही। न जाऐ = ना पैदा होता है। भूली फिरै = भूली फिरती है। धन = जीव स्त्री। रंड = विछुड़ी हई, पति विहीन, रंडी। दूजै भाऐ = माया के प्यार में। आव = उम्र। तनु = शरीर। छीजै = कमजोर होता जाता है। जासी = नाश हो जाएगा। लूझै = झगड़ता है। लबि = लोभ में।3।

सरलार्थ: हे भाई! वह प्रभू-पति सदा जीवित है, सदा ही जीता है, वह ना मरता है ना पैदा होता है। अंजान जीव-स्त्री उससे वंचित हुई फिरती है, माया के मोह में फंस के प्रभू से विछुड़ी रहती है। औरों के प्यार के कारण प्रभू से विछुड़ी रहती है, माया के मोह में फंस के दुख सहती है, (इस मोह में इसकी) उम्र गुजरती जाती है, और, शरीर कमजोर होता जाता है। (जगत का नियम तो है ही ये कि) जो कुछ यहाँ पैदा हुआ है वह सब कुछ नाश हो जाता है, पर माया के मोह के कारण (इस अॅटल नियम को भुला के जीव को किसी के मरने पर) दुख होता है। जगत (सदैव) माया की खातिर लड़ता-झगड़ता है, उसको (सिर पर) मौत नहीं सूझती, लब में लोभ में चिक्त लगाए रखता है।

हे भाई! वह प्रभू-पति सदा जीता है, सदा ही जीवित है, वह ना मरता है ना पैदा होता है।3।

इकि रोवहि पिरहि विछुंनीआ अंधी ना जाणै पिरु नाले ॥ गुर परसादी साचा पिरु मिलै अंतरि सदा समाले ॥ पिरु अंतरि समाले सदा है नाले मनमुखि जाता दूरे ॥ इहु तनु रुलै रुलाइआ कामि न आइआ जिनि खसमु न जाता हदूरे ॥ नानक सा धन मिलै मिलाई पिरु अंतरि सदा समाले ॥ इकि रोवहि पिरहि विछुंनीआ अंधी न जाणै पिरु है नाले ॥४॥२॥ {पन्ना 583}

शब्दार्थ: इकि = (शब्द ‘इक’ का बहुवचन)। रोवहि = दुखी होती हैं। पिरहि = प्रभू पति से। अंधी = माया के मोह में अंधी हो चुकी जीव स्त्री। परसादी = कृपा से। अंतरि = हृदय में। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव स्त्री। जाता = समझती है। कामि = किसी काम में। जिनि = जिस (जीव स्त्री) ने। हदूरे = अंग संग बसता। सा धन = जीव स्त्री।4।

सरलार्थ: कई जीव-सि्त्रयां ऐसी हैं जो प्रभू-पति से विछुड़ के दुखी रहती हैं। माया के मोह में अंधी हुई जीव स्त्री ये नहीं समझती कि प्रभू-पति हर वक्त साथ बसता है। गुरू की कृपा से जो जीव स्त्री प्रभू-पति को सदा अपने हृदय में बसाए रखती है, उसे सदा जीता-जागता प्रभू मिल जाता है, वह जीव-स्त्री सदा प्रभू-पति को अपने दिल में बसाए रखती है उसको वह सदा अंग-संग दिखाई देता है। पर, अपने मन के पीछे चलने वाली प्रभू को दूर बसता समझती है। हे भाई! जिस जीव-स्त्री ने प्रभू-पति को अंग-संग बसता नहीं समझा, उसका ये शरीर (विकारों में) बेकार होता रहता है, और किसी काम नहीं आता। हे नानक! जो जीव स्त्री (गुरू की कृपा से) प्रभू-पति को सदा अपने हृदय में बसाए रखती है, वह (गुरू की) मिलाई हुई प्रभू से मिल जाती है।

कई जीव-सि्त्रयां ऐसी हैं जो प्रभू-पति से विछुड़ के दुख पाती हैं। माया के मोह में अंधी हो चुकी जीव-स्त्री ये नहीं समझती कि प्रभू-पति हर वक्त साथ बसता है।4।2।

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धन्यवाद!