श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 555

सलोक ॥ कबीरा मरता मरता जगु मुआ मरि भि न जानै कोइ ॥ ऐसी मरनी जो मरै बहुरि न मरना होइ ॥१॥ {पन्ना 555}

नोट: कबीर जी के सलोकों में देखें सलोक नंबर 29।

सरलार्थ: हे कबीर! मरता मरता (वैसे तो) सारा संसार ही मर रहा है, पर किसी ने भी (सच्चे) मरने की जाच नहीं सीखी। जो मनुष्य इस तरह की सच्ची मौत मरता है, उसे फिर मरना नहीं पड़ता।1।

मः ३ ॥ किआ जाणा किव मरहगे कैसा मरणा होइ ॥ जे करि साहिबु मनहु न वीसरै ता सहिला मरणा होइ ॥ मरणै ते जगतु डरै जीविआ लोड़ै सभु कोइ ॥ गुर परसादी जीवतु मरै हुकमै बूझै सोइ ॥ नानक ऐसी मरनी जो मरै ता सद जीवणु होइ ॥२॥ {पन्ना 555}

सरलार्थ: मुझे तो ये पता नहीं कि (सच्चा) मरना क्या होता है और हमें कैसे मरना चाहिए। अगर मालिक मन से ना विसरे, तो मरना आसान हो जाता है (भाव, मनुष्य आराम से ही माया के प्रभाव से बच जाता है)।

मरने से सारा संसार डरता है, हर कोई जीना चाहता है। गुरू की कृपा से जो मनुष्य जीवित ही मरता है, वह हरी की रजा को समझता है। हे नानक! इस तरह की मौत जो मरता है, (भाव, जो मनुष्य प्रभू की रजा में चलता है) उसे अटल जीवन मिल जाता है।2।

पउड़ी ॥ जा आपि क्रिपालु होवै हरि सुआमी ता आपणां नाउ हरि आपि जपावै ॥ आपे सतिगुरु मेलि सुखु देवै आपणां सेवकु आपि हरि भावै ॥ आपणिआ सेवका की आपि पैज रखै आपणिआ भगता की पैरी पावै ॥ धरम राइ है हरि का कीआ हरि जन सेवक नेड़ि न आवै ॥ जो हरि का पिआरा सो सभना का पिआरा होर केती झखि झखि आवै जावै ॥१७॥ {पन्ना 555}

सरलार्थ: जब हरी स्वामी खुद मेहरबान होता है तो अपना नाम (जीवों से) आप जपाता है। अपना सेवक हरी को प्यारा लगता है, उसको खुद ही सतिगुरू मिल के सुख देता है। प्रभू अपने सेवकों की आप लाज रखता है, (संसार को) अपने भक्तों के चरणों में ला डालता है, (और तो और) धर्म राज जो प्रभू का ही बनाया हुआ है, प्रभू के सेवक के नजदीक नहीं आता।

(बात यहाँ पे खत्म होती है कि) जो मनुष्य प्रभू का प्यारा है (भाव, उसे सब लोग प्यार करते हैं); (और बाकी) और बहुत सारी सृष्टि खप-खप के पैदा होती है मरती है।17।

सलोक मः ३ ॥ रामु रामु करता सभु जगु फिरै रामु न पाइआ जाइ ॥ अगमु अगोचरु अति वडा अतुलु न तुलिआ जाइ ॥ कीमति किनै न पाईआ कितै न लइआ जाइ ॥ गुर कै सबदि भेदिआ इन बिधि वसिआ मनि आइ ॥ नानक आपि अमेउ है गुर किरपा ते रहिआ समाइ ॥ आपे मिलिआ मिलि रहिआ आपे मिलिआ आइ ॥१॥ {पन्ना 555}

शब्दार्थ: अगोचरु = अरुगो+चर; इन्द्रियों की पहुँच से परे। अतुल = अंदाजे से बाहर। कितै = किसी जगह से। भेदिआ = भेदा हुआ। इनबिधि = इस तरह। अमेउ = जो गिना ना जा सके। आपे = खुद ही।

सरलार्थ: सारा संसार (मुँह से) ‘राम राम’ कहता फिरता है पर इस तरह ‘राम’ पाया नहीं जाता; क्योंकि वह अपहुँच है इन्द्रियों की पहुँच से परे है, बहुत बड़ा है अतुल है और तोला नहीं जा सकता, कोई भी उसकी कीमत नहीं लगा सका (भाव, उसकी प्राप्ति का मूल्य किसी को नहीं पता) और किसी जगह से (मूल्य दे के) खरीदा भी नहीं जाता।

(पर हाँ, एक तरीका है) अगर गुरू के शबद से (मन) भेदित हो जाए तो इस तरह प्रभू मन में आ बसता है। हे नानक! प्रभू खुद तो गिनती से परे है, पर सतिगुरू की कृपा से (ये पता मिल जाता है कि वह सारी सृष्टि में) व्यापक है; प्रभू खुद ही हर जगह मिला हुआ है और (जीव के हृदय में) खुद ही आ के प्रगट होता है।1।

मः ३ ॥ ए मन इहु धनु नामु है जितु सदा सदा सुखु होइ ॥ तोटा मूलि न आवई लाहा सद ही होइ ॥ खाधै खरचिऐ तोटि न आवई सदा सदा ओहु देइ ॥ सहसा मूलि न होवई हाणत कदे न होइ ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥२॥ {पन्ना 555}

शब्दार्थ: जितु = जिस से। तोटि = घटा। सहसा = संशय। हाणत = शर्मिंदगी।

सरलार्थ: हे मन! जिस धन से सदा ही सुख होता है वह धन ‘नाम’ है, इस धन को बिल्कुल घाटा नहीं, सदा लाभ ही लाभ है, खाने से और खर्चने से भी घाटा नहीं पड़ता, (क्योंकि) वह प्रभू सदा ही (ये धन) दिए जाता है। (यहाँ) कभी (इस धन संबंधी) कोई चिंता नहीं होती और (आगे दरगाह में) शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़ती।

(पर) हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर की नजर करता है, उसे सतिगुरू के सन्मुख होने से (ये धन) मिलता है।

पउड़ी ॥ आपे सभ घट अंदरे आपे ही बाहरि ॥ आपे गुपतु वरतदा आपे ही जाहरि ॥ जुग छतीह गुबारु करि वरतिआ सुंनाहरि ॥ ओथै वेद पुरान न सासता आपे हरि नरहरि ॥ बैठा ताड़ी लाइ आपि सभ दू ही बाहरि ॥ आपणी मिति आपि जाणदा आपे ही गउहरु ॥१८॥ {पन्ना 555}

शब्दार्थ: घट = शरीर। गुपतु = छुपा हुआ। वरतदा = मौजूद है। जाहरि = प्रत्यक्ष, सामने। जुग छतीह = 36 युग, बेअंत समय। सुंनाहरि = शून्य अवस्था में। नरहरि = मनुष्यों का मालिक। मिति = माप, अंदाजा। आपणी मिति = अपने आप की पैमायश। गउहरु = गहरा समुंद्र।

सरलार्थ: प्रभू खुद ही सारे शरीरों में है और खुद ही सबसे अलग है, खुद ही (सब में) छुपा हुआ है और प्रत्यक्ष (दिखाई दे रहा है)।

प्रभू खुद ही कई युग अंधेरा करके शून्य (अफुर) अवस्था में बरतता है; उस शून्य अवस्था के समय जीवों का मालिक प्रभू खुद ही खुद होता है; वेद पुरान शास्त्र आदि कोई भी धर्म पुस्तक तब नहीं होती। (जीवों को रच के) सब से अलग भी समाधि लगा के बैठा हुआ है (भाव, माया की रचना रच के भी इस माया के प्रभाव से स्वयं अलग व निर्लिप है)।

प्रभू स्वयं ही (जैसे) गहरा समुंद्र है, वह कितना बड़ा है– ये बात वह स्वयं ही जानता है।18।

ऊपर जाएँ!

धन्यवाद!