श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 534 देवगंधारी ५ ॥ अम्रिता प्रिअ बचन तुहारे ॥ अति सुंदर मनमोहन पिआरे सभहू मधि निरारे ॥१॥ रहाउ ॥ राजु न चाहउ मुकति न चाहउ मनि प्रीति चरन कमलारे ॥ ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा मोहि ठाकुर ही दरसारे ॥१॥ दीनु दुआरै आइओ ठाकुर सरनि परिओ संत हारे ॥ कहु नानक प्रभ मिले मनोहर मनु सीतल बिगसारे ॥२॥३॥२९॥ {पन्ना 534} शब्दार्थ: अंम्रिता = आत्मिक जीवन देने वाले। प्रिअ = हे प्यारे! मनमोहन = हे मन को मोहने वाले! मधि = में। निरारे = हे निराले!, हे अलग रहने वाले! चाहउ = चाहूँ, चाहता हूँ। मनि = मन में। चरन कमल = कमल फूल जैसे चरण। महेस = शिव। सिध = योग साधना में माहिर योगी, करामाती योगी। मोहि = मुझे।1। दुआरै = दर पर। हारे = हार के। मनोहर = मन को हरने वाले, मन मोहने वाले। बिगसारे = खिल जाते हैं।2। सरलार्थ: हे प्यारे! हे बेअंत सुंदर! हे प्यारे मनमोहन! हे सब जीवों में और सबसे न्यारे प्रभू! तेरी सिफत-सलाह के वचन आत्मिक जीवन देने वाले हैं।1। रहाउ। हे प्यारे प्रभू! मैं राज नहीं मांगता, मैं मुक्ति नहीं मांगता, (मेहर कर, सिर्फ तेरे) सुंदर कोमल चरणों का प्यार मेरे मन में टिका रहे। (हे भाई! लोग तो) ब्रहमा, शिव करामाती योगी, ऋषि, मुनि, इन्द्र (आदि के दर्शन चाहते हैं, पर) मुझे मालिक प्रभू के दर्शन ही चाहिए।1। हे ठाकुर! मैं गरीब तेरे दर पर आया हूँ, मैं हार के तेरे संतों की शरण पड़ा हूँ। हे नानक! (कह– जिस मनुष्य को) मन मोहने वाले प्रभू जी मिल जाते हैं उसका मन शांत हो जाता है, खिल उठता है।2।3।29। देवगंधारी महला ५ ॥ हरि जपि सेवकु पारि उतारिओ ॥ दीन दइआल भए प्रभ अपने बहुड़ि जनमि नही मारिओ ॥१॥ रहाउ ॥ साधसंगमि गुण गावह हरि के रतन जनमु नही हारिओ ॥ प्रभ गुन गाइ बिखै बनु तरिआ कुलह समूह उधारिओ ॥१॥ चरन कमल बसिआ रिद भीतरि सासि गिरासि उचारिओ ॥ नानक ओट गही जगदीसुर पुनह पुनह बलिहारिओ ॥२॥४॥३०॥ {पन्ना 534} शब्दार्थ: जपि = जप के। पारि उतारिओ = पार लंघा लिया जाता है। बहुड़ि = दुबारा। जनमि = जनम में। नही मारिओ = नहीं मारा जाता।1। रहाउ। संगमि = मिलाप में। गावह = आओ हम गाएं (वर्तमान काल, उक्तम पुरुष, बहुवचन)। गाइ = गा के। बिखै बनु = विषयों के जहर वाला जल (वनं कानने जले)। कुलह समूह = सारी कुलें।1। रिद = हृदय। सासि गिरासि = हरेक श्वास से और ग्रास से। ओट = आसरा। गही = पकड़ी। जगदीसुर = जगत के ईश्वर का। पुनह पुनह = बारंबार।2। सरलार्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जप के परमात्मा का सेवक (संसार समुंद्र से) पार लंघा लिया जाता है। दीनों पर दया करने वाले प्रभू उस सेवक के अपने बन जाते हैं, प्रभू उसको बार बार जनम-मरण में नहीं डालता।1। रहाउ। हे भाई! आओ हम गुरू की संगति में बैठ के परमात्मा के गुण गाएं। हे भाई! प्रभू का सेवक (गुण गा के) अपना श्रेष्ठ मानस जनम व्यर्थ नहीं गवाता। प्रभू के गुण गा के सेवक विषयों (विषौ-विकारों) के जल से भरे संसार-समुंद्र से खुद पार लांघ जाता है, अपनी सारी कुलों को भी (उसमें डूबने से) बचा लेता है।1। हे भाई! सेवक के हृदय में परमात्मा के सुंदर चरण हमेशा बसते रहते हैं, सेवक हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ परमात्मा का नाम जपता रहता है। हे नानक! सेवक ने जगत के मालिक परमात्मा का आसरा लिया होता है, मैं उस सेवक से बार बार बलिहार जाता हूँ।2।4।30। रागु देवगंधारी महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ करत फिरे बन भेख मोहन रहत निरार ॥१॥ रहाउ ॥ कथन सुनावन गीत नीके गावन मन महि धरते गार ॥१॥ अति सुंदर बहु चतुर सिआने बिदिआ रसना चार ॥२॥ मान मोह मेर तेर बिबरजित एहु मारगु खंडे धार ॥३॥ कहु नानक तिनि भवजलु तरीअले प्रभ किरपा संत संगार ॥४॥१॥३१॥ {पन्ना 534} शब्दार्थ: बन = जंगल। भेख = साधुओं वाले पहरावे। मोहन = सुंदर प्रभू। निरार = अलग।1। रहाउ। कथन सुनावन = (औरों को उपदेश) कहने सुनाने वाले। नीके = सुंदर। गार = गर्व, अहंकार।1। रसना = जीभ। चार = चारु, सुंदर।2। बिबरजित = बचे रहना। मारगु = रास्ता। खंडे धार = तलवार की धार जैसा बारीक।3। नानक = हे नानक! तिनि = उस (मनुष्य) ने। भवजलु = संसार समुंद्र। संगार = संगति।4। सरलार्थ: (हे भाई! जो मनुष्य त्यागी साधुओं वाले) भेष करके जंगलों में भटकते फिरते हैं, सुंदर प्रभू उनसे दूर रहता है।1। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य औरों को उपदेश कहने सुनाने वाले हैं, जो सुंदर-सुंदर गीत भी गाने वाले हैं वह (अपने इस गुण का) मन में अहंकार बनाए रखते हैं (मोहन प्रभू उनसे भी दूर ही रहता है)।1। हे भाई! विद्या की बल पर जिनकी जीभ सुंदर (बोलने वाली बन जाती) है, जो देखने में बड़े सुंदर हैं, चतुर हैं, समझदार हैं (मोहन प्रभू उनसे भी अलग ही रहता है)।2। (हे भाई! मोहन प्रभू उनके ही हृदय में बसता है जो अहंकार से, मोह से, मेर-तेर से बचे रहते हैं, पर) अहंकार से, मोह से, मेर-तेर से बचे रहना - ये रास्ता तलवार की धार जैसा बारीक है (इस पर चलना कोई आसान खेल नहीं)।3। हे नानक! उस मनुष्य ने संसार समुंद्र पार कर लिया है जो प्रभू की कृपा से साध-संगति में निवास रखता है।4।1।31। रागु देवगंधारी महला ५ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मै पेखिओ री ऊचा मोहनु सभ ते ऊचा ॥ आन न समसरि कोऊ लागै ढूढि रहे हम मूचा ॥१॥ रहाउ ॥ बहु बेअंतु अति बडो गाहरो थाह नही अगहूचा ॥ तोलि न तुलीऐ मोलि न मुलीऐ कत पाईऐ मन रूचा ॥१॥ खोज असंखा अनिक तपंथा बिनु गुर नही पहूचा ॥ कहु नानक किरपा करी ठाकुर मिलि साधू रस भूंचा ॥२॥१॥३२॥ {पन्ना 534} शब्दार्थ: री = हे सखी! पेखिओ = देखा है। ते = से। आन = अन्य, कोई और। समसरि = बराबर। मूचा = बहुत। ढूढि रहे = ढूँढ के रह गया हूँ।1। रहाउ। गाहरो = गहरा। अगहूचा = अगह+ऊचा, इतना ऊँचा कि उस तक पहुँचा नहीं जा सकता। तोलि = किसी तोल से। मोलि = किसी कीमत से। मुलीअै = खरीदा जा सकता। कत = कहाँ? मन रूचा = मन को प्यारा लगने वाला।1। खोज = तलाश। अनिकत = अनेकों। पंथा = रास्ते। मिलि साधू = गुरू को मिल के। भूंचा = भोगा, खाया।2। सरलार्थ: हे बहिन! मैंने देख लिया है कि वह सुंदर प्रभू बहुत ऊँचा है सबसे ऊँचा है। मैं बहुत तलाश कर करके थक चुका हूँ। कोई और उसकी बराबरी नहीं कर सकता।1। रहाउ। वह परमात्मा बहुत बेअंत है, वह प्रभू बहुत ही गंभीर है उसकी गहराई नहीं नापी जा सकती, वह इतना ऊँचा है कि उस तक पहुँचा नहीं जा सकता। किसी पत्थर से उसे तौला नहीं जा सकता, किसी कीमत से उसे खरीदा नहीं जा सकता, पता नहीं चलता कि कहाँ उस सुंदर प्रभू को तलाशें।1। अनेकों तलाश करें, अनेकों रास्ते देखें (कुछ नहीं बन सकता), गुरू की शरण पड़े बिना उस प्रभू के चरणों में नहीं पड़ सकते। हे नानक! कह–प्रभू ने जिस मनुष्य पर कृपा की, वह गुरू को मिल के उसके नाम का रस भोगता है।2।1।32। नोट: ‘घरु ५’ का पहला शबद है। अंक १। |
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