श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ भगत सचै दरि सोहदे सचै सबदि रहाए ॥ हरि की प्रीति तिन ऊपजी हरि प्रेम कसाए ॥ हरि रंगि रहहि सदा रंगि राते रसना हरि रसु पिआए ॥ सफलु जनमु जिन्ही गुरमुखि जाता हरि जीउ रिदै वसाए ॥ बाझु गुरू फिरै बिललादी दूजै भाइ खुआए ॥११॥ {पन्ना 513}

शब्दार्थ: रहाऐ = टिकाए हुए। प्रेम कसाऐ = प्रेम के खीचे हुए। दूजै भाइ = (ईश्वर के बिना) और के प्यार में। खुआऐ = खोए हुए, वंचित हुई। दरि = दर पर।

सरलार्थ: बंदगी करने वाले सच्चे प्रभू की हजूरी में शोभा पाते हैं, (प्रभू की हजूरी में वह) सच्चे शबद के द्वारा टिके रहते हैं, उनके अंदर प्रभू का प्यार पैदा होता है, (वह) प्रभू के प्यार के खिंचे हुए हैं, वह सदा प्रभू के प्यार में रहते हैं, प्रभू के रंग में रंगे रहते हैं और जीभ से प्रभू का नाम-रस पीते हैं। जिन्होंने गुरू के सन्मुख हो के रॅब को पहचाना है और दिल में बसाया है उनका पैदा होना मुबारक है।

गुरू के बिना सृष्टि और-और प्यार में गलतान है बिलकती फिरती है।11।

सलोकु मः ३ ॥ कलिजुग महि नामु निधानु भगती खटिआ हरि उतम पदु पाइआ ॥ सतिगुर सेवि हरि नामु मनि वसाइआ अनदिनु नामु धिआइआ ॥ विचे ग्रिह गुर बचनि उदासी हउमै मोहु जलाइआ ॥ आपि तरिआ कुल जगतु तराइआ धंनु जणेदी माइआ ॥ ऐसा सतिगुरु सोई पाए जिसु धुरि मसतकि हरि लिखि पाइआ ॥ जन नानक बलिहारी गुर आपणे विटहु जिनि भ्रमि भुला मारगि पाइआ ॥१॥ {पन्ना 513}

शब्दार्थ: कलि = झगड़े, कलेश। जुग = संसार, जीवन (देखें शलोक 1 पौड़ी 10 ‘इस जुग महि’)। भगती = भगती के द्वारा।

(नोट: ‘भगतों ने’, अर्थ फबता नहीं, पहली चार तुकों में किसी एक आदमी का जिकर है, ज्यादा का नहीं)।

कुल = सारा। जणेदी = पैदा होने वाली। मसतकि = माथे पर। विटहु = से। भ्रमि = भुलेखे में। मारगि = रस्ते पर।

सरलार्थ: इस झमेलों भरे जगत में परमात्मा का नाम (ही) खजाना है, जिसने बंदगी करके (ये खजाना) कमा लिया है उसने प्रभू (का मेल रूप) उच्च दर्जा पा लिया है, गुरू के हुकम में चल के उसने प्रभू का नाम अपने मन में बसाया है और हर वक्त नाम सिमरा है, सतिगुरू के वचन में (चल के) वह गृहस्थ में ही उदासी है (क्योंकि) उसने अहंकार से मोह जला लिया है, वह (इस झमेलों भरे संसार-समुंद्र से) खुद लांघ गया है, सारे जगत को भी लंघाता है, धंन है उसकी पैदा करने वाली माँ!

ऐसा गुरू (जिसको मिल के मनुष्य ‘आपि तरिआ कुल जगतु तराइआ’) उसी आदमी को मिलता है जिसके माथे पर धुर से करतार ने (बंदगी करने के लेख) लिख के रख दिए हैं। हे दास नानक! (कह–) मैं अपने गुरू से सदके हूँ जिसने मुझे भटके हुए को सद्-मार्ग पर डाला है।1।

मः ३ ॥ त्रै गुण माइआ वेखि भुले जिउ देखि दीपकि पतंग पचाइआ ॥ पंडित भुलि भुलि माइआ वेखहि दिखा किनै किहु आणि चड़ाइआ ॥ दूजै भाइ पड़हि नित बिखिआ नावहु दयि खुआइआ ॥ जोगी जंगम संनिआसी भुले ओन्हा अहंकारु बहु गरबु वधाइआ ॥ छादनु भोजनु न लैही सत भिखिआ मनहठि जनमु गवाइआ ॥ एतड़िआ विचहु सो जनु समधा जिनि गुरमुखि नामु धिआइआ ॥ जन नानक किस नो आखि सुणाईऐ जा करदे सभि कराइआ ॥२॥ {पन्ना 513}

शब्दार्थ: दीपक = दीए पर। पतंग = पतंगा। दिखा = देखें। किहु = कुछ। आणि = ला के। दूजै भाइ = माया के प्यार में। बिखिआ = माया। दयि = परमात्मा ने (‘दय’ ने)। जंगम = शिव के उपासक जो सिर पर मोर के पंख रखते हैं और घंटियां बजा के माँगते फिरते हैं। गरबु = अहंकार। छादनु = कपड़ा। सत भिखिआ = श्रद्धा से दी हुई भिक्षा। न लैही = नहीं लेते। समधा = समाधि वाला, टिके हुए मन वाला, पूर्ण अवस्था वाला।

सरलार्थ: (सारे जीव, क्या विद्वान और क्या त्यागी) त्रैगुणी माया को देख के (जीवन के सही राह से) भटक रहे हैं (और दुखी हो रहे हें) जैसे पतंगा (दीपक को) देख के दीपक पर ही जलता है; पण्डित (वैसे तो औरों को कथा सुनाते हैं, पर) बार-बार भटक के माया की ओर ही देखते हैं कि देखें किसी ने कुछ ला के भेटा रखी है (अथवा नहीं), सो माया के प्यार में वह (असल में) सदा माया (की संथ्या ही) पढ़ते हैं, परमात्मा ने उनको (अपने) नाम से वंचित कर दिया है।

जोगी-जंगम और सन्यासी (अपनी तरफ से संयासी बने हुए हैं, पर ये भी जीवन के राह से) भटके हुए हैं (क्योंकि एक तो अपने ‘त्याग’ का ही) इनके गुमान ने अहंकार को बढ़ाया हुआ है, (दूसरा, गृहस्थियों से आदर-मान से मिला कपड़ा व भोजन-रूप भिक्षा नहीं लेते) (भाव, थोड़ी चीज मिलने पर उन्हें घूरते हैं; सो, इन्होंने भी) मन के हठ से (इस धारण किए हुए ‘त्याग’ के कारण) अपनी जिंदगी व्यर्थ गवाई है।

इन सभी में से वही मनुष्य पूर्ण-अवस्था वाला है जिसने सनमुख हो के नाम सिमरा है। पर, हे दास! (इस त्रैगुणी माया के हाथ से) और किस के आगे पुकार करें? सभी तो प्रभू के प्रेरे हुए ही काम कर रहे हैं, (सो, इस माया से बचने के लिए प्रभू के आगे की हुई अरदास ही सहायता करती है)।2।

पउड़ी ॥ माइआ मोहु परेतु है कामु क्रोधु अहंकारा ॥ एह जम की सिरकार है एन्हा उपरि जम का डंडु करारा ॥ मनमुख जम मगि पाईअन्हि जिन्ह दूजा भाउ पिआरा ॥ जम पुरि बधे मारीअनि को सुणै न पूकारा ॥ जिस नो क्रिपा करे तिसु गुरु मिलै गुरमुखि निसतारा ॥१२॥ {पन्ना 513}

शब्दार्थ: परेतु = भूत। ऐह = ये मोह काम क्रोध आदि सारे। डंडु = डंडा। करारा = करड़ा। मगि = रास्ते पर। सिरकार = रईअत, प्रजा। पाईअनि् = पाए जाते हैं। जमपुरि = जम के शहर में। मारीअनि = मारते हैं।

सरलार्थ: माया का मोह, काम, क्रोध व अहंकार (ये, जैसे) भूत हैं; ये सारे जमराज की प्रजा हैं, इन पर यमराज का डंडा (तगड़ा शासन) चलता है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे जिन्हें माया का प्यार मीठा लगता है जमराज के राह पर पाए जाते हैं (भाव, वह यम की रईअत कामादिकों के वश पड़ जाते हैं), वह मनमुख जम-पुरी में बंधे हुए (भाव, जम की प्रजा कामादिकों के वश में पड़े हुए) मारे जाते हैं (दुखी होते हैं), कोई उनकी पुकार नहीं सुनता (भाव, इन कामादिकों के पँजों से उन्हें कोई छुड़ा नहीं सकता)।

जिस मनुष्य पर प्रभू स्वयं मेहर करे उसको गुरू मिलता है, गुरू के द्वारा (इन भूतों से) छुटकारा होता है।12।

सलोकु मः ३ ॥ हउमै ममता मोहणी मनमुखा नो गई खाइ ॥ जो मोहि दूजै चितु लाइदे तिना विआपि रही लपटाइ ॥ गुर कै सबदि परजालीऐ ता एह विचहु जाइ ॥ तनु मनु होवै उजला नामु वसै मनि आइ ॥ नानक माइआ का मारणु हरि नामु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥१॥ {पन्ना 513}

शब्दार्थ: ममता = (मम = मेरी। ममता = ये विचार कि फलानी चीज मेरी बन जाए या मेरी है) अपनत्व। मोहणी = मोह लेने वाली, ठॅगनी, चुड़ैल। लपटाइ = चिपक के। परजालीअै = अच्छी तरह जलाई जाती है। मारणु = (संख्या आदि जहर को) कुश्ता करने वाली बूटी।

सरलार्थ: अहंकार और ममता (स्वरूप वाली माया, जैसे) चुड़ैल है जो मन-मर्जी करने वालों को हड़प कर जाती है, जो मनुष्य (ईश्वर को छोड़ के किसी) और के मोह में चित्त जोड़ते हैं उनको चिपक के अपने वश में कर लेती है। अगर गुरू के शबद से इसे अच्छी तरह जलाएं (जैसे, चिपके हुए भूतों-चुड़ैलों को मांदरी लोग आग से जलाने का डरावा देते सुने जाते हैं) तो ये अंदर से निकलती है; शरीर और मन स्वच्छ हो जाता है; प्रभू का नाम मन में आ बसता है।

हे नानक! इस माया (संख्या को कुश्ता करने, बेअसर करने) की बूटी एक हरी-नाम ही है जो गुरू से ही मिल सकती है।1।

मः ३ ॥ इहु मनु केतड़िआ जुग भरमिआ थिरु रहै न आवै जाइ ॥ हरि भाणा ता भरमाइअनु करि परपंचु खेलु उपाइ ॥ जा हरि बखसे ता गुर मिलै असथिरु रहै समाइ ॥ नानक मन ही ते मनु मानिआ ना किछु मरै न जाइ ॥२॥ {पन्ना 513}

शब्दार्थ: केतड़िआ जुग = कई जुग, बहुत लंबा अरसा। हरि भाणा = प्रभू की रजा में। भरमाइअनु = भरमाया उस (प्रभू) ने। परपंचु = ठॅगने वाला (संस्कृत: प्रपंच, ये दिखाई देता जगत जो कई रंगों वाला है और छलावे में डालता है)। जाइ = पैदा होता है।

सरलार्थ: (मनुष्य का) ये मन कई जुग भटकता रहता है (परमात्मा में) टिकता नहीं और पैदा होता मरता रहता है; पर ये बात प्रभू को (इसी तरह) भाती है कि उसने ये ठॅगने वाली (जगत खेल बना के) (जीवों को इसमें) भरमाया हुआ है।

जब प्रभू (स्वयं) मेहर करता है तो (जीव को) गुरू मिलता है, (फिर) यह (प्रभू में) जुड़ के टिका रहता है; (इस तरह) हे नानक! मन अंदर से ही (प्रभू के नाम में) पतीज जाता है, फिर इसका ना कुछ मरता है ना पैदा होता है।2।

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धन्यवाद!