श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 511 मः ३ ॥ एको निहचल नाम धनु होरु धनु आवै जाइ ॥ इसु धन कउ तसकरु जोहि न सकई ना ओचका लै जाइ ॥ इहु हरि धनु जीऐ सेती रवि रहिआ जीऐ नाले जाइ ॥ पूरे गुर ते पाईऐ मनमुखि पलै न पाइ ॥ धनु वापारी नानका जिन्हा नाम धनु खटिआ आइ ॥२॥ {पन्ना 511} शब्दार्थ: तसकरु = चोर। जोहि न सकई = देख नहीं सकता। ओचका = छीना झपटी करने वाला, जेब कतरा। जीअै सेती = जीवात्मा के साथ ही। पले न पाइ = नहीं मिलता। धनु = धन्य, मुबारक, भाग्यों वाले। आइ = यहाँ आ के, जगत में आ के। सरलार्थ: परमात्मा का नाम ही एक ऐसा धन है जो सदा ही कायम रहता है, और धन कभी मिला और कभी नाश हो गया; इस धन की ओर कोई चोर आँख उठा के नहीं देख सकता, कोई उचक्का इसे छीन नहीं सकता। परमात्मा का नाम-रूप ये धन जीवात्मा के साथ ही रहता है जीवात्मा के साथ ही जाता है, ये धन पूरे गुरू से मिलता है, पर जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है उसे नहीं मिलता। हे नानक! भाग्यशाली हैं वे बन्जारे, जिन्होंने जगत में आकर नाम-रूपी धन कमाया है।2। पउड़ी ॥ मेरा साहिबु अति वडा सचु गहिर ग्मभीरा ॥ सभु जगु तिस कै वसि है सभु तिस का चीरा ॥ गुर परसादी पाईऐ निहचलु धनु धीरा ॥ किरपा ते हरि मनि वसै भेटै गुरु सूरा ॥ गुणवंती सालाहिआ सदा थिरु निहचलु हरि पूरा ॥७॥ {पन्ना 511} शब्दार्थ: गहिर = गहरा। गंभीर = धैर्य वाला। चीरा = पल्ला, आसरा। धनु धीरा = सदा स्थिर रहने वाला धन। भेटै = मिलता है। (भेटै गुरू = गुरू मिलता है। भेटै गुरु = गुरू को मिलता है। व्याकरण के अनुसार इस शब्द ‘भेटै’ का प्रयोग ध्यान से समझने की जरूरत है। सो, यहाँ ‘जो सूरमे गुरू को मिलना है’ अर्थ करना गलत है)। सरलार्थ: मेरा मालिक प्रभू बहुत ही बड़ा है, सदा कायम रहने वाला है, गहरा है और धैर्यवान है। सारा संसार उसके वश में है, सारा जगत उसके आसरे है। उस प्रभू का नाम-धन सदा कायम रहने वाला है, अटॅल है, और गुरू की कृपा से मिलता है। प्रभू की मेहर से सूरमा गुरू मिलता है और हरी-नाम मन में बसता है, वह सदा-स्थिर अडोल और पूरे प्रभू को गुणवानों ने सलाहा है।7। सलोकु मः ३ ॥ ध्रिगु तिन्हा दा जीविआ जो हरि सुखु परहरि तिआगदे दुखु हउमै पाप कमाइ ॥ मनमुख अगिआनी माइआ मोहि विआपे तिन्ह बूझ न काई पाइ ॥ हलति पलति ओइ सुखु न पावहि अंति गए पछुताइ ॥ गुर परसादी को नामु धिआए तिसु हउमै विचहु जाइ ॥ नानक जिसु पूरबि होवै लिखिआ सो गुर चरणी आइ पाइ ॥१॥ {पन्ना 511} शब्दार्थ: परहरि = छोड़ के। विआपे = फसे हुए। बूझ = समझ, मति। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। पूरबि = शुरू से। सरलार्थ: धिक्कार है उनका जीना, जो परमात्मा के नाम का आनंद बिल्कुल ही त्याग देते हैं और अहंकार में पाप करके दुख सहते हैं, ऐसे जाहिल मन के पीछे चलते हैं, और माया के मोह में जकड़े रहते हैं, उन्हें कोई अक्ल नहीं होती। उन्हें ना इस लोक में ना ही परलोक में कोई सुख मिलता है, मरने के वक्त भी हाथ मलते ही जाते हैं। जो मनुष्य गुरू की कृपा से प्रभू का नाम सिमरता है उसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। हे नानक! जिसके माथे पर धुर से भाग्य हों वह मनुष्य सतिगुरू के चरणों में आ पड़ता है।1। मः ३ ॥ मनमुखु ऊधा कउलु है ना तिसु भगति न नाउ ॥ सकती अंदरि वरतदा कूड़ु तिस का है उपाउ ॥ तिस का अंदरु चितु न भिजई मुखि फीका आलाउ ॥ ओइ धरमि रलाए ना रलन्हि ओना अंदरि कूड़ु सुआउ ॥ नानक करतै बणत बणाई मनमुख कूड़ु बोलि बोलि डुबे गुरमुखि तरे जपि हरि नाउ ॥२॥ {पन्ना 511} शब्दार्थ: ऊधा = उल्टा। सकती = शक्ति, माया। उपाउ = उपाय, उद्यम। मुखि = मुंह से। आलाउ = आलाप, बोल। धरमि = धर्म में। रलाऐ = मिले हुए। सुआउ = स्वार्थ, खुद गरजी। (नोट: शब्द ‘अंदरु’ और ‘अंदरि’ का फर्क याद रखने योग्य है)। सरलार्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (जैसे) उल्टा कमल का फूल है, इसमें ना भक्ति है ना सिमरन, ये माया के असर तहत ही कार-विहार करता है, झूठ (माया) ही इस का प्रयोजन (जिंदगी का निशाना) है, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का अंदर भीगता नहीं, सुतुष्टि नहीं होती, मुंह से भी फीके बोल ही बोलता है। ऐसे लोग धरम में जोड़े नहीं जुड़ते क्योंकि उनके अंदर झूठ की खुदगर्जी है। हे नानक! करतार ने ऐसी खेल रची है कि मन के पीछे चलने वाले लोग तो झूठ बोल-बोल के ग़र्क होते हैं और गुरू के सन्मुख रहने वाले नाम जपके (माया की बाढ़ में से) तैर जाते हैं।2। पउड़ी ॥ बिनु बूझे वडा फेरु पइआ फिरि आवै जाई ॥ सतिगुर की सेवा न कीतीआ अंति गइआ पछुताई ॥ आपणी किरपा करे गुरु पाईऐ विचहु आपु गवाई ॥ त्रिसना भुख विचहु उतरै सुखु वसै मनि आई ॥ सदा सदा सालाहीऐ हिरदै लिव लाई ॥८॥ {पन्ना 511} शब्दार्थ: बिनु बूझे = (ये बात) समझे बिना (कि ‘गुर परसादी पाईअै’, देखें पौड़ी नं:7)। फेरु = चक्कर, फेरा, जनम मरन का लंबा चक्कर। सरलार्थ: (ये बात) समझे बिना (कि ‘गुर परसादी पाईअै’, मनुष्य को) जनम मरण का लंबा चक्कर लगाना पड़ता है, मनुष्य बार-बार पैदा होता है मरता है, गुरू की सेवा (सारी उम्र ही) नहीं करता (भाव, सारी उम्र गुरू के कहे पर नहीं चलता) आखिर (मरने के वक्त) हाथ मलता जाता है। जब प्रभू अपनी मेहर करता है तो गुरू मिलता है, अंदर से स्वैभाव दूर होता है, माया की तृष्णा-भूख खत्म होती है, मन में सुख आ बसता है, और सुरति जोड़ के सदा हृदय में प्रभू सिमरा जा सकता है।8। सलोकु मः ३ ॥ जि सतिगुरु सेवे आपणा तिस नो पूजे सभु कोइ ॥ सभना उपावा सिरि उपाउ है हरि नामु परापति होइ ॥ अंतरि सीतल साति वसै जपि हिरदै सदा सुखु होइ ॥ अम्रितु खाणा अम्रितु पैनणा नानक नामु वडाई होइ ॥१॥ {पन्ना 511} शब्दार्थ: जि = जो मनुष्य। सभु कोइ = हरेक प्राणी। सीतल = शीतलता, ठंड। साति = शांति। अंम्रितु = ‘नाम’। सरलार्थ: जो मनुष्य अपने गुरू के कहे पर चलता है, हरेक बंदा उसका आदर करता है, सो (जगत में भी सम्मान हासिल करने के लिए) सभी उपायों में बड़ा उपाय यही है कि प्रभू का नाम मिल जाए, ‘नाम’ जपने से हृदय में सुख होता है, मन में ठंड और शांति बसती है। (गुरू की आज्ञा में चल के ‘नाम’ जपने वाले बंदे की) खुराक और खुराक अमृत ही हो जाती है (भाव, प्रभू का नाम ही उसकी जिंदगी का आसरा हो जाता है) हे नानक! नाम ही उसके लिए आदर-मान है।1। (नोट: अगले श्लोक और पउड़ी में ‘अनदिनु लागै धिआनु’ ‘अनदिनु हरि के गुण रवै’ तुकों के साथ यही भाव निकलता है कि ‘नाम’ उस मनुष्य का जीवन–आधार बन जाता है। सो यहाँ शब्द ‘अमृत’ के अर्थ ‘पवित्र’ करना मुनासिब नहीं है।) |
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धन्यवाद! |