श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु महला २ ॥ एह किनेही दाति आपस ते जो पाईऐ ॥ नानक सा करमाति साहिब तुठै जो मिलै ॥१॥ {पन्ना 475}

शब्दार्थ: दाति = बख्शिश। आपस ते = अपने आप से, अपने प्रयासों से। करमाति = (फारसी: करामात) बख्शिश, दात।

(नोट: से शब्द ‘किरामति’ से नहीं है, शब्द ‘दाति’ के साथ बख्शिश अर्थ वाला शब्द फिट बैठता है)।

सरलार्थ: अगर कहें कि मैंने अपने प्रयासों से ये चीज प्राप्त की है, तो यह (मालिक की ओर से) बख्शिश नहीं कहलवा सकती। हे नानक! बख्शिश वही हैजो मालिक के प्रसन्न होने से मिले।1।

महला २ ॥ एह किनेही चाकरी जितु भउ खसम न जाइ ॥ नानक सेवकु काढीऐ जि सेती खसम समाइ ॥२॥ {पन्ना 475}

शब्दार्थ: जितु = जिस से, जिसकी चाकरी करने से। काढीअै = कहते हैं, कहा जाता है। जि = जो सेवक। समाइ = लीन हो जाए, समा जाय, एक रूप हो जाए।2।

सरलार्थ: जिस सेवा के करने से (सेवक के दिल में से) अपने मालिक का डर दूर ना हो, वह सेवा असली सेवा नहीं है। हे नानक! (सच्चा) सेवक वही कहलवाता है जो अपने मालिक के साथ एक-रूप हो जाता है।2।

पउड़ी ॥ नानक अंत न जापन्ही हरि ता के पारावार ॥ आपि कराए साखती फिरि आपि कराए मार ॥ इकन्हा गली जंजीरीआ इकि तुरी चड़हि बिसीआर ॥ आपि कराए करे आपि हउ कै सिउ करी पुकार ॥ नानक करणा जिनि कीआ फिरि तिस ही करणी सार ॥२३॥ {पन्ना 475}

शब्दार्थ: हरि ता के = उसहरी के। साखती = बनावट, पैदायश। इकि = कई जीव। तुरी = घोड़ियों पर। बिसीआर = बहुत सारे। हउ = मैं। कै सिउ = किस के आगे। करणा = सृष्टि। जिनि = जिस (प्रभू) ने।23।

सरलार्थ: हे नानक! उस प्रभू के उस पार इस पार के किनारों का अंत नहीं पाया जा सकता। वह खुद ही जीवों की पैदायश करता है और खुद ही उनको मार देता है। कई जीवों के गले में जंजीरें पड़ी हुई हैं (भाव, कई कैद गुलामी आदि के कष्ट सह रहे हैं), और बेशुमार जीव घोड़ सवारी कर रहे हैं (अर्थात, माया की मौजें ले रहे हैं)। (ये सारे खेल तमाशे) वह प्रभू खुद ही कर रहा है, (उसके बिना और कोई दूसरा नहीं है) मैं किस के आगे इसकी फरियाद कर सकता हूँ? हे नानक! जिस करतार ने सृष्टि रची है, फिर वही उसकी संभाल कर रहा है।23।

सलोकु मः १ ॥ आपे भांडे साजिअनु आपे पूरणु देइ ॥ इकन्ही दुधु समाईऐ इकि चुल्है रहन्हि चड़े ॥ इकि निहाली पै सवन्हि इकि उपरि रहनि खड़े ॥ तिन्हा सवारे नानका जिन्ह कउ नदरि करे ॥१॥ {पन्ना 475}

शब्दार्थ: पूरणु देइ = भरता है, पूर्णता (उन बर्तनों में) देता है। इकनी = कई बर्तनों में। समाईअै = समाता है, पड़ता है। निहाली = तुलाई। पै सवनि् = लंबी तान के सोते हैं, बेफिक्र हो के सोते हैं। उपरि = (उनकी) सेवा के लिए, रक्षा के वास्ते। नदरि = मेहर की नजर।1।

सरलार्थ: प्रभू ने (जीवों के शरीर रूपी) बर्तन खुद ही बनाए हैं, और वह जो कुछ इनमें डालता है, (भाव, जो दुख-सुख इनकी किस्मत में देता है)। कई बर्तनों में दूध पड़ा रहता है और कई बिचारे चूल्हे पर ही तपते रहते हैं (अर्थात, कई जीवों के भाग्यों में सुख और बढ़िया-बढ़िया पदार्थ हैं, और कई जीव सदा कष्ट ही सहते हैं)। कई (भाग्यशाली) गद्दों पे बेफिक्र हो के सोते हैं, कई बिचारे (उनकी रक्षा आदि सेवा के लिए) उनकी हजूरी में खड़े रहते हैं। पर, हे नानक! जिन पे मेहर की नजर करता है, उनको सँवारता है (भाव, उनका जीवन सुधारता है)।1।

महला २ ॥ आपे साजे करे आपि जाई भि रखै आपि ॥ तिसु विचि जंत उपाइ कै देखै थापि उथापि ॥ किस नो कहीऐ नानका सभु किछु आपे आपि ॥२॥ {पन्ना 475}

शब्दार्थ: जाई = पैदा की हुई, सृष्टि को। थापि = स्थापित करके, टिका के, बना के। उथापि = नाश करके। सभु किछु = भाव, सब कुछ करने के समर्थ।2।

सरलार्थ: प्रभू स्वयं ही सृष्टि को पैदा करता है, स्वयं ही इसे सजाता है, सृष्टि की संभाल भी खुद ही करता है, इस सृष्टि में जीवों को पैदा करके देखता है, खुद ही टिकाता है खुद ही गिराता है।

हे नानक! (उसके बिना) किसी और के आगे फरियाद नहीं हो सकती, वह खुद सब कुछ करने के समर्थ है।2।

पउड़ी ॥ वडे कीआ वडिआईआ किछु कहणा कहणु न जाइ ॥ सो करता कादर करीमु दे जीआ रिजकु स्मबाहि ॥ साई कार कमावणी धुरि छोडी तिंनै पाइ ॥ नानक एकी बाहरी होर दूजी नाही जाइ ॥ सो करे जि तिसै रजाइ ॥२४॥१॥ सुधु {पन्ना 475}

शब्दार्थ: वडिआईआ = गुण, सिफतें। करीम् = बख्शिशें करने वाला। दे = देता है। संबाहि = (संवह = to carry or bear along, cause, to collect, to essemble, एकत्र करना) इकट्ठा करके। दे संबाहि = पहुँचाता है। तिंनै = तिन ही, उसने अपने आप ही, प्रभू ने खुद ही। ऐकी बाहरी = एक जगह के बिना, प्रभू की एक जगह के बिना। जाइ = तो। रजाइ = मर्जी।24।

सरलार्थ: प्रभू के गुणों के संबंध में कोई बात कही नहीं जा सकती, (भाव, गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता)। वह खुद ही सृजनहार है, खुद ही कुदरत का मालिक है, खुद ही बख्शिशें करने वाला है और खुद ही जीवों को रिजक पहुँचाता है। सारे जीव वही करते हैं जो उस प्रभू ने खुद ही (उनके भाग्यों में) डाल दिया है।

हे नानक! एक प्रभू की टेक के बिना और कोई जगह नहीं, जो कुछ उसकी मर्जी है वही करता है।24।1। सुध।


ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि ॥

रागु आसा बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ नामदेउ जीउ रविदास जीउ ॥ आसा स्री कबीर जीउ ॥ गुर चरण लागि हम बिनवता पूछत कह जीउ पाइआ ॥ कवन काजि जगु उपजै बिनसै कहहु मोहि समझाइआ ॥१॥ देव करहु दइआ मोहि मारगि लावहु जितु भै बंधन तूटै ॥ जनम मरन दुख फेड़ करम सुख जीअ जनम ते छूटै ॥१॥ रहाउ ॥ माइआ फास बंध नही फारै अरु मन सुंनि न लूके ॥ आपा पदु निरबाणु न चीन्हिआ इन बिधि अभिउ न चूके ॥२॥ कही न उपजै उपजी जाणै भाव अभाव बिहूणा ॥ उदै असत की मन बुधि नासी तउ सदा सहजि लिव लीणा ॥३॥ जिउ प्रतिबि्मबु बि्मब कउ मिली है उदक कु्मभु बिगराना ॥ कहु कबीर ऐसा गुण भ्रमु भागा तउ मनु सुंनि समानां ॥४॥१॥ {पन्ना 475}

शब्दार्थ: गुर चरण लागि = अपने सतिगुरू के चरण पड़ के। बिनवता = विनती करता हूँ। कह = किस लिए? जी = जीव। उपाइआ = पैदा किया जाता है। कवन काजि = किस काम से? उपजै = पैदा होता। मोहि = मुझे।

देव = हे गुरदेव! हे सतिगुरू! मारगि = (सीधे) रास्ते पर। जितु = जिस राह पर चलने से। भै = जगत का डर। बंधन = माया के बंधन। तूटै = टूट जाएं। जीअ = जीव के। फेड़ करम = किए कर्मों के अनुसार। जनम मरन दुख सुख = जनम से ले के मरने तक के सारे दुख सुख, सारी उम्र के जंजाल। जनम ते = जनम से ही, ब्लिकुल ही। छूटै = खत्म हो जाएं।1। रहाउ।

फास = फासी। बंध = बंधन। फारै = फाड़ता, खत्म करता। अरु = और। सुंनि = सुंन में, वह अवस्था जहाँ माया के फुरने पैदा ना हों। न लूके = छुपता नहीं, टिकता नहीं, आसरा नहीं लेता। आपा पदु = अपना असल। निरबाणु = वासना रहित। चीनि्आ = पहचाना। इन बिधि = इस तरह से, इस करनी से। अभिउ = (अ+भिउ) ना भीगने वाली अवस्था, कोरापन।2।

क्ही न = कहीं भी नहीं, कहीं ना, (प्रभू से अलग) कहीं भी नहीं। उपजी जाणै = (प्रभू से अलग) पैदा हुई समझता है, (प्रभू से अलग) हस्ती वाला समझता है। बिहूणा = विहीन। भाव अभाव बिहूणा = अच्छे बुरे विचारों की परख करने में असमर्थ। उदै = जनम। असत = डूब जाना, मौत, मन की वह मति जो उदय-अस्त में डालने वाली है, मन की वह बुद्धि जो जनम-मरण के चक्करों में डाले रखती है। नासी = (जब) नाश होती है। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में।3।

प्रतिबिंबु = (संस्कृत: प्रतिबिंब = reflection, an image) अक्स। बिंब = (संस्कृत: बिन्ब, an object compared. प्रतिबिन्ब = an object to which a बिन्ब is compared) जिस में अक्स दिखता है, शीशा या पानी। उदक कुंभु = पानी का भरा हुआ घड़ा। बिगराना = टूटता है। गुण = रस्सी। गुण भ्रम = रस्सी का भुलेखा (ये भुलेखा कि ये दिखता जगत परमात्मा से कोई अलग हस्ती है)। तउ = तब। सुंनि = सुंन प्रभू में।4।

सरलार्थ: हे गुरदेव! मेरे पर मेहर कर, मुझे (जिंदगी के सही) रास्ते पर डाल, जिस राह पर चलने से मेरे दुनिया वाले सहम और माया वाली जंजीरें टूट जाएं, मेरे पिछले किए कर्मों के अनुसार मेरी जिंद के सारी उम्र के जंजाल बिल्कुल ही समाप्त हो जाएं।1। रहाउ।

मैं अपने गुरू के चरणों में लग के विनती करता हूँ और पूछता हूँ- हे गुरू! मुझे ये बात समझा के बता कि जीव किस लिए पैदा किया जाता है, और किस कारण जगत पैदा होता मरता रहता है (भाव, जीव को मानस-जनम की सूझ गुरू से ही पड़ सकती है)।1।

हे मेरे गुरदेव! मेरा मन (अपने गले से) माया की जंजीरों के बंधन तोड़ता नहीं, ना ही यह (माया के प्रभाव से बचने के लिए) सुंन प्रभू में जुड़ता है। मेरे इस मन ने अपने वासना-रहित असल की पहचान नहीं की, और इन बातों से इसका कोरा-पन दूर नहीं हुआ।2।

हे गुरदेव! मेरा मन! जो अच्छे-बुरे ख्यालों की परख करने के अस्मर्थ था, इस जगत को-जो किसी हालत में भी प्रभू से लग टिक नहीं सकता-उससे अलग हस्ती वाला समझता रहा है। (पर तेरी मेहर से जब से) मेरे मन की वह मति नाश हो गई है, जो जनम-मरण के चक्कर में डालती थी, तब से (ये मन) सदा अडोल अवस्था में टिका रहता है।3।

हे कबीर! अब कह– (हे गुरदेव!) जैसे, जब पानी से भरा हुआ घड़ा टूट जाता है तब (उस पानी में पड़ने वाला) प्रतिबिंब पानी के साथ ही मिल जाता है (अर्थात, जैसे पानी और प्रतिबिंब की हस्ती उस घड़े में से समाप्त हो जाती है), वैसे ही तेरी मेहर से रस्सी (और साँप) वाला भुलेखा मिट गया है (ये भुलेखा नहीं रहा कि ये दिखता जगत परमात्मा से कोई अलग हस्ती है), और मेरा मन सुंन प्रभू में टिक गया है।4।1।

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धन्यवाद!