श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 340 रागु गउड़ी पूरबी बावन अखरी कबीर जीउ की बावन अछर लोक त्रै सभु कछु इन ही माहि ॥ ए अखर खिरि जाहिगे ओइ अखर इन महि नाहि ॥१॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: बावन = 52, बावन। अखरी = अक्षरों वाली। बावन अखरी = बावन अक्षरों वाली बाणी। अक्षर = अक्षर। लोक त्रै = तीन लोकों में, सारे जगत में (वरते जा रहे हैं)। सभु कछु = (जगत का) सारा वरतारा। इन ही माहि = इन (बावन अक्षरों) में ही। ऐ अॅखर = ये बावन अक्षर (जिन से जगत का वरतारा निभ रहा है)। खिरि जाहिगे = नाश हो जाएंगे। ओइ अखर = वह अक्षर (जो ‘अनुभव’ अवस्था बयान कर सकें, जो परमात्मा के मिलाप की अवस्था बता सकें)।1। सरलार्थ: बावन अक्षर (भाव, लिपियों के अक्षर) सारे जगत में (प्रयोग किए जा रहे हैं), जगत का सारा कामकाज इन (लिपियों के) अक्षरों से चल रहा है। पर ये अक्षर नाश हो जाएंगे (भाव, जैसे जगत नाशवंत है, जगत में बरती जाने वाली हरेक चीज भी नाशवंत है, और बोलियों, भाषाओं में बरते जाने वाले अक्षर भी नाशवान हैं)। अकाल-पुरख से मिलाप जिस शकल में अनुभव होता है, उसके बयान करने के लिए कोई अक्षर ऐसे नहीं हैं जो इन अक्षरों में आ सकें।1। भावार्थ: जगत के मेल मिलाप के बरतारे को तो अक्षरों के माध्यम से बयान किया जा सकता है, पर अकाल पुरख का मिलाप वर्णन से परे है। जहा बोल तह अछर आवा ॥ जह अबोल तह मनु न रहावा ॥ बोल अबोल मधि है सोई ॥ जस ओहु है तस लखै न कोई ॥२॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: आवा = आते हैं, बरते जाते हैं। जहा बोल = जहाँ वचन हैं, जो अवस्था बयान की जा सकती है। तह = उस अवस्था में। अबोल = (अ+बोल) वह अवस्था जो बयान नहीं हो सकती। न रहावा = नहीं रहता, हस्ती मिट जाती है। मधि = में। सोई = वही अकाल पुरख। जस = जैसा। तस = तैसा। लखै = बयान करता है। ओहु = परमात्मा।2। सरलार्थ: जो वरतारा बयान किया जा सकता है, अक्षर (केवल) वहीं (ही) बरते जाते हैं; जो अवस्था बयान से परे है (भाव, जब अकाल-पुरख में लीनता होती है) वहाँ (बयान करने वाला) मन (खुद ही) नहीं रह जाता। जहाँ अक्षर प्रयोग किए जा सकते हैं (भाव, जो अवस्था बयान की जा सकती है) और जिस हालत का बयान नहीं हो सकता (भाव, परमात्मा में लीनता की अवस्था) - इन (दोनों) जगह परमात्मा खुद ही है और जैसा वह (परमात्मा) है वैसा (हू-ब-हू) कोई बयान नहीं कर सकता।2। अलह लहउ तउ किआ कहउ कहउ त को उपकार ॥ बटक बीज महि रवि रहिओ जा को तीनि लोक बिसथार ॥३॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: अलह = अलॅभ, जो देखा नहीं जा सकता। लहउ = (अगर) मैं ढूँढ लूं। किआ कहउ = मैं क्या कहूँ? मुझसे बयान नहीं हो सकता। को = क्या? उपकार = भलाई। बटक = बोहड़, बरगद। जा को = जिस (अकाल-पुरख) का।3। सरलार्थ: अगर वह अलॅभ (परमात्मा) मैं ढूँढ भी लूँ तो मैं (उसका सही स्वरूप) बयान नहीं कर सकता; अगर (बयान) करूँ भी तो उसका किसी को लाभ नहीं हो सकता। (वैसे) जिस परमात्मा के ये तीनों लोक (भाव, सारा जगत) पसारा हैं, वह इसमें ऐसे व्यापक है जैसे बरगद (का पेड़) बीज में (और बीज, बोहड़ में) है।3। अलह लहंता भेद छै कछु कछु पाइओ भेद ॥ उलटि भेद मनु बेधिओ पाइओ अभंग अछेद ॥४॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: अलह लहंता = अलॅभ, ना मिलने वाले (अकाल-पुरख) को ढूँढते-ढूँढते। भेद छै = भेद का छय, दुबिधा का नाश। कछु कछु = कुछ कुछ, थोड़ा थोड़ा। भेद = भेद, सूझ। उलटि भेद = दुबिधा को उलटते हुए, दुविधा का नाश होने से। बेधिओ = बेधा गया। अभंग = (अ+भंग) जिसका नाश ना हो सके। अछेद = (अ+छेद) जो छेदा ना जा सके।4। सरलार्थ: परमात्मा को मिलने का यत्न करते-करते (मेरी) दुविधा का नाश हो गया है, और (दुविधा का नाश होने से मैंने परमात्मा की) कुछ-कुछ रम्ज़ समझ ली है। दुविधा को उलटने से (मेरा) मन (परमात्मा में) छेदा (भेद दिया) गया है और मैंने उस अविनाशी व अभेदी प्रभू को प्राप्त कर लिया है।4। तुरक तरीकति जानीऐ हिंदू बेद पुरान ॥ मन समझावन कारने कछूअक पड़ीऐ गिआन ॥५॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: तरीकति = मुसलमान फकीर रॅब को मिलने के राह के चार दर्जे मानते हैं– शरीयत, तरीकत, मारफत और हकीकत। तरीकत दूसरा दर्जा है जिसमें हृदय की पवित्रता के ढंग बताए गए हैं। कारने = वास्ते। कछूअ क = थोड़ा सा, थोड़ा बहुत, कुछ न कुछ। समझावन कारने = समझाने के लिए। मन समझावन कारने = मन को समझाने के लिए, मन में से भेद का छय करने के लिए, मन में से दुविधा मिटाने के लिए, मन को उच्च जीवन की सूझ देने के लिए।5। सरलार्थ: (दुविधा को मिटा के प्रभू के चरणों में जुड़े रहने के लिए) मन को उच्च जीवन की सूझ देने के वास्ते (ऊँची) विचार वाली बाणी थोड़ी बहुत पढ़नी जरूरी है; तभी तो (अच्छा) मुसलमान उसे समझा जाता है जो तरीकत में लगा हो, और (अच्छा) हिन्दू उसे, जो वेद-पुराणों की खोज करता हो।5। नोट: यहाँ तक कबीर जी प्रसंग सा बाँधते हैं कि परमात्मा के मिलाप की अवस्था शब्दों से बयान नहीं हो सकती। क्योंकि बयान करने वाला मन खुद ही आपना आप मिटा चुका होता है, और अगर उस मिलाप के आनंद को थोड़ा बहुत बयान करने का यत्न भी करे तो सुनने वाले को निरा सुन के उस आनंद की समझ नहीं आ सकती। हाँ, जो मन उस मेल–अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न करता है, उसके अपने अंदर तबदीली आ जाती है, उसमें से मेर–तेर मिट जाती है; और इस सुचॅजे रास्ते की समझ आती है गुरू का ज्ञान प्राप्त करके, गुरू के बताए रास्तों को समझ के। गुरू के बताए वह रास्ते कौन से हैं? गुरू की बताई हुई वह विचार क्या है?– इसका जिक्र कबीर जी अगली पउड़ियों में करते हैं। ओअंकार आदि मै जाना ॥ लिखि अरु मेटै ताहि न माना ॥ ओअंकार लखै जउ कोई ॥ सोई लखि मेटणा न होई ॥६॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: ओअंकार = (ओअं+कार) एक रस हर जगह व्यापक परमात्मा। आदि = आदि, मूल, सबको बनाने वाला। मै जाना = मैं जानता हूँ, मैं (उस अमिट अविनाशी को) जानता हूँ। लिखि = लिखे, लिखता है, रचता है, पैदा करता है। अरु = और। मेटै = मिटा देता है, नाश कर देता है। ताहि = उस (व्यक्ति) को। जउ = अगर। लखै = समझ ले। सोई लखि = उस प्रभू को समझ के। मेटणा = नाश।6। सरलार्थ: जो एक-रस सब जगह व्यापक परमात्मा सबको बनाने वाला है, मैं उसे अविनाशी समझता हूँ। और जिस व्याक्ति को वह प्रभू पैदा करता है और फिर मिटा देता है उसको मैं (परमात्मा के बराबर) नहीं मानता। अगर कोई मनुष्य उस सर्व-व्यापक परमात्मा को समझ ले (भाव, अपने अंदर अनुभव कर ले) तो उसे समझने से (उस मनुष्य की उस उच्च आत्मिक सुरति का) नाश नहीं होता।6। कका किरणि कमल महि पावा ॥ ससि बिगास स्मपट नही आवा ॥ अरु जे तहा कुसम रसु पावा ॥ अकह कहा कहि का समझावा ॥७॥ {पन्ना 340} नोट: सूरज उगने पर कमल का फूल खिलता है, और रात में चंद्रमा के चढ़ने पर बंद हो जाता है। कमल के फूल दिन में खिलते हैं और कलियां रात को खिलती हैं। शब्दार्थ: कका = ‘क’ अक्षर। किरणि = सूरज की किरण, ज्ञान रूप सूर्य की किरन। पावा = अगर मैं पा लूँ। कमल महि = हृदय रूपी कमल फूल में। ससि = चंद्रमा। बिगास = प्रकाश। ससि बिगास = चंद्रमा की चाँदनी। संपट = (संस्कृत: संपुट) ढक्कन से ढका हुआ डब्बा। संपट नही आवा = ढका हुआ डब्बा नहीं बन जाता, (खिला हुआ कमल फूल दुबारा) बंद नहीं होता। अरु = और। तहा = वहाँ, उस खिली हालत में, वहाँ जहाँ हृदय का कमल फूल खिला हुआ है। कुसम रसु = (खिले हुए) फूल का रस, (ज्ञान रूपी सूरज की किरन से खिले हुए हृदय रूपी कमल) फूल का आनंद। पावा = पा लूँ। अकह = (अ+कह) बयान से परे। अकह कहा = उसका बयान कथन से परे। कहि = कह के। का = क्या?।7। सरलार्थ: अगर मैं (ज्ञान रूपी सूरज की) किरन (हृदय-रूपी) कमल फूल में टिका लूं, तो (माया रूपी) चंद्रमा की चाँदनी से, वह (खिला हुआ हृदय-फूल) (दुबारा) बंद नहीं हो सकता। और अगर कभी मैं उस खिली हुई हालत में (पहुँच के) (उस खिले हुए हृदय-रूप कमल) फूल का आनंद (भी) ले सकूँ, तो उसका बयान कथन से परे है। वह मैं कह के क्या समझ सकता हूँ?।7। खखा इहै खोड़ि मन आवा ॥ खोड़े छाडि न दह दिस धावा ॥ खसमहि जाणि खिमा करि रहै ॥ तउ होइ निखिअउ अखै पदु लहै ॥८॥ {पन्ना 340} नोट: कई पेड़ों की टहनियां अंदर से खोखली हो जाती हैं और उनमें खाली–पोली जगह बन जाती हैं। इन खाली जगहों (खोड़) में पंछी रहने लगते हैं। पेट भरने के सारा दिन बाहर दूर–दूर उड़ते फिरते हैं, पर रात को दुबारा उसी ठिकाने पर आ टिकते हैं। ये मानस–शरीर मन को रहने के लिए खोड़ मिली हुई है, पर ये मन–पंछी माया के मोह के कारण हर समय बाहर ही भटकता फिरता है। शब्दार्थ: इहै मनु = ये मन जिसे ज्ञान किरण प्राप्त हो चुकी है। खोड़ि = अंतरात्मा रूपी खोड़ में, स्वै स्वरूप में, प्रभू चरणों में। आवा = आता हूँ। दह दिस = दसो दिशाओं में। न धावा = नहीं दौड़ता। खसमहि = पति प्रभू को। जाणि = जान के, पहचान के। खिमा आकर = क्ष्मा की खान, क्षमा का श्रोत, क्षमा के श्रोत परमात्मा में। रहै = टिका रहता है। निखिअउ = (नि+खिअउ। खिअउ = क्षय, नाश। नि = बिना) नाश रहित। अखै = (अ+खै) अ+क्षय,नाश रहित। पदु = दरजा, पदवी। लहै = हासल कर लेता है। सरलार्थ: जब यह मन (-पंछी जिसे ज्ञान-किरण मिल चुकी है) स्वै-स्वरूप की खोड़ में (भाव, प्रभू चरणों में) आ टिकता है और इस घौंसले (भाव, प्रभू चरणों) को छोड़ के दसों दिशाओं में नहीं दौड़ता। पति प्रभू सब से सांझ डाल के क्षमा के श्रोत प्रभू में टिका रहता है, तो तब अविनाशी (प्रभू के साथ एक-रूप हो के) वह पदवी प्राप्त कर लेता है जो कभी नाश नहीं होती।8। गगा गुर के बचन पछाना ॥ दूजी बात न धरई काना ॥ रहै बिहंगम कतहि न जाई ॥ अगह गहै गहि गगन रहाई ॥९॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: पछाना = (प्रभू को) पहचान लिया है, प्रभू से सांझ डाल ली है। न धरई काना = कान नहीं धरता, ध्यान से नहीं सुनता, आकर्षित नहीं करती। बिहंगम = (संस्कृत:विहंगम = a bird) पंछी, वह मनुष्य जो जगत में अपना निवास ऐसे समझता है जैसे पंछी किसी वृक्ष पर रात काट के सवेरे उड़ जाता है, उस वृक्ष से मोह नहीं पाल लेता। कतहि = किसी और तरफ। अगह = (अ+गह) ना पकड़ा जाने वाला, जिसे माया ग्रस नहीं सकती। गहै = पकड़ लेता है, अपने अंदर बसा लेता है। गहि = पकड़ के, अंदर बसा के। गगन = आकाश। गगन रहाई = आकाश में रहता है, मन = पंछी आकाश में उड़ानें भरता है, दसम द्वार में टिका रहता है, सुरति ऊँची रहती है, सुरति प्रभू चरणों में रहती है।9। सरलार्थ: जिस मनुष्य ने सतिगुरू की बाणी के माध्यम से परमात्मा से सांझ डाल ली है, उसे (प्रभू की सिफत सालाह के बिना) कोई और बात आकर्षित नहीं कर पाती। वह पक्षी (की तरह सदा निर्मोही) रहता है; कहीं भी भटकता नहीं; जिस प्रभू को जगत की माया ग्रस नहीं सकती, उसे वह अपने हृदय में बसा लेता है; हृदय में बसा के अपनी सुरति को प्रभू चरणों में टिकाए रखता है (जैसे चोग से पेट भर के पक्षी मौज में आ के ऊँची आकाश में उड़ानें भरता है)।9। नोट: चील पेट भर के दूर ऊँचे आकाश में घंटों एक रस पंख बिखेर के उड़ानें भरती रहते हैं। घघा घटि घटि निमसै सोई ॥ घट फूटे घटि कबहि न होई ॥ ता घट माहि घाट जउ पावा ॥ सो घटु छाडि अवघट कत धावा ॥१०॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: घटि = घट में, शरीर में, शरीर रूपी घड़े में। निमसै = निवास करता है, बसता है। सोई = वह (प्रभू) ही। घट फूटे = अगर (शरीर रूपी) घड़ा टूट जाए। घटि न होई = घटता नहीं, कम नहीं होता, प्रभू की हस्ती में कोई कमी नहीं आती, कोई घाटा नहीं पड़ता। (नोट: पहली तुक में शब्द ‘घटि’ व्याकरण अनुसार ‘संज्ञा’ है, ‘अधिकरण कारक’ है; दूसरी तुक में ये शब्द ‘घटि’ शब्द ‘होई’ के साथ मिल के ‘क्रिया’ है)। घाट = घाट, पत्तन, जहाँ से नाव वगैरा द्वारा दरिया को पार करते हैं। जउ = अगर, जब। पावा = पा लिया, ढूँढ लिया। अवघट = (संस्कृत: अवघॅट) खड्ड। घटु = (संस्कृत:घॅट) नदी का घाट (संस्कृत: घॅट जीवी = घाट पे रोजी कमाने वाला, मल्लाह)। कत = कहाँ? धावा = दौड़ता है, धावत है। कत धावा = कहाँ दौड़ता है? (भाव) कहीं नहीं भटकता।10। सरलार्थ: हरेक शरीर में वह प्रभू ही बसता है। अगर कोई शरीर (-रूपी घड़ा) टूट जाए तो कभी प्रभू के अस्तित्व में कोई घाटा नहीं पड़ता। जब (कोई जीव) इस शरीर के अंदर ही (संसार समुंद्र से पार लांघने के लिए) पत्तन तलाश लेता है, तो इस घाट (पत्तन) को छोड़ के वह खड्डों में कहीं नहीं भटकता फिरता।10। ङंङा निग्रहि सनेहु करि निरवारो संदेह ॥ नाही देखि न भाजीऐ परम सिआनप एह ॥११॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: निग्रहि = (संस्कृत: नि+ग्रहि; ग्रह = पकड़ना; निग्रह = अच्छी तरह पकड़ना, बस में लाना) अच्छी तरह पकड़ो, (मन को) बस में ले आओ, इंद्रियों को रोको। सनेहु = प्रेम, प्यार। संदेह = शक, सिदक हीनता। निरवारो = दूर करो। नाही देखि = ये देख के कि ये काम नहीं हो सकता। देखि = देख के। परम = सब से बड़ी।11। सरलार्थ: (हे भाई! अपनी इंद्रियों को) अच्छी तरह रोक, (प्रभू से) प्यार बना, और सिदक-हीनता दूर कर। (ये काम मुश्किल जरूर है, पर) ये सोच के कि ये काम नहीं हो सकता (इस काम से) भागना नहीं चाहिए- (बस) सबसे बड़ी अकल (की बात) यही है।11। चचा रचित चित्र है भारी ॥ तजि चित्रै चेतहु चितकारी ॥ चित्र बचित्र इहै अवझेरा ॥ तजि चित्रै चितु राखि चितेरा ॥१२॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: रचित = रचा हुआ (जगत), बनाया हुआ। चित्र = तसवीर। तजि = छोड़ के। चेतहु = चेते राखो, याद करो। चितकारी = चित्रकार, तस्वीर को बनाने वाला। बचित्र = (संस्कृत: विचित्र) रंगा रंग की, बहुत सुंदर, हैरान कर देने वाली, मोह लेने वाली। अवझेरा = झमेला। चितेरा = चित्र बनाने वाला।12। सरलार्थ: (प्रभू का) बनाया हुआ ये जगत (मानो) एक बहुत बड़ी तस्वीर है। (हे भाई!) इस तस्वीर के (के मोह को) छोड़ के तस्वीर बनाने वाले को याद रख; (क्योंकि बड़ा) झमेला ये है कि यह (संसार-रूपी) तस्वीर मन को मोह लेने वाली है। (सो, इस मोह से बचने के लिए) तस्वीर (का ख्याल) छोड़ के तस्वीर को बनाने वाले में अपना चित्त परो के रख।12। छछा इहै छत्रपति पासा ॥ छकि कि न रहहु छाडि कि न आसा ॥ रे मन मै तउ छिन छिन समझावा ॥ ताहि छाडि कत आपु बधावा ॥१३॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: छत्रपति = छत्र का मालिक, जिसके सिर पर छत्र झूल रहा है, राजा, बादशाह। इहै पासा = इसी के पास ही। छकि = (संस्कृत: शक = तगड़ा होना। शक्ति = ताकत) तगड़ा हो के, उद्यम से। कि न = क्यूँ नहीं? तउ = तुझे। छिनु छिनु = हर पल, हर समय। ताहि = उसे। कत = कहाँ? आपु = अपने आप को।13। सरलार्थ: (हे मेरे मन! और) उम्मीदें छोड़ के तगड़ा हो के क्यूँ तू इस (चित्रकार प्रभू) के पास नहीं रहता जो (सबका) बादशाह है? हे मन! मैं तुझे हर समय समझाता हूँ कि उस (चित्रकार) को भुला के कहाँ (उसके बनाए हुए चित्र में) तू अपने आप को जकड़ रहा है।13। जजा जउ तन जीवत जरावै ॥ जोबन जारि जुगति सो पावै ॥ अस जरि पर जरि जरि जब रहै ॥ तब जाइ जोति उजारउ लहै ॥१४॥ {पन्ना 340} शब्दार्थ: जउ = जब, अगर। जरावै = जलावे, जलाता है। जीवत = जीते जी, माया में रहते हुए ही। जारि = जला के। जुगति = जीने की जाच। अस पर = हमारा और पराया, अपना पराया। जरि = जला के। जाइ = जा के, पहुँच के, उच्च अवस्था में पहुँच के। उजारउ = उजाला, रोशनी, प्रकाश। लहै = ढूँढ लेता है, प्राप्त कर लेता है। जरि रहै = जर के रहता है, अपने दायरे में रहता है।14। सरलार्थ: जब (कोई जीव) माया में रहता हुआ ही शरीर (की वासनाएं) जला लेता है, वह मनुष्य जवानी (का मद) जला के जीने की (सही) जाच सीख लेता है। जब मनुष्य अपने (धन के अहंकार) को और पराई (दौलत की आस) को जला के अपने दायरे में रहता है, तब उच्च आत्मिक अवस्था में पहुँच के प्रभू की ज्योति का प्रकाश प्राप्त करता है।14। |
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