श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 337 गउड़ी ॥ राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥ ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥ दीन दइआल भरोसे तेरे ॥ सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ ॥ जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥ इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥ गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥ चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥ कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥ उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥ {पन्ना 337} शब्दार्थ: जपउ = जपूँ, मैं जपूँ। जीअ = हे जिंद! जैसे = जिस प्रेम और श्रद्धा से।1। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! सभु परवारु = सारा परिवार, जिंद का सारा परिवार, सारी इंद्रियां, तन और मन सब कुछ। बेड़े = जहाज पर, नाम रूपी जहाज पर।1। रहाउ। जा = जब। तिस भावै = उस प्रभू को ठीक लगता है, जब उसकी मरजी होती है।2। गुर परसादि = गुरू की कृपा से। समानी = समा जाती है, हृदय में प्रकट होती है। चूकि गई = खत्म हो जाती है।3। भजु = सिमर। सारिगपानी = धनुष जिसके हाथ में है (सारगि = विष्णु के धनुष का नाम। पानी = पाणि, हाथ)। उरवारि = इस पार, इस संसार में। पारि = उस पार, परलोक में। दानी = जान, समझ।4। सरलार्थ: हे जिंदे! (ऐसे अरदास कर कि) हे प्रभू! मैं तुझे उस प्रेम और श्रद्धा से सिमरु जिस प्रेम और श्रद्धा से ध्रूव और प्रहलाद भगत ने, हे हरी! तुझे सिमरा था।1। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! तेरी मेहर की उमीद पर मैंने अपना सारा परिवार तेरे (नाम के) जहाज पर चढ़ा दिया है (मैंने जीभ, आँख, कान आदि सब ज्ञानेंद्रियों को तेरी सिफत सालाह में जोड़ दिया है)।1। रहाउ। जब प्रभू को भाता है तो वह (वह सारे परिवार को अपना) हुकम मनवाता है (भाव, इन इंद्रियों से वही काम करवाता है जिस काम के लिए उसने ये इंद्रियां बनाई हैं), और इस तरह इस सारे पूर को (इन सब इंद्रियों को) विकारों की लहरों से बचा लेता है।2। सतिगुरू की कृपा से (जिस मनुष्य के अंदर) ऐसी बुद्धि प्रकट हो जाती है (भाव, जो मनुष्य सारी इंद्रियों को प्रभू के रंग में रंगता है), उसका बार-बार पैदा होना-मरना समाप्त हो जाता है।3। हे कबीर! कह (अपने आप को समझा) - सारंगपानी प्रभू को सिमर, और लोक-परलोक में हर जगह उस एक प्रभू को ही जान।4।2।10।61। शबद का भावार्थ: जो मनुष्य गुरू के बताए हुए मार्ग पर चल के अपने मन को और ज्ञानेंद्रियों को प्रभू की याद में जोड़ता है, वह संसार-समुंद्र की विकारों की लहरों से बच जाता है, और इस तरह भटकना समाप्त हो जाती है।61। गउड़ी ९ ॥ जोनि छाडि जउ जग महि आइओ ॥ लागत पवन खसमु बिसराइओ ॥१॥ जीअरा हरि के गुना गाउ ॥१॥ रहाउ ॥ गरभ जोनि महि उरध तपु करता ॥ तउ जठर अगनि महि रहता ॥२॥ लख चउरासीह जोनि भ्रमि आइओ ॥ अब के छुटके ठउर न ठाइओ ॥३॥ कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥ आवत दीसै जात न जानी ॥४॥१॥११॥६२॥ {पन्ना 337} शब्दार्थ: ९ = घर नौवां। जोनि = गर्भ, माँ का पेट। जउ = जब। जग महि आइओ = जगत में आया, जीव पैदा हुआ। पवन = हवा, माया की हवा, माया का प्रभाव।1। जीअरा = हे जिंदे!।1। रहाउ। उरध = उलटा, उल्टा लटका हुआ। जठर अगनि = पेट की आग। रहता = बचा रहता है।2। भ्रमि = भटक के, भ्रमित हो के। आइओ = आया है, मानस जनम में आया है। अब के = इस बार भी। छुटके = रह जाने पर। ठउर ठाइओ = जगह स्थान। ठउर = (संस्कृत: स्थावर, स्थान, ठावर, ठौर) पक्का, टिकवाँ। ठाइओ = (संस्कृत: स्थान)।3। कहु = कह, जिंद को समझा। न आवत दीसै = जो ना आता दिखता है, जो ना ही पैदा होता है। न जात जानी = जो ना मरता जाना जाता है, जो ना मरता सुना जाता है।4। सरलार्थ: जब जीव माँ का पेट छोड़ के जनम लेता है, तो (माया की) हवा लगते ही पति प्रभू को भुला देता है।1। हे जिंदे! प्रभू की सिफत सालाह कर।1। रहाउ। (जब जीव) माँ के पेट में सिर के भार टिका हुआ प्रभू की बंदगी करता है, तब पेट की आग में भी बचा रहता है।2। (जीव) चौरासी लाख जूनियों में भटक-भटक के (भाग्यशाली मानस जनम में) आता है, पर यहाँ से भी समय गवा के (असफल हो के) रह जाता है फिर कोई जगह-ठिकाना (इसे) नहीं मिलता।3। हे कबीर! जिंद को समझा कि उस सारंगपानी प्रभू को सिमरे, जो पैदा हुआ दिखता है और ना ही मरा सुना जाता है।4।1।11।62। शबद का भावार्थ: जो प्रभू माँ के पेट में बचाए रखता है, वही जगत की माया की आग से बचाने के स्मर्थ है। इस वास्ते प्रभू का सिमरन ही यहाँ आने का मनुष्य का मनोरथ है, पर अगर जीव उसे इस मानस जनम में सिमरने से रह जाए तो फिर मौका नहीं बनता।62। नोट: कई जोगी लोग उल्टा लटक के (सिर के भार हो के) तप करते हैं। इससे ये ख्याल आम प्रचलित है कि जीव माँ के पेट में उल्टा लटका हुआ जप करता है। गउड़ी पूरबी ॥ सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु ॥ होना है सो होई है मनहि न कीजै आस ॥१॥ रमईआ गुन गाईऐ ॥ जा ते पाईऐ परम निधानु ॥१॥ रहाउ ॥ किआ जपु किआ तपु संजमो किआ बरतु किआ इसनानु ॥ जब लगु जुगति न जानीऐ भाउ भगति भगवान ॥२॥ स्मपै देखि न हरखीऐ बिपति देखि न रोइ ॥ जिउ स्मपै तिउ बिपति है बिध ने रचिआ सो होइ ॥३॥ कहि कबीर अब जानिआ संतन रिदै मझारि ॥ सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि ॥४॥१॥१२॥६३॥ {पन्ना 337} शब्दार्थ: सुरग बासु = स्वर्ग का वासा। बाछीअै = इच्छा करें, चाहें। नरकि = नर्क में। सो होई है = वही होगा। मनहि = मन में। न कीजै = ना करें।1। रमईआ = सोहाना राम। जा ते = जिससे। परम = सब से ऊँचा। निधानु = खजाना।1। रहाउ। किआ = किस अर्थ? क्या लाभ? संजमो = मन और इंद्रियों को रोकने का यत्न। बरतु = वर्त, प्रण, इकरार (आम तौर पर खाना ना खाने के लिए बरतते हैं, ये प्रण कि आज कुछ नहीं खाना)। जुगति = जाच, तरीका। भाउ = पे्रम।2। संपै = संपक्ति, ऐश्वर्य, राज भाग। देखि = देख के। न हरखीअै = खुश ना होईए, फूले ना फिरें। बिपति = विपदा, मुसीबत। बिधि ने = परमात्मा ने।3। मझारि = में। भले = ठीक। जिह घट = जिन हृदयों में।4। सरलार्थ: ना ये चाहत रखनी चाहिए कि (मरने के बाद) स्वर्ग का बसेरा मिल जाय और ना इस बात से डरें कि कहीं नर्क में निवास ना मिल जाए। जो कुछ (प्रभू की रजा में) होना है वही होगा। सो, मन में आशाएं नहीं बनानी चाहिए।1। अकाल पुरख की सिफत सालाह करनी चाहिए और इसी उद्यम से वह (नाम रूपी) खजाना मिल जाता है, जो सब (सुखों) से ऊँचा है।1। रहाउ। जब तक अकाल पुरख से प्यार और उसकी भगती की जुगति नहीं समझी (भाव, जब तक यह समझ नहीं पड़ी कि भगवान से प्यार करना ही जीवन की असल जुगति है), जप, तप, संजम, वर्त, स्नान- ये सब किसी काम के नहीं।2। राज-भाग देख के फूले नहीं फिरना चाहिए, मुसीबत देख के दुखी नहीं होना चाहिए। जो कुछ परमात्मा करता है वही होता है, जैसे राज-भाग (प्रभू का दिया ही मिलता) है वैसे ही बिपता (भी उसी की डाली हुई पड़ती) है।3। कबीर कहता है– अब ये समझ आई है (कि परमात्मा किसी बैकुंठ स्वर्ग में नहीं, परमात्मा) संतों के हृदय में बसता है, वही सेवक सेवा करते अच्छे लगते हैं जिनके मन में प्रभू बसता है (भाव, जो प्रभू की सिफत सालाह करते हैं)।4।1।12।63। शबद का भावार्थ: जप, तप, वर्त, तीरथ-स्नान आदि आसरे छोड़ के जो मनुष्य भगवान का भजन करता है, उसकी ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था बनती है कि जगत के दुख-सुख उसे प्रभू की रजा में आते दिखते हैं, इस वास्ते वह मनुष्य ना किसी स्वर्ग की चाहत करता है ना ही नर्क से डरता है।63। गउड़ी ॥ रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु ॥ बिरख बसेरो पंखि को तैसो इहु संसारु ॥१॥ राम रसु पीआ रे ॥ जिह रस बिसरि गए रस अउर ॥१॥ रहाउ ॥ अउर मुए किआ रोईऐ जउ आपा थिरु न रहाइ ॥ जो उपजै सो बिनसि है दुखु करि रोवै बलाइ ॥२॥ जह की उपजी तह रची पीवत मरदन लाग ॥ कहि कबीर चिति चेतिआ राम सिमरि बैराग ॥३॥२॥१३॥६४॥ {पन्ना 337} शब्दार्थ: जिनि = कि शायद। खिंचि = खींच के। पंखि = पंछी।1। रे = हे भाई! पीआ = पीया है। जिह रस = जिस (राम-) रस की बरकति से। अउर रस = अन्य रस, और ही रस।1। रहाउ। किआ रोईअै = रोने का क्या लाभ? जउ = जब। थिरु = सदा टिके रहने वाला। न रहाइ = नहीं रहता। बिनसि है = नाश हो जाएगा। दुख करि = दुखी हो के। रोवै बलाइ = मेरी बला रोए, मैं क्यूँ रोऊँ?।2। जह की उपजी = जिस प्रभू से ये जिंद पैदा हुई। तह रची = उसी में लीन हो गई। पीवत = (नाम रस) पीते हुए। मरदन लाग = मर्दों की लाग से, गुरमुखों की संगति से। चिति = चिक्त में। सिमरि = सिमर के। बैराग = निर्मोहता।3। सरलार्थ: हे मेरे मन! (अंत को) तेरा कोई (साथी) नहीं बनेगा, कि शायद (और संबंधियों का) भार खींच के (तू अपने सिर पर) ले ले (भाव, संबंधियों की खातिर परपंच करके पराया धन लाना शुरू कर दे)। जैसे पंछियों का वृक्षों पर बसेरा होता है इसी तरह इस जगत (का वास) है।1। हे भाई! (गुरमुख) परमात्मा के नाम का रस पीते हैं और उस रस की बरकति से और सारे रस (चस्के) (उनको) बिसर जाते हैं।1। रहाउ। किसी और के मरने पर रोने का क्या अर्थ, जब हमारा अपना आप ही सदा नहीं टिका रहेगा? (ये अटल नियम है कि) जो जो जीव पैदा होता है वह नाश हो जाता है, फिर (किसी के मरने पर) दुखी हो के रोना व्यर्थ है।2। कबीर कहता है– जिन्होंने अपने मन में प्रभू को याद किया है, प्रभू को सिमरा है, उनके अंदर जगत से निर्मोह पैदा हो जाता है, गुरमुखों की संगति में (नाम-रस) पीते-पीते उनकी आत्मा जिस प्रभू से पैदा हुई है उसी में जुड़ी रहती है।3।2।13।64। शबद का भावार्थ: सत्संग में रह के नाम-रस की बरकति से मनुष्य का मन जगत के मोह में नहीं फंसता, क्योंकि ये समझ आ जाती है कि यहाँ पक्षियों जैसा रैन-बसेरा ही है, जो आया है उसने जरूर चले जाना है।64। |
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