श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु ॥ साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारु ॥ हरि हरि नामु कमावना नानक इहु धनु सारु ॥१॥ {पन्ना 288}

शब्दार्थ: बिखिआ = माया। सगली = सारी। छारु = राख। सारु = श्रेष्ठ, अच्छा।

सरलार्थ: (प्रभू के) भजन के बिना (और कोई चीज मनुष्य के) साथ नहीं जाती, सारी माया (जो मनुष्श् कमाता रहता है, जगत से चलने के वक्त इसके वास्ते) राख के समान है। हे नानक! अकाल-पुरख का नाम (सिमरन) की कमाई करना ही (सबसे) बढ़िया धन है (यही मनुष्य के साथ निभता है)।1।

असटपदी ॥ संत जना मिलि करहु बीचारु ॥ एकु सिमरि नाम आधारु ॥ अवरि उपाव सभि मीत बिसारहु ॥ चरन कमल रिद महि उरि धारहु ॥ करन कारन सो प्रभु समरथु ॥ द्रिड़ु करि गहहु नामु हरि वथु ॥ इहु धनु संचहु होवहु भगवंत ॥ संत जना का निरमल मंत ॥ एक आस राखहु मन माहि ॥ सरब रोग नानक मिटि जाहि ॥१॥ {पन्ना 288}

शब्दार्थ: आधारु = आसरा। अवरि = अन्य (बहुवचन)। उपाव = इलाज, हीले। सभि = सारे। मीत = हे मित्र! चरन कमल = कमल फूल जैसे कोमल चरन। उरिधारहु = अंदर टिकाओ। द्रिढ़ = पक्का। गहहु = पकड़ो। वथु = चीज। संचहु = इकट्ठा करोए संचित करो। भगवंत = भाग्यों वाले। मंत = उपदेश, शिक्षा। मन माहि = मन में। उरि = हृदय में।

सरलार्थ: संतों से मिल के (प्रभू के गुणों का) विचार करो, एक प्रभू को सिमरो और प्रभू के नाम का आसरा (लो)।

हे मित्र! और सारे उपाय छोड़ दो और प्रभू के कमल (जैसे सुंदर) चरण हृदय में टिकाओ।

वह प्रभू (सब कुछ खुद) करने (और जीवों से) करवाने की क्षमता रखता है, उस प्रभू का नाम-रूपी (खूबसूरत) पदार्थ अच्छी तरह से संभाल लो।

(हे भाई!) (नाम-रूप) ये धन संचित करो और भाग्यशाली बनो, संतों का यही पवित्र उपदेश है। अपने मन में एक (प्रभू की) आस रखो, हे नानक! (इस प्रकार) सारे रोग मिट जाएंगे।1।

जिसु धन कउ चारि कुंट उठि धावहि ॥ सो धनु हरि सेवा ते पावहि ॥ जिसु सुख कउ नित बाछहि मीत ॥ सो सुखु साधू संगि परीति ॥ जिसु सोभा कउ करहि भली करनी ॥ सा सोभा भजु हरि की सरनी ॥ अनिक उपावी रोगु न जाइ ॥ रोगु मिटै हरि अवखधु लाइ ॥ सरब निधान महि हरि नामु निधानु ॥ जपि नानक दरगहि परवानु ॥२॥ {पन्ना 288}

शब्दार्थ: जिसु धन कउ = जिस धन के लिए। कुंट = तरफ, ओर। धावहि = दौड़ता है। बाछहि = चाहता है। मीत = हे मित्र! परीति = प्यार (करने से)। करनी = काम। भजु = जा, पड़। उपावी = उपायों से, तरीकों से। अवखधु = दवा। निधान = खजाने।

सरलार्थ: (हे मित्र!) जिस धन की खातिर (तू) चारों तरफ उठ दौड़ता है वह धन प्रभू की सेवा से मिलेगा।

हे मित्र! जिस सुख की तुझे सदा चाहत रहती है, वह सुख संतों की संगति में प्यार करने से (मिलता है)।

जिस शोभा के लिए तू नेक कमाई करता है, वह शोभा (कमाने के लिए) तू हरी की शरण पड़।

(जो अहंकार का) रोग अनेकों तरीकों से दूर नहीं होता वह रोग प्रभू के नाम-रूपी दवाई के इस्तेमाल से मिट जाता है।

सारे (दुनियावी) खजानों में प्रभू का नाम (बढ़िया) खजाना है। हे नानक! (नाम) जप, दरगाह में कबूल (होगा)।2।

मनु परबोधहु हरि कै नाइ ॥ दह दिसि धावत आवै ठाइ ॥ ता कउ बिघनु न लागै कोइ ॥ जा कै रिदै बसै हरि सोइ ॥ कलि ताती ठांढा हरि नाउ ॥ सिमरि सिमरि सदा सुख पाउ ॥ भउ बिनसै पूरन होइ आस ॥ भगति भाइ आतम परगास ॥ तितु घरि जाइ बसै अबिनासी ॥ कहु नानक काटी जम फासी ॥३॥ {पन्ना 288}

शब्दार्थ: परबोधहु = जगाओ। नाइ = नाम से। दह दिसि = दसों दिशाओं में। धावत = दौड़ता है। ठाइ = ठिकाने पे। ता कउ = उस को। बिघनु = रूकावट। ताती = तॅती, गर्म (आग)। ठाढा = ठंडा, शीतल। बिनसै = नाश हो जाता है। भगति भाइ = भक्ति के भाव से, भगती के प्यार से। तितु घरि = उस (हृय) घर में।

सरलार्थ: (हे भाई! अपने) मन को प्रभू के नाम से जगाओ, (नाम की बरकति से) दसों दिशाओं में दौड़ता (ये मन) ठिकाने आ जाता है।

उस मनुष्य को कोई मुश्किल नहीं आती, जिसके हृदय में वह प्रभू बसता है।

कलियुग गर्म (आग) है (भाव, विकार जीवों को जला रहे हैं) प्रभू का नाम ठंडा है, उसे सदा सिमरो और सुख पाओ।

(नाम सिमरने से) डर उड़ जाता है, और, आस पूरी हो जाती है (भाव, ना ही मनुष्य आशाएं बाँधता फिरता है ना ही उन आशाओं के टूटने का कोई डर होता है) (क्योंकि) प्रभू की भक्ति से प्यार करके आत्मा चमक जाती है। (जो सिमरता है) उसके (हृदय) घर में अविनाशी प्रभू आ बसता है। हे नानक! कह (कि नाम जपने से) जमों की फाही कट जाती है।३।

ततु बीचारु कहै जनु साचा ॥ जनमि मरै सो काचो काचा ॥ आवा गवनु मिटै प्रभ सेव ॥ आपु तिआगि सरनि गुरदेव ॥ इउ रतन जनम का होइ उधारु ॥ हरि हरि सिमरि प्रान आधारु ॥ अनिक उपाव न छूटनहारे ॥ सिम्रिति सासत बेद बीचारे ॥ हरि की भगति करहु मनु लाइ ॥ मनि बंछत नानक फल पाइ ॥४॥ {पन्ना 288}

शब्दार्थ: ततु = (सं: तत्व) अकाल-पुरख। साचा = सच्चा, सच मुच (सेवक)। जनमि मरै = जो पैदा हो के (सिर्फ) मर जाता है। काचो काचा = कच्चा ही कच्चा। आवागवनु = जनम मरन का चक्र। सेव = सेवा। आपु = स्वैभाव। रतन जनम = कीमती मानस जनम। मनि बंछत = मन इच्छित, जिनकी मन चाहत करता है। मनि = मन में।

सरलार्थ: जा मनुष्य पारब्रहम की सिफति-रूप सोच सोचता है वह सचमुच मनुष्य है, पर जो पैदा हो के (सिर्फ) मर जाता है (और बंदगी नहीं करता) वह बिल्कुल कच्चा है।

स्वैभाव त्याग के, सतिगुरू की शरण पड़ के प्रभू का सिमरन करने से जनम मरन के चक्र समाप्त हो जाते हैं।

इस तरह कीमती मानस जन्म सफल हो जाता है (इसलिए, हे भाई!) प्रभू को सिमर, (यही) प्राणों का आसरा है।

स्मृतियां-शास्त्र-वेद (आदिक) विचारने से (और ऐसे ही) अनेको उपाय करनेसे (आवगवन से) बच नहीं सकते।

मन लगा के केवल प्रभू की ही भक्ति करो। (जो भगती करता है) हे नानक! उसको मन-इच्छित फल मिल जाते हैं।4।

संगि न चालसि तेरै धना ॥ तूं किआ लपटावहि मूरख मना ॥ सुत मीत कुट्मब अरु बनिता ॥ इन ते कहहु तुम कवन सनाथा ॥ राज रंग माइआ बिसथार ॥ इन ते कहहु कवन छुटकार ॥ असु हसती रथ असवारी ॥ झूठा ड्मफु झूठु पासारी ॥ जिनि दीए तिसु बुझै न बिगाना ॥ नामु बिसारि नानक पछुताना ॥५॥ {पन्ना 288}

शब्दार्थ: किआ लपटावहि = क्यूँ लिपट रहा है, क्यूँ लिपटा बैठा है? सुत = पुत्र। कुटंब = परिवार। बनिता = स्त्री। इन ते = इनमें से। सनाथा = खसम वाला, नाथ वाला। छुटकार = सदा के लिए छूट, सदा वास्ते खलासी। कहहु = बताओ। असु = अश्व, घोड़े। हसती = हाथी। डंफु = दिखावा। पासारी = (दिखावे का) पसारा पसारने वाला। बिगाना = बे-ज्ञाना, मूर्ख।

सरलार्थ: हे मूर्ख मन! धन तेरे साथ नहीं जा सकता, तू क्यों इससे लिपटा बैठा है?

पुत्र-मित्र-परिवार व स्त्री इनमें से, बता, कौन तेरा साथ देने वाला है?

माया के आडंबर, राज और रंग-रलीयां - बता, इनमें से किस के साथ (मोह डालने से) सदा के लिए (माया से) मुक्ति मिल सकती है?

घोड़े, हाथी, रथों की सवारी करनी -ये सब झूठा दिखावा है, ये आडंबर रचाने वाला भी बिनसनहार है (विनाशवान है)।

मूर्ख मनुष्य उस प्रभू को नहीं पहिचानता जिसने ये सारे पदार्थ दिए हैं, और, नाम को भुला के, हे नानक! (आखिर) पछताता है।5।

गुर की मति तूं लेहि इआने ॥ भगति बिना बहु डूबे सिआने ॥ हरि की भगति करहु मन मीत ॥ निरमल होइ तुम्हारो चीत ॥ चरन कमल राखहु मन माहि ॥ जनम जनम के किलबिख जाहि ॥ आपि जपहु अवरा नामु जपावहु ॥ सुनत कहत रहत गति पावहु ॥ सार भूत सति हरि को नाउ ॥ सहजि सुभाइ नानक गुन गाउ ॥६॥ {पन्ना 288-289}

शब्दार्थ: इआने = हे अंजान! बहु सिआने = कई समझदार लोग। किलबिख = पाप। सुनत = सुनते ही। रहत = रहते हुए, भाव, उक्तम जिंदगी बना के। गति = ऊँची अवस्था। सार = श्रेष्ठ, सबसे बढ़िया। भूत = पदार्थ, चीज। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम से।

सरलार्थ: हे अंजान! सतिगुरू की मति ले (भाव, शिक्षा पर चल) बड़े समझदार-समझदार लोग भी भक्ती के बिना (विकारों में ही) डूब जाते हैं।

हे मित्र मन! प्रभू की भगती कर, इस तरह तेरी सुरति पवित्र होगी।

(हे भाई!) प्रभू के कमल (जैसे सुंदर) चरण अपने मन में परो के रख, इस तरह कई जन्मों के पाप नाश हो जाएंगे।

(प्रभू का नाम) तू खुद जप, और, औरों को जपने के लिए प्रेरित कर, (नाम) सुनते हुए, उच्चारते हुए और निर्मल रहन-सहन रखते हुए उच्च अवस्था बन जाएगी।

प्रभू का नाम ही सब पदार्थों से उक्तम पदार्थ है; (इसलिए) हे नानक! आत्मिक अडोलता में टिक के प्रेम से प्रभू के गुण गा।6।

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धन्यवाद!