श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 272 साध कै संगि नही कछु घाल ॥ दरसनु भेटत होत निहाल ॥ साध कै संगि कलूखत हरै ॥ साध कै संगि नरक परहरै ॥ साध कै संगि ईहा ऊहा सुहेला ॥ साधसंगि बिछुरत हरि मेला ॥ जो इछै सोई फलु पावै ॥ साध कै संगि न बिरथा जावै ॥ पारब्रहमु साध रिद बसै ॥ नानक उधरै साध सुनि रसै ॥६॥ {पन्ना 272} शब्दार्थ: घाल = मेहनत, तप आदि बर्दाश्त करने। होत = हो जाते हैं। निहाल = प्रसन्न। कलूखत = पाप, विकार। हरै = दूर कर लेता है। परहरै = परे हटा लेता है। ईहा = इस जनम में, इस लोक में। ऊहा = परलोक में। सुहेला = सुखी। बिछुरत = (प्रभू से) विछुड़े हुए का। इछै = चाहता है। बिरथा = व्यर्थ, खाली। रिद = हृदय। साध रसै = साधू की रसना से, जीभ से। सरलार्थ: साध जनों की संगति में रहने से तप आदि में तपने की आवश्यक्ता नहीं रहती, (क्योंकि उनके) दर्शन ही करके हृदय खिला रहता है। गुरमुखों की संगति में (मनुष्य अपने) पाप नाश कर लेता है, (और इस तरह) नर्कों से बच जाता है। संतों की संगत में रह के आदमी इस लोक में भी और परलोक में भी सुखी हो जाता है। और प्रभू से अलग हुआ (फिर) उसी में समा जाता है। संतों की संगति में रह के (मनुष्य) बे-मुराद हो के नहीं जाता, (बल्कि) जो इच्छा करता है, वही फल पाता है। अकाल-पुरख संत जनों के हृदय में बसता है; हे नानक! (मनुष्य) साध जनों की रसना से (उपदेश) सुन के (विकारों से) बच जाता है।6। साध कै संगि सुनउ हरि नाउ ॥ साधसंगि हरि के गुन गाउ ॥ साध कै संगि न मन ते बिसरै ॥ साधसंगि सरपर निसतरै ॥ साध कै संगि लगै प्रभु मीठा ॥ साधू कै संगि घटि घटि डीठा ॥ साधसंगि भए आगिआकारी ॥ साधसंगि गति भई हमारी ॥ साध कै संगि मिटे सभि रोग ॥ नानक साध भेटे संजोग ॥७॥ {पन्ना 272} शब्दार्थ: सुनउ = मैं सुनूँ। गाउ = मैं गाऊँ। बिसरै = भूल जाए। सरपर = जरूर। घटि घटि = हरेक शरीर में। आगिआकारी = प्रभू की आज्ञा मानने वाला। गति = अच्छी हालत। भेटे = मिलते हैं। संजोग = भाग्यों से। सरलार्थ: मैं गुरमुखों की संगति में रह के प्रभू का नाम सुनूँ और प्रभू के गुण गाऊँ (ये मेरी कामना है)। संतों की संगति में रहने से प्रभू मन से भूलता नहीं, साध जनों की संगति में मनुष्य जरूर (विकारों से) बच निकलता है। भलों की संगति में रहने से प्रभू प्यारा लगने लग जाता है और वह हरेक शरीर में दिखाई देने लग जाता है। साधुओं की संगति करने से (हम) प्रभू के आज्ञाकारी हो जाते हैं और हमारी आत्मिक अवस्था सुधर जाती है। संत जनों की सुहबत में (विकार आदि) सारे रोग मिट जाते हैं; हे नानक! (बड़े) भाग्यों से साध जन मिलते हैं।7। साध की महिमा बेद न जानहि ॥ जेता सुनहि तेता बखिआनहि ॥ साध की उपमा तिहु गुण ते दूरि ॥ साध की उपमा रही भरपूरि ॥ साध की सोभा का नाही अंत ॥ साध की सोभा सदा बेअंत ॥ साध की सोभा ऊच ते ऊची ॥ साध की सोभा मूच ते मूची ॥ साध की सोभा साध बनि आई ॥ नानक साध प्रभ भेदु न भाई ॥८॥७॥ {पन्ना 272} शब्दार्थ: महिमा = वडिआई। न जानहि = नहीं जानते। जेता = जितना। तेता = उतना। बखिआनहि = बयान करते हैं। उपमा = समानता। रही भरपूरि = हर जगह व्यापक है। मूच = बड़ी। साध बनि आई = साधू को ही फबती है। भेदु = फर्क। भाई = हे भाई! सरलार्थ: साध की वडिआई वेद (भी) नहीं जानते, वो तो जितना सुनते हैं, उतना ही बयान करते हैं (पर साध की महिमा बयान से परे है)। साध की समानता तीन गुणों से परे है (भाव, जगत की रचना में कोई ऐसी हस्ती नहीं जिसे साध जैसा कहा जा सके; हां) साध की समानता उस प्रभू से ही हो सकती है जो सर्व व्यापक है। साध की शोभा का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, सदा (इसको) बेअंत ही (कहा जा सकता) है। साधू की शोभा और सब की शोभा से बहुत ऊँची है और बहुत बड़ी है। साधू की शोभा साधू को ही फबती है (क्योंकि) हे नानक! (कह–) हे भाई! साधू और प्रभू में (कोई) फर्क नहीं है।8।7। सलोकु ॥ मनि साचा मुखि साचा सोइ ॥ अवरु न पेखै एकसु बिनु कोइ ॥ नानक इह लछण ब्रहम गिआनी होइ ॥१॥ {पन्ना 272} शब्दार्थ: मनि = मन में। साचा = सदा कायम रहने वाला अकाल-पुरख। मुखि = मुंह में। अवरु कोइ = कोई और। पेखै = देखता है। ऐकसु बिनु = एक प्रभू के बिना। इह लछण = इन लक्षणों के कारन, इन गुणों करके। ब्रहमगिआनी = अकाल-पुरख के ज्ञान वाला। गिआन = जान पहिचान, गहरी सांझ। सरलार्थ: (जिस मनुष्य के) मन में सदा स्थिर रहने वाला प्रभू (बसता है), (जो) मुंह से (भी) उसी प्रभू को (जपता है), (जो मनुष्य) एक अकाल-पुरख के बिना (कहीं भी) किसी और को नहीं देखता, हे नानक! (वह मनुष्य) इन गुणों के कारण ब्रहमज्ञानी हो जाता है।1। असटपदी ॥ ब्रहम गिआनी सदा निरलेप ॥ जैसे जल महि कमल अलेप ॥ ब्रहम गिआनी सदा निरदोख ॥ जैसे सूरु सरब कउ सोख ॥ ब्रहम गिआनी कै द्रिसटि समानि ॥ जैसे राज रंक कउ लागै तुलि पवान ॥ ब्रहम गिआनी कै धीरजु एक ॥ जिउ बसुधा कोऊ खोदै कोऊ चंदन लेप ॥ ब्रहम गिआनी का इहै गुनाउ ॥ नानक जिउ पावक का सहज सुभाउ ॥१॥ {पन्ना 272} शब्दार्थ: निरलेप = बेदाग। अलेप = (कीचड़ से) साफ। निरदोख = दोष रहित, पापों से बरी। सूरु = सूर्य। सोख = (संस्कृत में = शोषण) सुखाने वाला। द्रिसटि = नजर। समानि = एक जैसी। रंक = कंगाल। तुलि = बराबर। पवान = पवन, हवा। ऐक = एक तार। बसुधा = धरती। लेप = पोचै, लेपन। गुनाउ = गुण। पावक = आग। सहज = कुदरती। सरलार्थ: ब्रहमज्ञानी (मनुष्य विकारों की तरफ से) सदा बेदाग (रहते हैं) जैसे पानी में (उगे हुए) कमल फूल (कीचड़ से) साफ होते हैं। जैसे सूरज सारे (रसों) को सुखा देता है (वैसे ही) ब्रहमज्ञानी (मनुष्य) (सारे पापों को जला देते हैं) पापों से बचे रहते हैं। जैसे हवा राजे व कंगाल को एक जैसी ही लगती है (वैसे ही) ब्रहमज्ञानी के अंदर (सबकी तरफ) एक जैसी नजर (के साथ देखने का स्वभाव होता) है। (कोई भला कहे चाहे बुरा, पर) ब्रहमज्ञानी मनुष्यों में एक तार हौसला (सदा कायम रहता) है, जैसे धरती को कोई तो खोदता है कोई चंदन से लेप करता है (पर धरती को कोई परवाह नहीं)। हे नानक! जैसे आग का कुदरती स्वभाव है (हरेक चीज की मैल जला देनी) (वैसे ही) ब्रहमज्ञानी मनुष्य का (भी) यही गुण है।1। ब्रहम गिआनी निरमल ते निरमला ॥ जैसे मैलु न लागै जला ॥ ब्रहम गिआनी कै मनि होइ प्रगासु ॥ जैसे धर ऊपरि आकासु ॥ ब्रहम गिआनी कै मित्र सत्रु समानि ॥ ब्रहम गिआनी कै नाही अभिमान ॥ ब्रहम गिआनी ऊच ते ऊचा ॥ मनि अपनै है सभ ते नीचा ॥ ब्रहम गिआनी से जन भए ॥ नानक जिन प्रभु आपि करेइ ॥२॥ {पन्ना 272} शब्दार्थ: मनि = मन में। प्रगासु = रौशनी, ज्ञान। धर = धरती। सत्रु = वैरी। जिन = जिन्हें। करेइ = करता है, बनाता है। सरलार्थ: जैसे पानी को कभी मैल नहीं रह सकती (भाप बन के फिर साफ का साफ, वैसे ही) ब्रहमज्ञानी मनुष्य (विकारों की मैल से सदा बचा रहके) महा निर्मल है। जैसे धरती पर आकाश (हर जगह व्यापक है, वैसे ही) ब्रहमानी के मन में (ये) रौशनी हो जाती है (कि प्रभू हर जगह मौजूद है)। ब्रहमज्ञानी के लिए सज्जन व वैरी एक जैसा है (क्योंकि) उसके अंदर अहंकार नहीं है (किसी के अच्छे-बुरे सलूक का हर्ष-शोक नहीं)। ब्रहमज्ञानी (आत्मिक अवस्था में) सबसे ऊँचा है, (पर) अपने मन में (अपने आप को) सबसे नीचा (जानता है)। हे नानक! वही मनुष्य ब्रहमज्ञानी बनते हैं जिन्हें प्रभू खुद बनाता है।2। ब्रहम गिआनी सगल की रीना ॥ आतम रसु ब्रहम गिआनी चीना ॥ ब्रहम गिआनी की सभ ऊपरि मइआ ॥ ब्रहम गिआनी ते कछु बुरा न भइआ ॥ ब्रहम गिआनी सदा समदरसी ॥ ब्रहम गिआनी की द्रिसटि अम्रितु बरसी ॥ ब्रहम गिआनी बंधन ते मुकता ॥ ब्रहम गिआनी की निरमल जुगता ॥ ब्रहम गिआनी का भोजनु गिआन ॥ नानक ब्रहम गिआनी का ब्रहम धिआनु ॥३॥ {पन्ना 272-273} शब्दार्थ: रीना = (चरणों की) धूड़। आतम रसु = आत्मा का आनंद। चीना = पहिचाना। मइआ = खुशी, प्रसन्नता, मेहर। कछु = कोई, कोई (काम या बात)। सभदरसी = समदर्सी, (सब की तरफ) एक जैसा देखने वाला। बरसी = बरखा करने वाली। मुकता = आजाद। जुगता = युक्ति, तरीका, मर्यादा, जिंदगी गुजारने का तरीका। सरलार्थ: ब्रहमज्ञानी सारे (बंदों) के पैरों की खाक (हो के रहता) है; ब्रहमज्ञानी ने आत्मिक आनंद को पहिचान लिया है। बंहमज्ञानी की सब पर खुशी रहती है (भाव, ब्रहमज्ञानी सबके साथ हंसते माथे रहता है,) और वह कोई बुरा काम नहीं करता। ब्रहमज्ञानी सदा सब ओर एक जैसी नजर से देखता है, उसकी नजर से (सब के ऊपर) अमृत की बरखा होती है। ब्रहमज्ञानी (माया के) बंधनों से आजाद होता है, और उसकी जीवन-जुगति विकारों से रहित है। (रॅबी-) ज्ञान ब्रहमज्ञानी की खुराक है (भाव, ब्रहमज्ञानी की आत्मिक जिंदगी का आसरा है), हे नानक! ब्रहमज्ञानी की सुरति अकाल-पुरख के साथ जुड़ी रहती है। |
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