श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 269 मिथिआ स्रवन पर निंदा सुनहि ॥ मिथिआ हसत पर दरब कउ हिरहि ॥ मिथिआ नेत्र पेखत पर त्रिअ रूपाद ॥ मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद ॥ मिथिआ चरन पर बिकार कउ धावहि ॥ मिथिआ मन पर लोभ लुभावहि ॥ मिथिआ तन नही परउपकारा ॥ मिथिआ बासु लेत बिकारा ॥ बिनु बूझे मिथिआ सभ भए ॥ सफल देह नानक हरि हरि नाम लए ॥५॥ {पन्ना 269} शब्दार्थ: मिथिआ = व्यर्थ। स्रवन = कान। हसत = हाथ। (‘हसत’ और ‘हसति’ दोनों अलग अलग है, अर्थ भी अलग हैं ‘हसत’ = हाथ, ‘हसति = हस्ति, हाथी)। दरब = धन। हिरहि = चराते हैं। नेत्र = आँखें। त्रिअ = स्त्री का। रसना = जीभ। अन स्वाद = अन्य स्वादों में। धावहि = दौड़ते हैं। बिकार = नुकसान। मन = हे मन! पर लोभु = पराए (धन आदि) का लोभ। परउपकार = दूसरों की भलाई। बासु = वासना, सुगंधि। बिनु बूझे = (अपने अस्तित्व का मनोरथ) समझे बगैर। देह = शरीर। सरलार्थ: (मनुष्य के) कान व्यर्थ हैं (अगर वे) पराई निंदा सुनते हैं, हाथ व्यर्थ हैं (अगर ये) पराए धन को चुराते हैं; आँखें व्यर्थ हैं (यदि ये) पराई स्त्री का रूप देखती हैं। जीभ व्यर्थ है (अगर ये) खाने व अन्य सवादों में (लगी हुई है); पैर व्यर्थ है (अगर ये) पराए नुकसान के लिए दौड़-भाग रहे हैं। हे मन! तू भी व्यर्थ है (यदि तू) पराए धन का लोभ कर रहा है। (वह) शरीर व्यर्थ हैं जो दूसरों की भलाई नहीं करते, (नाक) व्यर्थ है (जो) विकारों की वासना ले रहा है। (अपने अपने अस्तित्व के उद्देश्य) को समझे बिना (ये) सारे (अंग) व्यर्थ हैं। हे नानक! वह शरीर सफल है जो प्रभू का नाम जपता है।5। बिरथी साकत की आरजा ॥ साच बिना कह होवत सूचा ॥ बिरथा नाम बिना तनु अंध ॥ मुखि आवत ता कै दुरगंध ॥ बिनु सिमरन दिनु रैनि ब्रिथा बिहाइ ॥ मेघ बिना जिउ खेती जाइ ॥ गोबिद भजन बिनु ब्रिथे सभ काम ॥ जिउ किरपन के निरारथ दाम ॥ धंनि धंनि ते जन जिह घटि बसिओ हरि नाउ ॥ नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥६॥ {पन्ना 269} शब्दार्थ: बिरथी = व्यर्थ। साकत = (ईश्वर से) टूटा हुआ। आरजा = उम्र। तनु अंध = अंधे का शरीर। मुखि = मुंह में से। ता कै मुखि = उसके मुंह में से। दुरगंध = बद बू। रैनि = रात। बिहाइ = गुजर जाती है। मेघ = बादल। किरपन = कंजूस। निरारथ = व्यर्थ। दाम = पैसे, धन। धंनि = मुबारक। जिह घटि = जिनके हृदय में। ता कै = उन से। बलि बलि = सदके। सरलार्थ: (ईश्वर से) टूटे हुए मनुष्य की उम्र व्यर्थ जाती है, (क्योंकि) सच्चे प्रभू (के नाम) के बिना वह कैसे स्वच्छ हो सकता है? नाम के बिना अंधे (साकत) का शरीर (ही) किसी काम का नहीं, (क्योंकि) उसके मुंह में से (निंदा आदि) की बद बू आती है। जैसे बरखा के बगैर खेती निष्फल जाती है, (वैसे) सिमरन के बगैर (साकत के) दिन रात बेकार चले जाते हैं। प्रभू के भजन से वंचित रहने के कारण (मनुष्य के) सारे ही काम किसी अर्थ के नहीं, (क्योंकि ये काम इसका अपना कुछ नहीं सँवारते) जैसे कंजूस का धन उसके अपने किसी काम का नहीं। वह मनुष्य मुबारक हैं, जिनके हृदय में प्रभू का नाम बसता है, हे नानक! (कह कि) मैं उन (गुरमुखों) से सदके जाता हूँ।6। रहत अवर कछु अवर कमावत ॥ मनि नही प्रीति मुखहु गंढ लावत ॥ जाननहार प्रभू परबीन ॥ बाहरि भेख न काहू भीन ॥ अवर उपदेसै आपि न करै ॥ आवत जावत जनमै मरै ॥ जिस कै अंतरि बसै निरंकारु ॥ तिस की सीख तरै संसारु ॥ जो तुम भाने तिन प्रभु जाता ॥ नानक उन जन चरन पराता ॥७॥ {पन्ना 269} शब्दार्थ: रहत = धर्म के बाहरी चिन्ह जो धारण किए हुए हैं। अवर = और। कछु अवर = कुछ और। कमावत = कमाता है, अमली जिंदगी है। मनि = मन में। गंढ लावत = जोड़ तोड़ करता है। परबीन = चतुर, सियाना। काहू = किसी के। भीन = भीगता, प्रसन्न होता। अवर = औरों को। जिस कै अंतरि = जिस मनुष्य के मन में। सीख = शिक्षा। तिस की सीख = उसकी शिक्षा से। संसारु = जगत (भाव, जगत का हरेक जीव)। तुम भाने = तुझे भाते हैं, तुझे अच्छे लगते हैं। तिन = उन्होंने। उन जन चरन = उन मनुष्यों के पैरों पर। पराता = पड़ता है। मुखहु = मुंह से, मुंह की बातों से। सरलार्थ: धर्म के बाहरी धारे हुए चिन्ह और हैं पर असल जिंदगी कुछ और है; मन में (तो) प्रभू से प्यार नहीं है, (पर) मुंह की बातों से घर पूरा करता है। (पर दिलों की) जानने वाला प्रभू सयाना है, (वह कभी) किसी के बाहरी भेष से प्रसन्न नहीं हुआ। (जो मनुष्य) औरों को सलाहें देता है (पर) खुद (उन सलाहों पर) नहीं चलता, वह सदा जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। जिस मनुष्य के हृदय में निरंकार बसता है, उसकी शिक्षा से जगत (विकारों से) बचता है। (हे प्रभू!) जो (भगत) तुझे प्यारे लगते हैं उन्होंने तुझे पहिचाना है। हे नानक! (कह) -मैं उन (भक्तों) के चरणों में पड़ता हूँ।7। करउ बेनती पारब्रहमु सभु जानै ॥ अपना कीआ आपहि मानै ॥ आपहि आप आपि करत निबेरा ॥ किसै दूरि जनावत किसै बुझावत नेरा ॥ उपाव सिआनप सगल ते रहत ॥ सभु कछु जानै आतम की रहत ॥ जिसु भावै तिसु लए लड़ि लाइ ॥ थान थनंतरि रहिआ समाइ ॥ सो सेवकु जिसु किरपा करी ॥ निमख निमख जपि नानक हरी ॥८॥५॥ {पन्ना 269} शब्दार्थ: करउ = मैं करता हूँ। कीआ = पैदा किया हुआ (जीव)। आपहि = खुद ही। मानै = गुमान करता है। आपहि आप = स्वयं ही। निबेरा = फैसला, निखेड़ा। नेरा = नजदीक। सगल ते रहत = सब से परे है। उपाव = प्रयत्न। रहत = रहन-सहन, रहनी। आतम की रहत = आत्मा की रहनी, आत्मिक जिंदगी। जिस भावै = जो उसे भाए, जो उसे भाता है। तिसु = उसे। थान = थनंतरि = हर जगह। समाइ रहिआ = मौजूद है। निमख निमख = आँख के फरकने के समय में भी। सरलार्थ: (जो जो) विनती मैं करता हूँ, प्रभू सब जानता है, अपने पैदा किए जीव को वह खुद ही सम्मान देता है। (जीवों के किए कर्मों के मुताबिक) प्रभू खुद ही फैसला करता है, (भाव) किसी को ये बुद्धि बख्शता है कि प्रभू हमारे नजदीक है और किसी को ये जनाता है कि प्रभू कहीं दूर है। सब तरीकों से चतुराईयों से (प्रभू) परे है (भाव, किसी हीले चतुराई से प्रभू प्रसन्न नहीं होता) (क्योंकि वह जीव की) आत्मिक रहणी की हरेक बात जानता है। जो (जीव) उसे भाता है उसे अपने साथ जोड़ लेता है, प्रभू हर जगह मौजूद है। वही मनुष्य (असली) सेवक बनता है जिस पर प्रभू मेहर करता है। हे नानक! (ऐसे) प्रभू को दम-ब-दम याद कर।8।5। सलोकु ॥ काम क्रोध अरु लोभ मोह बिनसि जाइ अहमेव ॥ नानक प्रभ सरणागती करि प्रसादु गुरदेव ॥१॥ {पन्ना 269} शब्दार्थ: बिनस जाइ = नाश हो जाए, मिट जाए, दूर हो जाय। अहंमेव = (सं: अहं+एव। मैं ही हूँ), ये ख्याल कि मैं ही बड़ा हूँ, अहंकार। सरणागती = सरण आया हूँ। प्रसादु = कृपा, मेहर। गुरदेव = हे गुरदेव! सरलार्थ: हे नानक! (बिनती कर और कह) -हे गुरदेव! हे प्रभू! मैं शरण आया हूँ, (मेरे पर) मेहर कर, (मेरे) काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार दूर हो जाएं।1। नोट: शब्द ‘प्रसादु’ क्रिया (verb) ‘करि’ के साथ ‘कर्म कारक’ (Objective Case) है। आगे अष्टपदी में शब्द ‘प्रसादि’ आता है। (ि) ‘कर्ण कारक’ (Instrumental Case) का चिन्ह है, ‘प्रसादि’ का अर्थ है ‘कृपा से, कृपा द्वारा’। इसी तरह ‘मूल मंत्र’ में ‘गुर प्रसादि’ का अर्थ है ‘गुरू की कृपा से’, भाव, पहले शब्दों बताई गई सिफतों वाला अकाल-पुरख गुरू की कृपा से (मिलता है)। (देखो‘जपु’ सटीक) असटपदी ॥ जिह प्रसादि छतीह अम्रित खाहि ॥ तिसु ठाकुर कउ रखु मन माहि ॥ जिह प्रसादि सुगंधत तनि लावहि ॥ तिस कउ सिमरत परम गति पावहि ॥ जिह प्रसादि बसहि सुख मंदरि ॥ तिसहि धिआइ सदा मन अंदरि ॥ जिह प्रसादि ग्रिह संगि सुख बसना ॥ आठ पहर सिमरहु तिसु रसना ॥ जिह प्रसादि रंग रस भोग ॥ नानक सदा धिआईऐ धिआवन जोग ॥१॥ {पन्ना 269} शब्दार्थ: जिह प्रसादि = जिस (प्रभू) की कृपा से। अंम्रित = स्वादिष्ट भोजन। खाहि = तू खाता है। सुगंधत = सुंदर मीठी वासना वाली चीजें। तनि = शरीर पर। परम = ऊँची। गति = पदवी, दर्जा। मंदरि = मंदिर में, घर में। तिसहि = उसे। संगि सुख = सुख से, मौज से। रसना = जीभ। सरलार्थ: (हे भाई!) जिस (प्रभू) की कृपा से तू कई किस्मों के स्वादिष्ट पकवान खाता है, उसे मन में (याद) रख। जिसकी मेहर से अपने शरीर पर तू सुगंधियां लगाता है, उसे याद करने से तू उच्च पदवी हासिल कर लेगा। जिसकी दया से तू सुख-महलों में बसता है, उसे सदा मन में सिमर। जिस (प्रभू) की कृपा से तू घर में मौजों से बस रहा है, उसे जीभ से आठों पहर याद कर। हे नानक! जिस (प्रभू) की बख्शिश से खेल-तमाशे (मौज-मस्ती), स्वादिष्ट भोजन व पदार्थ (नसीब होते हैं) उस ध्यानयोग को सदा ही ध्याना चाहिए।1। जिह प्रसादि पाट पट्मबर हढावहि ॥ तिसहि तिआगि कत अवर लुभावहि ॥ जिह प्रसादि सुखि सेज सोईजै ॥ मन आठ पहर ता का जसु गावीजै ॥ जिह प्रसादि तुझु सभु कोऊ मानै ॥ मुखि ता को जसु रसन बखानै ॥ जिह प्रसादि तेरो रहता धरमु ॥ मन सदा धिआइ केवल पारब्रहमु ॥ प्रभ जी जपत दरगह मानु पावहि ॥ नानक पति सेती घरि जावहि ॥२॥ {पन्ना 269-270} शब्दार्थ: पटंबर = पट+अंबर, रेशम के कपड़े। कत अवर = और कहाँ? लुभावहि = तूं लोभ कर रहा है। सोईजै = सोना है। गावीजै = गाना चाहिए। सभु कउ = हरेक जीव। मानै = आदर करता है, मान देता है। मुखि = मुंह से। रसन = जीभ से। बखानै = उचार, बोले। केवल = सिर्फ, पति सेती = इज्जत से। सरलार्थ: (हे मन!) जिस (प्रभू) की कृपा से तू रेशमी कपड़े पहनता है, उसे बिसार के और कहाँ लोभ कर रहा है? जिसकी मेहर से सेज पर सुखी सोते हैं, हे मन! उस प्रभू का यश आठों पहर गाना चाहिए। जिसकी मेहर से हरेक मनुष्य तेरा आदर करता है, उसकी वडिआई (अपने) मुंह से जीभ से (सदा) कर। जिस (प्रभू) की कृपा से तेरा धर्म (कायम) रहता है, हे मन! तू सदा उस परमेश्वर को सिमर। हे नानक! परमात्मा का भजन करने से (उसकी) दरगाह में मान पाएगा, और, (यहाँ से) इज्जत के साथ अपने (परलोक के) घर में जाएगा।2। |
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धन्यवाद! |