श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 215 गउड़ी माला महला ५ ॥ भावनु तिआगिओ री तिआगिओ ॥ तिआगिओ मै गुर मिलि तिआगिओ ॥ सरब सुख आनंद मंगल रस मानि गोबिंदै आगिओ ॥१॥ रहाउ ॥ मानु अभिमानु दोऊ समाने मसतकु डारि गुर पागिओ ॥ स्मपत हरखु न आपत दूखा रंगु ठाकुरै लागिओ ॥१॥ बास बासरी एकै सुआमी उदिआन द्रिसटागिओ ॥ निरभउ भए संत भ्रमु डारिओ पूरन सरबागिओ ॥२॥ जो किछु करतै कारणु कीनो मनि बुरो न लागिओ ॥ साधसंगति परसादि संतन कै सोइओ मनु जागिओ ॥३॥ जन नानक ओड़ि तुहारी परिओ आइओ सरणागिओ ॥ नाम रंग सहज रस माणे फिरि दूखु न लागिओ ॥४॥२॥१६०॥ {पन्ना 215} शब्दार्थ: भावनु = (सुख के ग्रहण करने व दुख के त्याग का) संकल्प। री = हे बहिन! गुर मिलि = गुरू को मिल के। मानि = मान के। आगिओ = आज्ञा, रजा।1। रहाउ। मानु = आदर। अहंकार = घमण्ड, अकड़न। समाने = ऐक जैसे। मसतकु = माथा। पागिओ = पैरों पर। संपत हरखु = संपक्ति का हर्ष, (आए) धन की खुशी। आपत दूखा = दुखों की आपदा, (आई) विपदा का दुख। रंगु = प्रेम।1। बास बास = बसेरे बसेरे में, सब घरों में। री = हे सखी! उदिआन = उद्यानों में, जंगलों में। भ्रमु = भटकना। पूरन = व्यापक। सरबागिओ = सर्वज्ञ, सबके दिलों की जानने वाला।2। करतै = करतार ने। कारणु = सबब्। मनि = मन में। बुरो = बुरा। प्रसादि = किरपा से। सोइओ = सोया हुआ।3। ओड़ि = शरण में। रंग = आनंद। सहज = आत्मिक अडोलता।4। सरलार्थ: हे बहिन! गुरू को मिल के मैंने (सुखों के ग्रहण करने व दुखों से डरने का) संकल्प छोड़ दिया है, सदा के लिए त्याग दिया है। (अब गुरू की कृपा से) परमात्मा की रजा (मीठी) मान के मुझे सारे सुख-आनंद ही हैं, खुशियां मंगल ही हैं।1। रहाउ। हे बहिन! कोई मेरा आदर करे, कोई मेरे साथ घमण्डियों वाला सलूक करे, मुझे दोनों एक ही जैसे प्रतीत होते हैं। (क्यूँकि) मैंने अपना माथा (सिर) गुरू के चरणों में रख दिया है। (गुरू की किरपा से मेरे मन में) परमात्मा का प्यार बन चुका है। अब मुझे आए धन की खुशी नहीं होती, और आई बिपता से दुख प्रतीत नहीं होता।1। हे बहिन! अब मुझे सब घरों में एक मालिक प्रभू ही दिखता है, जंगलों में भी मुझे वही नजर आ रहा है। गुरू संत (की किरपा से) मैंने भटकना समाप्त कर ली है, अब सबके दिल की जानने वाला प्रभू ही मुझे सर्व-व्यापक दिखता है और मैं निडर हो गया हूँ।2। (हे बहिन! जब भी) जो भी सबॅब ईश्वर ने बनाया (अब मुझे अपने) मन में (वह) बुरा नहीं लगता। साध-संगति में आ के संत जनों की किरपा से (माया के मोह में) सोया हुआ (मेरा) मन जाग उठा है।3। हे दास नानक! (कह– हे प्रभू!गुरू की कृपा से) मैं तेरी ओट में आ पड़ा हूँ, मैं तेरी शरण में आ गिरा हूँ। अब मुझे कोई दुख नहीं सताता। मैं तेरे नाम का आनंद ले रहा हूँ मैं आत्मिक अडोलता के सुख माण रहा हूँ।4।2।160। गउड़ी माला२ महला ५ ॥ पाइआ लालु रतनु मनि पाइआ ॥ तनु सीतलु मनु सीतलु थीआ सतगुर सबदि समाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ लाथी भूख त्रिसन सभ लाथी चिंता सगल बिसारी ॥ करु मसतकि गुरि पूरै धरिओ मनु जीतो जगु सारी ॥१॥ त्रिपति अघाइ रहे रिद अंतरि डोलन ते अब चूके ॥ अखुटु खजाना सतिगुरि दीआ तोटि नही रे मूके ॥२॥ अचरजु एकु सुनहु रे भाई गुरि ऐसी बूझ बुझाई ॥ लाहि परदा ठाकुरु जउ भेटिओ तउ बिसरी ताति पराई ॥३॥ कहिओ न जाई एहु अच्मभउ सो जानै जिनि चाखिआ ॥ कहु नानक सच भए बिगासा गुरि निधानु रिदै लै राखिआ ॥४॥३॥१६१॥ {पन्ना 215} शब्दार्थ: पाइआ = ढूँढ लिया है। मनि = मन में। थीआ = हो गया है। सतिगुर सबदि = गुरू के शबद में। समाइआ = लीन हो गया हूँ।1। रहाउ। त्रिसन = प्यास। सगल = सारी। करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। गुरि = गुरू ने। सारी = सारा।1। अघाइ रहे = तृप्त हो गए। रिद = हृदय। ते = से। चूके = हट गए। सतिगुरि = सत्गुरू ने। रे = हे भाई! मूके = समाप्त होता।2। गुरि = गुरू ने। बूझ = समझ। बुझाई = समझा दी। लाहि = उतार के। भेटिओ = मिला। ताति = ईष्या, जलन।3। अचंभउ = अचम्भा, आश्चर्यजनक चमत्कार। जिनि = जिस ने। नानक = हे नानक! सच बिगासा = सत्य का प्रकाश, सदा स्थिर प्रभू का प्रकाश। रिदै = हृदय में।4। सरलार्थ: (हे भाई! मैंने अपने) मन में एक लाल ढूँढ लिया है। मैं गुरू के शबद में लीन हो गया हूँ। मेरा शरीर (हरेक ज्ञानेंद्रियां) शांत हो गई हैं, मेरा मन ठंडा हो गया है।1। रहाउ। (हे भाई!) पूरे गुरू ने (मेरे) माथे पर (अपना) हाथ रखा है (उसकी बरकति से मैंने अपना) मन काबू में कर लिया है। (मानो) मैंने सारा जगत जीत लिया है (क्योंकि मेरी माया की) भूख उतर गई है। मेरी माया की सारी प्यास खत्म हो गई है, मैंने सारे चिंता-फिक्र भुला दिए हैं।1। (हे भाई! माया की तरफ से मेरे अंदर की भूख) तृप्त हो गई है, मैं (माया की ओर से अपने) दिल में अघा चुका हूँ। (अब माया की खातिर) डोलने से मैं हट गया हूँ। हे भाई! सतिगुरू ने मुझे (प्रभू नाम का एक ऐसा) खजाना दिया है जो कभी खत्म होने वाला नहीं। ना ही उसमें कमी आ सकती है, ना ही वह खत्म होने वाला है।2। हे भाई! एक और अनोखी बात सुनो। गुरू ने मुझे ऐसी समझ बख्श दी है (जिसकी बरकति से) जब से (मेरे अंदर से अहंकार का) परदा उतार के मुझे ठाकुर प्रभू मिला है, तब से (मेरे दिल में से) पराई ईष्या बिसर गई है।3। हे भाई! ये एक ऐसा आश्चर्यजनक आनंद है जो बयान नहीं किया जा सकता। इस रस को वही जानता है जिसने ये चखा है। हे नानक! कह– गुरू ने (मेरे अंदर परमात्मा के नाम का खजाना ला के रख दिया है, और मेरे अंदर उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा (के ज्ञान) का प्रकाश हो गया है।4।3।161। गउड़ी माला महला ५ ॥ उबरत राजा राम की सरणी ॥ सरब लोक माइआ के मंडल गिरि गिरि परते धरणी ॥१॥ रहाउ ॥ सासत सिम्रिति बेद बीचारे महा पुरखन इउ कहिआ ॥ बिनु हरि भजन नाही निसतारा सूखु न किनहूं लहिआ ॥१॥ तीनि भवन की लखमी जोरी बूझत नाही लहरे ॥ बिनु हरि भगति कहा थिति पावै फिरतो पहरे पहरे ॥२॥ अनिक बिलास करत मन मोहन पूरन होत न कामा ॥ जलतो जलतो कबहू न बूझत सगल ब्रिथे बिनु नामा ॥३॥ हरि का नामु जपहु मेरे मीता इहै सार सुखु पूरा ॥ साधसंगति जनम मरणु निवारै नानक जन की धूरा ॥४॥४॥१६२॥ {पन्ना 215} शब्दार्थ: उबरत = उबरता है। राजा राम = प्रभू पातशाह। सरब लोक = मात लोक, पाताल लोक और आकाशलोक मिला के। मंडल = चक्र। गिरि = गिर के। धरणी = धरती पर (निम्न आत्मिक दशा में)।1। किन हूं न = किसी ने भी नहीं।1। तीनि भवन = मातृ, पाताल व आकाश। लखमी = माया। जोरी = इकट्ठी की। लहरे = लोभ की लहरें। बूझत नाही = बुझती नहीं, मिटती नहीं। कहा = किधर? थिति = (ष्) टिकाव। पहरे पहरे = हरेक पहर, हर समय। फिरतो = भटकता फिरता है।2। बिलास = मौजें। मन मोहन = मन को मोहने वाली। कामा = कामना, वासना। जलतो = जलता। न बूझत = (आग) बुझती नहीं। ब्रिथे = व्यर्थ।3। सार = श्रेष्ठ। धूरा = चरण धूड़।4। सरलार्थ: (हे भाई!) प्रभू-पातशाह के शरन पड़ के ही मनुष्य (माया के प्रभाव से) बच सकता है। मात लोक, पाताल लोक और आकाश लोक -इन सब लोकों के जीव माया के चक्कर में फंसे पड़े हैं, (माया के प्रभाव के कारण जीव उच्च आत्मिक मण्डल से) गिर गिर के निम्न आत्मिक दशा में आ पड़ते हैं।1। (पण्डित लोग तो) शास्त्रों-स्मृतियों-वेद (आदि सारे धर्म पुस्तकों को) विचारते आ रहे हैं। पर महापुरुषों ने तो यही कहा है कि परमात्मा के भजन के बिना (माया के समुंद्र से) पार नहीं हुआ जा सकता, (सिमरन के बिना) किसी मनुष्य ने भी सुख नहीं पाया।1। (हे भाई!) अगर मनुष्य सारी सृष्टि की ही माया एकत्र कर ले, तो भी लोभ की लहरें मिटती नहीं हैं। (इतनी माया जोड़ जोड़ के भी) परमात्मा की भक्ति के बिना मनुष्य कहीं भी मन का टिकाव नहीं ढूँढ सकता, हर समय ही (माया की खातिर) भटकता फिरता है।2। (हे भाई!) मनुष्य मन को मोहने वाली अनेकों मौजें भी करता रहे, (पर, मन की विकारों वाली) वासना पूरी नहीं होती। मनुष्य तृष्णा की आग में जलता फिरता है, तृष्णा की आग कभी बुझती नहीं। परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य के अन्य सभी उद्यम व्यर्थ चले जाते हैं।3। हे मेरे मित्र! परमात्मा का नाम जपा कर, यही सब से श्रेष्ठ सुख है, और इस सुख में कोई कमी नहीं रह जाती। जो मनुष्य साध-संगति में आ के अपना जनम मरण (का चक्र) खत्म कर लेता है, नानक उस मनुष्य के चरणों की धूड़ (मांगता) है।4।4।162। गउड़ी माला महला ५ ॥ मो कउ इह बिधि को समझावै ॥ करता होइ जनावै ॥१॥ रहाउ ॥ अनजानत किछु इनहि कमानो जप तप कछू न साधा ॥ दह दिसि लै इहु मनु दउराइओ कवन करम करि बाधा ॥१॥ मन तन धन भूमि का ठाकुरु हउ इस का इहु मेरा ॥ भरम मोह कछु सूझसि नाही इह पैखर पए पैरा ॥२॥ तब इहु कहा कमावन परिआ जब इहु कछू न होता ॥ जब एक निरंजन निरंकार प्रभ सभु किछु आपहि करता ॥३॥ अपने करतब आपे जानै जिनि इहु रचनु रचाइआ ॥ कहु नानक करणहारु है आपे सतिगुरि भरमु चुकाइआ ॥४॥५॥१६३॥ {पन्ना 215-216} शब्दार्थ: मो कउ = मुझे। को = कौन? करता होइ = करतार का रूप हो के। जनावै = समझा सकता है।1। इनहि = इस जीव ने। जप तप = परमात्मा का सिमरन और विकारों की तरफ से रोक के प्रयास। दह दिसि = दसों दिशाओं। दउराइओ = दौड़ाया। करि = कर के। बाध = बंधा हुआ है।1। भूमि = धरती। ठाकुरु = मालिक। हउ = मैं। इहु = ये धन। पैखर = ढंगे।2। कहा = कहाँ? कमावन परिआ = कमाने काबिल था। आपहि = स्वयं ही।3। आपे = (प्रभू) स्वयं ही। जिनि = जिस (प्रभू) ने। सतिगुरि = गुरू ने।4। सरलार्थ: (हे भाई!) और कौन मुझे इस तरह समझ सकता है? (वही गुरमुख) समझ सकता है (जो) करतार का रूप हो जाए।1। रहाउ। (हे भाई! गुरू के बिना और कोई नहीं समझ सकता कि) अज्ञानता में फंस के इस जीव ने सिमरन नहीं किया और विकारों को रोकने का प्रयास नहीं किया, कुछ अन्य ही (कोझे, बेमतलब काम) किए हैं। ये जीव अपने इस मन को दसों दिशाओं में भगा रहा है। ये कौन से कर्मों के कारण (माया के मोह में) बंधा हुआ है?।1। (हे भाई! माया की खातिर) भटकना के कारण (माया के) मोह के कारण (जीव को) कोई अच्छी बात नहीं सूझती। इसके पैरों में माया के मोह की बाधाएं, जंजीरें पड़ी हुई हैं (जैसे गधे आदि को बढ़िया ढंगा, बाधा डाली जाती है) (मोह में फस के जीव हर समय यही कहता है–) मैं अपनी जीवात्मा का, शरीर का, धन का, धरती का मालिक हूँ, मैं इस (धन आदि) का मालिक हूँ, ये धन आदिक मेरा है।2। (हे भाई! गुरू के बिना और कौन बताए? कि) जब (जगत-रचना से पहले) इस जीव की कोई हस्ती नहीं थी, जब केवल एक निरंजन आकार-रहित प्रभू खुद ही खुद था, जब प्रभू स्वयं ही सब कुछ करने वाला था, तब ये जीव क्या कमाने के काबिल था? (और, अब ये गुमान करता है कि मैं धन का मालिक हूँ, मैं धरती का मालिक हूँ)।3। हे नानक! कह–गुरू ने ही (ये तन, धन, धरती आदि की मल्कियतों का) भुलेखा दूर किया है और समझाया है कि जिस परमात्मा ने ये जगत रचना रची है वही स्वयं अपने किए कामों को जानता है और वही सब कुछ करने की स्मर्था रखता है (अज्ञानी जीव व्यर्थ ही मल्कियतों का अहंकार करता है और भटकता फिरता है)।4।4।163। |
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धन्यवाद! |