श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 153 गउड़ी महला १ ॥ कामु क्रोधु माइआ महि चीतु ॥ झूठ विकारि जागै हित चीतु ॥ पूंजी पाप लोभ की कीतु ॥ तरु तारी मनि नामु सुचीतु ॥१॥ वाहु वाहु साचे मै तेरी टेक ॥ हउ पापी तूं निरमलु एक ॥१॥ रहाउ ॥ अगनि पाणी बोलै भड़वाउ ॥ जिहवा इंद्री एकु सुआउ ॥ दिसटि विकारी नाही भउ भाउ ॥ आपु मारे ता पाए नाउ ॥२॥ सबदि मरै फिरि मरणु न होइ ॥ बिनु मूए किउ पूरा होइ ॥ परपंचि विआपि रहिआ मनु दोइ ॥ थिरु नाराइणु करे सु होइ ॥३॥ बोहिथि चड़उ जा आवै वारु ॥ ठाके बोहिथ दरगह मार ॥ सचु सालाही धंनु गुरदुआरु ॥ नानक दरि घरि एकंकारु ॥४॥७॥ {पन्ना 153} शब्दार्थ: झूठ विकारि = झूठ बोलने का विकार। जागै = तत्पर हो जाता है। हित = मोह, आकर्षण। जागै हित = प्रेरणा होती है, खीच पड़ती है। तरु = तुलहा। तारी = बेड़ी, नाव। सुचीतु = चिक्त को पवित्र करने वाला।1। वाहु = आश्चर्य। निरमलु = पवित्र। तूं ऐक = सिर्फ तू ही।1। रहाउ। भड़वाउ = भैड़ा वाक्य, बुरे बोल। ऐक सुआउ = एक एक चस्का। दिसटि = दृष्टि, नजर, रूची। विकारी = विकार भरी रूची वाला। आपु = स्वैभाव।2 मरै = स्वैभाव को मार ले, विनम्र। मरणु = आत्मिक मौत। पूरा = पूर्ण, मुकम्मल, त्रुटि रहित। परपंच = परपंच में, जगत खेल में। दोइ = द्वैत में, मेर तेर में। थिरु = स्थिर, अडोल चिक्त। सु = वह मनुष्य।3। बोहिथ = जहाज में, नाम जहाज में। वार = वारी, अवसर। ठाके = रोके हुए। सालाही = मैं सलाह सकता हूँ, उस्तति। धंनु = (excellent) श्रेष्ठ। दरि = (गुरू के) दर पे (गिरने से)। घरि = हृदय में।4। सरलार्थ: हे सदा कायम रहने वाले प्रभू! तू आश्चर्य है तू आश्चर्य है। (तेरे जैसा और कोई नहीं); (कामादिक विकारों से बचने के लिए) मुझे सिर्फ तेरा ही आसरा है। मैं पापी हूँ, सिर्फ तू ही पवित्र करने के स्मर्थ है।1। रहाउ। (मेरे अंदर) काम (प्रबल) है, क्रोध (प्रबल) है। मेरा चिक्त माया में (मगन रहता) है। झूठ बोलने की बुराई में मेरा हित जागता है मेरा चिक्त तत्पर होता है। मैंने पाप व लोभ की राशि पूँजी एकत्र की हुई है। (तेरी मेहर से अगर मेरे) मन में तेरा पवित्र करने वाला नाम (बस जाए तो यही मेरे लिए) तुलहा है, बेड़ी है।1। (जीव के अंदर कभी) आग (का जोर पड़) जाता है (कभी) पानी (प्रबल हो जाता) है (इस वास्ते ये) गर्म-सर्द बोल बोलता रहता है। जीभ आदि हरेक इंद्रिय को अपना अपना चस्का (लगा हुआ) है। निगाहें विकारों में रहती हैं। (मन में) ना डर है ना प्रेम है (ऐसी हालत में प्रभू का नाम कैसे मिले?)। जीव अहम्भाव को कम करे, तो ही परमात्मा का नाम प्राप्त कर सकता है।2। जब मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के अहम् भाव को खत्म करता है, तो उसे आत्मिक मौत नहीं होती। स्वैभाव के खत्म हुए बिना मनुष्य पूर्ण नहीं हो सकता। (कमियों से बच नहीं सकता, बल्कि) मन माया के छल के द्वैत में फंसा रहता है। (जीव के भी क्या वश?) जिसको परमात्मा खुद अडोल चिक्त करता है वही होता है।3। मैं (प्रभू के नाम) जहाज में (तभी) चढ़ सकता हूँ, जब (उसकी मेहर से) मुझे बारी मिले। जिन लोगों को नाम जहाज पर चढ़ना नहीं नसीब होता, उन्हें प्रभू की दरगाह में खुआरी मिलती है (धक्के पड़ते है, प्रभू का दीदार नसीब नहीं होता)। (असल बात ये है कि) गुरू का दर सबसे श्रेष्ठ है। (गुरू के दर पर रह के ही) मैं परमात्मा की सिफत सालाह कर सकता हूँ। हे नानक! (गुरू के) दर पे रहने से हृदय में परमात्मा के दर्शन होते हैं।4।7। गउड़ी महला १ ॥ उलटिओ कमलु ब्रहमु बीचारि ॥ अम्रित धार गगनि दस दुआरि ॥ त्रिभवणु बेधिआ आपि मुरारि ॥१॥ रे मन मेरे भरमु न कीजै ॥ मनि मानिऐ अम्रित रसु पीजै ॥१॥ रहाउ ॥ जनमु जीति मरणि मनु मानिआ ॥ आपि मूआ मनु मन ते जानिआ ॥ नजरि भई घरु घर ते जानिआ ॥२॥ जतु सतु तीरथु मजनु नामि ॥ अधिक बिथारु करउ किसु कामि ॥ नर नाराइण अंतरजामि ॥३॥ आन मनउ तउ पर घर जाउ ॥ किसु जाचउ नाही को थाउ ॥ नानक गुरमति सहजि समाउ ॥४॥८॥ {पन्ना 153} शब्दार्थ: उलटिओ = वापस आया है, माया के मोह से पलटा है। कमलु = हृदय कमल। ब्रहमु बीचारि = ब्रहम को विचार के, परमात्मा के सिफत सालाह में चिक्त जोड़ने से। अंम्रित धार = अमृत की धारा, नाम अमृत की वर्षा। गगनि = गगन में, आकाश में, चिक्त रूपी आकाश में, चिदाकाश में। दस दुआरि = दसवें द्वार में, दिमाग में। अम्रितधार दस दुआरि = दिमाग़ में नाम की वर्षा होती है, दिमाग़ में ठंड पड़ती है (भाव, दिमाग़ में पहले दुनिया के झमेलों की उलझन थी, सिफत सालाह की बरकति से शांत हो गई)। त्रिभवणु = तीन भवन, सारा संसार। बेधिआ = बेध दिया, व्यापक। मुरारि = (मुर का अरी) परमात्मा।1। भरमु = भटकना, माया की दौड़ भाग। मनि मानीअै = अगर मन मान जाए, अगर मन नाम रस में टिक जाए। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। पीजै = पी लेते हैं।1। रहाउ। जीति = जीत के। जनमु जीति = जनम जीत के, मानस जनम का उद्देश्य हासिल करके। मरणि = मरने में, स्वार्थ की मौत में। मनु मानिआ = मन पतीज जाता है। मरणि मनु मानिआ = अहम् की मौत में मन पतीज जाता है, मन को ये बात पसंद आ जाती है कि स्वार्थ ना रहे। आपि = स्वै भाव की ओर से। मन ते = मन से, अंदर से ही। जानिआ = समझ आ जाती है। नजरि = प्रभू के मेहर की नजर। घरु = परमात्मा का ठिकाना, प्रभू चरणों में टिकाव। घर ते = घर से, हृदय में ही।2। जतु = इंद्रियों को रोकना। सतु = पवित्र आचरण। मजनु = चुभ्भी, स्नान। नामि = नाम में। अधिक = बहुत। कराउ = कराऊँ, मैं करूँ। किसु कामि = किस काम के लिए? किस लिए? नर नाराइणु = परमात्मा। अंतरजामि = दिलों की जानने वाला।3। आन = कोई और (आसरा)। मनउ = अगर मैं मानूँ। पर घरि = दूसरे घर में, किसी और जगह। जाउ = जाऊँ, मैं जाऊँ। जाचउ = मैं मांगू। सहजि = सहज में, अडोलता में। समाउ = मैं लीन होता हूँ।4। सरलार्थ: हे मेरे मन! (माया की खातिर) भटकना छोड़ दे (और प्रभू की सिफत सालाह में जुड़)। (हे भाई!) जब मन को परमात्मा की सिफत सालाह अच्छी लगने लग पड़ती है, तब ये सिफत सालाह का स्वाद लेने लग पड़ता है।1। रहाउ । परमात्मा की सिफत सालाह में चिक्त जोड़ने से हृदय कमल माया के मोह की तरफ से हट जाता है। दिमाग़ में भी (सिफत सालाह की बरकति से) नाम अमृत की वर्षा होती है (और माया वाले झमेलों की अशांति मिट के ठण्ड पड़ जाती है)। (फिर दिल को भी और दिमाग को भी ये यकीन हो जाता है कि) प्रभू खुद सारे जगत (के जॅरे-जॅरे) में मौजूद है।1। (सिफत सालाह में जुड़ने से) जनम उद्देश्य प्राप्त करके मन को स्वार्थ का समाप्त हो जाना पसंद आ जाता है। इस बात की सूझ मन के अंदर ही पड़ जाती है कि स्वैभाव समाप्त हो गया है। जब प्रभू की मेहर की नजर होती है तो हृदय में ही ये अनुभव हो जाता है कि सुरति प्रभू चरणों में जुड़ी हुई है।2। परमात्मा के नाम में जुड़ना ही जत, सत व तीर्थ स्नान (का उद्यम) है। मैं (जत-सत आदि वाला) बहुता फैलाव भी क्यूँ फैलाऊँ? (ये सारे उद्यम तो लोक-दिखावे के ही हैं), और परमात्मा हरेक के दिल की जानता है।3। (माया वाली भटकना मिटाने के लिए प्रभू दर के बिना और कोई जगह नहीं, सो) मैं तभी किसी और जगह जाऊँ अगर मैं (प्रभू के बिना) कोई और जगह मान ही लूँ। कोई और जगह है ही नहीं, मैं किससे ये मांग मांगू (कि मेरा मन भटकने से हट जाए) ? हे नानक! (मुझे यकीन है कि गुरू का उपदेश हृदय में बसा के) उस आत्मिक अवस्था में लीन रह सकते हैं (जहां माया वाली भटकना का अस्तित्व नहीं है) जहां अडोलता है।4।8। गउड़ी महला १ ॥ सतिगुरु मिलै सु मरणु दिखाए ॥ मरण रहण रसु अंतरि भाए ॥ गरबु निवारि गगन पुरु पाए ॥१॥ मरणु लिखाइ आए नही रहणा ॥ हरि जपि जापि रहणु हरि सरणा ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरु मिलै त दुबिधा भागै ॥ कमलु बिगासि मनु हरि प्रभ लागै ॥ जीवतु मरै महा रसु आगै ॥२॥ सतिगुरि मिलिऐ सच संजमि सूचा ॥ गुर की पउड़ी ऊचो ऊचा ॥ करमि मिलै जम का भउ मूचा ॥३॥ गुरि मिलिऐ मिलि अंकि समाइआ ॥ करि किरपा घरु महलु दिखाइआ ॥ नानक हउमै मारि मिलाइआ ॥४॥९॥ {पन्ना 153} शब्दार्थ: सु मरणु = वह मौत, (विकारों की ओर से) वह मौत। मरणु दिखाऐ = विकारों की ओर से मौत दिखा देता है, विकारों की ओर से मौत जिंदगी के तजरबे में ला देता है। मरणु रसु = (जिस) मौत का आनंद, विकारों की ओर से जिस मौत का आनंद। अंतरि = हृदय में। भाऐ = प्यारा लगता है। गरबु = अहंकार, (धरती के पदार्थों का) अहंकार। गगन पुर = आकाश का शहर, वह शहर जहाँ सुरति आकाश में चढ़ी रहे, वह आत्मिक अवस्था जहाँ सुरति ऊँची आत्मिक उड़ान लगाती रहे।1। मरणु = मौत, शरीर की मौत। नही रहणा = शारीरिक तौर पर सदा टिके नहीं रहना। जपि = जप के सिमर के। जापि = जाप करके। रहणु = रिहाइश, सदीवी आत्मिक जीवन, सदा की रहाइश।1। रहाउ। दुबिधा = दुचिक्तापन, मेर तेर। कमलु = हृदय का कमल फूल। बिगासि = खिल के। जीवतु = जीवित ही, दुनिया के कार व्यवहार करते हुए ही। मरै = माया के मोह की ओर से मरे (निर्मोही)। आगै = सामने, प्रत्यक्ष।2। सतिगुरि मिलिअै = अगर सतिगुरू मिल जाए। सच संजमि = सत्य के संयम में (रह के)। सूचा = पवित्र। पउड़ी = सिमरन रूपी सीढ़ी। ऊचो ऊची = ऊँचा ही ऊँचा। करमि = प्रभू की मेहर से। मूचा = समाप्त हो जाता है।3। मिलि = (प्रभू की याद में) मिल के, जुड़ के। अंकि = प्रभू के अंक में, प्रभू के चरणों में। महलु = प्रभू का निवास स्थान, वह अवस्था जहां प्रभू का मिलाप हो जाए। मारि = मार के।4। सरलार्थ: (हे भाई! सारे जीव शारीरिक) मौत रूपी हुकम (प्रभू की हजूरी में से) लिखा के पैदा होते हैं। (भाव, यही ईश्वरीय नियम है कि जो पैदा होता है उसने मरना भी जरूर है)। सो, यहां शारीरिक तौर पर किसी ने सदा नहीं टिके रहना। (हां) प्रभू की सिफत सालाह करके, प्रभू की शरण में रह के सदीवी आत्मिक जीवन मिल जाता है।1। रहाउ। जिस मनुष्य को गुरू मिल जाता है उसे वह मौत दिखा देता है (उसकी जीवनशैली में विकारों की मौत हो जाती है) जिस मौत का आनंद (और उससे पैदा हुए) चिरंकाल का आत्मिक जीवन आनंद उस मनुष्य को अपने हृदय में प्यारा लगने लगता है। वह मनुष्य (शरीर आदि का) अहंकार दूर करके वह आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है जहाँ सुरति ऊँची उड़ाने लगाती रहे।1। अगर सतिगुरू मिल जाए, तो मनुष्य की दुबिधा दूर हो जाती है। हृदय का कमल फूल खिल के उसका मन प्रभू के चरणों में जुड़ा रहता है। मनुष्य दुनिया की किर्त-कार करता हुआ भी माया के मोह से ऊँचा रहता है। उसे प्रत्यक्ष तौर पर परमात्मा के सिमरन का महा आनंद अनुभव होता है।2। अगर गुरू मिल जाए, तो मनुष्य सिमरन की जुगति में रह कर पवित्र आत्मा बन जाता है। गुरू की बताई हुई सीढ़ी के सहारे (आत्मिक जीवन में) ऊँचा ही ऊँचा होता जाता है। (पर, ये सिमरन प्रभू की) मेहर से मिलता है, (जिसे मिलता है उसका) मौत का डर उतर जाता है।3। अगर गुरू मिल जाए तो मनुष्य प्रभू की याद में जुड़ के प्रभू के चरणों में लीन हुआ रहता है। गुरू मेहर करके उसे वह आत्मिक अवस्था दिखा देता है जहां प्रभू का मिलाप हुआ रहे। हे नानक! उस मनुष्य के अहम् को दूर करके गुरू उसको प्रभू से एक-मेक कर देता है।4।9। |
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