श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 107 माझ महला ५ ॥ कीनी दइआ गोपाल गुसाई ॥ गुर के चरण वसे मन माही ॥ अंगीकारु कीआ तिनि करतै दुख का डेरा ढाहिआ जीउ ॥१॥ मनि तनि वसिआ सचा सोई ॥ बिखड़ा थानु न दिसै कोई ॥ दूत दुसमण सभि सजण होए एको सुआमी आहिआ जीउ ॥२॥ जो किछु करे सु आपे आपै ॥ बुधि सिआणप किछू न जापै ॥ आपणिआ संता नो आपि सहाई प्रभि भरम भुलावा लाहिआ जीउ ॥३॥ चरण कमल जन का आधारो ॥ आठ पहर राम नामु वापारो ॥ सहज अनंद गावहि गुण गोविंद प्रभ नानक सरब समाहिआ जीउ ॥४॥३६॥४३॥ {पन्ना 107} शब्दार्थ: माही = में। अंगीकार कीआ = (अंगी+कृ to accept) परवान कर लिया है। तिनि = उसने। तिनि करतै = उस करतार ने। ढाहिआ = गिरा दिया।1। मनि = मन में। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। बिखड़ा = मुश्किल। दूत = दोखी। सभि = सारे। आहिआ = प्यारा लगा।2। आपे = स्वयं ही। आपो = आपे से। जापै = दिखती। नो = को। प्रभि = प्रभू ने। भुलावा = भुलेखा।3। आधारो = आधार, आसरा। वापारो = व्यापार,वणज। गावहि = गाते हैं। समाहिआ = व्यापक है।4। सरलार्थ: सृष्टि के पालणहार! सृष्टि के पति प्रभू ने (जिस मनुष्य पर) मेहर की, उसके मन में गुरू के चरण बस गए। (उस को) उस करतार ने परवान कर लिया (अपना बना लिया, और उसके अंदर से करतार ने) दुख का अड्डा ही उठवा दिया।1। जिस मनुष्य के मन में, शरीर में वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा बस जाए, उसको (जीवन सफर में) कोई जगह मुश्किल नहीं दिखती। जिसका प्यार प्रभू मालिक के साथ बन जाए, सारे दोखी दुश्मन उसके सज्जन मित्र बन जाते हैं (कामादिक वैरी उसके अधीन हो जाते हैं)।2। जिस मनुष्य के मन में से प्रभू ने भटकना व भुलेखा दूर कर दिया, (उसे यह निश्चय हो जाता है कि) जो कुछ प्रभू करता है स्वयं ही अपने आप से करता है (उसके कामों में किसी और की) अक्ल या चतुराई (काम करती) नहीं दिखती। अपने संतों वास्ते प्रभू खुद सहायक बनता है।3। हे नानक! प्रभू के सुंदर चरण प्रभू के सेवकों की जिंदगी का आसरा बन जाते हैं। सेवक आठों पहर परमात्मा के नाम का व्यापार करते हैं। सेवक आत्मिक अडोलता का आनंद (लेते हुए सदैव) उस गोबिंद प्रभू के गुण गाते हैं जो सब जीवों में व्यापक है।4।36।43। माझ महला ५ ॥ सो सचु मंदरु जितु सचु धिआईऐ ॥ सो रिदा सुहेला जितु हरि गुण गाईऐ ॥ सा धरति सुहावी जितु वसहि हरि जन सचे नाम विटहु कुरबाणो जीउ ॥१॥ सचु वडाई कीम न पाई ॥ कुदरति करमु न कहणा जाई ॥ धिआइ धिआइ जीवहि जन तेरे सचु सबदु मनि माणो जीउ ॥२॥ सचु सालाहणु वडभागी पाईऐ ॥ गुर परसादी हरि गुण गाईऐ ॥ रंगि रते तेरै तुधु भावहि सचु नामु नीसाणो जीउ ॥३॥ सचे अंतु न जाणै कोई ॥ थानि थनंतरि सचा सोई ॥ नानक सचु धिआईऐ सद ही अंतरजामी जाणो जीउ ॥४॥३७॥४४॥ {पन्ना 107} शब्दार्थ: सचु = सदा स्थिर, अटल। मंदरु = देव स्थान। जितु = जिस में। रिदा = हृदय। सुहेला = सुखी। गाईअै = गाएं। सा = (‘सा’ स्त्रीलिंग है, ‘सो’ पुलिंग है) वह। सुहावी = सुख देने वाली, सुहानी। विटहु = में से। कुरबाणो = कुर्बान।1। कीम = कीमत। करमु = बख्शिश। जीवहि = जीते हैं, आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। मनि = मन में। माणो = माण, आसरा।2। रंगि = प्रेम में। तेरै रंगि = तेरे प्रेम में। तुधु = तुझे। नीसाणों = निशान, परवाना।3। सचे अंतु = सदा स्थिर प्रभू का अंत। थानि थनंतरि = हरेक जगह में। जाणो = जानकार, सुजान।4। सरलार्थ: (हे भाई!) जिस जगह में सदा स्थिर परमात्मा का सिमरन किया जाता है, वह सदा कायम रहने वाला मंदिर है। वह हृदय (सदा) सुखी है जिसके द्वारा परमात्मा के गुण गाए जाएं। वह धरती सुंदर बन जाती हैजिसमें परमात्मा के भगत बसते हैं, और परमात्मा के नाम से सदके जाते हैं।1। (हे प्रभू!) तू सदा स्थिर रहने वाला है। तेरी बुजुर्गी का कोई जीव मुल्य नहीं डाल सकता। (अर्थात, तेरे जितना बड़ा और कोई नहीं है)। तेरी कुदरति बयान नहीं की जा सकती। तेरे भगत तेरा नाम सिमर सिमर के आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। उनके मन में तेरा सदा स्थिर (सिफत-सालाह का) शबद ही आसरा है।2। (हे प्रभू!) तू सदा कायम रहने वाला है। तेरी सिफत सलाह बड़े भाग्यों के साथ मिलती है। हे हरी! तेरे गुण गुरू की कृपा से गाए जा सकते हैं। हे प्रभू! तूझे वह सेवक प्यारे लगते हैं जो तेरे प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। उनके पास तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम (जीवन सफर में) राहदारी है।3। (हे भाई!) सदा कायम रहने वाले परमात्मा के गुणों का कोई मनुष्य अंत नहीं जान सकता। वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभू हरेक जगह में बस रहा है। हे नानक! उस सदा स्थिर प्रभू को सदा ही सिमरना चाहिए। वह सुजान है और हरेक के दिल की जानने वाला है।4।37।44। माझ महला ५ ॥ रैणि सुहावड़ी दिनसु सुहेला ॥ जपि अम्रित नामु संतसंगि मेला ॥ घड़ी मूरत सिमरत पल वंञहि जीवणु सफलु तिथाई जीउ ॥१॥ सिमरत नामु दोख सभि लाथे ॥ अंतरि बाहरि हरि प्रभु साथे ॥ भै भउ भरमु खोइआ गुरि पूरै देखा सभनी जाई जीउ ॥२॥ प्रभु समरथु वड ऊच अपारा ॥ नउ निधि नामु भरे भंडारा ॥ आदि अंति मधि प्रभु सोई दूजा लवै न लाई जीउ ॥३॥ करि किरपा मेरे दीन दइआला ॥ जाचिकु जाचै साध रवाला ॥ देहि दानु नानकु जनु मागै सदा सदा हरि धिआई जीउ ॥४॥३८॥४५॥ {पन्ना 107} शब्दार्थ: सुहावड़ी = सुख देने वाली, सुहानी। सुहेला = आसान। जपि = जप के। अंम्रित = आत्मिक मौत से बचाने वाला। संगि = संग में। मूरत = महूरत, दो घड़ीयां। वंञहि = (इसमें ‘ञ’ का उच्चारण ‘अं’ और ‘ज’ के बीच में करना है) बीतना। तिथाई = वहीं।1। दोख = पाप। सभि = सारे। भै = प्रभू का डर दिल में रखने से, भउ के कारण। भरमु = भटकना। गुरि पूरै = पूरे गुरू के द्वारा। देखा = देखूँ, मैं देखता हूँ। जीई = जगह।2। नउनिधि = नौ खजाने। आदि = शुरू में। अंति = आखिर मे। महि = बीच में। न लाई = मैं नहीं लगाता। लवै = बराबर। लवै न लाई = मैं बराबर नहीं समझता।3। जाचिकु = मंगता। जाचै = मांगता है। रवाला = चरण धूड़। साध = गुरू। जनु = दास। नानकु मागै = नानक मांगता है। धिआई = मैं ध्याता हूँ।4। सरलार्थ: (अगर) संतों की संगति में मेल (हो जाए तो वहाँ) आत्मिक मौत से बचाने वाले हरी नाम को जप के रात सुहानी बीतती है। दिन भी आसान हो गुजरता है। जहाँ उम्र की घड़ीआं दो घड़ीआं पल परमात्मा का नाम सिमरते हुए व्यतीत हो वहीं जीवन (का समय) सफल होता है।1। परमातमा का नाम सिमरने से सारे पाप उतर जाते हैं। जीव के हृदय में और बाहर जगत में परमात्मा (हर समय) साथ (बसता प्रतीत) होता है। परमात्मा काडर अदब दिल में रखने के कारण पूरे गुरू ने मेरा दुनिया वाला डर समाप्त कर दिया है। अब मैं परमात्मा को सब जगहों पे देखता हूँ।2। प्रभू सब ताकतों वाला है। सबसे बड़ा ऊँचा है, और बेअंत है। उसका नाम (मानो, जगत के) नौं ही खजाने है, (नाम धन से उस प्रभू के) खजाने भरे पड़े हैं। (संसार रचना के) शुरू में प्रभू स्वयं ही स्वयं था (दुनिया के) अंत में भी प्रभू स्वयं ही स्वयं होगा (अब संसार रचना के) मध्य में प्रभू स्वयं ही स्वयं है। मैं किसी और को बराबर का नहीं समझ सकता।3। हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभू! (मेरे पर) कृपा कर। (तेरा ये) मंगता (तुझसे) गुरू के चरणों की धूड़ मांगता हूँ। (तेरा) दास नानक (तुझसे) मांगता है (कि ये) दान दे कि मैं, हे हरी! सदा सदा ही (तुझे) सिमरता रहूँ।4।38।45। माझ महला ५ ॥ ऐथै तूंहै आगै आपे ॥ जीअ जंत्र सभि तेरे थापे ॥ तुधु बिनु अवरु न कोई करते मै धर ओट तुमारी जीउ ॥१॥ रसना जपि जपि जीवै सुआमी ॥ पारब्रहम प्रभ अंतरजामी ॥ जिनि सेविआ तिन ही सुखु पाइआ सो जनमु न जूऐ हारी जीउ ॥२॥ नामु अवखधु जिनि जन तेरै पाइआ ॥ जनम जनम का रोगु गवाइआ ॥ हरि कीरतनु गावहु दिनु राती सफल एहा है कारी जीउ ॥३॥ द्रिसटि धारि अपना दासु सवारिआ ॥ घट घट अंतरि पारब्रहमु नमसकारिआ ॥ इकसु विणु होरु दूजा नाही बाबा नानक इह मति सारी जीउ ॥४॥३९॥४६॥ {पन्ना 107-108} शब्दार्थ: अैथै = इस लोक में। आगै = परलोक में। आपे = (तू) स्वयं ही। सभि = सारे। थापे = पैदा किए हुए। करते = हे करतार! धर = आसरा। ओट = सहारा।1। रसना = जीभ (से)। जपि जपि = बार बार जप के। जीवै = (मनुष्य) आत्मिक जीवन हासिल करता है। प्रभू = हे प्रभू! अंतरजामी = हे सबके दिलों की जानने वाले। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिन ही = उसने ही (शब्द ‘तिनि’ के ‘न’ अक्षर से ‘ि’ की मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण नहीं लगी है और ‘ही’ लगने के कारण शब्द बन गया ‘तिन’)। जूअै = जूए के खेल में। हारी = हारता है।2। अवखदु = दवा। जिनि = जिस ने। जनि = जन ने। जिनि जनि तेरै = तेरे जिस दास ने। कारी = कार।3। द्रिसटी = दृष्टि, मेहर की नजर। धारि = धार के, धारण करके। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। बाबा = हे भाई! नानक = हे नानक! सारी = श्रेष्ठ।4। सरलार्थ: हे करतार! इस लोक में मेरा तू ही सहारा है, और परलोक में भी मेरा तू स्वयं ही आसरा है। सारे ही जीव जन्तु तेरे ही सहारे हैं। हे करतार तेरे बिना मुझे कोई और (सहायक) नहीं (दिखता)। मुझे तेरी ही ओट है तेरा ही आसरा है।1। हे स्वामी! हे पारब्रहम! हे अंतरयामी प्रभू! (तेरा सेवक तेरा नाम अपनी) जीभ से जप जप के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। जिस मनुष्य ने तेरी सेवा भक्ति की उसने ही आत्मिक आनंद हासिल किया। वह मनुष्य अपना मानस जनम व्यर्थ नहीं गवाता (जैसेकि जुआरिया जूए में अपना सब कुछ हार जाता है)।2। (हे प्रभू!) तेरे जिस सेवक ने तेरा नाम (-रूप) दवा ढूँढ ली, उसने कई जन्मों (के विकारों) का रोग (उस दवा के साथ) दूर कर लिया। (हे भाई!) रात दिन परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गाते रहो, यही कार लाभदायक है।3। (प्रभू ने जो) अपना सेवक (अपनी) मेहर की निगाह करके सदकर्मों वाले जीवन वाला बना दिया, उसने हरेक शरीर में उस परमात्मा को (देख के हरेक के आगे) अपना सिर निवाया (भाव, हरेक के साथ प्रेम प्यार वाला बरताव किया)। हे नानक! (कह–) हे भाई! एक परमात्मा के बिना और कोई (उस जैसा) नहीं है– यही सबसे श्रेष्ठ सूझ है।4।39।46। |
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धन्यवाद! |