श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 63

सिरीरागु महला १ ॥ डूंगरु देखि डरावणो पेईअड़ै डरीआसु ॥ ऊचउ परबतु गाखड़ो ना पउड़ी तितु तासु ॥ गुरमुखि अंतरि जाणिआ गुरि मेली तरीआसु ॥१॥ भाई रे भवजलु बिखमु डरांउ ॥ पूरा सतिगुरु रसि मिलै गुरु तारे हरि नाउ ॥१॥ रहाउ ॥ चला चला जे करी जाणा चलणहारु ॥ जो आइआ सो चलसी अमरु सु गुरु करतारु ॥ भी सचा सालाहणा सचै थानि पिआरु ॥२॥ दर घर महला सोहणे पके कोट हजार ॥ हसती घोड़े पाखरे लसकर लख अपार ॥ किस ही नालि न चलिआ खपि खपि मुए असार ॥३॥ सुइना रुपा संचीऐ मालु जालु जंजालु ॥ सभ जग महि दोही फेरीऐ बिनु नावै सिरि कालु ॥ पिंडु पड़ै जीउ खेलसी बदफैली किआ हालु ॥४॥ पुता देखि विगसीऐ नारी सेज भतार ॥ चोआ चंदनु लाईऐ कापड़ु रूपु सीगारु ॥ खेहू खेह रलाईऐ छोडि चलै घर बारु ॥५॥ महर मलूक कहाईऐ राजा राउ कि खानु ॥ चउधरी राउ सदाईऐ जलि बलीऐ अभिमान ॥ मनमुखि नामु विसारिआ जिउ डवि दधा कानु ॥६॥ हउमै करि करि जाइसी जो आइआ जग माहि ॥ सभु जगु काजल कोठड़ी तनु मनु देह सुआहि ॥ गुरि राखे से निरमले सबदि निवारी भाहि ॥७॥ नानक तरीऐ सचि नामि सिरि साहा पातिसाहु ॥ मै हरि नामु न वीसरै हरि नामु रतनु वेसाहु ॥ मनमुख भउजलि पचि मुए गुरमुखि तरे अथाहु ॥८॥१६॥ {पन्ना 63-64}

उच्चारण: सिरीरागु महला १॥ डूंगरु देख डरावणो पेईअड़ै डरीआस॥ ऊचउ परबत गाखड़ो ना पउड़ी तित तास॥ गुरमुख अंतर जाणिआं गुरि मेली तरीआस॥१॥ भाई रे, भवजल बिखम डरांउ॥ पूरा सतिगुरु रस मिलै गुरु तारे हरि नाउ॥१॥ रहाउ॥ चला चला जे करी जाणा चलणहार॥ जो आयआ सो चलसी अमर सु गुरु करतार॥ भी सचा सालाहणा सचै थान पिआर॥२॥ दर घर महला सोहणे पके कोट हजार॥ हसती घोड़े पाखरे लसकर लख अपार॥ किस ही नाल न चलिआं खप खप मुए असार॥३॥ सुइना रुपा संचीअै माल जाल जंजाल॥ सभ जग महि दोही फेरीअै बिन नावै सिर काल॥ पिंड पड़ै जीउ खेलसी बदफैली किआ हाल॥४॥ पुता देख विगसीअै नारी सेज भतार॥ चोआ चंदन लाईअै कापड़ रूप सीगार॥ खेहू खेह रलाईअै छोड चलै घर बार॥५॥ महर मलूक कहाईअै राजा राउ कि खान॥ चउधरी राउ सदाईअै जलि बलीअै अभिमान॥ मनमुख नाम विसारिआ जिउ डवि दधा कान॥६॥ हउमै कर कर जाइसी जो आयआ जग माहि॥ सभ जग काजल कोठड़ी तन मन देह सुआहि॥ गुरि राखे से निरमले सबद निवारी भाहि॥७॥ नानक तरीअै सचि नाम सिरि साहा पातिसाहु॥ मै हरि नाम न वीसरै हरि नाम रतन वेसाहु॥ मनमुख भउजलि पचि मूए गुरमुख तरे अथाह॥८॥१६॥

शब्दार्थ: डूंगरु = पहाड़। पेईअड़ै = पेके घर में। गाखड़े = कठिन। तितु = उस में। तासु = तस्य, उसकी। गुरि = गुरु ने।1।

भवजलु = संसार समुंद्र। बिखमु = मुश्किल। डराउ = डरावणा। रसि = आनंद से।1। रहाउ।

चला = चलूं। अमर = मौत रहित। भी = तो। सचै थानि = सॅचे स्थान में, सत्संग में।2।

कोट = किले। हसती = हाथी। पाखरे = काठीआं। असार = जिनको सार नहीं, बेसमझ।3।

संचीअै = एकत्र करें। दोही = दुहाई, ढंढोरा। सिरि = सिर पर। खेलसी = खेल खेल जाएगा, खेल खत्म कर जाएगा। पिंडु = सरीर। पड़ै = गिर जाता है। बदफैली = विकारी।4।

विगसीअै = खुश होते हैं। चोआ = इत्र। खेह = मिट्टी। घर बारु = घर का सामान।5।

महर = चौधरी, सरदार। मलूक = बादशाह। राउ = राजा। कि = अथवा। डवि = दावानल, जंगल की आग से। दॅधा = जला हुआ। कानु = तिनका।6।

देहि = सरीर। गुरि = गुरू ने। सबदि = शबद के द्वारा। भाहि = आग, तृष्णा।7।

वेसाहु = पूँजी। सिरि साहा = शाहों के सिर पर। पचि = खुआर हो के। अथाहु = जिसकी गहराई ना मिल सके।8।

सरलार्थ: हे भाई! ये संसार समुंदर बड़ा डरावणा है और (तैरना) मुश्किल है। जिस मनुष्य को पूरा गुरू प्रेम से मिलता है उसको वह गुरू परमात्मा का नाम दे के (इस समुंदर में से) पार लंघा लेता है।1। रहाउ।

(एक तरफ संसार समुंदर है, दूसरी तरफ, इस में से पार लांघने के लिए गुरमुखों वाला रास्ता है। पर आत्मिक जीवन वाला वह रास्ता पहाड़ी रास्ता है। आत्मिक जीवन के शिखर पर पहुँचना, मानो एक बड़े ऊँचे डरावने पहाड़ पर चढ़ने के समान है। उस) डरावने पहाड़ को देख के पेके घर में (माँ-बाप भाई बहन आदि के मोह में ग्रसित जीव स्त्री) डर गई (कि इस पहाड़ पर चढ़ा नहीं जा सकता, जगत का मोह दूर नहीं किया जा सकता, स्वै को न्यौछावर नहीं किया जा सकता)। (आत्मिक जीवन के शिखर पे पहुँचना, मानों) बहुत ऊंचा और मुश्किल पर्वत है; उस पर्वत पर चढ़ने के लिए उस (जीव स्त्री) के पास कोई सीढ़ी भी नहीं है।

गुरू के सन्मुख रहने वाली जिस जीव स्त्री को गुरू ने (प्रभू चरणों में) मिला लिया, उसने अपने अंदर ही बसते प्रभू को पहिचान लिया। और, वह इस संसार समुंद्र से पार लांघ गई।1।

अगर मैं सदा याद रखूं कि मैंने जगत में से जरूर चले जाना है। यदि मैं समझ लूं कि सारा जगत ही चले जाने वाला है। जगत में जो भी आया है, वह आखिर चला जाएगा। मौत-रहित एक गुरू परमात्मा ही है, तो फिर सत्संग में (प्रभू चरणों के साथ) प्यार डाल के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की सिफत सलाह करनी चाहिए (बस! यही है संसार समुंदर के विकारों भारी लहरों से बचने का तरीका)।2।

सुंदर दरवाजों वाले सुंदर घर व महल, हजारों पक्के किले, हाथी घोड़े, काठियां, लाखों तथा बेअंत लशकर- इनमें कोई भी किसी के साथ नहीं गए। बेसमझ ऐसे ही खप खप के आत्मिक मौत मरते रहे (इनकी खातिर आत्मिक जीवन गवा गए)।3।

अगर सोना-चाँदी इकट्ठा करते जाएं, तो यह माल धन (जीवात्मा को मोह में फंसाने के लिए) जाल बनता है, फांसी बनता है। यदि अपनी ताकत की दुहाई सारे जगत में फिरा सकें, तो भी परमात्मा का नाम सिमरन के बिनां सिर पर मौत का डर (कायम रहता) है। जब जीवात्मा जिंदगी की खेल खेल जाती है और शरीर (मिट्टी हो के) गिर पड़ता है, तब (धन पदार्थ की खातिर) गंदे काम करने वालों का बुरा हाल होता है।4।

पिता (अपने) पुत्रों को देख के खुश होता है। पति (अपनी) सेज पर स्त्री को देख कर प्रसन्न होता है। (इस शरीर को) इत्र व चंदन लगाते हैं। सुंदर कपड़ा, रूप, गहना आदि (देख के मन खुश होता है)। पर आखिर में शरीर मिट्टी हो के मिट्टी में मिल जाता है, और गुमान करने वाला जीव घर बार छोड़ के (संसार से) चला जाता है।5।

सरदार, बादशाह, राजा, राव औा खान कहलवाते हैं। (अपने आप को) चौधरी, राय (साहिब आदि) बुलवाते हैं। (इस बड़प्पन के) अहंकार में जल मरते हैं (यदि कोई पूरा मान आदर ना करे)। (पर इतना कुछ होते हुए भी) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने परमात्मा का नाम भुला दिया, और (और ऐसे बताया) जैसे जंगल की आग में जला हुआ तिनका है (बाहर से चमकदार, अंदर से काला स्याह)।6।

जगत में जो भी आया है, “मैं बड़ा मैं बड़ा” कह कह के आखिर यहां से चला जाएगा। ये सारा जगत काजल की कोठरी (के समान) है (जो भी इसके मोह में फंसता है, उसका) तन मन शरीर राख में मिल जाता है। गुरू ने अपने शबद के द्वारा, जिनकी तृष्णा आग दूर कर दी, वह (इस काजल कोठड़ी में) साफ-सुथरे ही रहे।7।

जो परमात्मा सभी शाहों के ऊपर बादशाह है, उसके सदा स्थिर नाम में जुड़ के (इस संसार समुंद्र में से) पार लंघते हैं। हे नानक! (अरदास करके कह) मुझे परमात्मा का नाम कभी ना भूले। परमात्मा का नाम रतन नाम पूँजी (मेरे पास सदा स्थिर रहे)। अपने मन के पीछे चलने वाले लोग संसार समुंदर में खप खप के आत्मिक मौत मरते हैं, और गुरू के सन्मुख रहने वाले इस बेअंत गहरे समुंदर को पार कर जाते हैं (वह विकारों की लहरों में नहीं डूबते)।8।16।

ऊपर जाएँ!

धन्यवाद!